Book Title: Adhyatmavichar Jeet Sangraha
Author(s): Jitmuni, 
Publisher: Pannibai Upashray Aradhak Bikaner

View full book text
Previous | Next

Page 40
________________ अध्यात्मविचार Jain Education b बन्धपडे नही केवल अज्ञानता पडते हैं दोहा - पुद्गलसेराते रहैं । जानैयहीनिधान । तसलाभेलो भेरहें । बहिरात्मअभिमान ॥१॥ अन्तरात्माजंवसो | सम्यग्दृष्टिहोय || चौथे अरुपुनियारमें। गुणस्थानकल्पोसोय ॥२॥ शरीर धन स्त्री पुत्र माता पिता परिवार मकान वस्त्र पात्र गहने और सर्व वैभव आदिमें जिसकों ममभाव हैं वही मिथ्यात्व हैं वह त्यागने योग्य हैं और अनंत ज्ञानगुण सम्पन्नशुद्ध आत्म स्वरूप हैं वहग्रहण करने योग्य हैं यही शुद्ध सम्यक् हैं सम्यग् गुण ऐसा बलवान् हैं कि मिध्यात्वकों एकसमयमात्रमें नाश करके केवलज्ञानकों प्रगट कर देना है समकितगुणकी प्राप्ति होने परही सम्यक् ज्ञान चारित्रकी प्राप्ति होती हैं चोपाई - सत्यप्रतिज्ञाअवस्थाजाकी । दिन २ चढेगुणस्थानताकी || छिनछिनकरेसत्यकोसाको । समकितनामकहावैताको ॥१॥ भावार्थ:- जो पुरुष आत्माके सत्यस्वरुपकी पहिचान करके निजस्वरूपका यथार्थ निश्चयसहित श्रद्धा न करे वहीजीव समभावकी वृद्धिकरनेवाला होता है औरजो आत्मस्वरुपका यथार्थ अनुभव करना है वह सम्यग् ज्ञान १ दोहा - अप्पापरिचयनिजविषे । उपजैनही संदेह || सहजप्रपंचरहितदशा । सम्यग्लक्षणऐह ||१|| अपने आत्मस्वरुपका अनुभव अपनी आत्मासही होता है दूसरेतो केवल एक निमितमात्रही है समकिनधारी ज्ञानीका लक्षण हैं ॥ १ ॥ For Personal & Private Use Only जीतसंग्रह janelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122