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अध्यात्मविचार
जीतसंग्रह
गाथा-ऐसा काइ ना मिले । शुद्धस्वरूप देवाय ॥ विनयाती अरु तेल बिना । ज्योति झलके घटमांय ॥१॥
भावार्थ:-इस कलिकालमें ऐसा योगी कोइ ना मिलै कि वह महापुरुष मेरे घट के अंदरही अलख अरूपी | आत्माको बता देवे ॥१॥ गाथा-देखा है सो कैसे कहं । कह्यां कौन पतीयाय ॥ देख्या सोतो गुंगला । मुखस कह्या न जाय ॥२॥
कस्तृरीनाभि विषे । मृग ढुंढें वनराय ॥ ऐसे ढुंढत ना मिलें । ढुंढ लहे घटमांय ॥३॥
मन इन्द्रियोतयही मरे । जब मिल सदगुरु सहाय ॥ घटमें देव बताइया बाहिर ढुंढे बलाय ॥४॥ भावार्थ:-सद्गुरुकी कृपासें मन ईन्द्रियो तो सहजसेंही मर गई मन इन्द्रियोके विषय मरने पर अपने घटके अंदर अलख अरूपी देवका दर्शन होनेपर अब बाहेर देवको ढुंढे मेरे बलाय ॥४॥
दोहा-रत्न गमायो कामिये । इन्द्रिय केरे स्वाद ॥ जन्म गमायो धूलमें । अन्ते रोये नाद ।।२।।
भावार्थ:-मूर्खजनोनें इन्द्रियोंके रसस्वादमे रत्नचिंतामणि समान मानव देहको युही धूलमे खोदिये हैं अर्थात् मनुष्यरूपी हीरा हाथमें आनेपर उनकुं युही नादानपने में खोदिया ।।५।। लयेविषे
गाथा-लयलागी निर्भय हुआ। भरम गमाया सब दूर ॥ बाहिर कहाँ ढुंढत फिरे । अंतर देख स्वनूर ॥६॥
भावार्थ:-आत्मस्वरूपमें लय होनेपर सर्व तरहके भ्रम आपसेआप दृरही जाते हैं इसलिये हे भव्य आत्म | देवको छांडके कस्तृरीये मृगकी तरह वाहेरंमे क्यों ढुंढते हो वह परम देवतो अपने घटके विषे विराजमान हैं ॥६॥
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