Book Title: Adhyatmavichar Jeet Sangraha
Author(s): Jitmuni, 
Publisher: Pannibai Upashray Aradhak Bikaner

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Page 97
________________ अध्यात्मविचार कहा है, आत्माको भावार्थ आत्मा सदा याने आत्मा अनादिकालसे निश्चय करके द्रव्यकर्म ज्ञानावरणी आदि अष्टकर्मोसे रहित है तैसे ही भावकर्म रागद्वेष और नोकर्म पाँचूं शरीर इस सर्व कर्मोसे आत्मा रहित है ऐसा सर्वज्ञने कहा है ॥ ८ ॥ पुनः कैसा है। मुल -- अनंतब्रह्मणोरूपं । निजदेहव्यवस्थितं ॥ ज्ञानहिना न पश्यन्ति । जात्यंधा इव भास्करं ॥ ९ ॥ श॰—–[निजदेहेव्यवस्थितं] अपने निज देहमें सदा स्थिरिभूत रहाहुआ वह कैसा है मानु [अनंनब्रह्मणोरूपं ] अंतर रहित अनंत ज्ञानमये ब्रह्मस्वरूपी आत्म स्वरुपको [नपश्यन्ति ] नही देख शकते [ज्ञानदिना ] ज्ञानसे रहित जीवों [इव] जैसे ( जात्यंधा) जन्मसे अंधे पुरुष (भास्कर) सूर्यके तेजको नही देख शकते है तैसे अज्ञानी जीवों अपने देहके अन्दर रहे हुए अनंत ज्ञानमयी ब्रह्मस्वरूपी आत्माको नही देख शकते भावार्थ:- अपने देहरूपी कीलेमें रहने पर भी अनंत ज्ञानमयी स्वआत्म स्वरूपको अज्ञानी जीवों नही देख शकते जैसे सूर्यको जाति अंध पुरुषवत् ९ मूल-यत्यानं क्रियते भव्ये । येनकर्मविलीयते ॥ तत्क्षणं दृश्यते शुद्धं । चितचमत्कारदर्शनं ॥ १० ॥ श० - (भव्यैः) भव्य जीवोंको सदैव (तत्ध्यानंक्रियते) वही आत्म ध्यान करना चाहिये ( चैन) जिससे [कर्मविलीयते] सर्वकर्म विलाये जाय अर्थात् जिस आत्मध्यानसें सर्वकर्म भस्मीभूत होकर एक पलमें उडजावे और ferent भारी चमत्कार उत्पन्न होवे और (तत्क्षण) उसी समे उसी क्षण में (दृश्यते शुद्ध) शुद्ध स्वरूप दिखलाई Jain Education International For Personal & Private Use Only जीतसंग्रह www.nelibrary.org

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