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अध्यात्मविचार
जीतसं
गाथा-खड खड हसे ठीकरी । घड घड मुये कुंभार ।। रावण जैसे चल गये । लंकाके सिरदार ॥१॥
भावार्थ:--मिट्टीकी ठीकरीके समान यह उदारीक शरीर है वह मुखसें खड २ हसके कहता है कि ब्रह्मा जैसे प्रजापति इस शरीररूपी ठीकरीकों बनवाके चलगये और रावण जैसें मट्टीके भांडेभी चल गये लंकाके सिरदार तब अन्यकी किसने चलाई ॥१॥
गाथा-धम्मन धूग्वंति रह गई । वुझ गई लालअंगार । एरण ठबको मिट गयो गयो उठ चाल्यो लोहार ॥१॥
भावार्थ:-आत्मारूपी लोहार चलजानेपर शरीरकी सब धम्मनी नाडियों आपसें आप बंध हाजाती है तब जठराग्निरूपी अंगार आपसें आप वुझ जाती है अर्थात् आत्मारूषी लोहार के जानेपर सर्वशरीरकी धम्मनीयों बंध होजाती है तब जठराग्नि आपसे आप वुझ जाती है और उस समय नाडियोंका सब ठवका चुप चाप हो जाते है
गाथा--जागो लोको मत सुओ। मतकरो निंदसे प्यार ॥ जैसास्वमा रेणका । वसा यह संसार ॥॥
भावार्थ:--हे भव्य अव मिथ्यात्वरूपी निद्रासें जागृत होकर धर्म कार्यमें सावचेत हो जावो क्यों कि यह | संसारिक याने यह पुद्गलीक सुखरैणके स्वप्नके समान असार है ॥१॥
गाथा-जबलग आसा शरीरकी । निर्भय होय न कोय ॥ काया माया मनसे तजै । तब निर्भय पद लहे सोय १
भावार्थ:-हे भव्य जबतक इस शरीरमें ममत्वभाव रहा है तबतक निर्भयपदकी प्राप्ति कमी नहि हो शके परन्तु शरीरकी ममता और माया जब तनमनसे छुटेगा तबही निर्भय पदकी प्राप्ति होगी ऐसा पुरुष सर्व
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