Book Title: Acharangabhasyam
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 24
________________ २२ आचारांगभाष्यम डॉ. जेकोबी का अभिमत निराधार नहीं है। द्वादशांगी पूर्वो से निर्मूढ है तथा दशवकालिक का निर्वृहण भी पूर्वो से किया गया है। इसलिए बहुत सम्भव है कि इन सबके समान पदों का नि!हण-स्थल एक हो। आचारांग में वाक्य परस्पर सम्बन्धित नहीं हैं, इस अभिमत में आंशिक सच्चाई भी है और वह इसलिए है कि वर्तमान में आचारांग का खण्डित रूप प्राप्त है। अखण्ड रूप में जो सम्बन्ध-शृंखला प्राप्त हो सकती है, वह खण्डित रूप में नहीं हो सकती। ___ इसका तीसरा कारण व्याख्या-पद्धति का भेद भी है। आगम-साहित्य के व्याख्यान की दो पद्धतियां हैं-छिन्नच्छेदनयिक और अच्छिन्नच्छेदनयिक। प्रथम पद्धति के अनुसार प्रत्येक वाक्य तथा श्लोक अपने आपमें परिपूर्ण होता है। पूर्व या अग्रिम वाक्य तथा श्लोक से उसकी सम्बन्ध-योजना नहीं की जाती। द्वितीय पद्धति के अनुसार प्रत्येक वाक्य तथा श्लोक की पूर्व या अग्रिम वाक्य तथा श्लोक के साथ सम्बन्ध-योजना की जाती है। आचारांग की व्याख्या छिन्नच्छेदनयिक पद्धति से करने पर वाक्यों की विसम्बद्धता प्रतीत होती है। यदि अच्छिन्नच्छेदनयिक पद्धति से उसकी व्याख्या की जाए तो उसमें सर्वत्र विसम्बद्धता प्रतीत नहीं होगी। १२. आचारांग का महत्त्व आचारांग आचार का प्रतिपादक सूत्र है, इसलिए यह सब अंगों का सार माना गया है। नियुक्तिकार ने नियुक्ति गाथा १६ में स्वयं जिज्ञासा की --'अंगाणं कि सारो ?' अंगों का सार क्या है ? इसके उत्तर की भाषा में उन्होंने लिखा है -'आयारो।' अर्थात् अंगों का सार आचार है। आचारांग में मोक्ष का उपाय बताया गया है, इसलिए यह समूचे प्रवचन का सार है।' आचारांग के अध्ययन से श्रमण-धर्म ज्ञात होता है, इसलिए आचारधर पहला गणिस्थान (आचार्य होने का प्रथम कारण) कहलाता है। आचारांग मुनि-जीवन का आधारभूत आगम है, इसलिए इसका अध्ययन सर्वप्रथम किया जाता था। नौ ब्रह्मचर्य अध्ययनों का वाचन किए बिना उत्तम या ऊपर के आगमों का वाचन करने पर चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान किया गया है।' आचारांग पढ़ने के बाद ही धर्मानुयोग, गणितानुयोग और द्रव्यानुयोग पढ़े जाते थे। नव दीक्षित मुनि की उपस्थापना आचारांग के शस्त्र-परिज्ञा अध्ययन द्वारा की जाती थी। वह पिण्डकल्पी (भिक्षा लाने योग्य) भी आचारांग के अध्ययन से होता था। आचारांग का अध्ययन किए बिना सूत्रकृत आदि अंगों का अध्ययन विहित नहीं था।' उक्त उद्धरणों से आचारांग का महत्त्वख्यापन होता है। १३. रचना-शैली सूत्रकृतांग चूणि में सूत्र-रचना की चार शैलियों का निर्देश मिलता है --(१) गद्य , (२) पद्य , (३) कथ्य और (४) गेय ।' spersed in the prose texts go far to prove the correctness of my conjecture; for many of these 'disjecta membra' are very similar to verses or Padas of verses occuring in the Sutrakritanga, Uttaradhyayana and Dasavai kalika Sutras. १. आचारांग नियुक्ति, गाथा ९ । २. वही, गाथा १०: आयारम्मि अहीए, जं नाओ होइ समणधम्मो उ । तम्हा आयारधरो, भण्णइ पढमं गणिढाणं ॥ ३. निशीथ, १९४१ : जे भिक्खु णव बंभचेराइं अवाएता उत्तम सुयं वाएइ, वाएंतं वा सातिज्जति।। ४. निशीथ चणि निशीथ सूत्र, चतुर्थ विभाग), पृ० २५३ : अहवा-बंभचेरादी आयारं अवाएत्ता धम्माणुओ इसि भासियादि वाएति, अहवा-सूरपण्णत्तियाइ गणियाणुओगं वाएति, अहवा-दिट्ठिवातं दवियाणुओगं वाएति, अहवाजदा चरणाणुओगो वातित्तो तदा धम्माणुयोगं अवाएत्ता गणियाणुयोगं वाएति, एवं उक्कमो चारणियाए सव्वो वि भासियम्वो। ५. व्यवहारभाष्य, ३।१७४-१७५ । ६. निशीथ चूणि (निशीथ सूत्र, चतुर्य विभाग), पृ० २५२ : अंगं जहा आयारो तं अवाएत्ता सुयगडंगं बाएति । ७. सूत्रकृतांग चूणि, पृ०७ : तं चउव्विधं, तंजहा–गद्यं पद्यं कथ्यं गेयं । गद्यं-चूणिग्रंथः ब्रह्मचर्यादि, पद्यं गाथासोलसगादि, कथनीयं कथ्यं जहा उत्तरज्झयणाणि इसिभासिताणि णायाणि य, गेयं णाम सरसंचारेण जधा काविलिज्जे 'अधुवे असासयंमि संसारंमि दुक्खपउराए।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 ... 590