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अध्यात्मविचार
भावार्थ:-जो मोक्षगामी उत्तम जीवा होते हैं उन्होंको सदा अपने आत्मकल्याणकें लियेही चिन्ता रहती है और
जीतसंग्रह जो मध्यम पुरुष होते हैं उन्होको मोहसे सदा स्त्री पुत्र धन कुटुम्ब परिवार आदिकी तथा संयोग वियोग मान अपमान यश कीरती शत्रु मित्र आदिसे नाना प्रकारकी चिन्ता बनीही रहती हैं और जो अधम पुरुष होते है उन्होंको सदैव काम भोगकी चिंता बनी रहती है और जो अधमसें भी अधम पुरुष होते हैं उन्होंको सदा परके लियेही चिंता बनी रहतीही हैं वार्टजी आजकल दुब्ले क्युं परचिन्तासे ॥ ४ ॥ मूल--निर्विकल्पसमुत्पन्न । ज्ञानामृतपयोधरं ॥ विवेकमंजली कृत्वा । तं पिबन्तितपस्विनः ॥५॥
शब्दार्थ:-(तपस्विनः) महायोगी तपस्वी पुरुषोही (विवेक मंजली कृतव) विवेकरूपी अंजली करके [निर्विकल्प समुत्पन्नं) निर्विकल्प समाधिसे उत्पन्न हुए (ज्ञानामृतपयोधरं) ज्ञानरूपी अमृतको (पिबन्ति) पीते है अर्थात् पान करतें हैं, भावार्थ निर्विकल्प समाधिसे उत्पन्न भई हुए अनुभव ज्ञानरूपी अमृतकी धाराके रसको कोई विरले योगी ३६ तपस्वी महापुरुषही पान करने वाले होते हैं अर्थात् आत्म समाधिसे उत्पन्न हुए अमृतको कोय योगीराज विवेकरूपी अंजली करके पीते हैं ॥ ५ ॥
मूल--सदानंद मयं जीवं । या जानाति स पडितः ॥ ससेवते निजात्मानं । सुसर्वानंदकारणं ॥६॥ शब्दार्थ-(सदानंदमयं) सदा आनंदमय (जीव) जीवात्माको (यो) जो (जानाति) जानते हैं अर्थात् अनंत ज्ञान
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