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2 दुनियांमें कोई विरलाही मिलेगा ॥१॥ अध्यात्म
जीतसंग्रह विनार गाथा-निर्भयहोकरविचरपडे, निशदिनकवुनहिचालेडरके ।। अपनेआपमें आपहीदेखे,धन्यभाग्यहै वा नरके ।।
| ॥ ३२ ॥ ॥३२॥
भावार्थ:-इस कलिकालके विषे सत्य और निर्पक्ष धर्मकी प्राप्ति होनी अति कठिन हैं कभी पुण्य संयोगे dil सत्य धर्मकी प्राप्ति होगह तोभी क्या होगया क्योंकि सत्य श्रद्धान आना बहुतही कठीन हैं इस पश्चमकालके प्रभा| वसे पवित्र जैनधर्मके विषे केई तरहके मतवाले और वाडे दृष्टिगोचर आते है अपने अपने वाडोंवाले दृष्टिरागी
अंधे भक्तोंकों समझाते है कि हमारे सिवाय दूसरोंके पास जाना आना आहारपाणी देने में एकान्त पाप है और समकितभी मलीन होता है इसलिये दूसरे बेषधारी साधुओके पास नहि जाना चाहिये पास जानेसे समकित चलाजाता है ऐसा कहकर अपना २ सय याडा बांध रहे है उनके अंध श्रद्धालुओको कुछभी सल्यासत्य धर्मकी पहिचानही है बेचारे खाली पक्षपातमें और कदाग्रहमें डूबरहे है दूसरोंकी यातही नहिं सुनते इस लिये सर्व आत्मभाइयोसें मेरी अरज है कि आप सब सज्जनो अपना २ तब मत कदाग्रह छोडके निर्पक्ष जैन सिद्धा-135 तोके अनुसारे सत्य वक्ताकी खोज करके सत्य धर्मका निर्णये करो क्योंकि एक तर्फला फेसला राजभी नहीं | देते दोनो तर्फकी बात सुननेसें न्याय होता है कि सच्चा कौन है और झुठा कौन है दोनोका निर्णय करके सत्यको ad ग्रहण करना चाहिये और असत्यको छोडना चाहिये संवेगी ढुंढीये तेरे पंथी दिगंबरी हेमापंथी कडवापन्थी
तीनथूयों विष्णु और सेख सहीद आदि षट् दर्शनवालोसें कुछभी मतलब नहीं है मतलब एक आत्मकल्याणसे है
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