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जीनसंग्रह ॥ ४२ ॥
सहय.
Je] प्राणीको सिद्धपदकी प्राप्ति होती है वास्ते वारंवार परम पुरुष परमात्मकाही ध्यान करना चाहिये परंतु क्षणभंगुर पुग-|| अध्यात्म
लीक विषयसुखमें लम्पट होकर अधोगतिमें गमन करके नाना प्रकारके छेदन भेदन मारण ताडमाकी वेदनाका नही विचार ॥४२॥
सहनी पडे ऐसा प्रयत्न प्रथमसेंही करना चाहिये और परमात्माकी खोज कस्तुरीये मृगकी तरह बाहिर में नही होनी चाहिये लेकिन अपने घरके अन्दरही होनी चाहिये.
गाथा-जेम ते भूलोरे मृग दह दिशफिरे । लेवामृगपदगन्ध ॥ तेम जग ढुंढेवाहिर धर्मने । मिथ्यादृष्टिरे अंध ।१।
कितनेक मुग्ध भोले जीवों आत्मदेवकों छोडके जगह २ पर परमात्माके लिये ढुंढते फिरते है लेकिन अपने | घटके विषे जो सोध करेतो अवश्यही परमात्माकी प्राप्ति हो शके परंतु जगत्वामी जडजीवोंकुं कुछ ख्याल नही है अपनी आत्माका स्वरूपही क्या है ?
गाथा-आत्म सो परमात्म । परमात्म सोइ सिद्ध ॥बीचकी दुविधा मिटगइ। प्रगट भइ निज रिद्ध ॥१॥ J में ही सिद्ध परमातमा। में ही आत्मराम ॥में हीज्ञाता ज्ञेयकों। चेतन मेरो नाम ॥२।। में ही अनंत गुण सुखको धगी। JE ते सुख मोहिं सुहाय ॥ अविनाशी आनंदमये । सोहं त्रिभुवनराय ॥३॥ इति चिदानंद वचनात्
वहतो जगत्वासी जडजीवो देखही नही शकते केवल पर्याय दृष्टिसें मुग्ध हुए उपरसें क्रियाकाण्डमें जड हुये संसार चक्रमें फसे हुये झाडके मत्तेकी नाइ कहांही स्थिरीमूत रहनेका पता नही लगता इसलिये हे जड बुद्धि अब पर्याय दृष्टिकों छांडके ज्ञान दृष्टिमें आत्मस्वरूपकों देख दृष्टान्त
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