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अध्यात्मविचार ॥ १७ ॥
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भावना हैं और जो अपनी आत्माके सच्चेमित्र बनकर अज्ञान मिथ्यात्व रागद्वेष मोह कषायको त्याग करके सम्यक् ज्ञान सम्यग्दर्शन और शुद्धचारित्रका पालन करके नरकादि दुःखोंसें जो अपनी आत्माकों बचाना है यह भावमैत्री भावना है उपरोक्तच्यार भावनाएं सदैव अवश्य करके समकिनगुणकों प्रगट करनेवाली हैं। आर सम्यग्गुण प्रगट होनेपरही मोक्षसुखकी प्राप्ति होती है इसलिये सम्यक्वीन नवपूर्वी अज्ञानी कहवाय गाथा - विना जेहथी ज्ञानअज्ञानरूपं चारित्रं विचित्रं भवारण्यकूपं ॥ १ ॥ ढाल - जेविणनाण प्रमाण न होवे चारित्र | तरुन विफलियो सुखनिर्वाणनजेविणलहिये समकितदर्शनवलियोरे भ० ॥ १ ॥ गाथा - दुःखियाप्रतिकरुणावरु दुश्मन तिनध्यस्थ शुभ भावना यह प्रभु मुझ हृदयमें सदा वसो ||१|| इसजीवात्माको अनादिकाल से सम्यक्दशेन ज्ञानकी प्राप्ति नहीं होने परही जन्म जरा मरणादिकके अनंते दुःखभोगने पडते हैं जैसें सूर्य निमि रकों दूरकरके सब जगत्को प्रकाशमय करदेत हैं तैसें सम्यक्रूपीगुण प्रगट होनेपर मिथ्यात्वरूमि आप सेआप नष्ट हो जाते हैं सम्यक्वानजीव जहांजावै तहां आनंदही पाते हैं सम्यक्वान पुरुष कभी नरक में चला जावे तो भी देवगति अधिक सुखी हैं परन्तु मिथ्यादृष्टि जीव कभी स्वर्ग में चलाजावे तो भी नरकसें अधिक .:खी है सम्यक्रवान् समझता है कि सुख दुखमेरा धर्म नहीं हैं यहनो शुभाशुभ कर्मोको पर्याय है में दृष्टाज्ञता
ऐसा ज्ञान विचार के सनकितधारी जीव शांती पूर्वक शुभाशुभ कनके फल भोग लेना लेकिन भर्त रौद्र ध्यान नहीं करता और मिथ्यादृष्टि जीवकों कभी बारहवें देवलोकके सुख मिल जावै तोभी निध्यादृष्टि
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जीनसंग्रह ॥ १७ ॥
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