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अध्यात्म- दोहा-पूरा सद्गुरु ना मिले । सुणी अधूरी सीख ॥ सांगयति काय हरके । घरघर मांगे भीख ॥१॥
JE जीतसंग्रह विचार
आशा तजै माया तजै । तजै मोह अम्मान ॥ हर्षशोक निंदातजै । सोही संत सुजान ॥२॥ भावार्थ:-महात्माओ कहते हैकि सब दुनियांकी आशा तृष्णा मोह माया मान शोक चिंता और परनिंदादिक त्याग करके अपने स्वरूपमेही खेलते हैं वही पूरै मदगुरु संत है.
दोहा-सच्चेसंत वही हैं । कनक कामिनी त्याग ।। आशा एकही नामकी । निशिदिन जो वैराग ॥१॥
भावार्थ:-सच्चेसंत महंत तो वही है कि जिस महापुरुषने कनक कामिनी और सर्व तरहकी इच्छाका त्यागकर्के २८/ एक परमात्मामेही याने परमात्माके ध्यान में लीन हो गये ॥१॥
गाथा-जबलग नाता संसारका । तबलग संत न कोय ।। नाता तोडे प्रभु भजै । संत कहावै सोय ॥२॥
भावार्थ:--जबलग अपने कुटुंब परिवार अर्थात् जबतक कुटुम्ब परिवारके साथ मोहित रहा है तबतक वह संत साधु नही है अर्थात् जबतक अपने संसार संबंधियोंके साथ नाता मोह रहाहैं तबतक संसार छोडके शिर मुंडाया तो क्या? नही मुंडायातो क्या बन्धनरूपही हैं इसलिये कहनेका तात्पर्य यही हैं साधु होनेपर सर्व कुटुम्ब परिवारका मोह सर्पकंचुकीकी तरह छोडकर और निर्भय होकर एक परमात्माका ही ध्यान करना चाहिये |
गाथ-सर्वदुकाने हीरा नही । कंचनके नहि पाहाड ॥ सिंहनके टोलेनही । तैमेसन्त कोइक निहाल ॥१॥ भावार्थ:-सबसहरोंकेविषे और सब दुकानोंके विषे हीरा पन्ना माणिक आदि नहि मिलते लेकिन कोहक
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