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विचार
| कहै लखे न ब्रह्मस्वरूप मगनपर द्रव्य में मिथ्यावंतअनृप ॥१॥ जो सिद्धसमान आत्माको विषयभोगकी इच्छाहोती अध्यात्म- | हैं वह केवल भोगावली कर्मकी खुजली विकार है भोगावली कर्म भोगे बिना तिर्थकरोभी नही छूट शकते,
JE जीतसंग्रह श्लोकः-उदयतियदिभानुः पश्चिमायां दिशायां प्रचलतिदिमेरुः शीत्ततांयाति वह्निः विकसतिदि- ॥ १८॥ ॥१८॥
| पञपर्वतारोशिलायां तदपि न चलत्तीयंभाविनी कर्मरेखा ॥१॥
शब्दार्थः-(यदि) कभी (भानुः) सूर्य [पश्चिमायांदिशायां] पश्चिम दिशामें (उदयति) उदय होजावै [यदि] कभी [वह्निः] अग्नि [शीततांयाति शीतलहोजावे (यदि) कभी (पर्वताग्रेशिलायां) पर्वतकेअग्रभागपर याने शिला (विकसतिपञ) पद्मनामकेपुष्प प्रफुल्लितहोजावे तदादि] तोभी (भाविनी ईय) अवश्यहोनेवाली यह (कर्म रेखाः)। कर्मकी रेखा कभी चलित नही होती ॥१॥ भावार्थः-सूर्य पूर्वदिशा छोडके कभी पश्चिम दिशामें उदय नही होते किन्तु कभी होबी जाये और मेरु पर्वत कभी चलित नहीं होता वहभी कभी चलित हो जावे अग्नि कभी शीतल नहीं होती बहभी कभी शीतल हो जावै और पर्वतके अग्रभागपर अर्थात् शिला पुष्प कभी प्रफुल्लित
नही होसके लेकिन वहभी कभी दैव योगसे होजावै तोभी अवश्य होनेवाली कर्मकी रेखा कभी चलित नही र होती ॥१॥ इतनेपरभी ज्ञानी महापुरुष कभी विषयभोगोमें लिप्त नहीं होते रसना इन्द्रियकी तरह अलि
प्तही रहते हैं अपनी आत्माके सिवाय और कोईभी पदार्थमें राचे माचे नहीं इसलिये ज्ञानीको कर्मोका
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