Book Title: Adhyatmavichar Jeet Sangraha
Author(s): Jitmuni, 
Publisher: Pannibai Upashray Aradhak Bikaner

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Page 55
________________ अध्यात्मविचार ॥२७॥ पढपढके पण्डित भये । समझावै सब लोक ॥ आपतो समुझे नहीं । जन्म गमाया फोक ॥२॥ Tre जीतसंग्रह भावार्थ:-लोकोमें वेदपाठी ब्राह्मणो जगतके गुरू पंडित कहलाते हैं लेकिन ब्रह्मज्ञानकी कुछभी पहिचान नही है खाली संस्कृत श्लोक उच्चरण करके दुनियों को अपनी पण्डिताई दिखलाते है अपने पेटके लिये ऐसे पोयोंके वेंगन समान धर्मगुरुओं बनके दुनियोंको युही भरमाते है लेकिन ब्रह्मचीजही क्या है उनका तो नोमही नही जानते ॥२॥ दोहा-पंडित और मसालची। दोनों समझत नांह ॥ दूजां के करे प्रकाश । आप अंधेरामांह ॥१॥ पढे गुणे पंडित भये । कीर्ति भइ सब देश ॥ धर्म तत्व जाण्यो नही । खर चंदन ज्यु लेश ॥२॥ भावार्थ:-सूत्र सिद्धांत पढ कर पंडित यन गये और सब दुनियांमे मयूरभी होगये कि अमुक मुनिराज बडे पण्डितराज हैं किंतु वस्तु स्वभावे धर्म क्या है वहतो जडवुद्धि पंडित कुछ जानतेही नहीं खाली खरकी तरह थुतज्ञानरूपी बोझा उठानेवाले चंदनकी तरह ॥२॥ दोहा-संस्कृतही पंडित कहै । बहुत करै अभिमान | भाषा जाणी तरक तरै । सो नर पशु सनान ॥११॥ भावार्थ:--विचारे कितनेक मेरे जैसे मूर्ख थोडीसी संस्कृत भाषा पढकर अभिमानमें नानाप्रकार के तर्कों करतें हैं जिसमें भोले लोकों जानेकि महाराज बडे विद्वान् है सर्व सूत्रोंके पारगामी है बहु श्रुत हैं योधलोके लिये तत्व| ज्ञान चीजही क्या हैं वह पंडित बहुं श्रुत नहि कहा जावै लेकिन आत्मज्ञान विना पशुकी समान है. गाथा-तपजप संयम सघही धरे । पलक न छेडे शुभध्यान ॥ आत्म तत्व जाणेविना । कबहुं न होवै कल्यान ।। in Education Man For Personal & Private Use Only

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