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जीतसंबर
।।। २२ ॥
लिये सर्व परिवारका मोह छोडके स्मशान तथा गिरिकंदरामें परमात्माका ध्यान करता हैं सुखको इच्छातो अध्यात्म-JET
सर्वजीवोंको बनी रहती है लेकिन सच्चे सुखकी पहिचानही नही हैं कोईक विवेकवान पुरुषही सत्य आत्मिक विचार
सुखकी खोज कर सकता है आत्मध्यान और अध्यात्मज्ञान के अभ्यास में अपने आपही अपने आत्मिक ॥२२॥ सुखको खोज लेता हैं.
अब परिग्रह विषे कहते हैं गाथा-कहानी कथनी कत्थके, क्योजगकोरीझाता। सर्वकुटुम्बपरिवारछोडदिय, तबचेलाचेलीक्योंबनाताहैं।।
भावार्थ:-जब सर्व कुटुम्ब परिवार तथा परिग्रहको छोडके निग्रन्थ हो गया है तब कहानी कथनी कथके क्यों लोक रीझाता हैं क्यों चेला चेली बनाता है और मेरी तेरी करके क्यों लोक हतासाता है
गाथा-चिदानंद कहै तूं सबसे न्यारा । वानासिंहका पहरकेगीदडक्यों कहलाता है ॥२॥ घटभ्यंतर अनहद बाजै, सबमें झोगमगज्योति विराजै । मूवनर बाहिरमांखोजै, कैसे शिवसुखमें विराजे ॥३॥
स्वयंप्रकाशरूप है मेरा, कोइकलखलैयोगीशरा। ज्यातिरुपका होवे प्रकाशा, कोइकयोगी देखे प्यारा ॥४॥ दोहा-कलिकालके मंडिया । घर घर मांगण जाय ॥ तृष्णा उसके पीछे पड़ी । मनगमता रसलाय ||५||
साधूबाना पहरके । आने नही मन शंक ॥ साधु वेश माता फिरे । देखो कर्म तणाय अंक ॥६॥ सार एक वैराग्य हैं । सब सुखके दातार ॥ ज्ञान ध्यान सझे नहीं । वैराग्य सहित सुखकार ॥७॥
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