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अध्यात्म- विचार
भेखधारी है तैसेंही वहां पर नही कुछ भूख के प्यास है क्योंकि वहांतो बिन बादल ज्ञानरूपी अमृतकी वृष्टि हो|
निको जीतसंग्रह | रही हैं. ॥१॥ अथ पंचमहाभूतके विषे
साखी-पांच भूतका पूतला । मनुष्य धरिया नाम ॥ दायदिनांके कारण । क्यु धरावै नाम ॥१॥
भावार्थ:-पृथ्वी अप्प तेऊ वायु और आकाश ऐसें पांचभूतका बना हुआ यह शरीररूपी पूतला है जिसमें हे भव्य तेने दो दिन विश्रामा लिया है इस शरीररूपी पुतलेका कल्पना करके मनुन्य पुरुष नर और अमरचन्दजी हुकमचन्दजी आदि नाना प्रकारमें पुतलाके नाम रखे हैं फेर मनुष्य स्त्री देव नारक तीर्यश्च आदि नाम रखे है जिस पुतलेमें तुं जडरूप बनके क्या मान घमंड रखता है लेकिन तेरा स्वरूप इस पुतलेसें सदा भिन्न है इत्यर्थः
गाथा-गये सोतो ना मिले । किसको कहुं वात ॥ मात पिता सुन बांधवा । झूठा सब संसार ॥१॥
भावार्थः -मात तात सुत बंधु आदि जो संबंधी थे वहतो सब लम्बे देशकों चले गये वह कभी पीछे आने वाले नहीं है नहीं कुछ मालुम कि वह सुखी है नही कुछ उन्होंका खत पत्र तार और समाचार है कि वह सब अमुक देश विलायतमें रहता है नहि कुछ मालुम कि वह सुखी है कि दुःखी है इस लिये गुरुकृपासे ऐसा मालुम होता है कि मात तात स्त्री पुत्र धन आदिका सर्व प्रपंच झुठ इंद्रजालके समान दिखलाता है.
गाथा-क्या स्वार्थ किया आयके । क्याकरोगे जाय ॥ इतके भये न उतके भये । चलेमूल सब खोय ॥१॥ भावार्थ:--हे आत्मभाइयों तुमने संसारमें आयकर क्या सुकृत किया और यहांसे पीछे जाकर क्या करोगे
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