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जीतसंग्रह
अध्यात्म
ठीकाने सरही पडे रहतें है लेकिन कुत्तोरूपी इनद्रियोके भोगी युही रोते चले जाते हैं ॥२॥ विचार
गाथा-माया तजी तो क्या हुआ। मानहीतज्या न जाय ॥मानवडे मुनिवर गल्या । मानहि सबको खाय ।।
भावार्थ:-कभीकोई पुरुषको वैराग्य प्राप्त होने पर मायाको छोडके दीक्षा ग्रहण करलिया जिसमें क्या हो गया लेकिन मानरूपी राक्षस निगलगया है तब अन्यजीवोंका कहनाही क्या था सर्व संसारी जीवोंका भक्षण करने KE वाला मानरूपी राक्षसकों जीतना यह कुछ सामान्य बात नहीं है देखलो बाहुवल राजऋषिकों ॥१॥
गाथा--मानमिल्यां सुख उपजै । अपमाने दुःख होय ॥ खरी कसोटी परखलो । देख लहु सबकोय ॥१॥
भावार्थ:-मान मिलनेपर जीवकों कितनी खुसी होती है और अपमान होनेपर कितना दुःख होता है जबतक मान अपमानका विचार है तबतक उनकों एक रतीभरभी ज्ञान नहीं हैं इनमें झूठ होतो कलिकालके मुनियोंकी परीक्षा कर देखलो. सवैया-जेअरिमितवरायरजानतपारसऔरपाखानज्युदोई। कंचनकीचसमानअहेजसनीचनरेशमांभेदनकोई ॥
मानकहाअपमानकहा साविचारनहीतसुहोई । रागअरोषनहीजाकेचितज्युंधन्यअहेजगमें जनसोई ॥१॥ अथ कालचक्र विषे दोहा-सवजगडरपें कालसें । कठिन काल को जोर ।। स्वर्ग मृत्यु पातालमें । जहां देखंतहां सोर।।
भावार्थ:-इन्द्र चन्द्र नरेंद्र आदि सर्यप्राणी कालचक्रसें कंपते है क्योंकि कालवलिका जोर बहुतही भारी है स्वर्ग मृत्य और पातालमें याने तीनोंही लोकमें जिसका अलराज चल रहा है ॥१॥
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