Book Title: Adhyatmavichar Jeet Sangraha
Author(s): Jitmuni, 
Publisher: Pannibai Upashray Aradhak Bikaner

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Page 69
________________ अध्यात्मविचार ॥३४॥ जीतसंग्रह ॥ ३४ ॥ ममत्वभाव और राग द्वेषकी प्रणतिसें यह चैतन्य अनादि कालसै चारों गति में भटक रहा हैं यह पञ्चेन्द्रियके विषयभोग नाशवान क्षणभंगुर है भोगविलासमें रक्त होनेपर आत्माको अनंत कालतक नरकनिगोद और तीर्यच योनिमें महाभयंकर दुःख भोगने पडते है ऐसा विचार करके सर्वतरहसे विषयभोग छोडके सदा आनंद सुखदाई अक्षय अनंत ज्ञान दर्शन चारित्र और सत्य ब्रह्मचर्यमयी धर्मकों ग्रहण करके मेरा कल्याण करुंगा वहदिन धन्य मानुंगा यह अनित्यभावना भाते हुये भरतचक्रीको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और सय दुःखोसे मुक्त हुआ. दोहा-राजाराणा छत्रपति । हथियनके असवार ।। मरना मयको एक दिन । अपनी अपनी वार ॥१॥ गाथा-परिजन मरतो देखिने रे । शोग करे जनमूढ ॥ अवसरे वारो आपनोरे । सहुजननी ए रूढरे ॥२॥ बसंततिलका छंदः-व्याघ्रीवतिष्ठतिजरा परितर्जयन्ति । रोगाश्चशत्रवइव प्रहरंति देहम् ॥ आयुःपरिस्रवतिभिन्नघटादिवांभो । हाहा तथापिविषयान्न परित्यजन्ति ॥३॥ भावार्थ:-हे भव्य जरावस्था वाघनकी तरह समय २ म शरीरका भक्षण कर रही है फिर नाना प्रकारके रोगा शत्रुकी तरह दुख देरहे है और फूटे घटकी तरह अथवा करअंजलीकी तरह आयुःक्षणक्षणमें नाश होरहाहै तोभी अज्ञानी भूढ मति विषयसुखकों छोडके धर्मध्यान नहीं करते हाहा इति खेदे ॥३॥ अब अशरणभावना कहेंगे-अज्ञान और मोहराजाके वशीभूत हुआ यह जीव पुद्गलीक सुखके लिये धन दारा पुत्र कुटुंब परिवार आदिको अपना समझते हैं अर्थात् सबको सुग्वका कारण मानते है परन्तु ज्ञानदृष्टिस नहीं الفنانة العا UAdoninhinातबार اسم الاسكان بنك in Education ! For Personal & Private Use Only A udiainelibrary.org

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