Book Title: Adhyatmavichar Jeet Sangraha
Author(s): Jitmuni, 
Publisher: Pannibai Upashray Aradhak Bikaner

View full book text
Previous | Next

Page 33
________________ अध्यात्मविचार जीतसंग्रह |॥ १६॥ आयुवाला विचारा मरके सीधा सातमी नारकीमें चलाजाताहैं हा हा देखो अशुद्ध परिणामोंकी गति जब दोघडीकी | आयुवाला अशुद्ध प्रणतिसें सातमीनर्कमें चलाजाता है तब अन्यजीवोंकी क्यागति जन्मपर्यंत क्याक्या अशुभकर्म करते है अर्थात् जन्मपर्यंत कितने कुकर्म कियेहैं ईसलिये हे परमात्मा मेरे जैसे जीवोंकी क्या दुरदशा होगी। धिक् धिक है मेरी आत्माकों ऐसा शुभविचार करनाचाहिये दोहा-महादुःखकाबीजहै । अशुभरूप परिणाम || ताकेउदयअनंतदुःख । भुगतेआतमराम ॥१॥ भावार्थ:-जो अपने शुद्ध स्वभावमें रहना हैं वहीं आत्माका मुख्यगुण और स्वभावहैं परन्तु अज्ञानतासे और मोह मिथ्यात्वसें आत्मा मलिन हो रहा हैं इसलिये अपनी आत्मा आत्मिक सुख भूलके इन्द्रियों जनित विषय भोग विलाषमें लंपट होने पर चतुर्गतिमें अनादि कालसें भटक रहा है परन्तु जिसदिन यह आत्मा शुद्धस्वभावसे रागद्वेष मोहादि मलसे रहित होकर अपने ज्ञान ध्यान स्वभावमें लीन होगा तब आपसेंआप पुद्गलीक सुखदुःख पुण्यपाप आदि कर्मोंसे मुक्तहोकर यही आत्मा आत्मिक अनन्त अखय और अन्यायाध सुखका भोगी आपसे आप होजावेगा तब रागद्वेष मोह शोक चिन्ता भय जन्म जरा और मृत्यु आदिका दु:ख केवल अज्ञानतासेंही आत्मा भोगरहाहै उपरोक्त सब दुःखोंसे मुक्ति होनेकेलिये एक अध्यात्म ज्ञान और दूसरा आत्मध्यानही ज्ञानीने कहा, क्योंकि आत्मज्ञानका यथार्थ प्रकाशहोनेपर पूर्वकेबन्धे हुये अशभ प्रणनिसें अशुभ कर्मोकेबन्ध वह आपसेआप नष्ट होजाते हैं जैसे सूर्यके प्रकाश होनेपर तिमीरआपसे आप नष्ट होजाते हैं ॥१॥... Jan Education For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122