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अपुनर्बन्धकाद्यावद् गुणस्थानं चतुर्दशम् । क्रमशुद्धिमती तावत् क्रियाध्यात्ममयी मता ॥४॥
भावार्थ : अपुनर्बन्धक नामक चौथे गुणस्थानक से लेकर चौदहवें गुणस्थानक तक क्रमशः जो उत्तरोत्तर अधिकाधिक विशुद्ध क्रिया होती है, वह सब क्रिया अध्यात्ममयी ही मानी जाती है ॥४॥
आहारोपधिपूजर्द्धि-गौरवप्रतिबन्धतः । भवाभिनंदी यां कुर्यात् क्रियां साध्यात्मवैरिणी ॥ ५॥
भावार्थ : आहार, उपधि, पूजा, ऋद्धि एवं गौरव (प्रसिद्धि आदि) के प्रतिबन्ध से (प्राप्ति की इच्छा को लेकर ) भवाभिनंदी जो क्रियाएँ करता है, वे सारी क्रियाएँ अध्यात्म की वैरिणी कहलाती हैं ॥५॥
क्षुद्रोलोभरतिर्दीनो मत्सरी भयवान् शठः । अज्ञो भवाभिनंदी स्यात् निष्फलारम्भसंगतः ॥ ६ ॥
भावार्थ : क्षुद्र, लोभी, दीन, ईर्ष्यालु, भयभीत, शठ, अज्ञानी और अकारण पापारम्भ करने वाला जीव भवाभिनन्दी होता है ॥६॥
शान्तो दान्तः सदा गुप्तो मोक्षार्थो विश्ववत्सलः । निर्दम्भां यां क्रियां कुर्यात् साध्यात्मगुणवृद्धये ॥७॥
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अध्यात्मसार