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अध्यात्मविचार
जीतसंग्रह
तथा सिद्ध भगवान् सिद्ध गतिसें तुमकों तारनेके लिये कभी नहि आने वाले चाहे जितने चिलाओ जैसे सिद्ध परमात्माके विषे अनंते गुणे रहे हये हैं वैसेंही गुण तुमारी आत्माके विषे रहे हुये है सत्तामें वास्ते आत्मस्वगुण प्रगट होनेके लिये पुरुषार्थ होनेकी जरूरत हैं परंतु ग्वाली ले देव चावल ले देव श्रीफल ले देव नैवेद्य ले देव अत्तर बरास ले देव पुष्प इस तरहसे युगला भक्तपनेसें तिलक छापा लगा कर पूजा करने में हमारा कल्याण हो गया ऐसे समजने | वाले जडवुद्धि जीवों भूलेही भ्रमते हैं क्योंकि आत्म उपयोग विना शन्य क्रियासे यथार्थ फलकी प्राप्ति नहीं हो शके क्योंकि क्रियायें कर्म उपयोगे धर्म और प्रणामें बंध कहा है लेकिन ज्ञान बिना बाल चेष्टायों जैसी पूजादिक क्रियायोसें जो मोक्षसुखकी इच्छा रखनी हैं वह तो एक भगी हुई नावमें बैठके समुद्र तरने जैसी हैं यहांपर ऐसा न समझे की द्रव्य पूजादिक क्रियाका निषेध कर दिया है नही २ जो द्रव्यसे हैं वह भावका कारण अवश्यही है क्योंकि कारण बिन कार्यकी सिद्धि नहीं होती तोभी ज्ञानकी मुख्यता है
गाथा-ज्ञान विना व्यवहारको । कहा बनावत नाच ॥ रतन कहो क्यु काचको । अंत काचको काच ॥१॥ क्या कि ज्ञान विना परभाव नहीं छूटे सके कहा है किगाधा-जीव लाग रयो परभावमें । सहज स्वरूप लखै नहि ।। अपनो पडियो मोहजालमै । यांछे मोक्ष करे ।।
नहि करणी डोलत ममता । वाउमें अंधपुरुष जिम ॥ जलनिधि तरवो । बैठो कानी नाउमें ॥२॥ ईसलिये अज्ञानी पुरुषकी जितनी २ करनी और क्रिया है वह भागी हुइ नावके समानही हैं वह करनीरूप |
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