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जीतसंग्रह
नही है केवल सब लोक दुखारी खांण रूपही है पञ्चम गति बिन कोइभी गतिके विषे सुख नही है इस भावअध्यात्म
DEI नासें शिवराज ऋषिनें मोक्षपद लिया. विचार
दोहा--लोकस्वरूप विचारके । अपना स्वरूप निहार ॥ परमार्थ व्यवहार मुनि । मिथ्याभाव विदार ॥१॥ ॥ ३९॥
. भावार्थ:-हे आत्मा लोक स्वरूपका विचार करके अपना शुद्ध स्वरूप देख तुं कौन है कहांसे आया है इस लोकके विषे जो धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य भरे है जिसमें तेरा स्वरूप किसी द्रव्यके साथ मिलता है या नही तेरा स्वरूपतो अनन्तज्ञानादि गुण संयुक्त है और द्रव्य चेतनादि गुण रहित वर्ण गंध रस और स्पर्श आदि सहित पुल जड पदार्थ है वह पांचोही जड तेरेसे सदा भिन्न जडरूपही है याने तेरेसे सदा अलगही है इसलिये हे चैतन्य तुं अपने स्वरूप में स्थिर रहकर अब मिथ्याभावकों छोडके आत्म अनुभव रसका पान कर ॥१॥
दोहा-चौदहराज उत्तुंग नभ । लोक पुरुष संगण ॥ तामें जीव अनादिसें । भ्रमत है विनुज्ञान ॥२॥
अथ बोधी दुर्लभ भावना-बोधी इसलिये आत्मज्ञानका बोध होना अति दुर्लभ है बोध बीजकी प्राप्ति नही होने परही मैं अनादिकालसें जन्म जरा और मृत्युके संगटमें पड़ा हुआ दुःख भोग रहा हूं इसलिये अबतो गुरु कपासें मेरा निजगुण अनन्तज्ञान दर्शन चारित्र और वीर्यको प्रगट करुंनो मैं सुखी होउंगा जिससे मेरा जन्म जरा और मृत्युरूपी महान् दुःखसे बचाव होगा
दोहा-बोधी अपना भाव है। निश्चय दुर्लभनांहि ॥ भवमें प्राप्ति होवे नही । यह व्यवहारे कहाहि ॥१॥
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