Book Title: Adhyatmavichar Jeet Sangraha
Author(s): Jitmuni, 
Publisher: Pannibai Upashray Aradhak Bikaner

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Page 64
________________ जीतसंग्रह अध्यात्म भावार्थ:-जगत्में मायारूपी भयंकर जहेरी वृक्ष खडाहै जिसमें नानाप्रकारके शोक संताप और महा विचार दुखरूपी फल आरहेहै उस जहरी वृक्षके फल खानेवालेकों उपरसें बहुतही मधुर और स्वादिष्ट अज्ञानी जीवोंको लगते है लेकिन मायारूपी वृक्षके फल खानेवाले सीधे ही नरकमें जाते है और इस भवमें भी नाना प्रकारके शोक संतापरूपी ताप सहते है॥१॥ गाथा-मायाजगमे सापनी । जिनेताहेको खाय ॥ ऐसा गामडी ना मीलै । पकड पछाडै तांय ॥१॥ भावार्थः-इस जगतमें माया बडी भारी एक सापनी है जैसे सापनी अपने बच्चेकों जन्मदेकर आपही खा जाती है तैसे मायारूपी सापनी सब जगतको खा जाती है लेकिन मायारूपी सापनीका काटा हुआ उनका जहर | उतारनेके लिये कोई गारुडी या मन्त्रवादी नहीं है एक सद्गुरु सिवाय कोई भी गारुडी नहीं है और सद्गुरु गारुडी बिना मायारूपी सापनीको पकडके पछारनेवाला कोइभी दुनिया भरमें नही दीग्वलाता ॥१॥ गाथा-मायामें कछु सार नहीं । काहे को ग्रहेगिंवार ॥ स्वप्ने पायो राजधन । जातांन लागेवार ॥१॥ अस्थी पडै मैदानमें । कुकर मिलै लखक्रोड ।। दावाकर कर लड मुयें । अन्त चले सब छोड ॥२॥ भावार्थः-मेदानमें केइ पशुओंके अस्थि याने हाड पडे है उसमें केई लखों क्रोडो कुत्तोरूपी मनुष्यो इंद्रियोंके Jलोलुपी संसारमें ईकडे मिले हुये है मायारूपी हाडकोंकी मालकीके लिये वह नानाप्रकारसें दावा कर करके लडलड | शिर फोडफोड विचारे मरते है इसलिये अफसोसके साथ वहना पड़ता है कि मायारूपी अस्थि याने हाड अपने For Personal Pre se Only

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