Book Title: Adhyatmavichar Jeet Sangraha
Author(s): Jitmuni, 
Publisher: Pannibai Upashray Aradhak Bikaner

View full book text
Previous | Next

Page 75
________________ अध्यात्मविचार दोहा—जहां देह नहि आपनी । तब दृजा अपनाकौन || दीसे यह परतक्ष जुदा । प्रगटही धनतन भौन ॥१॥ भावार्थ:- हे चैतन्य जब यह शरीर भी अपना नहीं हैं तब दूसरा अपना कौन होगा स्त्री पुत्र मात पिता ऋद्धि परिवार आदि सब आपसेआप अलगहो चूके यहतो प्रत्यक्ष प्रमाण है ताभी अज्ञानतासे सबकों मेरा समझ कर नानाप्रकारसे दुःख उठा रहे है दोहा - भेदज्ञान से मुक्ति है । युक्तिकरोसबकोय ॥ वस्तुभेदलह्याविना । मुक्तिकहांसे होय ॥१॥ भावार्थ: - यह भावना मृगापुत्रने संसारको सुख अतार जाणके सबका त्याग करके महावीरपरमात्माके पास दीक्षा लेकर मोक्ष सिधाए गाथा - पृथ्वीक है मैं नित्यनवी । किसकीनपूरीआश || केइक राणामरगये । केइकगयेनिराश || १ || अशुचिभावना सवैया- हाडकोपींजरोचाममढ्योपुनिमांहिभर्योमलमूत्रविकारा । थूकअरुलालवहेमुखद्वार पुनिव्याधिवहेनवद्वारहिद्वारा || एसें शरीरमें रहकर मूर्खअबकौन करेशोचविचारा | मांसकी जीभ में खातसबआहारात कोकरोमतिमानवचारा ॥१॥ इस अशुचि मांस रुधिर मल मूत्र वीर्य श्लेष्म खेखारा चरबी पित कफ वायु कभी नसों आदि परिपूर्ण भरा हुआ यह शरीररूपी पिंजरा हैं और पांचभूतका बना हुवा है दोहा - पांच भूतका पुतला | मनुष्य धरियो नाम | दोय दिनोंके कारणे । क्या धरावे नाम || १ || Jain Education International For Personal & Private Use Only जीतसंग्रह ww.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122