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जीतसंग्रा ॥ ४५ ॥
अध्यात्म-5 कदाग्रहमें भोली जनताको फसाके जैनधर्मको रसातल पहुंचा दिया धर्म शब्द क्या है उनका पूरा अर्थही नहि विचार
समझते यहतो अवश्यही समझते है चेलाचेली मूंडने में और माल उडानेमें पुस्तकों छपाकर द्रव्य इकट्ठा करने में ॥४५॥
J| भारी जाल गुंथते है लेकिन योगसमाधि चीजही क्या है उसकातो मेरे जैसे वेषधारियोंको नामही नही सुहाता
ऐसें गच्छ कदाग्रहमें फसे हुए वनियो क्या योगीराजकी पहीचान करशकते हैं कि योगी है कि भोगी है गच्छ | कदाग्रहीयोंको तो वाडेका धेटा चाहीये.
दोहा-लोकसार अध्ययनमें । समकित मुनिभावे ॥ मुनिभावे जस समकित कह्यो । निजशुद्ध स्वभावे ॥१॥ ईस वाक्यको पुनः २ स्मरणमें रखके अपने कल्याणके लिये परमात्माका ध्यान करना चाहिये और विशेषमें जो कोई ज्ञानी महात्माकी सत्संग मिल जावे तो अहा भाग्य समझके महा पुरुषके चरणोमें रहकर अपना कल्याण करना चाहिये क्योंकि सद्गुरुकी कृपादृष्टिसेही अध्यात्म ज्ञानकी प्राप्ति हो शक्ती है और अध्यात्मज्ञानसेंहि आत्माकी अक्षय निधि प्रगट होती हैं इस अध्यात्म ग्रंथके आराधनेसें और शुद्ध श्रद्धान ज्ञान योगके अभ्याससे अवश्यही भव्यजीवोंका कल्याण होवे न संदेह एक रूप अभ्याससे शिवसुख है तसुगोद.
इति श्रीअध्यात्मविचारजीतसंग्रहः संपूर्णम्॥ श्लोकः-चंद्रनन्दनवेन्द्र) । चापादेकृष्णपक्षके ॥ तृतीयायामगात्पूर्ति । मध्यात्मजीतसंग्रहः ॥१॥
لالالالالالالالالالالالالالالا لالاليافها
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