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जीतसंग्रह ॥ ४१ ॥
ما معنا سمعنا لمكان
र ऐसा सद्गुरु आत्मार्था इस कलिकाल में प्रत्यक्ष हलता चलता कल्पवृक्षके समानही हैं लेकिन ऐसा सद्गुरु आत्मार्थी अध्यात्मविचार
इस कलिकालमें कोई विरलाही मिलेगा अन्यदर्शनी सुंदरदासनेभी कहा है
दोहा-पारसचिंतामणि और सद्गुममें । बडाअंतराजान || बोलो हा कंचन करे । वो करे आपसमान ॥ १ ॥ - ऐसे सद्गुरुका समागम मिलना इस कलिकालमें बहुतही कठीन हैं। कवित-मात मिलै पुनितात मिलै सुतभ्रात मिलै युवती सुखदाई । राज मिलै सुखसाज मिल गज बाजि मिले
मन वांछित पाई ॥ लोक मिलै सुरलोक मिलै विधि लोक मिले वैकुण्ठमैं जाई । सुन्दर और मिले
सयही सुखसंपत संतसमागम दुरलभ भाई ॥१॥ अथ ध्यानोपदेशः-भव्य जीवोकों ऐसा ध्यान विचार करना चाहिये मैं कि अकेला हुं पुद्गल जडसें सदा भिन्न हु निश्चयसे सदा शुद्ध बुद्ध हुं नहीं करता नही भोक्ता हुँ रत्नत्रय संयुक्त हुं परमदेव हुं सिद्ध के समान मेरा स्वरूप हैं परमात्म स्वरूपही हुं और शुद्ध ब्रह्मरूपही हुं ऐसा समझ के अपने स्वरूपकाही ध्यान करना चाहिये. दोहा-उत्तम नर भव पायके । शुद्ध सामग्री लेय । जे न सुणे जिन बचन रस । अफल जन्मारो तेय ॥१॥
जिनवाणिके श्रवण बिन । शुद्ध सम्यक् नहि होय ॥ सम्यक् बिन आत्मदरस । चारित्रगुण नवि कोय॥२॥ शुद्ध सम्यक् प्राप्ति बिना । शुभ करनी शुभ बंध ॥ सम्यक्रन प्राप्ति थकी। मिटे तिमिर रसबंध ॥३॥ सम्यक् भेद जिन बचनसे । भेद पर्याय विशेष ॥ पण मुख दोय प्रकार है। विरला जाने लेष ॥४॥
المخالفجرفلای پایداری سازه
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