________________
विचार
DE जीतसंग्रह
अध्यात्म-IRE भावार्थ:-आजकल दुनियां में कैसा धर्म चलरहाहै कि ऐरणकीतो चोरी करते हैं और एक मूईका दान
फेर आशा रखते हैंकि अब स्वर्ग मोक्ष दूर ही क्या है गाथा-नाहना धोना केड कियां । मनका मैल न जाय ॥ मीन सदा जलमें रहै । क्यु कल्याण न थाय ॥७॥
साहेबके दरवारमें । साच्चेकों शिरपांव ।। झुठा तमाचा खात है । क्या रंक क्या राव ॥८॥ भावार्थ:-पोल है तो इस दुनियांके अन्दर है लेकिन परमात्मा केदरवारमें पालपोल नहीं हैं वहांतो इनसाफ है सच्चेको शिरपांव है और जो जूठा होते हैं वहतो तमेचाही खाते है चाहे तो राजा हो चाहै रंक हो क्योंकि वहां तो कर्मराजाका अटल कानून गुप्तपनेसेंही चल रहा है ॥८॥ गाथा-जब तुं आयो जगतमें । लोक हंसे तु रोय ॥ एसी करनी न किजीये । पीछे हसे न कोय ॥१॥
सबरसायन देखिया । आत्म सम नहि कोय ।। एक रती घट जो संचरे । तो सब तन कंचन होय ॥२॥ भावार्थः-योगीराज कहते है कि मैंने नानाप्रकारकी रसायन खाली लेकिन परमात्माके नाम समान एकभी रसायन देखने में आइ नही बिचारे हकीम वैद्य डाकटरों आदि चाहै जितनी रसायन औषधी क्यों न खिला देवें लेकिन शरीरका एक रोमभी सुवर्णका नही बनता किन्तु परमात्माके नामरूपी रसायनका रस एक समय मात्र जो घटमें उतर जावेतो सब शरीर कांचनमयही बन जावै देखो तीर्थकरों के वपु ॥ २॥ अथ पंडित विषे गाथा-वेद शास्त्र पढ़ पढ मरै । आत्मसे नहि हेत ॥ ज्ञानप्याला कोइक पीगये । खाली रह गये खेत ॥२॥
BE TACT
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org