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अध्यात्मविचार ॥ २९ ॥
गाथा - एक जाण्यां सहजाणिया । बहुतजाण्यां क्याहोय ॥ एकजाणे सब लहत है। सिद्धपद कहिये सोय ॥७॥ भावार्थ:-- जबतक एक आत्मस्वरूपकों जाने नहीं तबतक सर्व सूत्रसिद्धान्त और सर्व गणित योग आदि विद्याओं जाननेका क्या फल क्योंकि एक आत्म तत्वज्ञान में सब ज्ञानका समावेश हो जाता है (एगं जाणइ सवंजाणइ) इति आचारांगवचनात्
गाथा - हमवासी उनदेशके । जहां ज्योति रहै अखंड || अनहद वाजा वाजते । झलके ज्योति ब्रह्मंड ॥१॥ भावार्थ:- हे आत्म भाइयों अबतो हम उनदेशके वासी हैं जहांपर आत्मज्योतिका अखंडित प्रकाश हो रहा है हमारे देशमें कभी अंधेरा होतेही नही और हमारे देशमें नाना प्रकारके अनहद वाजे अष्टपहर गुंज रहे हैं एक समयमात्र भी कभी बन्ध नही रहतें वहांपर आत्मराजाका राज अटल चल रहा है वहांपर परिपूर्ण सुख है क्या सुख हैं कि जन्म नही जरा नही मृत्यु नही और आत्मराजा सिवाय दूसरा कोई भी राजा नही प्रजा नहीं शोक नही संताप नही क्रोध नही मान नहीं माया नही लोभ नही राग नही द्वेष नही वहां पर आत्मराजा अनंतसुख भोग रहा हैं इस वास्ते हे मेरे आत्म भाइयों जो तुमकों पूर्ण सुख भोगने की इच्छा होंवे तो सब मेरे देशचलो तुम सबकों सुखी बना
गाथा - हमवासीउन देशके । जहांवर्णनहीकुलरेख || ज्ञानमिलापाहोरहा । वहाँ नहीं कोईयायानहीको भैख १० भावार्थ:- हे आत्मभाईयों हमतो खास उस देशके रहीस है वहांपर नहीतो कोई जात है नही कोई साधु संत है नहीं कोइ वर्ण कुल न्यात है सबका मेलाप केवल आत्मज्ञानसेंही हो रहा हैं फेर वहां पर नहि कोई बाबा
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गीतसंग्रह ॥ २९ ॥
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