Book Title: Adhyatmavichar Jeet Sangraha
Author(s): Jitmuni, 
Publisher: Pannibai Upashray Aradhak Bikaner

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Page 85
________________ अध्यात्म जीतसंग्रह विचार निश्चय अरु व्यवहार नय । ए दोन परिमाण || दधि मथने घृत काढवां । यही न्याय मन आण ॥ ५॥ निश्चय सम्यक्नो सही । कारण है व्यवहार । कारण बिन सिद्धि नही। कोटी करो विचार ॥ ६ ॥ निश्चय सम्यक जीवने । पर परिणति परित्याग ॥ निज स्वभावमें रमणता। शिव सुख लहै महा भागा। शुद्ध सम्यक् तब लहै । समझे तत्व स्वरूप ।। समझे विनु नवपूर्वी । लहै न आत्म अनुप ॥ ८॥ जिन वाणी सद्गुरु मुखे । जे भवि हृदय धरंत ।। स्वपर भेद विज्ञानथी । अनुभव लहै कोइ संत ॥९॥ आत्मध्यान अरु अध्यात्म ज्ञान विना मोक्ष सुखकी प्राप्ति तीन काल और तीनुं लोकमें कभी नही हो शक्ति. दोहा-जबलग आत्मज्ञान नहीं । मिथ्या क्रिया कलाप ।। भटको तीन लोकमें। शिवसुख लहै न आप ॥१॥ ___आत्मराम अनुभवभजो । तजो पर तणी माया ॥ एह सार हैं जिनवचननो । वले यह शिवछाया ॥२॥ इसलिये हे भव्य जो तेरेको मोक्षसुखकी पूर्ण इच्छा होवेतो सर्व तरहके प्रपञ्च छोडके एकाग्रचित्तसें कर्मरूपी शत्रुको गिरानेके लिये एक परमात्माको ध्यान कर,क्योंकि वहि तेरेकों अक्षय सुख देनेवाला दाता है परत्माका ध्यान करनेवाला ध्याता पुरुष अवश्यही ध्येयरूप होजाता है इलीका भ्रमरी न्याय कर परमात्माके ध्यानसे यही अशुद्ध आत्मा परमात्मरूप हो जाता है इसलिये तीन काल और तीनुंही लोकमें परमात्मके ध्यानसे परमात्मज्योतिके समान | अन्य कोईभी ध्यान करने योग्य देव नहीं हैं इस लियेआत्मदेवको छोडके दूसरे देवोंकी उपासना करना वह योग्य नहीं है क्योंकि परमात्मज्योतिके समान अन्य कोई भी नहीं है इसलिये पुनः पुनः परमात्मज्योति के ध्यानमें अवश्यही भव्य in Education International For Personal & Private Use Only indiainelibrary.org

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