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अध्यात्मविचार
दोहा-वारवार प्रभुवंदना शुद्धभावसे होय कारणयोगे कार्यनी मिद्विनिश्चयजोय ॥१॥ अब कहते है कि मोक्षप्राप्तिके लिये मुख्य कारण सम्यदर्शन है और सम्यक्दर्शनकी प्राप्तिके लिये मुख्य कारण च्यार भावनाऐंहै | दोहा-गुणीजनको बंदना अवगुणदेखमध्यस्थ दुःखी देखकरुणा धरे मैत्रीभावसमस्त ॥१॥ प्रमोदभावना गुणीजनोंकु JE जीतसंग्रह
देखकर बहुतहर्षितहोना मध्यस्थ भावना इसलिये अपनी निंदा करने वालेहो अपना बुरा करनेवाले हो नोभी | उस मध्यस्थ दृष्टि रहना चाहिये परंतु मनवचनकायासें भी उन्हों- द्वेषनहीं करना चाहिये तैसेंही सुखकी प्राप्त होनेपर हर्षितहोना और दुःख आनेपर दिलगिर नहीं होना चाहिये मम्यवान जीवकों सदैव सर्वजीवों समदृष्टि समचित्त रागद्वेषरहिन समभावमेंही रहना चाहिये ॥२॥
दोहा-दुर्जनकुरकुमारत्तो । पण क्षोभ नहीं मुझकोय ।। मीम्यभावरहेमदा । ऐसी परिणतिहोय ॥१॥
भावार्थ- अथ करुणाभावना दुःखीजनोंको देखके करूणा दया लाणा अर्थात शरीरादिक और मानसिक | दुःखकों दुरकरना यह द्रव्य करुणा हैं और जो क्रोध मान माया लोभ तथा मिथ्याभावका त्याग करना हैं
वह भाव करणा है आत्माके च्यार भाव प्राण है उनको बचाना जिसदिनमें स्वपर आत्माकी भावदया | पालंगा वह दिन मैं धन्य मागा रागद्वेष मोहादिसें जो अपनी आत्माको बचाना है यही भावकरुणा है. | अथमैत्री भावना-सर्वजीवोंको अपनी आत्माके समान समझके कोईभीजीवकों तकलीफ नही देनी किन्तु मजीवोंको अपने मित्रकी समान समझके मवका भला चाहना यह स्वपर द्रव्य याने व्यवहारमें मैत्री.
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