Book Title: Adhyatmavichar Jeet Sangraha
Author(s): Jitmuni, 
Publisher: Pannibai Upashray Aradhak Bikaner

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Page 88
________________ अध्यात्म विचार ॥ ४३ जर मूर्तिके आगे कहते हैं कि हे प्रभो मुझे तुंहि तार नैं महा अधम पापी हुं हे दीनबंधो अब तो तेराही शरण हैं इस तरहसें दीनपनेसें पोकार करनेपर पुरुषार्थ हीनकों मोक्ष सुखकी प्राप्ति कैंसें होगी लेकिन पुरुषार्थहीन पुरुष ज्ञानरूपी नेत्रको खोलके नही देखते कि बीर परमात्माने वारे वारे वर्षोंतक कितना पुरुषार्थ और कितना कष्ट परिश्रम उठाने पर मोक्षसुख की प्राप्ति हुई हैं कुछ दीनपनेसें नही कल्याण तो जब होगा कि आत्मस्वरूकी पहिचान कर्के वीरपरमात्माकी तरह समत्ता सहित पूर्ण पुरुषार्थ करके कर्मरूपी शत्रुको बालके भस्मीभूत करेगा तबही कल्याण होगा केवल बुगला भक्तिमें परत्माकी मूर्तिके आगे खाली चीलानेसें कल्याण नही हो शक्ता हैं पोल पालकी भक्तिसें. गाथा - भक्ति ऐसी कीजिए | जैसा लंबे खजूर | चढे तो चाखे प्रेमरस | पडे तो चकनाचूर ॥ १ ॥ लोभीलापर लालची । जासुं भक्ति न होय ॥ भक्ति करे कोई सूरमां । धडपर शीश न होय ॥ २ ॥ तलवारकी धारपर खेल करना हैं वह तो सुगम हैं परंतु परमात्माकी जो भक्ति करनी हैं वह तो बहुतही कठिन हैं कितनेक भोले आत्म भाइयों कहते हैं कि हमारा तो आज कल्याणही हो गया लेकिन जब तक आत्मज्ञानका घटके विषे प्रकाश नही होव तब तक कष्टक्रियारूपी सर्व करणी बाललीला धूलीके समानही हैं कभी अकेली द्रव्यक्रिया कष्टसे देवगतिका सुख मिल गया जिसमें कार्यकी सिद्धी क्या हुय गई. गाथा - आत्मातें परच्यो नही । क्या हुआ व्रतधार | शालविना क्षेत्रमां । वृथा बनाई वाड ॥ १ ॥ वास्ते अध्यात्मज्ञान और आत्मध्यान विना माक्ष ( न भूतो न भविष्यति ) केवल ज्ञानियों महाविदेहक्षेत्र से Jain Education International For Personal & Private Use Only الات जीतसंग्रह ॥। ४३ । www.jainlibrary.org

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