Book Title: Adhyatmavichar Jeet Sangraha
Author(s): Jitmuni, 
Publisher: Pannibai Upashray Aradhak Bikaner

View full book text
Previous | Next

Page 96
________________ अध्यात्मविचार जीतसंग्रह ॥४७॥ -लीत कबी ADMIN 'मय अपने आत्मस्वरूपको जो महा पुरुष जानते हैं (स) वही (पंडितः) पंडित वही ज्ञानी वही ध्यान वही सर्व सूत्र सिद्धांतक पारगामी ज्ञाता है वाकी तो पाथों के पंडित शुकपाठी जैसे समझी थे (सुसर्वानंदकारणं) वही आत्मज्ञान सवथा [परमानंद] परम आनंदके लिये कारणभूत हैं [निजात्मानं] इस लिये योगो पुरुषों अपने स्वआत्माकोही (सेवत) सेवन करत है, भावार्थ-निश्चयसे आत्मा सदा परमआनंदमय और अनंत ज्ञान अनंत सुखमय है ऐसा जो महापुरुष अपने आत्मस्वरूपको जानते हैं वही पंडित है वह महापुरुष अपने कल्याणके लिये स्वआत्माकोही सेवते है।६ मूल-नलिनं च यथा नोरं । भिन्नतिष्टति सर्वदा ॥ अयमात्मा स्वभावेन । देहे तिष्टति सर्वदा ॥७॥ शब्दार्थ-[नलिनं च कमल [यथा जैसे (निरात्) जलसे (सर्वदा) सर्वथा [भिन्न तिष्टति भिन्न याने अलग | रहते है तेसे (अयमात्मा) यह आत्मा (स्वभावेन) अपने स्वभावसही (देहेतिष्टति) इस देहमें रहा हुआ है. भावार्थ जैसे कमल पुष्प अपने स्वभावसेही जल में रहनेपरभी जलसे सदा भिन्न अलग ही रहते हैं तैसे यह आत्मा अपने सहज स्वभावसेही सदा देहसे अलग देहमें रहा हुआ है ॥७॥ पुनः आत्मद्रव्य कैसा है मानु मूल-द्रव्यकर्मविनिमुक्तं । भावकर्मविवर्जितं ॥ नोकर्मरहितंवेत्ति । निश्चयेनचिदात्मानं ॥८॥ श-निश्चयेन निश्चय करके [चिदात्मानं जो ज्ञानस्वरूपी शुद्ध आत्मा है वह [द्रव्यकर्मविनिर्मुक्तं] द्रव्यकर्मसे सदा मुक्त है और (भावकर्मविवर्जित) भावकर्म सभी वर्जित है नोकर्मरहित] नोकर्मसभी रहित [विति ज्ञानीने in Education For Personal & Private Use Only janeira

Loading...

Page Navigation
1 ... 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122