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जीतसंग्रह
विचार
अध्यात्म- पदार्थ भरे है वह शीघ्रही ज्ञान होता है तैसेही इस शरीरके समान दूसरा कोइभी अशुचि और दुर्गन्धीवाला स्था-
Da नही नही दीखलाता जब इस शरीररूपी कुटीसें चैतन्यरूपी राजा निकल जाता है तब फोरण्टही इसका नाम बदल जाता है सब दुनियां इस शरीरकों मुडदा कहते है
दोहा-यह शरीर विष्टा कोथली । तेमाह शुं मोहाय || ममता तज समता भजे । ते नर मुक्तिजाय ॥१॥
ऐसाज्ञान विचारके जो माणुभाव ईस महामलीन अपने या परके शरीर मोहित नहीं होता उसकोंही धन्यवाद है जो विष्टाकी कोथलीके समान गन्धी देह मोहित होकर स्त्रीसे भोगविलास करते है वह नर नवलाख पंचेन्द्रिय | जीवोंकी हानी करते है धिक्कार है जिसके मनुध्य अवतारको यह भावना सनत्कुमारचक्रीके मनवसी एक पलकमें षट्खण्ड छोडके चलता हुआ याने सर्वऋद्धिकों छोडके और दीक्षा लेकर अकेलाही विचरता हुआ गाथा-गर्वजनेरूपकाकीना । कर्मोनेआणरसदीना ॥ रोगजबउपना बहुला । कौनेदेदियाझाला ॥१॥
रूपअनोपमइन्द्रेवखाण्यो। सुरजाणेतवमाया ॥ रूपकरीदोयब्राह्मणआया । फिरफिरनिरखीसबकाया २ क्या निरखोतुमेलालरंगीले । मेलभरीमोरीयहकाया ॥ न्हायेधोयेजयछत्रधराया । तबफिरचंभनआया ३ देखीजोतांरूपपलटाया। सुनोहोचक्रीराया। सोलहरोगतेरीदेहमेंउपना । गर्वमकरोकडीकाया ॥४॥ कलमलियोघणाचक्रीमनमें | अमरतणीसुणीवाणी ॥ तुरततंबोलनाखनेजोवे । रंगभरकायापलटानी ॥२॥ षटूखंडपूरनयरअंतेउरीम्हेली । म्हेलीममतानेमापा || संयमलेयफिरेअकेला । केडोनमूकेरायाराणा ॥६॥
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