Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 02
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौ० सविताबाई स्मारक ग्रन्थमाला नं. ४. ६६४S.A साधी नीतीश OF a rer. संक्षिप्त जैन इतिहास। লিথ ক্লানি ভা लेखक:श्रीमान् बाबू कामताप्रसादजी जैन एम.आर. ए. एस. आ. संपादक 'यार' और अनन्टिगोरी तथा भगरन् पार्श्वनाथ, भगवान महावीर, सत्यमार्ग, लाई महावीर, चेलनी आदि _अन्योंके रचयिता। प्रकाशक: मूलचंद किसनदास कापडिया, संपादक “दिगंबर जैन" व मालिक 'दगंबर जैन पुस्तकालय, कापडियाभवन-सूरत। | स्वर्गीय सौ. सविताबाई, धर्मपत्नी मूलचंद किसनदास कालिया स्मरणार्थ 'दिगंबर जैन 'के २७ वर्षके ग्राहकको भेट। [प्रति १००० प्रथमावृत्त] वीर सं० २४६० मूल्य-रु. १-२-०। aroPar-oem e - DA- - Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAA MAA५४४ FAAAAA "जैनविन प्रिन्टिंग प्रेस-सूरतमें मूंद जितनदास कारडियाने मुद्रित किग। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौ० सवितावाई -स्मारक ग्रंथमालानं.४ हमारी धर्मपत्नी सविताबाईका स्वर्गवास सिर्फ २२ वर्षकी युवान वयमें एक २ पुत्र-पुत्रीको छोडकर वीर सं० २४५६ में हुआ तम हमने उनके स्मरणार्य २०००)इस लिये निकाले थे कि यह रकम स्थायी रखकर इसके सूदसे 'सविताबाई स्मारक ग्रन्थमाला' प्रतिवर्ष निकाली जाय और उसका “दिगंबर जैन" या जैन महिलादर्श द्वारा विना मूल्य प्रचार किया जाय। इस प्रकार यह अन्यमाला चालु होकर आज तक निम्नलिखित प्रन्थ इस मालामें प्रकट हो चुके है १-ऐतिहासिक स्त्रियाँ । २-संक्षिप्त जैन इतिहास द्वि० भाग प्र० खंड । ३-पंचरत्न। और चौथा यह सं० जैन इतिहास द्वि० भाग-दू० खंड प्रकट किया जाता है और 'दिगम्बर जैन के २७ वें वर्षके ग्राहकोंको भेटमें दिया जाता है। जैन समाजमें दान तो अनेक भाई बहिन निकालते हैं परंतु उसका यथेष्ट उपयोग नहीं होता । यदि उपरोक्त प्रकारके दानकी रकमको स्थायी रखकर स्मारक ग्रंथमाला निकाली जानेका प्रचार हो जाये तो जैन समाजमें अनेक जैन प्रन्योंका सुलभतया प्रचार हो सकेगा। चीर सं० २४६० । मूलचंद किसनदास कापडिया। ज्येष्ट सुदी ६. S सपादक, दिगम्बर जैन-सूरत । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P RED HANI HO - भूमिका भर õuduntasuno कुछ समयमे जैन संप्रदायके कई विभागोंमें अहिंसावादने ऐसा श्रान्त रूप धारण कर लिया है कि लोगोंकी दृष्टिमे वह उपहामास्पद होरहा है। इसी भ्रमको दूर करनेके लिये यह • संक्षिप्त जैन इतिहास" लिखा गया है। इमे हम उक्त संप्रदायझी जागृतिका शुभ लक्षण अनुमान करते है। यद्यपि " संक्षिप्त जैन इतिहास" के इस खण्डमे प्रामाणिक ऐतिहासिक सामग्रीके साथ साथ 'जैन कथाओ' और 'जनश्रतियों का उपभोग किये जानेसे अनेक स्थलोंपर मतभेद होने की सम्भावना भी होसकती है, तथापि इसमे इतिहास-प्रेमियोंके और विशेषकर जैन संप्रदायके अनुयायियोंके मनन करनेके लिये बहुत कुछ सामग्री उपस्थित कीगई है। इसके अलावा इसकी लेखनशैली भी संकुचित साप्रदायिकताकी मनोवृत्तिसे परे होनेके कारण समयोपयोगी और उपादेय है। हम, इस सुन्दर संक्षिप्त इतिहासको रिखकर प्रकाशित करनेके लिये, श्रीयुत बाबू कामताप्रसादजी जैनका हृदयसे स्वागत करते है। इस इतिहासके पूर्ण होनेपर हिन्दी भाषाके भंडार में एक ग्रन्थरलकी वृद्धि होने के साथ ही जैन संप्रदायका भी विशेष उपकार होगा। आशा है इस इतिहासके द्वितीय संस्करणमे इसकी भाषाको और भी परिमार्जित करनेका प्रयत्न किया जायगा। आकियालाजिकल डिपार्टमेंट,। विश्वेश्वरनाथ रेउ। जोधपुर। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लीजिये। मिय मित्र मॉ० हीरालालनी ! अपने प्रिय विषयकी यह एकमात्र कृति-प्रेमभेंट स्वीकार कीजिये ओर इससे भी सुन्दरश्रेष्ठ स्वकीय कृतिसे साहित्य-सदनको समुन्नन बनाइये। -कामतानसाद जैन । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार । hmon " " संक्षिप्त जैन इतिहास " के सरे भागका यह दूसरा वण्ड “पाठकोंके हाथमे देते हुए हमे हर्ष है। ऐसा करनेमे हमारा एकमात्र उद्देश्य ज्ञानोद्योत करना है । इसलिए हमे विश्वास है कि पाठकगण हमारे इस सदप्रयास से समुचित लाभ उठावेंगे और भारतीय जैनोंके पूर्व गौरवको जानकर अपने जीवनको समुन्नत बनानेके लिए उत्साहको ग्रहण करेंगे । इस ग्रन्थनिर्माणमे हमे बहुतसे साहित्यकी प्राप्ति और सहायता हमारे मित्र और इस ग्रंथके सुयोग्य प्रकाशक श्रीयुत सेठ मूलचंद किसनदासजी कापडिया अध्यक्षगण, श्री इम्पीरियल लायब्रेरी कलकत्ता और जैन ओरियटल लायब्रेरी आराम हुई • जिसके लिये हम उनका आभार स्वीकार करते है । प्रूफ-संशोधन आदि कार्य कापडियाजीने स्वय करके जो हमारी सहायता की है, - वह हम भूल नहीं सक्ते । उसके लिये भी कापड़ियाजी धन्यवादके • पात्र है । श्रीमान् साहित्याचार्य पं० विश्वेश्वरनाथजी रेड, एम० आर० ए० एस ०, क्यूरेटर, सरदार म्युजियम - जोधपुर ने इस खंडकी भूमिका लिखने की कृपा की है, हम उनके इस अनुग्रहके लिये उपकृत है। इतिहासके प्रस्तुतः खमे हमने वर्णितकालकी प्राय सब ही मुख्य घटनाओं को प्रगट करनेका प्रयत्न किया है । ऐतिहासिक > Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्ता के साथ जनश्रुतियों और कथाओंका भी समावेश हमने इस भावये कर दिया है कि आगामी ऐतिहासिक खोजमें वह संमक्तः उपयोगी सिद्ध हों। किन्तु जो बात मात्र जनश्रुति या कथा ही अवलम्बित है. उमका हमने स्पष्ट गन्दोंमें उल्लेख कर दिया है। इसलिए किसी प्रकारका भ्रम होनेका भय नहीं है। इतनेपर भी हम नहीं कह सक्त कि इस खडमं वर्णितकालकी मब ही घटनाओं ठीक-ठीक उल्लेख हुआ है। पर जो कुछ लिखा गया है वह एकमात्र ऐतिहासिक दृष्टिकोणसे । अतः संभव है कि किन्हीं स्थलोंर मतभेदका अनुभव प्रबुद्ध पाठक करें। ऐसे अवसरपर निष्पक्ष तर्क और प्रमाण ही कार्यकारी होसक्ते है। उनके आलोकमें समुचित सुधार भी किये जासक्ते है। इस दिशामें कर्मशील होनेवाले समालोचकोंका आभार हम पहले ही स्वीकार किये लेते है। जसवन्तनगर (इटावा) । २४ मई १९३४ विनीतकामताप्रसाद जैन। A S Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B निवेदन। जैन समाजमे ऐतिहासिक खोजपूर्ण पुस्तकोंके सुप्रसिद्ध लेखकश्री० बा० कामताप्रसादजी जैन कृत-"संक्षिप्त जैन इतिहास दूसरा भाग-प्रथम खंड" तीसरे वर्ष हमने प्रकट किया था और इस वर्ष यह दूसरे भागका दूसरा खंड प्रगट किया जाता है जिसमे इस्वीसन पूर्व २५० वर्षसे इस्वीसन् १३०० तकका जैनोका प्राचीन इतिहास संक्षिप्त रूपसे वर्णित है। बा० कामताप्रसादजीकी ऐतिहासिक खोजकी हम कहातक प्रशंसा करें। आज जैन समाजमे तुलनात्मक दृष्टिसे जैन इतिहासकी खोज करने व उसको प्रकाशमे लानेवाले यह एक ही व्यक्ति हैं। यदि आपकी लेखनीको उत्तेजित की जाय तो आपके द्वारा और भी अनेक ऐतिहासिक ग्रन्थ लिखे व प्रकट किये जा सकेंगे। यह ग्रन्थ 'दिगम्बर जैन' (सूरत) के २७ वें वर्षके ग्राहकोंको भेटमे दिया जायगा तथा जो 'दिगंबर जैन' के ग्राहक नहीं है उनके लिये कुछ प्रतियां विक्रयार्थ भी निकाली गई है। आशा है कि ऐसे ऐतिहासिक ग्रन्थका अच्छा प्रचार होगा। प्रकाशका Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - → विषयसूची। मालयन......०१) जैन गाथाओंका शक राजा। इतिहासका महत्व। कुशन साम्राज्यका पतन । कथा और जनधुति। (२) सम्राट् खारवेल ....३१ प्रस्तुत इतिहासका महत्व। फलिगका ऐल चेदिवंश। चौबीस तीर्थकर । खारवेलका राज्याभिषेका जैनधर्मको विशेषता। खारवेल गज्यका प्रथम वर्ष । इतिहास सुधार व गोर्य प्रवर्तक है। खारवेलकी प्रथम दिग्विजय । (१) इन्डोस्ट्रियन व पार्थियन गजधानीमें उत्सव। राज्य..................पृष्ट ९ ग्यारवेलका आक्रमण। वैक्ट्रियन पापियन राज्य । तन सुतियनहर व जनपद नख्या । गजा मेनेन्डर व जैनधर्म। ग्वारवेलफी रानिया व पुत्रलान। शक व मुगन आक्रमण। खारवेलका मगधपर आक्रमण । महागज अजेम व जनधर्म । खारवेलका दान वईत् पूजा। फाल्काचार्य। ग्यारवेलका भारतपर माक्रमण | मत्राट कनिष्का मगवपर आक्रमण व विजय। विदेगी आक्रमणोंका प्रमाव । पाध्यदेशक नरेशकी भेंट। कुगन मात्राज्यमें जैनधर्म। तत्कालीन दशा। जनवर्मका विशाल रूप। खारवेलका राज्य प्रबंध। उन्नप राजवा ग्वारवेलफा राजनैतिक जीवन । उत्रप नहपाना खाग्वेलका गाईस्थ्य जीवन । नहपान व जैनशास्त्र । , जनधर्म प्रमावनाके कार्य। नहपान ही भूतपलि हुमाया। जिनवाणीका उद्धार। छत्रप मामह जनी। खारवेलका शिलालेख। शक मम्यता नन्दाब्द। - Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) कलिगमें जैनधर्म । (४) गुप्त साम्राज्य व जैनधर्म८८ खारवेलका अतिम जीवन। गुप्तवंशका चन्द्रगुप्त प्रथम । खारवेलका गर्दभिल्ल वश है। समुद्रगुप्ता उडिया ग्रन्थों में खारवेल। चन्द्रगुप्त द्वितीया संवतवार विवरण। चीनी यात्री फाह्यान । चन्द्रगुप्त और जैनधर्म। (३) अन्य राजा व जैनधर्म....५७, गुप्तवंशके मंतिम गजा। तत्कालीन जैनधर्म । गुप्त राज्यकी भवनति । अहिच्छत्रके वंशमें जैनधर्म। तत्कालीन धर्म व साहित्य। मथुराका नागवंश और जैनधर्म ।। दिगम्बर जैन सव। पाचाल राज्यमें जैनधर्म । वगकलिगमें जैनधर्म। कोसाम्बी राज्यमें जैनधर्म। गुप्तकालकी कला । जैन राजा पुष्पमित्र। उस समयके व्यापारी। राजा विक्रमादित्य। हण राज्य। विक्रमादित्य व जैनधर्म। यशोधर्मा। विक्रम संवत्। (५) हर्षवर्धन व हुएनत्सांग-१०४ विक्रम व वीरसवत्। हर्षवर्धन | दिगम्बर श्वेताबर सघभेद। धार्मिक उदारता । दि० जैन संघ व उसके प्रभेद ।। सामाजिक परिस्थिति । दि० मतानुसार श्वे.की उत्पत्ति। चीनी यात्री हुयेनत्साग । तत्कालीन जैनधर्म। तत्कालीन शिक्षाप्रणाली। उपजातियोंकी उत्पत्ति। (६) गुजरातमें जैनधर्म और श्वे अमवाल वैश्य जाति। आगम ग्रंथोंकी उत्पत्ति-११२ खडेलवालकी उत्पत्ति। प्रा० गुजरातमें जैनधर्म । ओसवाल जातिका प्रादुर्भाव ।। इतिहासकालमें गु०का जैनधर्म ! लम्बकंचुक जातिका जन्म। | मध्यकालमें गु० में जैनधर्म । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वे० आगमकी उत्पत्ति | श्वे० बौद्ध ग्रंथोका सादृश्य | हैहय व कलचूरी गजा । चालुक्य राजा व जेनधर्म । राष्ट्रकूट वशमें जनधर्म | ( ११ ) चावड़ राजाओंके जैन कार्य । सोलकी राजा व जनधर्म | सम्राट् कुमारपाल | कुमारपालकी साम्राज्यवृद्ध | जैन मन्त्री वाहड़ | कुमारपाल व जैनधर्म | कुमारपाल व साहित्यवृद्धि । कुमारपालका गार्हस्थ्य जीवन । सोलकी राज्यका पतन | वाघेल वंश और जैनधर्म । वस्तुपाल और तेजपाल । आबूके जैन मंदिर | वस्तुपाठका अंतिम जीवन । श्वे० धर्मका अभ्युदय । दिगम्बर धर्मका उत्कर्ष । (७) उत्तरी भारतके राज्य व जैनधर्म................१४४ राजपूत और जनधर्म | कन्नोजके राजा भोज परिहार | विविध राजवंशों में जैनधर्म । ग्वालियरके राजा व जैनधर्म । मध्यभारत जैनधर्म राजा ईल और जेनधर्म | मध्य प्रान्त में जैनधर्म | धाराका राजवंश और जैनधर्म।। राजा भुज और जैन विद्वान | ममितगति आचार्य | राजा भोज और जैनधर्म । दूवकुडके कच्छवाहे । नश्वर्मा और जैनधर्म | कविवर आशाघर | बगाठ मोड़ीसा में जैनधर्म ओड़ीसा के अंतिम राजा । राजपूताना में जनधर्म मेवाडके राणा वंश में जेनधर्म |. मारवाडमें जनधर्म । नादौ के चौहान व जैनधर्म राठौड़ो में जैनधर्म | मडोरके प्रतिहार व जनधर्म । वागड़ प्रान्तमें जैनधर्म | अजमेर के चौहान व जनधर्म |. सिंधु - पंजाबमें जनधर्म | तत्कालीन दि० जैन सघ । उज्जेन व वागका संघ । प्रसिद्ध दिगम्बराचार्य | मुनिधर्म | गृहस्थ धर्म । अनकी शुद्धि | जैनधर्मकी उपयोगिता । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋट कलि शुद् शुद्धयाशुद्धिपत्र । युद्ध जनप्रति जनयुति मन्नात अवगत मूर्तिग मनियों 1932 1932, pp. 159-150 इंटिया इहिमाल .: Salieuka 792 Salisaks Jaia Antiqusis 'निलिन्दपाह' कालाचा . अगे पढो 'पृ०२३३ 1 २३ 'निलिन्द-पह' काल्काचार्य Ancient India. p. 13. 'माहनानुभाइ मंदिगतिको 'माउनानुनाउ मंदगदि २८१८ ____16 Jabors Jbove. YTL. P. 349. ४२९ ४५-४५९ दन्हि दतिहत की थी। रक्ती थी। गये ४ Dameterioo जनप्त Demeterios जानन्द मना जाउगढ़ शिलालेख जाडगढ़ शीलारेख Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ x विरुद्ध और विरुद्ध *** १६-५६ शास्त्रोंको x * नागवंश नागवशी ५२-५६ शास्त्रोंके नहपानको किशा किया २७५-२७९ २७८-२७९ १८ १८३ Shulbhadra's Sthulbhadra's १७ 'कठिन है' शब्दके मागे पढों "मूलमें दिगबर जैनी अपने प्राचीन नाम 'निम्रन्थ से ही प्रसिद्ध रहे। श्वेतापर अपनेको 'श्वेतपट' कहते थे, परन्तु दिगबर तब 'निर्भय' नामके ही अभिहित थे; जैसे कि कादंबर वशी राजाओंके ताम्रपत्र आदिसे प्रगट है।" (१४८-४९) (१४८-४९) 198 मुर्ति भूमूर्ति ७५ से भूषित वर्णनसे सेषित वर्णनने उन प्रन Mathura तथा . Mothera तथापि J होता k: AASEE: $ होना २७९७ वण्णदेव मल्लिपेषण २७९) वप्पदेव मल्लिपेण Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) م जैनधर्म उसमें س س घरोंसे अपर ه ه ه यद्यपि सरकारी " ३ ه ه " ه जैनधर्म भी उसमें भी घरोंके उपर सरकारी कितु... आया है। कल्किा उखका भा० १२२ संस्थामें पृ०६७१ १-१२ निर्मित सबलसंधेहि धीम्बर ११९ बारय्या तत्कालीक ه १०७ १०८ २३ १०९ ११५ * * * = * * कल्किका उसका भा० १३ पृ० ५२२ संस्थायें कंजाएई पृ० ६७१ १-७२ निर्मित हुभा सयलसंघेहि धीश्वर ११४ बाप्पा तात्कालीन १२१ १२५ १३३ १३८ १४५ * * Eะ १४७ ८९ सचमुख २९२ १५३ १५५ १७४ २२-२३ २२ ज्ञानावर्णव माप्राए ६-७-८ एडिनेवा० शास्त्रविद्या सचमुच २४२ ज्ञातार्णव भापारा० ६ अंक ७-८ एडिजवा० शस्त्रविद्या १७७ १८१८ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेताक्षर सूची । प्रस्तुत ग्रंथके संकलन में निन्न ग्रन्थोंसे सहायता ग्रहण की गई है, जिनका उल्लेख निम्न सक्तरूपमें यथास्थान किया गया हैअ० = शौक के धर्मलेख लेखक श्री० जनार्दन भट्ट एन० ए० ( काशी, सं० १९८० ) । महि० = 'मली हिस्ट्री आफ इन्डिया'- सः विसेन्ट स्मिथ एम० ए० ( चौथी आवृत्ति ) । अशोक०'अशोक' ले० सर विन्सेन्ट स्मिथ एम० ए० । भाक०' मागधना कथाकोप' ठे० ० नेमिदत्त (जैन मित्र आफिस, सुरत ) । ऑजी०=आजीविस्म - भाग १ डॉ० वेनी मानव मारुमा० डी० टिटू ( कलकत्ता १९२० ) । आसू०= 'आचारात सूत्र' मूल (श्वेताम्बर आगम ग्रंथ ) । अहि० = ऑक्सफर्ड हिस्ट्री ऑफ इन्डिया - विसेन्ट स्मिथ एम.ए. 1 ईऐ०= इन्डियन ऐन्टीके) (त्रैमासिक पत्रिका ) | इरिइन्सायक्रोपेडिया आफ रिलीजन एण्ड इथिक्स है स्ट्रिग्स | इंसेज ० = 'इन्डियन सेक्ट ऑफ दी जैन्म' वुल्हर | इंडिका ० = इंडियन हिसटोरीकल क्वार्टर्ली स० डॉ० नरेन्द्रनाथ टॉ-कलकत्ता । उद० = ' उवास गढसाओ सुत्त० ' -डा० हाणले ( Biblo Indica ). उपु०व० उ. पु. = ' उत्तरपुराण' श्री गुणभद्राचार्य व पं. लालारामजी । उसू० = ' उत्तराध्ययन सूत्र' (श्वेताम्बरीय आगम ग्रंथ ) जाल कॉपेंटियर ( उपसला ) । एइ०='एपिफिया इंडिका ' | Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . एइमे० या मेएइ० एन्शियेन्ट इन्डिया एजडिस्क्राइब्ड धाई मेगस्थनीज एण्ड ऐरियन'-(१८७७)। एइजै०-एन इपीटोम ऑफ जेनीम-श्री पूर्णचन्द्र नाहर एम०ए० एमिक्षदा०- एन्शियेन्ट मिड इडियन क्षत्रिय ट्राइन्स 'डॉ० विमलाचरण लॉ (फलकत्ता)। ऐरि०-ऐशियाटिक रिसर्चज-सर विलियम जोन्स (सन् १७९९ व १९०९)। एइ० एशियेन्ट इडिया एजडिस्काइन्ड वाई स्ट्रबो मैक किंडल (१८०१)। कजाइ-कनिवम, जागरफी आफ एशियेन्ट इंडिया-(कलकत्ता १९२४)। ___ कलि०= ए हिस्ट्री ऑफ कनारीज लिट्रेचर' ई० पी० गइस (H. L S. 1921) कसू० कल्पसूत्र मूल (श्वेताम्बरी आगम प्रन्य)। काले-कारमाइकल लेक्वस डॉ० डी० आर० भाण्डारकार। कैहिइ० कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इडिया ऐन्शियेन्ट इंडिया, मा० १-रैपसन सा० (१९२२)। गुसापरिन् गुजराती साहित्य परिषद् रिपोर्ट-सातवीं । (भावनगर स० १९८२)। गौबु०- गौतमबुद्ध' के० जे० सॉन्डर्स (H. LS)। चमभ०'चद्रराज भडारी कृत भगवान महावीर जवि मोसो०-जनरल आफ दी विहार एण्ड मोडीसा रिसच सोसाइटी। जम्बू जम्बूकुमार चरित्र (सूरत वीरान्द २४४०)। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) जमीसो० = जर्नल आफ दी मीथिक सोसाइटी - वेंगलोर । जर एसा ० = जनरल ऑफ दी गयल ऐसियाटिक सोसायटी- लंदन | 'जैका ० = ' 'जैन कानून' (श्री० चम्पतराय जैन विद्यावा ० विजनौर १९९२८ ) । 'जंग०-' 'जैन गजट ' अंग्रेजी (मद्रास ) । जैप्र० = जैनधर्म प्रकाश व्र० शीतलप्रसादजी (विजनौर १९२७) । जैस्तू०= जैनस्तूप एण्ड अदर एण्टीकटीज ऑफ मथुरा - स्मिथ | जैसास ० = 'जैन साहित्य संशोधक' मु० जिनविजयजी (पूना) । जेसिमा ०=जन सिद्धान्त भास्कर श्री पद्मगज जैन (कलकत्ता) । जैशि सं०= 'जैन शिलालेख संग्रह' - प्रो० हीरालाल जैन (माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला | जैहि० = जैन हितैषी सं० पं० नाथूगमजी व पं० जुगलकिशोरजी ( बम्बई ) । जैसू० (J8 ) = जैन सूत्राज ( S. E Series, Vols. XXII & XLV ). टॉरा ० = टॉडसा० कृत राजस्थानका इतिहास ( वेङ्केटेश्वर प्रेस) । डिजेवा०- ए डिक्शनरी ऑफ जैन बायोफी' श्री उमरावसिंह टॉक (आग) | तक्ष० = ए गाइड टू तक्षशिला' - सर जॉन मारशल (१९१८) । तत्वार्थ० = तत्वार्थाधिगम् सूत्र श्री उमास्वाति S. B. J. Vol. तिप० = ' तिल्लोय पण्णत्ति ' श्री यति वृषभाचार्य (जैन हितैषी भा० १३ अंक १२ ) । दिजै० = ' दि० जैन मासिक पत्र सं० श्री. मूलचन्ट किसनदास कापड़िया (सूरत) । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) दोनि०दीघनिकाय' ( P. T, S.)। परि०-परिशिष्ट पर्व-श्री हेमचन्द्राचार्य । प्राजलेम०प्राचीन जैन लेख मग्रह कामताप्रसाट जन (वर्धा)। बविओ जैस्मा०-बंगाल, बिहार, मोड़ीसा जैन स्मारक-श्री ब्रह्म'चारी शीतलप्रमादजी। बजेस्मा०-बम्बई प्रातके प्राचीन जनस्मारक व शीतलप्रसादजी! बुइ०-बुद्धिष्ट इन्डिया-पा० हीस डेविड्स ।। भाषा०-भगवान् प्रार्थनाथ-ले० कामताप्रसाद जैन (सूरत)। मम भगवान महावीर- " " " भमबु० भगवान महावीर औरम वुद्ध कामताप्रसाद्र जैन (सूरत)। भमी०-भट्टारक मीमासा (गुजराती) सूरत । भाई०=भारतवर्षका इतिहास-डॉ० ईश्वरीप्रसाट डी० लिङ् (प्रयाग १९२७)। भामगो० अगोक-डॉ० भण्डारक ( कलकत्ता)। भामारा भारतके प्राचीन राजवश श्री. विश्वेश्वरनाथ रेउ (बंबई)। भाप्रासइ०-भारतकी प्राचीन सम्यताकाइतिहास,सर रमेशचंद्र दत्त। मजैइ-मराठी जैन इतिहास । मनि०% मज्झिमनिकाय . ' •मज्झिम०% ममप्रजैस्मा० मद्रासमैसूरके प्रा० जैन स्मारक ब्रशीतलप्रसादजी। -महा-महावग्ग (S B. E Vol XVII). मिलिन्द्र०मिलिन्द पन्ह (S. B Vol. XXXV.) मुरा-मुद्राराक्षस नाटक-इन दी हिन्दू ड्रामेटिस वर्कस,विलसन। -मूला-मुलाचार वट्टकेर स्वामी (हिन्दी भाषा सहित बम्बई)। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) ममशो-अशोक मैकफैल कृत (H. L.S.). मेबु०-मैन्युल माफ बुद्धिज्म-( स्पेनहार्डी)। रमा-रत्नकरण्ड श्रावकाचार न०० जुगलकिशोरजी (बम्बई)। गइ० गजातानेका इतिहास भाग १-०३०५० गोगेशकर डीराचंद मोना। रिलिजम आकी इम्पायर--( लन्दन । लाभाम-लाइक आफ महावीरला. माणिकचंद्रजी (इलाहावाद)। लाभाइ०-मारतवर्षका इतिहास ला० लाजपतराय कृत (लाहौर)। लाम-लार्ड महावीर एण्ट अधर टीचर्स ऑफ हिज टाइम-कामजाप्रसाद (दिल्ली)। लाववु०-लाइफ एण्ड वस ऑफ युद्ध घोष-डॉ. विमलाचरण टॅा० (कलकत्ता)। बजैश-वृहद् जन शब्दार्णव-१० बिहारीलालजी चेतन्य । विर०-विद रत्नमाला-पं० नायरामजी प्रेमी (वंबई)। अव०-श्रवणबेलगोला, ग०० प्रो० नरसिंहाचार एम० ए० (मद्रास)। श्रेच० श्रेणिकाचरित्र (मुग्त)। सामियामर आशुतोष मोरियल वॉल्यूम (पटना)। सकौ सम्बतत्र कौमुदी (बबई)। सजै० सनातन जैन धर्म-अनु० कामताप्रसाद (कलकत्ता)। संजइ० संक्षिप्त जैन इतिहा- प्र म भाग कामताप्रसाद (सूरत)। सटिजे-सम डिस्टिम्गुइस्ड उ स उमगसिह टाक (आगरा)। समजिस्मा मयुक्त प्रन्तके प्राचीन जैन स्मारक-त्र. शीतल। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) स्साइजै० स्टडीज इन साउथ इडियन जैनिज्म प्रो० रामास्वामी मायगर । ससू० सम्राट अकबर और सूरीश्वर-मुनि विद्याविजयजी (आगरा)। सक्षदाएइ०-सम क्षत्री दाइन्स इन एन्शियन्ट इंडिया-डॉ० विमलाचरण ला०। साम्स० साम्स आफ दी ब्रदरेन । सुनि०-सुत्तनिपात (s. BE.)। हरि-हरिवंशपुराण-श्री जिनसेनाचार्य (कलकत्ता)। हॉजै० हॉर्ट ऑफ जैनीज्म मिसेज स्टीवेन्सन (लंदन)। हिआइost हिमारूइ हिस्ट्री ऑफ दी आर्यन रूल इन इंडिया-हैवेल। हिग्ली०=हिस्टोरीकल ग्लीनिन्गस-डॉ. विमलाचरण लॉ०। हिटे-हिन्दू टेल्स-जे. जे. मेयर्स । हिड्राव हिन्दू ड्रामेटिक व विलसन् । हिप्रीइफि०-हिस्ट्री माफ दी प्री-बुद्धिस्टिक इंडियन फिलासफी बारुमा (कलकत्ता)। हिलिनै हिस्ट्री एण्ड लिट्रेचर ऑफ नीज्म-बारोदिया (१८०९)। हिवि०-हिन्दी विश्वकोष नागेन्द्रनाथ वसु (कलकत्ता)। क्षत्रोक्लेन्स क्षत्रीक्लेन्स इन बुद्धिष्ट इडिया-डा० विमलाचरण लॉ०। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास। द्वितीय भाग-द्वितीय खंड। ( सन् २५० ई० पूर्वसे सन् १३०० ई० तक) प्राशन । इतिहासका कार्य सत्य घटनाको प्रकट करना है । जो बात जैसे घटित होचुकी है, उसका वैसा ही इतिहासका महत्व । वर्णन करना इतिहास हे । साहित्य जगतमें पुरातन कथा, पुराण, जनश्रुति आदिका __ संग्रह इतिहास कहलाता है। सत्य उसका मूलाधार है । सत्य इतिहास ही सजीव इतिहास है और वही इतिहास अपने उद्देश्यमें सफल होता है। मानव जगत सत्य इतिहाससे ही टीकर शिक्षा ग्रहण कर सकता है । अतएव मानव हितके लिये यथार्थ इतिहासका निरूपण होना अत्यन्त आवश्यक है। प्रत्येक र ष्ट्र और जातिको अपने पूर्वजोका वास्तविक इतिहास ज्ञात होनसे, वह अपने गौरव, प्रतिष्ठा और शक्तिको प्राप्त करनेके लिये सचेष्ट होता है। इतिहास उस राष्ट्र और जातिमें नया जीवन, नई स्फूर्ति और नये भावोंको जन्म देता है। वह शिक्षित समाजमें एक युग प्रवर्तकका कार्य करता है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] MAAVAAAA--- - सप्ति जैन इतिहास । romeromer m • • .. mmmmmmmm इतिहासके महत्वको भुलाकर कार्ड भी गष्ट्र या जाति जीवित नहीं रह सकीं। जैनाचार्य इतिहासके महल कथा और जनश्रति । त्वमे अवज्ञान हे हैं । जैन वागमयमे प्रथमानुयोग ' का अस्तित्व इसी बातका द्योतक हे । किनु कहाजासकता है कि क्याओं और जनश्रुनियाको वाम्नविक इनिहाय को माना जाय ' यह गा तव्यहीन नही है. कितु किसी गष्ट्र या जानिके इतिहासको प्रकट करनेवाली कथाओं और जनश्रुतियोको यदि एकदम ठुकरा दिया जाय . नो फिर उस राष्ट्र या जातिका इनिहाम किम आधाग्मे लिखा जाय । अतएव श्रेयमार्ग यह है कि इतिहास-विषयक कथाओं और जनश्रुतियोंको तबतक अम्वीकार न करना चाहिये जबतक कि वह अन्य स्वाधीन साक्षी-गिलालेख आदिम असत्य सिद्ध न होजाय ! बस जैन कथाओं जनश्रुतियों या अन्य परम्परीण मान्यताओंको जैन जातिके इतिहास लिखनेमे भुलाया नहीं जासकता ! इसी बातको ध्यानमे रख करके हमने जैन कथाओ और जनश्रुतियोका भी उपयोग इस इतिहासके लिखनेमे किया हे । हा, जहापर कोई बात इतिहासमे विरुद्ध प्रतीत हुई, वहा उसको अमान्य या प्रकट कर देना हमने उचित समझा' है, क्योंकि पक्षपात इतिहासका शत्रु है । प्रस्तुत इतिहास लिखनेमें हमने इस नीतिका ही यथासंभव पालन किया है। ___ 'जैन इतिहास' जैन धर्मावलम्बियोंका इतिहास है। अतः जैन धर्म विषयक इस इतिहासमे जैन महाप्रस्तुत इतिहास और पुरुषों, राजा महाराजाओं, आचार्य विद्वानों, उसका महत्व। सघ-गणादि सम्बन्धी विशेष घटनाओंका Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकथन । [३ । यथार्थ परिचय और उसका प्रभाव भिन्न २ कालोंमें तत्कालीन परिस्थिनिपर कैमा पडा था, यह सब कुछ बतलानेका प्रयास किया गया है । इस इतिहासको हमने 'भा० दिगम्बर जैन परिषद' के प्रस्तावानुसार कई वर्षों पहलेस लिखना आरम्भ किया था। मौभाग्य-वग इसका प्रथम भाग जिसमें जैनोंके पुराणवर्णित महापुस्पोका वर्णन है. सन् १९२६ मे ही प्रकट होगया था। उसके __लगभग छह वर्षोंके पश्चात उसके दूसरे भागका पहला खण्ड विगत वर्ष फरवरी १९३२ मे प्रकाशित हुआ था। दूसरे भागमें ई० पूर्व ६०० मे सन् १३०० तकका इतिहास लिखना इष्ट है। उस भागको तीन खण्डोमे विभक्त किया गया है। पहले खण्डमें म० महावीरके समयमे शुङ्गकाल तकका वर्णन लिखा गया है। इस दूसरे खण्डमे तबसे सन् १३०० तकका उत्तर भारतसे सम्बन्ध रखनेवाला इतिहास प्रकट किया गया है व तीसरे खण्डमे दक्षिणभारतका इनिहास संकलित करना शेप है। ___अन्तिम अग प्रस्तुत इतिहासका तीसरा भाग होगा और उसमें सन् १३०० के उपगन्त वर्तमानकाल तकका इनिहास प्रकट करना वाञ्छनीय है। किन्तु प्रस्तुत इतिहासको मात्र 'जैन इतिहास' समझना ठीक नहीं है। वस्तुत. वह जैन दृष्टिसे लिखा हुआ और जैनोंकी मुख्यताको लिये हुए भारतवर्षका इतिहास है । इस रूपमे ही उसका महत्व है। एक जिज्ञासु उसको पढ लेनेमे जैन इतिहासके साथ २ भारतवर्षके इतिहासका ज्ञान प्राप्त कर सकता है। उसके अतिरिक्त जैन इतिहास विषयका यही अपनी श्रेणीका पहला ग्रन्थ है। प्रस्तुत इतिहासके प्रथम भाग और दूसरे भागके प्रथम खण्डमें Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ~ AAVAN संक्षिप्त जैन इतिहास । जैनधर्मक स्वन्प उसकी प्राचीनता और चौबीस तीर्थङ्कर । उसके नुग्न्य चौवीस नीर्थद्वगे विषयमे बहुत कुछ लिया जाचुका है। उसको यहापर दुहसना व्यर्थ है, किन्तु हालमे चौबीस तीर्थकरोंके विषयमे एक नई गहा खड़ी हुई है-उनके अस्तित्वको काल्पनिक कहा गया है । यदि यह कथन किसी प्रमाणके आधार पर होता-कोरी कल्पना न हेती, तो इसे कुछ महत्व भी दिया जाता. परन्तु यह निराधार है और इससे ऐसी कोई बात प्रगट नहीं होती जिसमे चौबीस नीर्थदूरविषयक मान्यता वाधित हो। प्रत्युत स्वाधीन मादीसे इम जैन मान्यताका समर्थन होता है। भारतीय शिलालेख, वैदिक और बौद्ध साहित्य उसका समर्थन करते हैं यह पहले लिखा जाचुका है। हालसे 'मोइन-जो-डरो के पुरातत्वपर जो प्रकाश पड़ा है, वह उस कालसे अर्थात् आजसे लगभग पाच हजार वर्ष पहले जैन धर्म और उसके साथ जैन तीर्थङ्करोंका अस्तित्व प्रमाणित करता है। वहासे ऐसी नग्न मूर्तियां प्राप्त हुई है, जिनकी आकृति टीक जैन मूर्तियाँ सहश है और उनपर जैन तीर्थकरोंके चिह्न बैल आदि है। एक लेखले स्पष्टत 'जिनेश्वर भगवानका उल्लेख है । १-"जैनजगत में इसी प्रकारका लेख प्रगट किया गया है।२-"संक्षिप्त जैन इतिहास" प्रथम भागकी प्रस्तावना तथा द्वितीय भाग प्रथम खंड पृ.३ 3-5€ A standing Image of Jain Rishabha in Kayotsarga posture. . closely resembles the pose of the standiog derties on the Indus seals etc. etc" -Modern Revear, Aug 1982. 8-मद्रा नं० ४४९ पर 'जिनेश्वर' शब्द अद्रित है। देखो इंटिमा०, भा० ८ इन्डससील्स पृ०.१८ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकथन। इन बातोको देखकर विद्वान जैनधर्मका सम्बन्ध उनसे स्थापित कैरन है। इस माक्षीसे तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथके बहुत पहले जैनधर्मका अन्तित्व प्रमाणित होता है। इस दशामें भ० पार्श्वनाथके पहले भी तीर्थहरीका होना आवश्यक है। अब यदि उनको काल्पनिक मान लिया जाय तो ई० पूर्व ८-९वीं शताब्दीके पूर्व जैनधर्मकी सत्ता न होनी चाहिये । किन्तु यह उपरोक्त पुरातत्व विषयक साभी बाधित है। अतएव भ० पार्श्वनाथके पूर्ववर्ती तीर्थकको वास्तविक व्यक्तिया मानना उचित है। जैन धर्म एक सत्य अर्थात् विज्ञान है। सत्य होनेके कारण उसका व्यवहारिक होना लाजमी है। वस्तुतः जैनधमकी विशेषता । जैन इतिहास उसे एक ऐसा ही धर्म प्रमा णित करता है। हा, जैनियोंकी वर्तमान शोचनीय दशा हमारी इस व्याख्याको एक अतिसाहसी-सा वक्तव्य दर्शाती है; किन्तु जरा देखिये तो आजकलके भारतीय धर्मोके अनुयायियोको! उन धर्मोके मूल सिद्धांत कुछ है और उनके अनुयायियोंका आचरण आज कुछ और है। जैनी भी अपने धर्मके मूल सिद्धांतोंसे बहुत कुछ भटक गये है । उनका पूर्व इतिहास और धर्मशास्त्र इस व्याख्याकी माक्षी है। उदाहरणत जैनधर्मके अहिंसा सिद्धान्तको ले लीजिये। आज हम सिद्धातकी जैसी मिट्टी पलीद जैनियोंने की है, JaDr. l'ran Vath writes in the Indian Hist. Quarterly (Vol. VIII No.) "The names and symbols on Plates annexed would appear to disclose a connection between the od religious cults of the Hindus and Jainas with those of this Indus people” -- - - Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास। वैसी शायद ही कभी हुई है। अहिसा तत्व मूलमे मनुष्यको शुरवीर बनानेवाला है। किन्तु आजके जैनी उसे कायरताका जनक मान रहे है । नौवत यहातक पहुंची है कि अहिमाके झंठ भयके कारण जैनी अपनी, अपने बालबच्चो और धन सम्पतिकी रक्षा करने योग्य भी नहीं रहे है । किन्तु जैन इतिहासको देखिये वह कुछ और ही बात बतलाता है । अहिसा अणुव्रतको पालनेवाले अनेक जैन वीर ऐसे हुये है, जिन्होने देश और धर्मके लिये अगणित युद्ध ग्चे थे। मौर्य सम्राट चंद्रगुप्तने अपने भुजविक्रमसे अपना साम्राज्य स्थापित किया था। उन्होंने ही यूनानी वादगाह मिल्यूकमको मार भगाकर भारतकी स्वाधीनताको अक्षुण्ण रक्खा था। सम्राट सम्प्रतिने देश-विदेशमे धर्म साम्राज्य स्थापित करनेका उद्योग किया था। उसके उत्तराधिकारी शालिसूकने सौराष्ट्रको अपने असिबलसे विजय करके वहा जैनधर्मका प्रचार किया था । इसे उन्होंने अपनी महान् 'धर्मविजय कहा है। इसी तरह कलिङ्ग १-हिन्दू अन्य ‘गर्गसंहिता' के 'युगपुराण ' में यह उल्लेख इस प्रकार है.-"तस्मिन् पुष्पपुरे रम्ये जनारामशताकुले । ऋतुकर्मक्षयाकूतः शालिशूको भविष्यति । स राजाकर्मनिरतो दुष्टात्मा प्रियविग्रहः। सौराष्ट्रमर्दयन् घोरं धर्मवादी ह्यधार्मिक. ।। स्व ज्येष्ठं भ्रातर साधु सप्रति प्रथयन् गणैः । ख्यापयिष्यति मोहात्मा विजयं नाम धार्मिकम् ॥" दीवानबहादुर प्रो० के० ध्रुव इसका अर्थ इस प्रकार करते हैं: “ In the beautiful city of Puspapura studded with hundreds of Public parks, there will arise Salisaka intent on the abolition of sacrifical ritual That wicked king, addicted to evil deeds, taking pleasure in (religious ) squabbles, talking Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायन । चक्रवर्ती ऐल खारवेरने अनेक मग्रामोमे अपना शौर्य प्रकट करके धर्मप्रभावना की थी। उनके भयमे यूनानी बादशाह दमित्रय भारत छोडकर भाग गया था। जन बीर वाग्वेलने पुन म्वाधीन भारतकी प्रतिष्ठाको बाल २ बचा लिया । यह मन ही वीर परम धर्मान्मा श्रावक थे । चन्द्रगुप्त नो अन्नमे जैन मुनि होगये थे । ग्वाग्वेलने कुमार्गपर्वतपर योग्र व्रत-उपवासोको करके अपनेको क्षीण समृतः बना लिया था। अहिंसा तत्वको उन्होंने ठीक-ठीक समझा था और उमका प्रकाश अपने व्यक्तिन्वये ग्वव ही किया । इसी लिये भारतीय विद्वान जैन धर्मको अपने वास्तविक रूपमे शक्ति-गाली धर्म प्रकट करते है । वह कहते हैं कि वह कर्मवीरोंका धर्म है । अकमण्य पुरुषोंका नहीं । वस्तुतः बान भी यही है। जैनाचार्य अपने देश और धर्मके लिये मनुष्यको कर्तव्यशील होनेका उपदेश देते हैं। एक श्रावकके लिये वात्सल्य-धर्म वह हर तरह-जरूरत होतो असिवलप भी अपने धर्मात्मा भाइयोंकी रक्षा करना religion but ( really ) irreligious, steeped in delusion, will terribly prosecute the people of Saurastra and proclaim the so-called Religious Conquest, contributing thereby to the glorification of the religiousness of his elder brother Samprati by sections of the Jan community." -Jhors, XVIP 24. 1-Prof. Dr. B Seshagın Rao, M.:A, ph D, writes : "It appears to me that Jainism is a religion of strength It Is a worker's and not an idler's fuith"--.Jan Antagruary, I, 1. २-आचार्य सोमदेव 'यशस्तिलकचम्पू में कहते है:"यः शस्त्रवृत्तिः समरे रिपुः स्यात्, यः कण्टको वा निजमंडलस्य । अस्त्राणि तत्रैव नृपाः क्षिपन्ति, न दीन-कानीन-शुभाशयेषु ।" Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - ८] संक्षिप्त जैन इतिहास । चतलान है। बात जन अहिसा प्रत्येक श्रेणीके मनुप्यके लिये व्यवहार्य है। वह मनुष्य के जीवन मार्गको निर्मल और निगह बनाती है। जबतक जैनी उसके वास्तविक स्वरूपको ग्रहण किये गं बह खूब फले. फले। भ० महावीर के निकट प्राय सार भारतने अहिंसा धर्मकी दीक्षा ली थी। भारतीय गष्ट सञ्चा अस्मिक इतिहास सुधार और वीर बन गया था। फलत भ० महावीरका शौर्यका प्रवर्तक है। धर्म विशेप उन्नत हुआ था और विदेशी ___ लोग भी भारत-विजयकी लालसाम हताग होकर अपने२ दशोको लौट गये थे । प्रस्तुत ग्रन्थमे जो इतिहास संकलित है, वह इस व्याख्याको दर्पण-वत स्पष्ट करता है । हिन्दू ग्रंथोंकी साक्षी भी इस काल्मे जैन धर्मान्कर्षका समर्थन करनी है। यवन शक आदि विदेशी लोग तक जैनधर्मकी शरणमे आये थे। हिंद शास्त्रकारोंने इन्हें 'वृषल' कहकर अपने धर्मसे बाह्य प्रकट किया है। इन सब बातोसे स्पष्ट है कि जैनधर्म वस्तुत एक शक्तिशाली धर्म है और उसके द्वारा जगतका कल्याण विशेष हुआ है। अर्थ-"जो रणाङ्गणमें युद्ध करनेको सन्मुख हो अथवा अपने देशके कण्टक-उसकी उन्नतिमें बाधक-हों क्षत्रिय वीर उन्हीके ऊपर शस्त्र उठाते हैं-दीनहीन और साधु आशयवालोंके प्रति नहीं विशेषके लिये देखो "जन अहिसा और भारतके राज्यों पर उसका प्रभाव" १-'गर्गसहिता के उल्लेखसे कि 'वृषल भिक्षुक होंगे' (भिक्षुका वृषला लोके भविष्यन्ति न संशय ' उस समय ब्राह्मणोतर साधुओंकी बाहुल्यता स्पष्ट है। र-'मानवधर्मशास्त्र' (१०४३-४४)में पौण्ड, उडू, द्रविड़, कम्बोज, यवन, शक आदिको ब्राह्मण विमुख 'वृषल' हुआ लिखा है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्डो-पैक्ट्रियन और इन्डा पार्थियन राज्य। [९ आजकलके जैनियोंको प्रस्तुत इतिहाससे देखना चाहिये कि उनके पूर्वजोंने किस प्रकार धर्मका गौरव प्रगट किया था । जीव मात्रका कल्याण करनेके लिय उन्होंने निःशंक वृत्ति स्वीकार की थी। जैनधर्मका मूल रूप उनके चारित्रग्ये स्पष्ट है। आज भी उनके आदशंका अनुकरण करना श्रेयस्कर है। प्रस्तुत पुस्तक पाठकोंके लिये इस विषयमे मार्गदर्शकका कार्य करे. यही हमारी अभिलाषा है। सचमुच इतिहासका कार्य ही यह है । वह सुधार और शौर्यका पाठ पढ़ाता है, मुर्दा दिलोमें नये उत्साह और नये जोशको जगाता है। भारतको आज ये वीरभावोत्पादक धर्मकी आवश्यक्ता है ! भारत-संतान अपने वीर पूर्वजोको जाने और उन्हें पहचानकर उनके पगचिन्होंपर चलनेका प्रयत्न करे, यही भावना है। सचमुचः "यह थे वह वीर जिनका नाम सुनकर जोश आता है। रगार्मे जिनके अफसानोंसे चकर खून खाता है।" um इन्डो बाक्ट्रियन और इन्डो हाथियन राज्य छत्रप व कुशन-साम्राज्य । (सन् २२६ ई० पू० से २०६ई०) भारतके उत्तरमे यनानियोंने अपना राज्य स्थापित किया था। सम्राट् चन्द्रगुप्तके वर्णनमें लिखा चैक्ट्रियन और पार्थि- जाचुका हे कि सिल्यूकस नाइकेटर भारतसे - यन राज्य। परास्त होकर बलख आदिकी ओर लौट गया था। सन् २६१ ई० पू०में सिल्कसकी मृत्युके पश्चात् उसका पुत्र एण्टिओकस राजा हुआ परन्तु Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] संक्षिप्त जैन इतिहास। अयोग्य होनेके कारण बलख (वैक्ट्रिया) और पार्थियावाले सन् २५० ई० पू० के लगभग उससे स्वाधीन होगये। भारती सीमापर सिकन्दरके पश्चात् इन यूनानियोंके हमले. बरावर होते रहे थे, किन्तु सल्यूकसके बाद पहला यूनानी राजा जिसने पंजावपर हमला किया डिमिटीअस था । डिमिट्रीअसने अपना अधिकार मथुरा तक जमा लिया था और वह मगधको भी सर करना चाहता था. कितु सम्राट खारवेलके भयसे वह मथुरा छोडकर चला गया था ।* फलत यूनानियोंका भारतीय सीमा पंजाव व सिधुपर अधिकार होगया था। इनमे मेनेन्डर नामका राजा बहुत प्रसिद्ध था। सन् १६० ई० पू०से सन् १४० ई० पू० तक वह कावुलका शासक था। उसने सन् १५५ ई० पू० के निकट भारतपर चढ़ाई की थी। मि० स्मिथने इस घटनाका समय ई० पू० १७५ माना है। मेनेण्डर (मनेन्द्र) या मिलिन्डका जन्म सिधुनढ वर्ती प्रदेशमें ____ अर्थात् 'द्वीप अलसन्द' जिसे यूनानी अलेराजा मेनेन्डर व कजिन्ड्रिया कहते थे, वहा हुआ था । उत्तर जैनधर्म पश्चिमी भारतपर विजय प्राप्त करके मेनेन्डरने पंजाबके साकल (स्यालकोट) नगरमे अपनी राजधानी स्थापित की थी । साकल उस समय बडा समृद्धिशाली नगर था। जैनधर्मका प्रचार भी वहा विशेष था। बौद्ध-धर्म वहां उस समयके बारह वर्ष पहलेसे नहीं था। बौद्ध भिक्षु नागसेनने १-माइ० पृ० ७७. * जविमोसो० भा० १६ पृ० २५८. २भाप्रारा० भा०.२ पृ० १८८. ३-पूर्वे० पृ० १८९. ४-मिलिन्द० पृ० १०. - Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्डो-चैक्ट्रियन और इन्डो पार्थियन राज्य। [११ वहा जाकर बौद्ध धर्मका प्रचार किया था। स्ट्रेवोने लिखा है कि मेनेन्डरने पटल ( मिन्ध ). सुराष्ट्र और सगरडिस ( सागर-द्वीप कच्छ) तक अधिकार कर लिया था। उसके शिके भडौचतक प्रचलिन थे और उसकी सेना राजयूताना तक पहुंची थी। मेनेन्डर वीर होनेके साथ ही गायन भी था । 'लटार्कने उसे एक अन्यन्न न्यायवान राजा लिखा है। वह इतना लोक-प्रिय था कि इसकी मृत्युके पश्चात लोगोंन उसका भस्मावशेष आपसमे बाटकर उसपर स्तूप बनाए थे । मेनेन्डरका अधिकार मथुरा, माध्यमिका (चिनौरके निकट ) और साकेत ( दक्षिणी अवध ) तक होगया था । किन्तु गंगाके आसपास वाले प्रदेशोंमे उसका राज्य अधिक दिनोतक नहीं रहा था । पातन्जलीके महाभाध्यमे यवनों द्वारा साकेत और मध्यमिकाके घेरेका उल्लेख है। संभवतः यह उलेख मैंनन्दरके आक्रमणको लक्ष्य करके लिखा गया है; क्योंकि यह चढ़ाई पातंजलिके समय हुई थी। जष्टिन मेनेन्डरको भारतका राजा लिवता है। बौद्धग्रन्थ 'मिलिन्द पाह' से पता चलता है कि भिक्षु नागमेनके उपदेशय मेनेन्डरने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया थाः किन्तु बौद्ध होनेके पहले उसका जैन होना बहुत कुछ संभव है। उसने जिन दार्शनिक सिद्धातोपर नागसेनके साथ बहस की थी, वह ठीक जैनोंके अनुसार है। स्वयं मिलिन्द पण्ह' में कथन है कि पांचसौ यूनानियोंने राजा मेनेन्डरमे भगवान महावीरके धर्म द्वारा मनस्तुष्टि करनेका आग्रह किया था और मेनेन्डरने • १-भाप्रारा० भा० २ पृ० १४२-१४३. २-विशेषके लिये देखो 'वीर' वर्ष २पृ० ४४६-४४९. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] मंक्षिप्त जेन इतिहास । उनका यह आग्रह स्वीकार भी किया था। उसके अधिकारमे आप हुए नगर मध्यमिकाके भग्नावशेपामेमे एकमे अधिक जैनधर्म लम्बधी लेख निकले है। इन सब बानोन मेनन्डाका एक समय जैनधर्माबलबी होना प्रगट हे। उसके यनानी साथियोंमे भी जैनधर्मकी मान्यता विशेष थी। इस समय लगभग जैन सम्राट ग्वाग्वेल द्वारा जैनधर्मका वहु प्रचार हुआ था । जैन धर्मका प्रकाग जगतन्यापी रहा था। इससे थोडे समय पश्चात् यूनानियोंको सिथियन-जानिक लागाने जिनका भारतीय गक कहने थे. वैक्टियामे शक व कुशन निकाल दिया। साथ ही गक लोगोंने राष्ट्र आक्रमण। पजाव और अफगानिस्तानपर भी अपना अधिकार जमा लिया । शक गजा माआके राज्यमे पजाब और अफगानिस्तान शामिल थे। वीर धीर शोंकी एक शाखाने, जिसे यूची कहते थे, १५० ई०पू०के करीब बैक्ट्रियाको जीत लिया और वह वहा पाच जनसमूहोंमे वट गई । इनमेसे एक कुशनने मारी जातिका सगठन करके उसे एक बना लिया और पजाव तथा अफगानिस्तानपर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। फिर कालान्तरमे शकोंने सौराष्ट्र मालवा, मथुरा तक्षशिला आदि देशोंमे भी अपना आधिपत्य जमा लिया था। शक राजा मोआका उल्लेख अपर किया जाचुका है। उसका उत्तराधिकारी एजेस (Area }) प्रथम था, किन्तु उसके विषयमे कुछ अधिक वर्णन नहीं मिलता है. यदापि इसमे सशय नहीं कि उसका राज्य दीघ और समृद्धिशाली था। , १-मिलिन्द० १०८.२-राई० पृ० ३५८ ३-हिग्ली० पृ० ७८. ४-भाइ० पृ० ७८. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्डो-पैक्ट्रियन और इन्डो पार्थियन राज्य। [१३ संभवन अजेसके पराक्रमय ही शक राज्यका आधिपत्य तमाम उत्तर पश्चिमीय भारतमे जमना नदी तक महाराज अजेसके स्थापित होगया था। उसने 'क्षत्रप नियत. समयमें जैनधर्म। करके पारस्य देशकी राजनीतिकी तरह अपना शासन व्यवस्थित किया था। उसके सिक्कोंपर 'महरजस रजरजस महातस अयस' अथवा 'महरजस रजदिरजस महतन अयस' या ' महरजस महतस ध्रमिकस रजदिरजस अयस ' लेख मिलते है। महाराजा अजेसके समय (ई० पूर्व प्रथम शताब्दि) में तक्षशिलामे जैनधर्म उन्नतिपर था। उस समयकं बने हुए कई जैत स्तुप वहा आज भी भग्नावशेष है । एक स्तूपके भीतरसे महाराजा अजेसके आठ तांबेके सिके, और एक छोटीसी सोनेकी डिविया जिनमें अस्थि-अंश स्वर्णके टुकडे और हाथीदांत एवं पाषाण मणिकायें क्खे हुये थे. निकले थे। इन स्तूपोंकी बनावट ठीक मथुराके जैन स्तूपकी बनावटके समान हैं। इन्हीं स्तूपोंके पासवाली इमारतों से एक लेख अरेमिक (Aramaic) भाषाका ईसवीसन्से पूर्वका निकला है। भारतमें इस लिपि और इस भाषाका यही एक लेख है। हत्भाग्यसे यह अभीतक ठीक २ पढ़ा नहीं गया है। डॉ० बार्नेट और प्रो० कोली इसमें एक हाथीदातके महलके बनवानेका उल्लेख हआ बतलात है। किन्तु एक धार्मिकस्थान-स्तपके निकट महलका बनना कुछ ठीक नहीं जंचता! संभवतः यह महल 'जिन-प्रसाद' अर्थात् जैन मंदिरका द्योतक होगा। १-तक्ष० पृ० १३. २-माप्रारा० मा० २ पृ० १९६.३-तक्ष० पृ० ७६-८०. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ संक्षिप्त जैन इतिहास । शक लोग जैन-धर्मके प्रति महाव रग्वनं यं यह वात श्वेता __म्बर जैन ग्रन्थोके — काल्काचार्य कथानक ' काल्काचार्य। मे भी स्पष्ट है ।' काल्काचार्यके समयमे उज्जैनका राजा गर्दभिल्ल था । उसने अपनी विषयलम्पटताके वश हो. काल्काचार्यकी बहिन आर्यिका सम्बनीको बलात्कार अपनी नी बनालिया । कालाचार्यको गजाका यह अन्याय और पापकृत्य असह्य होगया। उन्होंने अन्ययका विच्छेद करनेके लिये शाकटेश (सैम्तन Setstan) की ओर प्रयाण किया और -वहाके शकराजाओंसे मैत्री करली । कोंके राजा ' साहाणुसाहि ने उन्हें राजद्रोहके अपराधमे दण्ड देना चाहा। उन शकोंने काल्काचार्यका कहना माना और इ० पू० १२३के लगभग ९६ शाही (शक) कुल सिन्धु नदीको पार करके सौराष्ट्रमे आजमे। उनमेसे एक उनका -राजा होगया। कालकने उसे उज्जैनीपर आक्रमण करनेके लिये उत्साहित किया। शकराजाने काल्काचार्यके आग्रहमे उज्जैनीपर ई० पू० १००मे हमला किया। गर्दभिल्लके पापका घडा भर गया था। वह शक सेनाके सामने टिक न सका। मैदान छोड़कर भाग गया। फलत शकराजा उज्जैन अथवा मालवाके शासनाधिकारी हुये। काल्काचार्यका उन्होंने आदर किया। आर्यिका सरस्वतीकी भी मुक्ति होगई । वह प्रायश्चित्त ग्रहण कर पुनः ध्यान लीन होगई। विद्वान् लोग इस कथानकको सच्चा मानते है। उस समय अर्थात ईसवी पर्व १-प्रभावक चरित्र (१९०९ बम्बई) पृ० ३६-४६ व जवि. मोसो० भा० १६ पृ० २९०.२-कैहि इ० पृ० १६७-८ व ९३२.३: अलाहाबाद यूनीवर्सिटी स्टडीज भा० २पृ० १४८जविमोसो०भा०१६. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्डो-बैक्ट्रियन और इन्डो पार्थियन राज्य। [१५ प्रथम शताब्दिमें भारतीय शकराजा 'गाउनानुशाउ' नामक उपाधि ग्रहण करते थे. यह बात इतिहाससिद्ध है। अतः कालक कथानकसे भी 'जैन धर्मके प्रति शक लोगोंकी सहानुभूति' होना प्रकट है । इन शकोका राज्य ई० पूर्व १००से ५८ तक उत्तर व पश्चिमी भारतमें रहा था। कुगनवंगमे कनिष्क सबसे प्रतापी राजा था। उसने अपने पराक्रमसे चीन आदि कई देशोंको जीता और सम्राट कनिष्क । साम्राज्यका विस्तार वढाया था। वह सन् ७८ ई० मे राजसिंहासनपर आरूढ़ हुआ और उसका अधिकांश समय युद्ध करनेमे बीता था । पेशावर (पुरुपपुर) उसकी राजधानी थी। वहीमे वह अपने सारे राज्यका प्रवन्ध करता था, जिसमें पश्चिममें फारस तकका कुछ हिस्सा और पूर्वमें समस्त उत्तरीय भारत पाटलिपुत्र तक सम्मिलित था। कहते है कि गद्दीपर बैठनेके कुछ दिनों बाद कनिष्कने बौद्ध धर्म धारण किया था। उसके राज्यकालमे बौद्ध संघकी एक सभा हुई थी; जिसके निर्णयके अनुसार उत्तरीय भारतके बौद्ध लोग महायान-सम्प्रदायवाले कहलाने लगे थे और दक्षिण 'हीनयान' सम्प्रदायके नामसे प्रसिद्ध हुए थे। कनिष्कने बौद्ध धर्मका खूब प्रचार किया था। उसके समयमें भारतीय व्यापारकी भी खूब वृद्धि हुई थी। कनिष्क विद्याव्यसनी था और उसने कई इमारतें वनवाई थीं। तक्षशिलाके निकट उसने एक राजधानी बनवाई थी। वह आज सरसुख टीलेके नीचे दवी पड़ी है। यमुनाके किनारे मथुराके निकट भी उसने बहुतसी १-भाइ० पृ० ७९-८१. Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | इमारते बनाई थीं । मथुरा के पास कनिककी एक सुंदर नृति निकली है। कनिष्कका राजवैध आयुर्वेदका प्रसिद्ध विद्वान चरक था।' प्रभाव । यद्यपि भारतमे यूनानियों और शकका राज्य रहा था और वे लोग यहापर यम भी गये थे. परन्तु उनकी विदेशी आक्रमणोंका यूनानी या रोमन सभ्यताका प्रभाव भारतपर प्राय नहीं के बरावर पडा था । विद्वान् कहने हे कि बौद्ध धर्मपर अवश्य उसका कुछ प्रभाव पड़ा था । किन्तु ब्राह्मण और जैन धर्मोपर उसका असर कुछ भी नहीं पडा था । यूनानी भाषा कमी भारतमे लेोकप्रिय नहीं हुई और न भारतियोने यूनानियोंके वेषभूषा ओर रहन महनको ही अपनाया था। हा, भारतकी स्थापत्य, आलेग्ब्य और तक्षण विद्यापर उसका किचित् प्रभाव पडा था, परन्तु वह नहींके बराबर था। सचमुच उम समयके भारतीयोंके लिये यह बात बडे गौरवकी है कि उन्होंने अपनी प्राचीन आर्य संस्कृति और सभ्यताको अक्षुण्ण रक्खा । विदेशियोंके सम्पर्कमे रहते हुये भी वह उनके द्वारा तनिक भी प्रभावित नहीं हुये । प्रत्युत उन्होंने अपनी संस्कृति और धर्मका ऐसा प्रभावशाली असर उन लोगों पर डाला कि वे उसपर मुग्ध होगये और उनमेसे अधिकाशने ब्राह्मण, बौद्ध अथवा जैनमतको ग्रहण कर लिया और धीरे २ वह सब मिल जुलकर हिन्दू जनतामे एकमेक होगये । " कनिष्क और उसके उत्तराधिकारियो - हुविष्क और वासुदेवके 1 १- लाभाइ०, पृ० १९७ - २०४ । २ - महि० पृ० ४२९ व लाभाइ० पृ० २०३ । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्डो-पैक्ट्रियन और इन्डो पार्थियन राज्य। [१७ .. राजकालमें जैन धर्मकी उन्नति विशेष हुई थी । मथुरा उस ___ समय जैनधर्मका मुख्य केन्द्र था । वहां कुशन साम्राज्यमें जैन पर भगवान पार्श्वनाथजी (ई० पृ० ९ वीं धर्मका उत्कर्ष। शताब्दि ) के समयका एक जैन स्तूप विद्यमान था । और भी कई स्तूप और जैन मंदिर थे। मथुराके भग्नावशेषोंपर ई० पू० सन् १५० से सन् १०२३ ई० तकके शिलालेख मिले है; किन्तु यह भी विदित है कि ई० पू० सन् १५० से भी पहलेका एक जैन मंदिर मथुरामे था; जिसकी वस्तुओंको नये मंदिरोंके काममें लाया गया था। ऐसा मालूम होता है कि जैनियोका उत्कर्ष वहापर ईसवी सोलहवीं शतान्तिक रहा था । उपरांत मुसलमानों द्वारा जैनोका यह तीर्थ और उसके दर्शनीय प्राचीन स्थान नष्ट कराडाले गये । यहाकी ' कारीगरी बडी मनमोहक और सुन्दर है। इन धर्मायतनोंको राजा और रंक सबने बनवाकर पुन्य संचय किया था। जहां एक ओर कौशिक क्षत्रियो द्वारा निर्मित आयागपटका उल्लेख मिलता है वहा दूसरी ओर नृतक एवं गणिकाओं द्वाग बनवाये गये आयागपट और जैन मंदिर मिलन है । इनमें प्रोष्ठल और साक्य क्षत्रियोंके लिये कालरूप गोतिपुत्रका नाम उल्लेखनीय है । इनकी पुत्री कौशिक वंशकी शिवमित्रा नामक थीं, जिन्होंने जैन मंदिरमे एक आयागपट निर्मित कराया था। इसी प्रकार हाग्तिी पुत्र पालकी स्त्री कौत्सी अमोहनीने अर्हत् पूजाके लिये आर्यवती १-अहिइ० पृ० ३१८ व केहिइ० पृ० १६७. २-जैस्तूप० पृ० १३.३-वीर वर्ष ४ पृ० २९७. ४-एई० भा० १ पृ० ३९४-३९६ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] संक्षिप्त जैन इतिहास । चनवाई थी। इनके अतिरिक्त भग्नावशेषोंमे अङ्कित चित्रों जैसे-राजछत्र लगाये किसी राजाको जैन मावुका उपदेश देना, नागकुमारों (शकों) का विनीत भावमे उपदेश श्रवण करना अथवा पूजा करना इत्यादिसे जनताके साधारण और विशेष मनुष्यों तथा विदेगियोंके मध्य जैन 'धर्मकी मान्यता होनेका परिचय मिलता है | "जम्बुकुमार चरित" से वहा पाचसौमे अधिक स्तूपोंका होना प्रगट है।' उस समय भी जैनधर्म अपने विगाल रूपको धारण किये हुये था। जिन विदेशियोको घृणाकी दृष्टिसे जैनधर्मका विशालरूप । हिन्दू लोग देखते थे, उनको वौद्ध और जैनाचार्योंने अपने २ मतमें दीक्षित किया था। उपरान्त इन दोनों धर्मोकी देखादेखी ब्राह्मणोंने भो अपने मतका प्रचार इन विदेशियोंमे किया था । जैन शास्त्रोंमें सर्व प्रकारके मनु- . प्योंके लिये धर्म साधन करनेका विधान मौजूद है। म्लेच्छ भी यथावसर आर्य होजाता है और वह मुनि होकर मोक्ष लाभ करता है। मथुराके पुरातत्वसे जैनधर्मकी इस विशालताका पता चलता है। विदेशी शक आदि लोग जैनधर्मयुक्त हुए थे और नट, वेश्या आदि जातियोंके लोग भी अर्हत भगवानकी पूजाके लिये जिनमंदिर आदि निर्मित कराकर धर्मोपार्जन करते थे। इन मंदिरादि विविध व्यक्तियोंका दान कहा गया है। १-विशेषके लिये देखो "वीर" वर्ष ४ पृ० २९४-३११. २-अनेकान्त १ पृ० १४०. ३-लब्धिसार गाथा १९५ वेंकी टीका २७१ व विशाल जैन सब नामक हमाग ट्रेक्ट देखो। ४ वीर वर्ष ४ पृ० ३११. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्डो-पैक्ट्रियन और इन्डो पार्थियन राज्य। [१९ यह भी मालूम होता है कि तबतक विवाह क्षेत्रकी विशालतामें भी कोई संकोच नहीं हुआ था। वणिक सिहकका विवाह एक कौगिक वंशीय अत्राणीसे हुआ था। अबतक वैश्य जातिकी उपजातियोका प्रचार नहीं था और लोग चार वर्णोकी अपेक्षा ही एक दूसग्का उल्लेख करते थे। किन्तु इस पुरातत्वमे उस समय अर्थात् ई० पू० प्रथम शताब्दिसे ई० दूसरी शताब्दि तक जैन सघमे जो उथल-पुथल मची हुई थी, उसका खासा परिचय होता है। इसका विशेष वर्णन दिगम्बर और श्वेतांवर भेदका जिकर करते हुये आगे किया जायगा । 'दिगम्बर' अपनेको प्राचीन 'निर्ग्रन्थ' नामसे संशे. धित करते थे। ___ पहले कहा जाचुका है कि इन्डा बैक्ट्रियन राजाओने प्रात प्रांतमें छत्रप नियत करके शासन प्रबन्ध छत्रप राजवंश किया था। कुगन कालमें यह छत्रप लोग उत्तर पश्चिमी भारतके कुशन राजाके सूबेदार थे। किन्तु अन्तमें इनका प्रभाव इतना बढ़ा कि मालवा, गुजरात, काठियावाड़, कच्छ, सिंध, उत्तर कोंकण और राजपूतानेके मेवाड, मारवाद सिरोही, झालावाड, कोटा, परतापगढ़, किशनगट, डूंगरपुर, वांसवाड़ा और अजमेर तक इनका अधिकार होगया। ई० पू० पहली शताब्दिसे ई० चौथी शताब्दि तक भारतमे छत्रपोंके तीन मुख्य राज्य थे; दो उत्तरी और एक पश्चिमी भारतमे। तक्ष. शिला अर्थात् उत्तर पश्चिमी पंजाव और मथुराके छत्रप 'उत्तरी छत्रप' तथा पश्चिमी भारतके छत्रप 'पश्चिमी छत्रप' कहलाते थे। यह मूलमें १-वीर वर्ष ४ पृ० ३०१. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.] संक्षिप्त जन इतिहास । शक जातिके थे और पहले पहल विवाह सम्बन्ध केवल अपनी जातिमे करते थे। कितु उपगत यह लंग जैन और बौद्ध धर्म में दीक्षित होगये थे। वैदिक धमको भी इन लोगोंने अपनाया था। क्षत्रियोंके साथ इनका वैवाहिक सम्बन्ध मी होने लगा था। छत्रप वंशमे नहपान नामका राजा बहुत प्रसिद्ध था। उसका समय ई० पूर्व प्रथम शतालिम ईस्वी प्रथम छत्रप नहपान । शतानि तक विद्वान् अनुमान करते हैं। उमकी गजा' और 'महाछत्रप' उपाधिया थी जो उसे एक स्वाधीन गजा प्रगट करती है। नहपानका गज्य, गुजगन काठियावाड़ कच्छ. मालवा. नामिक आदि देशापर था। उमका जमाता ऋषभदत्त उमका सेनापति था । नहपान भूमका उतराधिकारी था। इस भृमक सिकामे एक ओर सिह व धर्मचक्र तथा ब्राह्मी अक्षरोंका लेव अङ्कित मिलता है । यह चिद् जैनन्वरे योतक है। भूमकके दरवारकी भाषा भी प्राकृत थी । नहपान नित्स. न्देह जैन धर्मानुयायी था । दिगम्बर और तांबर दोनों ही जैन सम्प्रदायोंक शास्त्रोंमे उसका वर्णन मिलता है । श्री जिनमेनाचार्यने उमका उल्लेख ' नरवाह नामसे किया है और उसका राज्यकाल १२ वर्ष लिखा है, जो ई० पूर्व ५८ ' तक अनुमान किय जाता है । जैन गात्रोंमे नहपानका उल्लेख नरवाहन 'नरसेन' 'नहवाण' आदि रूपमें हुआ मिलता है। नहपानका एक विरुद भट्टारक' था। १-माप्रारा० भा० १पृ० २-३. २-भाप्रारा० मा० १ पृ. .१२-१३. ३-विमओसो० भा० १६ पृ० २८९४-राइ० मा० १ पृ० १०३. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www इन्डो-पैक्ट्रियन और इन्डो पार्थियन राज्य। [२१ यह शब्द जैनोंमें विशेष रूढ़ है। उसके जमाताका नाम ऋषभदत्त बिल्कुल एक जैन नाम है। इन सब बातोंको देखते हुए इन शकोंको जैन धर्मभुक्त मानना अनुचित नहीं है । नहपान निस्सन्देड जैन शास्त्रोका नरवाहन हैं । आधुनिक विद्वान भी इस व्याख्याको स्वीकार करते है। इस अवस्थामे नहपानको जैन शास्त्रानुसार जैनी मानलेना ठीक है। श्वआंबर जैन शास्त्र - श्री आवश्यक सूत्र भाष्य ' मे प्रगट है कि " भृगुकच्छमे नहवाण (संस्कृतरूप नरनहपान व जनशास्त्र । वाहन) नामक राजा राज्य करता था। उसके पास अखट धन-कोष था । उसके साथ ही प्रतिष्ठानपुर ( वर्तमान पैठन ) मे एक मालिवाहन नामका राजा था. जिसकी सेना अजेय थी। शालिवाहनने नहवाणकी राजधानीको T-Rishabhadatta 1s, purely a Jaana mame given by Rishabha (The Tirthankara) -JBORS XVI250. 2-"I need hardly say that Nahavana stands for Nahapana." -MM. K. P. Jayswal., JABORS XVI. प. नाथरामजी प्रेमी भी 'नहवाण' को 'नहपान' बताते हैं। जहि० भा० १३ पृ० ५३४. ३-'भरुयच्छे णयरे नहवाहणो राया कोससमिद्धो' आवश्यक सूत्रमाण्य | इसका मस्कृत रूप अभिधान राजेन्द्रकोषमें (भा० ५ पृ० ३८३) में यों दिया है. 'भरकच्छपुरेऽत्राऽऽसीद् भूपतिनरवाहनः।। तपागच्छकी एक प्राकृत पट्टावलीमें नाहवाहणका उल्लेख 'नहनाण' रूपमें हुआ है । इसीलिये हमने नहवाण लिखा है। (जैसा सं० मा० १ अंक ४ पृ० २११) जायसवालजीने भी यही शब्द प्रयुक्त किया है। (जविओसो०, १६ पृ० २८३). - . Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VA DARPAN hdment संक्षिप्त जन इतिहास। आ घेरा; किंतु धनाला समक्ष उसकी दाल न गली । वह दो वा तक भृगुकच्छका घेग डालकर हताग पैठणको वापस चला गया। सालिवाहनका मंत्री नहयाणके यहा आरहा. उसने नहवाणका यन धर्मकार्यमे खूब व्यय कगया । अनेक वर्मस्थान बनवाये और खूब दान-पुण्य किया। मालिवाहनन भृगुकच्छपर फिर आक्रमण किया और अबकी उमकी मनचती हुई । निर्द्रव्य नहवाण उसके नामने टिक न सका । हम मंग्राममे उनका मर्वथा नाग होगयो । आव श्यक सूत्र भाष्यकी इस कथाको ममः श्री का प्रमादजी जायसवाल स्थूल रूपमे वास्तविक और तथ्यपूर्ण माननं हे ' । वह नहवाण ( नरवाहन ) को क्षत्रप नहवान और सालिवाहनको आन्ध्रवशीय गौतमी पुत्र शातकर्णी सिद्ध करते है, जिसकी राजधानी पैठण थी। नहपानके सेनापति ऋषभदत्त द्वारा लिम्वाये गये नामिक. वाले शिलालेखमे भृगुकच्छ, दगपुर. गोवर्धन और सुरपारक नामक नगरोंमे धर्मस्थानोंको बनवानेका भी उल्लेख है। 'गर्गसंहिता' मे शकोका अति लालची होना प्रगट है। नहपान ही भतवली जायसवालजी गौतमी पुत्र शातकणीको दी प्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य सिद्ध करने है आचाये हुआ था। जिन्होंने ई० पूर्व ५८ मे गकोंकों परास्त १-'सो विणहो, नट्ट नयरंपि गहिय' (संस्कृत-निद्रव्यत्वाननाश सा') इस पदसे नरवाहनकी मृत्यु हुई कहना ठीक नहीं जंचता। बल्कि नरवाहनके राजत्वका नाश हुमा मानना ठीक है। यह कथा 'जविमोसो' भा० १६ पृ० २८३-२९४ से उद्धृत की गई है। 2-Ep Ind VIII p 78. ३-जविमोसो० १६ पृ० २८४. . Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्डो-पैक्ट्रियन और इन्डो पार्थियन राज्य। [२३ किया था। उक्त संग्राम इस घटनाका ही द्योतक है । उधर, दिगम्बर जैन शास्त्र · श्रुतावनार ' में भी एक नरवाहन राजाका उल्लेख है । इसके विषयमें वहा कथन है कि वह वामि देशकी वसुन्धग नगरीका राजा था। उसकी मुरूपा नामक रानीके कोई पुत्र नहीं था, जिसके कारण वह दुःखी रहती थी। राजश्रेष्टी सुवुद्धिके कहनेसे नरवाहनने पद्मावती देवीकी पुजाकी और पुण्योदयसे उसके एक पुत्र हुआ। उसका नाम पद्म रक्खा गया। नग्वाहनने इम हर्ष घटनाके उपलक्षमे सहस्रकृट एवं अन्य अनेक जिन मंदिर बनवाये । धर्म प्रभावनाके लिये रथयात्रायें निकलवाई । कालातग्में नरवाहनके राजनगरमें एक जैन मंघ आयाः जिसमे उसका मित्र मगधका राजा मुनि था । उसके उपदेशसे नरवाहन मुनि होगये । सुबुद्धि श्रेष्टी भी मुनि होगया। ये ही दोनों मुनि गिरिनगर (जूनागढ़) घरसेनाचार्यके निकट आगम शास्त्रकी व्याख्या सुननेके लिये गये थे। उसे सुनलेनेके पश्चात् उन्होने अंकलेश्वरपुर (भडोच-भूगुकच्छ) में पट्खण्डागम शास्त्रकी रचना की थी। ये क्रमश. भूतबलि और पुप्पदन्त नामसे प्रसिद्ध हुए थे" । यह कथा उक्तश्वतावर कथासे नितांत १-जविमोसो० १६ पृ० २६१-२८२. २-सिद्धातसारादिसग्रह (मा० प्र०)पृ० ३१६-३९८.३-'गिरिनगरसमीपे गुहावासी घरसेनमुनीश्वरोऽप्रायणीपूर्वस्य यः पंचमवस्तुकस्तस्य तुर्य्यप्राभूतस्य शास्त्रस्य व्याख्यानप्रारभ करिष्यति । ..........भूतबलिर्नामा नरवाहनो मुनिर्मविष्यति............सवुद्धिः पुष्पदंतनामा मुनिर्भविष्यति ।.......... तन्मुनिद्रयं अंकलेसुरपुरे गत्वा मत्वा षडंगरचना कृत्वा शास्त्रेषु लिखाप्य....इत्यादि।" -विबुधश्रीधरकृतः श्रुतावतार । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] संक्षिप्त जैन इतिहास । विलक्षण है। किन्तु देग नगर व राजाके नाम इस कथाका लीला क्षेत्र भृगुकच्छके आसपास ही प्रगट करते है । देशका 'वामि' नाम अनोना है। यह गन्द गभवत नागोंके वास वामीका द्योतक है, जिससे भाव उप्त प्रदेशके होसकते है कि जिसमे नागलांक रहने हो । सिध-कच्छवी देशको यसानियोंने नागोंके कारण पाताल नाम दिया भी था। नाग लोगोंकि मूल स्थान रसातल (मध्य एशिया) के दो भागामे शक लोग ररने थे। इसी कारण भृगुकन्छके आसपासके देशको नागो-कादिक वासस्थान रूपमे दिगवराचार्य 'वामी नामये उल्लिखित करने हे। निरसन्देह वह भृगुकच्छवर्ती दंग होना चाहिये, क्योकि गिरिनगर-अकलेश्वर आदि नगर उसीके पास है। 'गर्गसंहिता मे नहपानकी राजधानीका उल्लेख 'पुर 'रूपमे हुआ है; जिसमे स्पष्ट है कि वह एक प्रसिद्ध और समृद्धिशाली नगर था। वस्तुत प्राचीन कालमे भृगुकच्छकी ऐसी ही स्थिति रहनी थी । इस अवस्थामे उसका उल्लेख वसुधरा रूपमे करना अनुचित नहीं है। उक्तश्वतावर कथा नहवाण (नहपान)का सम्पूर्ण चरित्र प्रगट करनेके लिये नहीं लिखी गई है, बल्कि माया शल्यके द्रव्यप्रणिधि भेदके उदाहरण रूपमे उसका उल्लेख किया गया है। वैसे ही 'श्रुतावतार' में भी दिगम्बर जैन आगम ग्रन्थके लिखे जानेकी घट १-इहिक्का०, भा० १ पृ० ४५९. २-जविओसो०, २४१४०८. 'खक पुर। ३-भगुकच्छ बौद्धकालसे एक प्रसिद्ध बन्दरगाह और लाट देशको राजधानी रहा है। बाजैस्मा०, पृ० २०. ४-'मायायाम्' सा च द्विधा-द्रव्यप्रणिधिः भावप्रणिधिश्च । तत्रं द्रव्यप्रणिधी उदाहरणम् ..अभिधानराजेन्द्रकोष, जविओसो, भा० १६ पृ० २९१. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्डो वैक्ट्रियन और इन्डो पार्थियन राज्य । [ २५ 1 नाको व्यक्त करनेके लिये नहवाण (नरवाहण) का आंशिक वर्णन है । उसमे भी नहवाण (नरवाहण) द्वारा धर्मस्थानके बनने व दान पुण्य करनेका समर्थन होता है । संभवत नरवाहण राज्यच्युत होनेपर दिगम्बर मुनि होगया था । राजभ्रष्ट होनेपर वह करता भी क्या ? जब कि उसको वैराग्यका साधन मिलरहा था । इतिहाससे यह भी प्रगट है कि लियक (Laaka) नामक एक व्यक्ति संभवत नहपानका पुत्र था, जिसने उत्तर भारतमे जाकर तक्षिलामें ई० पू० ४५ मे अपना राज्य जमाया था । श्रुतावतार कथा नरवाहन (नह- चाण) की ढलती उमरमे एक पुत्रका होना प्रगट करती है; क्योंकि अधिक वयतक जब नरवाहणके पुत्र नहीं हुआ तब ही उसने उक्त प्रकार पद्मावतीदेवीकी पूजा की प्रतीत होती है। मालूम होता है कि नहाण (नरवाहन) राजाके जीवनकी वास्तविक घटनाओं, अर्थात् उसको शकजातिका प्रसिद्ध नरवाहन (नहवाण) कहना, धर्मकार्यमें द्रव्य व्यय करना. अति धनवान होना, उसकी अधिक उमर में एक पुत्र होना आदि - को लेकर 'श्रुतावतार' के लेखक विबुध श्रीधरने उम कथाको अपने ढंगपर लिखा हे और यह बतला दिया है कि नरचाहन (नहवाण ) ही भूतबलि मुनि हुये थे । इन सब बातोंको देखने हुये, 'श्रुतावतार' के नरवाहन और * आवश्यक मूत्रभाप्य' के नहवाण, जिसका संस्कृत रूप वहा भी नरवाहन ही है, इतिहास - प्रसिद्ध छत्रप नहपान मानना अनुचित नहीं है, अतः कहना होगा कि दि० जैन श्रुतका उद्धार शक नहपान द्वारा हुआ था ! १ - जनिमोसो० भा० १६ पृष्ठ २५०. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] संक्षिप्त जैन इतिहास । छत्रपवंशमें नहपानके अतिरिक्त उपरात छत्रप रुद्रदामनके ____पुत्र रुद्रसिंह जैनी होना सभव है । उसने छत्रप रुद्रसिंह जैनी । सन् १८०से १९६ ई०तक राज्य किया था। उसका एक लेख चैत्र शुक्ला पंचमीका लिखा हुआ भग्न दशामे जूनागढ़ मिला है. जिसमें "केवलज्ञानसंप्राप्ताणा" पद मिलता है । इस पटके कारण क्योकि केवलज्ञान' जैनोंका एक पारिभाषिक शब्द है. बुल्हर आदि विद्वान् रुद्रसिंहको जैन धर्मानुयायी प्रगट करते है। जूनागढ़का 'वावा प्याराका मठ और अपरकोटकी गुफाओंको भी विद्वान् जैनोंकी बताते हैं। श्रुतावतारसे गिरिनगर (जूनागढ़) के निकट स्थित गुफाओंमे दि० जैन मुनियोंका होना सिद्ध है । इन इमारतोंको छत्रप रुद्रसिंहने ही संभवतः बनवाया था। शक संवत्के विषयमें कोई निश्चित मत नहीं है । फर्गुसनने __ उसे कनिष्कका चलाया हुआ अनुमान किया सक-सम्बत। है। किन्तु आज उस मतके विरुद्ध अनेक प्रमाण मिलते है । पण्डित भगवनलाल और जैक्सन सा० इस संवतको नहपान द्वारा गुजरात विजयकी स्मृतिमें। १-आर्केलॉजिकल सर्वे रिपोर्ट ऑफ वेस्टर्न इन्डिया, भा० २ पृ० १४०. २-इऐ०, भा० २० पृ० ३६३ ..३-'श्रुतावतार में धरसेनाचार्यको गिरिनगरके निकटकी गुफाका निवासी लिखा है। (गिरिनगरसमीपे गुहावासी धरसेनमुनीश्वरो) और गिरिनगर जनागदका प्राचीन नाम है। (देखो फजाइ० पृष्ठ ६९८). ४-इऐ०, मा० २० पृ. ३६४.५-भाप्रारा० भा० १ पृ. ३. ' Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्डो वैक्ट्रियन और इन्डो पार्थियन राज्य। [२७. चला मानते है।' डा० फ्लीट भी इस मतसे सहमत थे। कनिघम और डुबुयल चष्टनको शक संवतका चलानेवाला प्रगट करने है। सर जॉन मारगल अजस प्रथम (Ages I) द्वारा उसका चलना अनुमान करते है। किन्तु विद्वानोने इन मतोको निस्सार प्रगट कर दिया है। यद्यपि वे मब उमे मन ८ ई०से चला मानने में एक मत है। उधर भारतीय पण्डिनोका पुरातन मन्तव्य शक संवत्के विषयमें यह रहा है कि प्रतिष्ठानपुरके गजा गालिवाहन (सातवाहन) ने शकोंको पगस्त करके इस संवतको चलाया था । जिनप्रभसूरिने 'कल्पप्रदीप ' में लिखा है कि गजा गालिवाहनने गक संवत चलाया था। मातवाहन या गातिकणी उपाधिधारी गजा दक्षिण पैठनके आन्ध्रवंशमे हुये है. जिसका राज्यकाल ई० पूर्व पहली शताब्दिसे ईस्वी नीसरी शताब्दितक रहा था। कतिपय विद्वान् इस वंशके हाल नामक राजाको शकसंवतका प्रवतेक गालिवाहन प्रगट करते है, क्योंकि हाल और गाल शब्द समवाची है। किन्तु मम० कागीप्रसादजी जायसवाल कुन्तल गातकर्णीको गक गालिवाहन संवतका प्रवर्तक सिद्ध करते है। वह बतलान हैं कि शक नामके दो संवत थे। प्राचीन शक संवतका सम्बन्ध कोसे था। वह लगभग १-चंबई गैजेटियर मा० १ खंड १ पृ० २८. २-जराएसो०, १९१३ पृ० ९२२. ३-काइन्स ऑफ इंडिया पृ० १०४ व इंए. १९२३ पृ० ८२. ४-जमीसो० भा० १८ पृ० ७०. ६-जमीसो० भा० १७ पृ० ३३४. ६-भामारा० भा० १ पृ० ३ व जमीसो०, 'भा० १७ पृ० ३३४-३३५. ७-जमीसो०, भा० १७ पृ० ३३४३३७. ८-जबिमोसो०, भा० १६ पृ० २९५-३००. - Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - २८] संक्षिप्त जैन इतिहास । १२०ई० पूर्वमे आरम्भ हुआ था। राजा कुशान और उविमकब्धिसके लेखोंमे यही सवत मिलता है।' दूसरा ऐतिहासिक शक संवत सन् ७८ से कुन्तल गातकर्णी द्वारा शकोपर एक बार फिर विजय प्राप्त करनेके उपलक्षमे चला था। किन्तु जायसवालजी जैन शास्त्रोंके इस उल्लेखसे कि वीर निर्वाणसे ६०५ वर्ष ५ महीने पश्चात शक राजा हुआ सन् ७८ से शकोंद्वारा भी चला एक मवत मानते है। किन्तु इस जैन उल्लेखमें एक शक राजाका होना लिखा है, न कि उसमे शक मवतके चलनेका उल्लेख है। इस दशामे जैन गाथाओक आधारसे एक १-जविओसो० १६ पृ० २३०-२४२. २-जविओसो० भा० १६ पृ० ३००. ३-"णियाणे वीरजिणे छवाससदेसु पचवरिसंसु । णमासेसु गढेसु सजाढो सगणिो अहवा ।। ८९ ॥ -त्रिलोकप्रज्ञप्ति । 'त्रिलोकसार' में इस गाथाको निम्नप्रकार लिखा गया है:'पणछस्सयवस्स पणमास जुद गमिय वीर णिवुइदो। सगराजो तो कक्की चदुनवतियमहिय सगमास ॥ ८५० ॥ । श्रीजिनसेनाचार्यने 'हरिवंशपुगण' में इसीको संस्कृत में इसप्रकार लिखा है:--'वर्षाणा षट्शी त्यक्त्वा पचाना मासपचक । मुक्ति गते महावीरे शकराजस्ततोऽभवत् ॥' इन गाथाओं में से किसीमें भी शक सवत्के चलने या उसके "प्रवर्तकका उल्लेख नहीं है । एकमात्र यही कहा गया है कि वीर निर्वाणसे ६०५ वर्ष ५ महीने पश्चात् शक गजा हुआ। अतएव इनसे शकोंद्वारा एक दूसरे सवत्के चलनेका पता नहीं चलता। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्डो वैक्ट्रियन और इन्डो पार्थियन राज्य। [२९ नये शक मंवतका अस्तित्व बतलाना कुछ जीका नहीं लगता। दूसरी शकविजयके उपलक्षमे उसका चलना उपयुक्त है। दोनो ही विजय शातकर्णी वंशके राजाओं द्वारा भारतरक्षाकी महान विजय थींः इसी कारण हिन्दू जनताने दोनों ही कोंका उपयोग एकसाथ किया । हिंदू पण्डितोंमें विक्रम संवत्के साथ शक सालिवाहन संवत् लिखनेका एक रिवाज है और यह इस बातका. जैन गाथाओंका प्रमाण है कि दोनों 'संवतोंका सम्बन्ध भारशकराजा नहपान । तीय राजाओंमे था न कि एक विदेशी . राजामे भी । जैन गाथाओंका कगजा इस अपेक्षा गक शालिवाहन संवत्के प्रवर्तकसे कोई भिन्न पुरुप होना चाहिये । वह भिन्न पुरुष नहपान था । यह बात हम प्रथम खण्ड (पृ० १६२') में लिख चुके हैं। त्रिलोक प्रज्ञप्तिके उल्लेखानुसार उसका समय वीरनिर्वाणसे ४६१ अथवा ६०५ वर्षबाद होना प्रमाणित है। यदि वीर नि०से ४६१ वर्ष बाद उसको मानाजाय तो उसके होनेका समय ई० पूर्व ८४ (५४५-४६१) आता है। प्राचीन शक संवत्में नहपानका समय गिननेसे वह ई० पूर्व ८२ के लगभग बैठता है । इस दशामें 'त्रिलोकप्रज्ञप्ति', का उक्त मत तथ्यपूर्ण प्रतिभाषित होता है। किन्तु इस अवस्थामें नहपानका राज्यकाल जो ४२ वर्ष बताया जाता है, उसमें भुमकका राज्य काल भी सम्मिलित समझना चाहिये । इस मतकी सार्थकताको देखते हुए शक राजाको वीर नि० से ६०५ वर्षे बाद मानना ठीक नहीं दिखता। मालम होता है कि सन् ७८ को शोंके सम्बन्धसे १-जविमोसो० भा० १६ पृष्ठ २५०. - - Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Anu - - - - - ३०] .. संक्षिप्त जन इतिहास । प्रसिद्ध हुआ जानकर जैनाचार्योंने उक्त मतका भी निरूपगा कर दिया । यह भ्रम उपरोक्त दो गक -विजयाक कारण हुआ प्रतीत होता है । अत कहना होगा कि जैन गाथाओका यक गना नहपान है जिसके द्वारा दिगवर आगम लिपिवद्ध हुआ था। वासुदेवके समयमे कुगन-साम्राज्यकी दगा विगड गई थी। अफगानिस्तान और मध्यागियाक दा साम्राकुशन साम्राज्यका ज्यसे अलग होगए थे। कहते हैं. इसी कालमे पतन। भारतमे बड़ी भारी महामारी फैली थी।' जैन शास्त्रामे भी इस महामारीका उल्लेख मिलता है। मथुरामे इसका बहुप्रकोप हुआ बतलाया जाता है। यहा सात चारण ऋद्धिधारी ऋषियोने आकर इस महा-रोगमे नगरको मुक्त किया था। जैन मदिरोंमे आजतक इन महात्माओंकी पूजा -होती है। इस समय मथुरामे जैन धर्मका अभ्युदय भी खूब हुआ था। कोई अनुमान करता है कि राजा वासुदेव भी जैन धर्मानुयायी होगया था। अन्ततः इन विदेशी राजाओंको गुप्तवंगके क्षत्रियोंने पराजित किया था और उनकी जगह अपना राज्य स्थापित किया था। इस कालमे विद्या और ललितकलाकी खूब उन्नति हुई थी। कात्यायन और पातंजलिके भाष्य इसी कालमे रचे गये। व्याकरणका विकास हुआ, चरक द्वारा रसायन और वैद्यक शास्त्रकी अच्छी उन्नति हुई। जैनोंके वाङ्गमयका उद्धार और वह लिपिवद्ध भी इसी कालमे हआ। यूनानीयों और भारतीयोंका सम्पर्क भी खूब बढ़ा। भारतके १-भाइ० पृ० ८३. २-सप्तऋषि पूजा देखो. ३-जैसिभा० भा० १ कि० ४ पृ० ११६-१२४. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् खारवेल। [३१ ज्योतिषियोंने उनसे नक्षत्रोंकी स्थिति और चालके विषयमें बहुत कुछ आदान प्रदान किया ! भाग्इंत, साची, अमरावती और मथुराके स्तूप तथा खंडगिरि-उदयगिरिकी गुफायें आडि इस समयकी उत्कृष्ट कलाके नमूने हैं। इस समय देशभरमे सर्वत्र बड़ी सुन्दर और विशाल इमारतें बनी थीं। (२) रसम्राट श्वारखेल। (सन् २०७-१६० ई० पूर्व) कर्मभूमिको आदिमे श्री ऋषभदेवजीने भारतको विविध प्रांतोंमें ___ विभक्त किया था। तब उन्होंने वर्तमानके कलिडका ओडीसा प्रांतका नाम 'कलिङ्ग रक्खा था ! ऐल चेदिवंश। कलिङ्गके प्रथम सम्राट् ऋषभदेवजीके पुत्रों __ मेंमे एक थे । भगवान ऋषभदेवने कैवल्य प्राप्त करके जब देश भरमें सर्वत्र विहार किया था, तब उनका समवशरण कलिङ्ग देशमे भी पहुवा था; जिसके कारण जैनधर्मका वहांपर काफी प्रचार हुआ था। तकालीन कलिङ्गाधिप जैन मुनि होगये थे । और कलिङ्गका शासनभार उनके पुत्रने ग्रहण किया था। परिणामतः कलिङ्गमे कोगलका यह इक्ष्वाक वंश एक दीर्घ कालतक राज्य करता रहा था । ' हरिवंश पुराण' के कथनसे प्रगट है कि उपरांत वीसवें तीर्थकर श्री मुनिसुव्रतनाथजीके तीर्थ में कौशलदेशमें हरिवंशी राजा दक्ष राज्य करता था। उसका पुत्र १-हरि० ३।३-७ व ११:१४-७१. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] संक्षिप्त जैन इतिहास । ऐलेय और एक कन्या मनोहरी नामकी थी। राजा दक्षने अपनी कन्याको पत्नी बनानेका दुष्कर्म करडाला । ऐलेय और उसकी माता इला राजा दक्षसे रुष्ट होगये और कौशल देशको' छोडकर अन्यत्र चले गये । आखिर ऐलेयने ताम्रलिप्ति नगरको स्थापित किया और वह एक राजा बनगया । राजा ऐलेयने भारतको विजय किया और अन्तमे वह मुनि होगया। इन्हीं ऐलेयकी सन्ततिमें एक राजा अभिचन्द्र हुआ। जिसने विन्ध्याचलपर्वतके पृष्ट भागमे चेदिराष्ट्रकी स्थापना की थी ।भ० अरिष्टनेमिके समय अर्थात महाभारत कालमें हरीवंशी राजकुमार जरत्कुमार कलिङ्गराजके जमाई थे और द्वारिकाके साथ यदुवंशीयोंके नष्ट होनेपर जरत्कुमार कलिङ्गराजमे जाकर राज्य करने लगे थे । फलत कलिङ्ग हरिवंशी क्षत्रियोंके शासनमे आगया । म० महावीरके समयमे भी वहा हरिवंशी जितशत्रु नामके राजा राज्य करते थे। उनके पश्चात् कलिगके राजवंशका पता जैन शास्त्रोंमे नहीं मिलता। किन्तु जैन पुराणके उक्त वर्णनका समर्थन कलिङ्गराज ऐल खारवेलके हाथीगुफावाले प्रसिद्ध लेखसे होता है; जिसमे उन्हें गेल चेदिवंश' का लिखा है और उनके पूर्वपुरुषका नाम ' महामेघवाहन प्रगट किया है। विद्वानोंने इस चेदिवंशको दक्षिणकौशलसे कलिङ्गमे आया बतलाया है। वस्तुत सन् २१३ १-हरि० ११-३-९व जविमोसो०भा० १३ पृ० २७७-२७९ २-हरि० (कलकत्ता) पृ० ६२३. ३-'ऐलचेतिराजवसवधनेन'-जविमोसो० भा० १३ पृष्ठ २२३. 4-This branch of the Chedis seems to have migrated ' into Orissa from Mahakosala.' , -JBORS III 482. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् खारवेल। [३३ ई० पृ० में कौगलपर 'मेघ' कुलके राजाओका अधिकार था, जो बलवान और कुशाग्र बुद्धि थे।' इन्हीं राजाओंमें मेघवाहन राजा थे। संभवत. दक्षिणकोगलसे आकर उन्होंने ही 'ऐल चदिवंश' के राज्यकी जड कलिङ्गमें जमाई थी। ‘ऐल' वह कौशलके प्रसिद्ध राजा ऐलसे सम्बन्धित होनेके कारण विद्वानो द्वारा अनुमान किया गया है। उबर उपरोक्त प्रकार 'हरिवंशपुराण' मे स्पष्टतः चेदिराट्रकी स्थापना राजा ऐलेयकी सन्तति द्वारा हुई कही गई है। चदिराष्ट्र के संस्थापक और शासक होनेके कारण ही उपरान्त ऐलेयकी हरिवंशी सन्तति 'चदिवंश' के नामसे प्रसिद्ध होगई और उसने अपने महान साहसी और यशस्वी पूर्वज ऐलेयके नामको भुलाया नहीं। अतएव यह स्पष्ट है कि कलिङ्गका वह राजवंश जिसमे सम्राट खारवेल हुये, कौगलके हरिवंशी राना ऐल्य और दक्षिणकौशलके चेदिवंगले सम्बन्धित था। 'हरिवंगपुगण' से उक्त प्रकार भ० महावीर अथवा उनके बाद तक हरिवंगका शासन कलिङ्गमे प्रमाणित है। हिन्दू मात्रमे भी जन्मेजय रामके उपरान्त सब ती क्षत्रियोको कोगल ऐलका वंगज प्रगट * करते हे और कलिजवंगको 'महाभारतकाल' से चला आता बताने हे। उसका मगध सम्राट् नन्दवर्द्धन द्वारा अन्त हुआ था। कलिङ्गराज हतप्रभ होकर दक्षिणकौगलमें जारहे और उपरान्त मौर्य-साम्राज्यके पतन होनेपर उनके चंगजोने अपना अधिकार फिरसे कलिङ्गमे जमा लिया ! १-जविमोसो०, मा० ३ पृ० ४८३-४८४. २-जविओसो०, भा० ३ पृ० ४३४. + जविमोसो, भा० १६ पृ० १९०.३-जविअंसी०, मा० ३ पृ० ४३५. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___३४] संक्षिप्त जैन इतिहास । अतएव महामहोपाध्याय श्री कागीप्रसादजी जायसवालके शब्दोंमे यह स्पष्ट है कि कलिंगके सम्राट युवराज खारवेलका 'खारवेलके पूर्व पुरुषका नाम महामेववाहन राज्याभिषेक! और वशका नाम ऐल चदिवंश था।' मालम होता है कि खारवेलके पिताका स्वर्गवास उस समय होगया था जब वह लगभग सोलह वर्षके थे। प्राचीनकालमें सोलह वर्षकी अवस्थामे पुम्प बालिग हुआ समझा जाता था। खारवेल जब सोलह वर्षकी अवस्थामे वालिग होगये नो वह युवराज पदपर आसीन होकर राज्यगासन करने लगे थे । उस समयतक उनका राज्याभिषेक नहीं हुआ था। प्राचीन काल्में राज्याभिषेक २५ वर्षकी अवस्थामे होता था। अत जब पच्चीस वर्ष के हुये तो उनका महाराज्य अभिषेक हुआ था और वह 'एक राजाकी तरह राज्यशासन करने लगे थे। जिस समय खारवेल राज्यसिंहासनपर आरूढ हुये उस समय उनका राज्य कलिङ्गभरमें विस्तृत था, जो वर्तमानका ओडीसा प्रात जितना था। तब कलिगकी प्रजाकी गणना भी खारवेलने कराई थी और वह ३५ लाख थी । जन समुदायकी गणना करानेका रिवाज मौर्योके समय सुतरां उनसे पहलेसे प्रचलित प्रगट होता है । अशोकके समयमे ही कलिगकी राजधानी तोसलि थी । खारवेलने भी अपनी राजधानी वहीं की थी। उन्होंने कोई नवीन राजधानी स्थापित की हो , यह मालम नहीं देता । उनकी राजधानीका उल्लेख 'कलिङ्गनगरी' के नामसे हुआ है। १-नागरीप्रचारिणी पत्रिका. भा० १० पृ० १०२. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् खारवेल। [३५ राज्यसिहासनपर आरूढ होनेके पहले वर्षमें खारवेलने अपनी राजधानीकी मरम्मत कराई थी; जिसके परखारवेल राज्यका कोटा, दरवाजे और इमारते तूफानसे बरवाद प्रथम वर्ष । होगये थे । इसके साथ ही उन्होने खिबिर ऋषिके बड़े तालावका पक्का वाध वन्धवाया था। जिसमे कि प्रजाको पानीकी तकलीफ न रहे और मिचाईका काम भी बखूबी चल निकले । खारवेलने इसी समय कई राजोद्यान भी लगवाये थे, और अपनी पैतीस लाख प्रजाकी मनस्तुष्टि की थी व विविध उपायों द्वारा उसको प्रसन्न किया था। साराशतः राज्यसिहासनपर बैठने ही उन्होंने अपने कार्योंमे यह विश्वास दिला दिया कि वह एक प्रजा-हितैषी राजा है। इस प्रकार अपने राज्यके प्रथम वर्षमे राजधानीका पुनरुद्धार __ और प्रजाको प्रसन्न करके खारवेलको अपना खारवेलकी प्रथम साम्राज्य दूर देशोंतक फैलानेकी सुध आई। दिग्विजय। यह भी किसी लालचसे नहीं, बल्कि धार्मिक ___ भावमे । वह अपने लेखमें स्वयं कहते है कि उनकी देशविजयके साथ२ धार्मिक कार्य होने थे। उनका सबसे पहला आक्रमण पश्चिमीय भारतपर हुआ। उस समय वहापर आन्ध्र अथवा सातवाहनवंगीय जातकर्णि प्रथमका गासनाधिकार था। उसका प्रभाव ओड़ीसाकी पश्चिमीय सीमातक व्याप्त था और दक्षिणमे भी उसका अधिकार था ! खारवेलने उसके इस प्रतापकी जरा भी परवा नहीं की। संभवतः सन् १८२ अथवा १७१ ई० पृ० के लगभग उनने काश्यप क्षत्रियों की सहायताके लिये शातकर्णिपर आक्रमण कर Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । दिया । इस युद्धका परिणाम यह हुआ कि मुशिक क्षत्रियोकी गजधानीपर खारवेलने अपना अधिकार जमा लिया । यह मुगिक क्षत्रिय कलिङ्गक निकट प्रदेशमे बसनेवाले दक्षिणी लोग माने गये है। काश्यप क्षत्री दक्षिण कौगलके निवासी थे और सभवत ग्वारवलक सम्बन्धी थे। शातकर्णि और मुपिकोंसे निवटकर खारवेल अपनी विजयी चतुरंगिणी मेना सहित तोसलिको लौट आये राजधानीम उत्सव । और वहा आकर उन्होंने अपनी प्रजाके चित्त __ रञ्जनार्थ अनेक प्रकारके उत्सव किये थे। नाचरन, गाद्यवाद्य और प्रीतिभोज तथा समाज भी हुये थे । इन महोत्सवामे प्रजाके लिये युद्धका संताप भूल जाना स्वाभाविक था। अपने राज्यके चौथे वर्षमे खारवेलने 'विद्याधर आवास का पुनरुद्धार किया प्रतीत होता है। इसी वर्ष खारवेलका दूसरा आक्रमण फिर पश्चिमीय भारतपर हुआ और अबकी उन्होंने गष्ट्रिक एव भोजक खारवेलका राष्ट्रिक क्षत्रियोंसे बढ़कर खेत लिया । ये दोनों राष्ट्र और भोजकपर शातकर्णिके पडोसी अनुमान किये गये गये है। आक्रमण । वेमहाराष्ट्र और वरारमे रहते बताये है। भोज कोंका संभवत प्रजातंत्र राज्य था। खारवेलने इन क्षत्रियाके राजाओंके छत्र और मिरझार छीनकर नष्ट करदिये थे और उनको बिलकुल पराजित कर दिया था। उनको मुकुट विहीन बना दिया था। और वह अपनी विजय वैजयन्ती फहराते हुए सानन्द कलिङ्गको लौट आये थे । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् खारवेल । [ ३७ कलिङ्गमे वापस आकर खारवेलने फिर जन साधारण के हितकी सुध ली। उन्होंने तनसुतिय स्थानसे एक नहर निकलवाकर अपनी राजधानीको तरसब्ज बना लिया । प्रजाको भी इस नहरसे सिचाईका बडा सुभीता हुआ । यह नहर उस समय से तीन सौ वर्ष पहले नन्दराजाके समय में बनवाई गई थी । उसीका पुनरुद्धार करके खारवेल उसे अपनी राजधानी तक बढ़ा लाये थे | अपने राज्य के छंठ वर्षमें उन्होने दुखी प्राणियोंकी अनेक प्रकार से सहायता की थी और पौर एवं जानपद संस्थाओं को अगणित अधिकार देकर प्रसन्न किया था । यह निश्चित रूपसे नहीं कहा जामक्ता कि खारवेलका विवाह तनसुतिय नहर व जनपद संस्था । व पुत्र लाभ । कब हुआ था, किन्तु यह स्पष्ट है कि उनके खारवेलकी रानियां दो विवाह हुये थे । उनको दोनों रानियोंके नाम शिलालेखमें मिलते है । एक बजिरघरवाली कही जाती थी और दूसरी सिंहपथकी सिधुडा नामक थीं । वजिरघर अब मध्यप्रदेशका वैरागढ़ है । खारवेलके समयमे वहांके क्षत्री प्रसिद्ध थे । उन्हींकी राजकुमारीके साथ खारवेलका विवाह हुआ था । एक उड़िया काव्यमें इस घटनाका उल्लेख अनोखी कल्पना किया गया है, जिसमें राजकुमारीकी वीरताको खूब दर्शाया गया है । इन्हीं वजिरघरवाली रानीसे खारवेलको अपने राज्यके सातवें वर्ष में संभवतः एक पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई थी । उड़िया काव्यसे प्रगट है कि खारवेलने दक्षिण भारतको भी विजय किया था । खारवेलके शिलालेखमें Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | आक्रमण । खारवेलका मगधपर भी उल्लेख हैं कि उन्होंने पाड्य देशके राजाओम भेट प्राप्त की थी । अतएव यह कहना होगा कि खारवेलने दक्षिणापथ ( दक्षिण भारत ) पर अपना सिक्का जमा लिया था और उन्हे एक मात्र उत्तरापथ (उत्तर भारत ) को विजय करना शेष रहा था। उस समय भारतवर्ष के साम्राज्य- सिहासनपर चढ़नेकी कामना चार आदमियोंको थी । अर्थात् ( १ ) मगधके शुंगवंशीय ब्राह्मण पुप्पमित्र. (२) आध्रवंशी शातकणि प्रथम, (३) अफगानिस्तान और वाल्हीकका यवन राजा ढमेत्रिय (Demeter100) और (४) स्वय खारवेल । इनसे शातकर्णिको तो खारवेल परास्त कर चुके थे । वस. उनके लिये पुष्पमित्र और दमेत्रियसे बाजी लेना बाकी था । पुष्पमित्रने 'अश्वमेध' यज्ञ करके चक्रवर्तीपट पाया था । खारवेलके समान पराक्रमी और धर्मवत्सल राजाके लिये यह सहन करना सुगम नहीं था कि उनके जीतेजी एक अन्य राजा ' चक्रवती' कहलाये और अश्वमेधादिमे पशु हिसा करता रहे, जब कि मौर्यकालसे अहिसा धर्मकी भारत प्रधानता रही हो । अतएव खारवेलने मगधपर धावा बोल दिया । इसी समय दमेत्रिय पटनाको घेरे हुये था । और वह भारत - विजय करनेकी अपनी कामनामे प्राय सिद्धार्थ होचुका था । किन्तु खारवेल ज्योही झारखंड-गया से होते हुये मगध पहुंचे और राजगृह तथा गोरथगिरि के दुर्गों से अतिमको सर कर लिया कि दमेत्रिय खारवेलकी चढ़ाईका हाल सुनकर तथा अपने खास राज्यमे विद्रोहका उपद्रव उठते देख पटना, साकेत, पंचाल आदि छोडता हुआ मथुरा भागा और मध्य देश Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् खारवेल | [ ३९ मात्र छोड वहाने निकल गया । खारवेल गोरथगिरिको विजय करके वापस कलिङ्ग लौट आये। यह घटना उनके राज्य के सातवें वर्पमे हुई थी ! कलिङ्ग लौटकर खारवेलने अपने राज्यके नवे वर्षमे खूब दान-पुण्य किया । इस दान पुण्यका पूरा वर्णन तो नहीं मिलता. किन्तु यह ज्ञात है कि उन्होने मोनेका कल्पवृक्ष और हाथी, घोडे. रथ आदि अनेक वस्तुऐं दान कीं थीं। इस दान-कर्म में उन्होने बाणोको भी संतुष्ट किया था | अर्हत् भगवानका अभिषेक और पूजा विशेष समारोहके साथ किये थे । अडतालीस लाख चांदी के सिक्कोंको खर्च करके उन्होने प्राची नदीके दोनों तटोंपर एक 'महाविजय' नामक विशाल प्रासाद बनवाया था। उक्त प्रकार धर्मध्यान और जन-रञ्जनमे एक वर्ष व्यतीत करके खारवेलने अपने राज्यके दशवें वर्ष में खारवेलका भारतपर 'भारतवर्ष' ( Upper India ) पर धावा आक्रमण । बोला था । इस आक्रमणमे खारवेलने किस राजाको पराजित किया, यह तो विदित नहीं, किन्तु यह स्पष्ट है कि वह अपने उद्देश्यमे सफल हुये थे । उपरान्त कलिङ्ग लौटकर उन्होंने ग्यारहवें वर्षमें अपनेसे पहले हुये एक दुष्ट राजा द्वारा निर्मित राजसिहासनको बडे२ गधोसे जुते हुये हलोंको चलवाकर नष्ट करा दिया और तबसे ११३ वर्ष पहलेकी बनी उसकी ताम्रमूर्तिके टूक- ट्रक करा दिये ! मालूम होता है कि उक्त दुष्ट राजाने जैन धर्मकी अप्रभावना की थी । इसीलिये उनके चिन्हों को रहने देना खारवेलने उचित नहीं समझा था । 1 खारवेलका दान व अर्हत्-पूजा | Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०] संक्षिप्त जैन इतिहास। गोग्यगिरिको जीनकर जब खारवेल मगधने लौटकर आये, नो वहाक वृद्ध शासक पुष्यमित्रने मगधकी मगधपर आक्रमण व रक्षाका विगेप प्रवध किया । ' अपने लड़कों महान विजय । नाग उन्होंने राज्य स्थापित किया अर्थात् स्वय सम्राट् न हुए, उपराजाओ या गवर्नरों द्वारा मुल्क और वर्मक नाममे स्वय अपनेको सिर्फ मेनापति कहने हुये राज्य करने लगे । मगधमा प्रानिक शासक पुष्यमित्रके आठ बेटोंमेसे एक अर्थात् बृहस्पतिभित्र नियुक्त हुआ। पुप्यमित्रने फिरसे अश्वमेध मनाया ! मालम होता हे कि खारवेलको यह सहन न हुआ। उसपर उन्हें मगध विजय करके ' चक्रवर्ती पद पाना ग्रंप था । इस लिये अपने पहले आक्रमणसे चार वर्ष बाद ही उन्होंने फिर आक्रमण कर दिया। उत्तरापथके राजाओंको जीतते हुये वह मगधमे जा निकले । हिमालयकी तलहटी २ वह ठीक मगधकी गजवानीके सामने जा पहुचे थे । गगाको उन्होंने कलिङ्गके बडे २ हाथियों के सहारे पार कर लिया था । इस मार्गमे उन्हें सोन नदीके भयानक दल-दलोंका कष्ट नहीं उठाना पड़ा था । फलत वह पाटलिपुत्रमे दाखिल होगये और नन्दोंके समयके प्रख्यात् राजमहल * सुगन' के सामने जा डटे थे । बृहस्पतिमित्र खारवेलकी पराक्रमी सेनाके सम्मुख टिक न सका। खारवेलने उससे अपने पैरोकी वन्दना कराई । नदराजा द्वारा लाई गई जिन मूर्तिया वे मगधसे वापस कलिङ्ग लेगये तथा मगधके तोगकखानेसे अग मगधक रत्न प्रतिहारों समेत उठा लेगये । वस्तुत खारवेलकी यह महा विजय थी और इसके उपलक्षमे कलिग लौटकर खारवेलने जैनधर्मका एक महा धर्मा Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् खारवेल। नुष्ठान किया था। किंतु खारवेलके इस पराक्रम, चातुर्य और रणकौगलको देखकर ढग रह जाना पडता है। एक ही वर्षमें वह कलिङ्गसे चलकर उत्तर भारतके राजाओंको जीतते हुये मगध जा पहुंचते है और वहाके राजाको परास्त कर डालते है ! उनका यह कार्य ठीक नेपोलियनके दङ्गका है ! इस महाविजयके साथ ही खारवेलको सुदूर दक्षिणके पाण्ड्य देशके नरेशमे बहुमूल्य रत्न, हाथियोंको ले पांड्यदेशके नरे- जानेवाले जहाज आदि पदार्थ भेंटमे मिले शकी भेट। थे। यह पदार्थ अद्भुत और अलौकिक थे। मालूम होता है कि खारवेलकी पाण्ड्यनरेगमे मित्रता श्री ! इस प्रकार साम्राज्य विस्तारके इन प्रयत्नोंका 'फल यह हुआ कि कलिङ्गका साम्राज्य बढ़ गया। तथापि उस समयके प्रसिद्ध राज्य मगधपर अपना अधिकार जमाकर खारवेलने अपने आपको समग्र भारतमें सर्वोपरि गासक प्रमाणित कर दिया। वह भारतवर्षके सम्राट होगए। __ यहा यह दृष्टव्य है कि उस समय कलिंगकी गणना भारत वर्षमें नहीं होती थी। इस कालके दो शतातत्कालीन दशा। दि बाद समग्र भारतका उल्लेख 'भारतवर्षे के नाममे होने लगा था। जैनधर्मका इस समय बहु प्रचार था । मौर्य साम्राज्यके नष्ट होनेके पश्चात् अवश्य ही जैनधर्मकी प्रभा शिथिल होगई थी। शुङ्गवंश एवं दक्षिणके सातवाहन वंश ब्राह्मण धर्मानुयायी थे। उनके द्वारा वैदिक धर्मको उत्तेजना मिली थी और अश्वमेधादि यज्ञ भी हुए थे। किन्तु खार Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] संक्षिप्त जैन इतिहास । वेलने जैनधर्मकी इस हीनप्रभाको द्युतिमान् वना दिया । जैन धर्मका पुनरुद्धार होगया । कलिगमे तो वह बहुत दिनो पहलेसे राष्ट्रीय वर्म होरहा था। किन्तु जैन धर्मको उस समय तक केवल एक दर्शन सिद्धान्त मानना कुछ जीको नहीं लगता । ब्राह्मण वर्ण जैन धर्ममें भी है । अत जिन ब्राह्मणोंको खारवेलने भोजन कराया था उनका जैन होना बहुत कुछ संभव है। कल्पवृक्ष जैनगात्रोमे मनवाछित फलको प्रदान करनेवाले माने गए है । खारवेल भी अपनी प्रजाके लिये कल्पवृक्षके समान सब कुछ प्रदान करके महान् उदार और प्रजावत्सल बनना चाहता था। इसीलिये उन्होने कल्पवृक्षका. दान किया था । करुणाभावसे सब प्राणियोको दान देना जैन धर्म उचित बतलाता है । जैन शास्त्रोंमे क्षत्री साधुओका विशेष उल्लेख. मिलता है। खारवेलके समय वह एक प्रख्यात् साधु समुदाय होरहा. था। खारवेल जैनधर्मावलम्बी था, परन्तु वैदिक विधानानुसार उसका महाराज्याभिषेक हुआ और उसने राजसूय-यज भी किया था । इससे यह बिल्कुल स्पष्ट है कि तब जैन धर्ममे साम्प्रदायिक कट्टरता इतनी नहीं थी कि वह प्राचीन राष्ट्रीय नियमोंके पालनमे बाधक होता। खारवेल प्रजाहितैषी राजा थे। वह नहीं चाहते थे कि वह एक स्वाधीन राजाकी तरह शासन करें और । खारवेलका राज्य प्रजाको पराधीनताका कटु अनुभव चखने दें। । प्रबंध। इसीलिये उन्होंने 'जनपद' और 'पौर' संस्थायें स्थापित की थीं। यह संस्थायें आजकलकी म्यून्सिपल और डिस्ट्रिक्ट बोर्डोके समान थीं। 'पौर' संस्था पुर अथवा राजधानीकी संस्था थी। जिसके परामर्शसे वहाका शासन Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् खारवेल। [४३ होता था। जनपद ग्रामीण जनताकी द्योतक है, जिनकी संस्था 'जनपद' कहलाती थी। उन लोगोंका शासन-प्रबंध उसके द्वारा होता था। इस प्रकार खारवेलने जनताको शासन प्रवन्धमे सम्मिलित कर रक्खा था। यही कारण है कि खारवेलके कलिङ्गसे बाहर लडाइयोमे व्यस्त रहनेपर भी राज्यशासन समुचित रीतिसे चाल रहा था। कलिङ्गतर राष्ट्रोसे उदोंने साम, दण्ड और संधि नीतियों के अनुसार व्यवहार किया था। खारवेलके हाथोमे राज्यकी बागडोर छोटी उम्रमे आई थी। वह भी उस नन्हीं उम्रसे एक आदर्श राजा खारवेलका राजनैतिक बन गये थे। क्रोध और अत्याचार तो खारजीवन । बेलके निकट छूतक नहीं गया था। वह एक जन्मजात योद्धा और दक्ष सेनापति होते हुए भी एक आदर्श नृप थे। उन्होने अपनी प्रजाको प्रसन्न रक्खा था; जिसका उलेख उनने अपने शिलालेखमें बड़े गर्वके साथ किया है । ग्वारवेल अपनेसे पहलेके राजाओं और पूर्वजोका आदर करने थे । इस दृष्टिमे खारवेल अशोकसे बाजी लेजाते है, क्योंकि अगोकने अपने पूर्वजोका उल्लेख केवल अपनी महत्ता प्रगट करनेके लिये किया है। खारवेलके समयमें वास्तु विद्याकी उन्नतिको उत्तेजना मिली थी। उसने स्वय बडे २ महल, मंदिर और सार्वजनिक संस्थाओंके भव्य भवन निर्मापित कराये थे । उनके द्वारा ललितकलाकी भी विशेष उन्नति हुई थी। पूर्ण दक्ष कारीगरों द्वारा उनने सुन्दर पच्चीकारी और नक्कासीके स्तंभ चनवाये थे। सचमुच जब २ वह दिग्विजयसे अण्डा फहराते हुए लौटते थे, तब २ वह अपने राज्यमें Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४] संक्षिप्त जैन इतिहास । प्रना हित और धर्म सबधी अनेक सुकार्य करते थे और मंदिर आदि बनवाते थे । इस वातका स्पष्ट प्रतिघोप उन्होंने अपने लेखके प्रारंभ (पक्ति २ ) मे कर दिया है। उनके राज्यकालमे कलिङ्गकी धनसंपदा भी खूब बढी थी , क्योकि समग्र भारतमे उन्होंने बहुमूल्य सम्पत्ति इकट्ठी की थी। इस समृद्धिशाली ढगामे कलिङ्ग अवश्य ही रामराज्यका उपभोग कर रहा था और उसके आनन्दकी मीमाका वारापार न था । उसका प्रताप समस्त भारतवर्षमे न्याप्त था। खारवेलने प्रजाके मन बहलायके लिये संगीत और बाजेगाजेका भी प्रबन्ध किया था। यद्यपि खारवल जैन थे, परन्तु उन्होंने जैनेतर धर्मोका आदर किया था। उनका व्यवहार अन्य पापण्डोंके प्रति उदार था और यह राजनिनिकी दृष्टिसे उनके लिये उचित ही था । इस ओर उन्होने कुछ अगोंमे अगोकका अनुकरण किया था। अतएव इन सब बातोको देखने हुये सम्राट खारवेल एक महान् प्रजावत्सल और कर्तव्यपरायण गजा प्रमाणित होने है। शिलालेखमे खारवेलको ऐल महाराज, महामेघवाहन चेति राजवंशवर्द्धन खारवेल श्री-(क्षारवेल) लिखा है तथा उनका उल्लेख 'क्षेमराज, वद्धराज, भिक्षुराज और धर्मराज' रूपमे भी हुआ है। अन्तिम उल्लेखसे खारवेलके सुकृत्योंका खासा पता चलता है। उन्होंने प्रजामे, देशमे और समग्र भारतमे क्षेमकी स्थापना की. इसलिये वह क्षेमगज थे। साम्राज्य एवं धर्म-मार्गकी उन्होने वृद्धि की इस कारण उनको वर्द्धराज मानना भी ठीक है। भिक्षुओ-श्रमणोंके लिये उन्होंने धर्मवृद्धि करनेके साधन जुटा दिये, इस अवस्थामे उनका 'भिक्षुराज' रूपमे उल्लेख होना कुछ अनुचित नहीं है। अन्तत वर्मराज तो वह Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्रात् खारवेल | [ ४५ थे ही धर्मके लिये उन्होंने अनेक कार्य किय-दान पुण्य किये. भव्य मंदिर बनवाये और धर्मके लिये लडाइया भी लड़ीं। मगधकी लडाई लडकर वह ऋषभदेवकी दिव्य मूर्ति कलिङ्ग लाये । उनकी रानीने उनको कलिङ्ग चक्रवर्ती कहा है । खारवेल के पन्द्रह वर्ष कुमार क्रीडामें व्यतीत हुये थे । उन्हें सोलहवें वर्षमे युवराज पद मिला था. यह कालमें उन्होने प्राप्त की थी । ( पंक्ति २) कि खारवेलने राजनैतिक दण्डविधान ( nw) और धर्मतत्वका सुचारु ज्ञान प्राप्त किया था । वह सब ही विद्याओंमें पारंगत थे । खारवेल देखने मे प्रभावान और सुन्दर थे। उनके शरीरका रंग बिलकुल गोरा नहीं था । वह प्रशस्त और शुभ लक्षणोसे युक्त था, जिनका प्रकाश चारो दिशाओं में फैल रहा था ( चतुरंत लुंठति ) । बाल्यावस्थामें वह राजकुमार वर्द्धमान सहा बताये गये है । और 1 सम्राट् वेणकी तरह उन्हें एक विजयी सम्राट् लिखा गया है। वस्तुतः खारवेलका गार्हस्थ्य जीवन भी राष्ट्रीय जीवनके समान उन्नत और सुखमय था। वे अपनी दोनों रानियोंके साथ धर्म, अर्थ, और काम पुरुषार्थीका समुचित उपभोग कर रहे थे । बजिरघरवाली रानी उनकी अग्रमहपि ( पटरानी ) थीं। दूसरी रानी सिंधुडा संभवतः राजा लालकसकी पुत्री थीं, जो हथी सहस के पौत्र थे । इन रानीके नामपर हाथीगुफाके पास एक 'गिरिगुहा' नामक प्रासाद बनाया गया था । इसे अब रानी नौर कहते है । इन रानियोंका खारवेल्के समान उन्नत -- खारवेलका गार्हस्थ्य लिखा जाचुका है। कुमार जीवन । विद्या और कलामे दक्षता शिलालेख में लिखा है Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६] संक्षिप्त जैन इतिहास । ममा और धर्मात्मा होना स्वाभाविक है । वे प्रेमालु श्री, उदार थीं और शीलसम्पन्ना थीं। उन्होने भी भव्य जिनमदिरोंको वनवाया था ! खाग्वेलको उन गनियोमे कितनी संतान पानेका सौभाग्य प्राप्त हुआ, यह कहा नहीं जासकता । कितु वह उनके समान सुयोन्य सह धर्मिणियोंको पाकर एक आदर्श श्रादक बने थे. इसमे संशय नहीं । वजिग्घरवाली रानीके कोखमे जो पुत्र हुआ था, वही संभवत खारवेलके बाद कलिङ्गका राजा हुआ था। खारवेलका धार्मिक जीवन अनूठा था। जब वह अपनी दिग्वि. जय पूर्ण कर चुके और सारे भारतवर्षमे उनकी खारवेलके जैनधर्म धाक जम गई, तब उन्होंने विशेष रीतिसे प्रभावनाके कार्य। धर्मानुष्ठानके कार्य किये थे। यह उनके राज्यके तेरहवें वर्ष अर्थात् सन् १७० ई० पू०की बात है। सम्राट् खारवेल कुमारी पर्वत (उदयगिरि) के अर्हत् मंदिरमें जाकर विशेप भक्ति और व्रत उपवास करनेमे उत्तचित्त हुये थे। इस प्रकार व्रत और उपवासमे लीन होनेका फल यह हुआ था कि वह अपने भवभ्रमणको नष्ट करनेके निकट पहुंच गये थे, क्षीणससृत हुये थे। श्रावकोंके व्रतोका पालन उन्होंने सफ लतापूर्वक कर लिया था (रत-उवास-खारवेल-सिरिना)। फलतः ' उन्हें जीव और देहकी भिन्नताका प्रत्यक्ष अनुभव होगया था। भेद. विज्ञानको उन्होंने पालिया था और यह संसारका नाश करनेके लिये पर्याप्त है । अतएव सम्राट् खारवेलको जो धर्मराज और भिक्षुराज कहा गया है, वह बिलकुल ठीक है । कुमारी पर्वत संभवतः भगवान Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् खारवेल। ४७ महावीरजीके समवशरणसे पवित्र होचुका था, क्योंकि भगवानके समो शरणका कलिगमें आनेका उल्लेख जैनशाम्रोमें मिलता है तथा खारवेलके शिलालेखमें स्पष्ट कहा है कि (पंक्ति १४) इस पर्वतपरसे जैन धर्मका प्रचार हुआ था। इस ही पर्वतपर खारवेल और उनकी रानीने अनेक मंदिर व विहार बनवाये थे। उनमे चारो ओरसे जैन श्रमण और विद्वान् एकत्रित होकर धर्माराधन करते थे। वहापर खारवेलने सुन्दर संगमरमरके पाषाण स्तंभ बनवाये थे, जिनमें घंटा लगे हुये थे। ऐसे स्तंभ मध्यकालके बने हुये नेपालमे आज भी देखनेको मिलते है । इस प्रकार सम्राट् खारवेलके सुकार्योसे उस समय खूब ही धर्मप्रभावना हुई थी। जैनधर्मका प्रचार ऋषियोंद्वारा दिगन्तव्यापी हुआ था। मालूम होता है कि खारवेलने कोई धार्मिक महोत्सव कराया था, क्योंकि शिलालेखमें कहा गया है (पंक्ति १६) कि सम्राट् खारवेलने 'कल्याणको' को देखने, सुनने और उनका अनुभव प्राप्त करनेमे जीवन यापन किया था। ('धमराजा पसंतो सुणतो अनुभवतो कलाणानि') यह महोत्सव आजकलके विम्वप्रतिष्ठाओंके समय होनेवाले पंच-कल्याणकों के समान ही होते थे, यह कहा नहीं जासत्ता। खारवेल द्वारा निर्मित गुफाओंका मूल्य अत्यधिक है। उनमे भगवान पार्श्वनाथनीकी जीवनलीला सम्बंधी चित्र दर्शनीय है। शिलालेखमें 'अर्कासन' नामक गुफाके वनवानेका उल्लेख है। ये सब गुफायें सुंदर और दर्शनीय है। यूं तो खारवेलके सुकृत्योंसे जैन धमकी विशेष उन्नति हुई ही थी, किन्तु उनके सदप्रयलसे जो द्वादशाङ्ग Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८] संक्षिप्त जैन इतिहास | । जिनवाणीका उद्धार | वाणीके पुनरुद्धारका उद्योग हुआ था. वह विशेष उल्लेखनीय है. उनके शिलालेखमे (पक्ति १६ ) स्पष्ट उल्लेख है कि खारवेलके समयमे द्वादशाङ्गवाणी लुप्त हुई मानी जाती थी । सम्राट् खारवेलने उसका यथासाध्य उद्दार किया था । उन्होंने जैन ऋपियोंका एक संघ एकत्रित किया था और उसके द्वारा इस उद्धारका सद्प्रयास हुआ था । मि० जायसवालने लिखके इस अशका यह अर्थ प्रस्ट किया है कि " मौर्य राजा के समय जो ६४ विभागांका चतुर्याम अङ्ग सप्तिक लुप्त होगया था, उसका उद्धार खारवेलने किया ।" इसका भाव स्पष्ट नहीं है, किन्तु मि० जायसवाल इसका पुन अध्ययन करके खुलामा प्रकट करनेवाले है । कुछ भी हो. इस गिलालेखीय उल्लेख निग म्वर जैनोंकी मान्यताका समर्थन होता है । दिगम्बर जैनोका विश्वास है कि द्वादशाङ्गवाणीका विच्छेद श्रुतकेवली भद्रबाहुजीक साथ होगया था और उनके बाद विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय नाग, सिद्धार्थधृतिसेन, विजय बुद्धिल, गंगदेव और सुधर्म ये ग्यारह आचार्य केवल दशपूर्वके धारी एकके बाद एक १८३ वर्षमे हुए थे । अतएव चन्द्रगुप्त मोर्य के समय नष्ट हुआ अगज्ञान १८३ वर्ष वाढ तक केवल दशपूर्वरूपमे किश्चित् शेप रहा था । इन दशपृर्वीर्थोके उपरान्त नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस नामक पाच आचार्य ग्यारह अगोके धारक २२० वर्षमे हुये थे । इन ग्यारह अगो अर्थात् अंगज्ञानके धारकोका अस्तित्व तब ही सभव है जब मौर्य्यराजासे १८३ वर्षके अन्तरालकालमे उनका पुनरुद्धार हुआ हो । सम्राट् खारवेलका उक्त कार्य इस अन्तराल Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् खारवेल । [ ४९ कालमें हुआ प्रकट होता है, क्योंकि जैन पट्टावलियोंके अनुसार भद्रबाहुजीसे १८३ वर्षोंमें हुये दशपूर्वीयोका अन्तिम समय सन् २०० ई० पू० ठहरता है और इस समय खारवेल विद्यमान थे । इस दशा में कहना होगा कि खारवेलके शुभ प्रयत्न से लुप्त - प्रायः अङ्गग्रन्थ पुनः उपलब्ध हुये थे । समग्र भारतके ऋषि कुमारी पर्वत पर एकत्र हुये थे और वहा जिन२को जिसर अङ्गका जितना ज्ञान था, उसको प्रकट किया था और इस प्रकारके सहयोगसे अङ्गज्ञानका उद्धार होगया। साथ ही इस उल्लेखसे सम्राट् खारवेलका प्राचीन निग्रैथसंघका पोपक होना प्रमाणित है । यह लिखा जाचुका है कि श्रुतकेवली भद्रबाहुजीके बादसे ही जैन संघमें भेद उपस्थित होगया. था. जो ईसवी प्रथम शताब्दिमें पूर्ण व्यक्त हुआ था । सचमुच कलिङ्गमें उस जैन धर्मका प्रचार था जिसमें सम्राट् चंद्रगुप्त मौय्यके समयमें आचार्य स्थूलभद्रकी अध्यक्षतामें एकत्र हुये जैन संघके द्वारा स्वीकृत अङ्ग ज्ञानको स्वीकार नहीं किया गया था । (हॉ जै० पृ० ७०-७२ व जविओसो ० भा० १३ पृ० २३६ ) सम्राट् खारवेलका हाथी गुफावाला शिलालेख भारतीय इतिहासके लिये बड़े महत्वका है । वेदश्रीके खारवेलका शिलालेख | नानाघाटवाले शिलालेखके बाद प्राचीनतामें इसीको दूसरा नंबर प्राप्त है । यह करीब १५ फीट १ इंच लंबा और ५॥ फीट चौड़ा है और १७ पंक्तियोंमें विभक्त है । इसकी भाषा एक ऐसी प्राकृत है, जो अपभ्रंश प्राकृत, अर्धमागधी और पालीमे मिलती जुलती है तथा उसमें जैन प्राकृत शब्द भी है । लिपि उत्तरीय ब्राह्मी है; जिसे J Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०] संक्षिप्त जैन इतिहास । वुल्हर सा० सन् १६० ई०पू० इतनी प्राचीन मानते है । शिलालेखमे कुल चार चिन्ह है। इनमेसे प्रथम पक्तिके प्रारम्भमे,जो हे, वह-(१) स्वस्तिका और (२) वर्द्धमंगल है। तीसरा चिन्ह 'नंदिपद' भी प्रथम पंक्तिमे है, परन्तु वह खारवेलके नामके ठीक बादमे अंकित है । यह चिन्ह अशोकके जाडगढके लेख एवं सिकों आदिमे भी मिलता है । चौथा कल्पवृक्ष लेखके अंतमे है। ऐसे ही चिन्ह उदयगिरिकी सिंह और वैकुण्ठ नामक गुफाओंमे है । यह शिलालेख सन् १७० ई०पू०के समय किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा लिखा गया प्रगट होता है, जो खारवेलसे वयमे वडा था। और जिसको उनका परिचय वाल्यकालसे था। मि० जायसवालने पहले इस लेखमे (पंक्ति १६) मौर्या व्दका उल्लेख हुआ अनुमान किया था किंतु नन्दाब्द। उनका यह अनुमान ठीक न निकला और उन्होंने इस पक्तिको फिरसे पढ़ा है एवं इसका अर्थ जैन वागमयका उद्धार करना प्रगट किया है, इस प्रकार यद्यपि मौर्यान्दका कोई उल्लेख इस लेखमे नहीं है, कितु नन्दोंके एक अब्दका उल्लेख (पंक्ति ६) अवश्य है । विद्वान लोग इस नन्द अन्दको नंदवर्द्धन द्वारा प्रचलित किया गया प्रमाणित करते है। वह कहते है कि नन्दवर्द्धनका राज्य ई०पू० सन् ४५७ से प्रारम्भ हुआ था और सन् ४५८ ई० पू०से उनका अब्द प्रारम्भ हुआ था। सन् १०३० के समय जब अलरुनी भारतमे आया था तब यह नंदाब्द मथुरा और कनौजमे बहु प्रचलिन था । (जविओसो०, भा० १३ पृ० २३७-२४१) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् खारवेल | [ ५१ खारवेलके इस शिलालेखसे कलिङ्गमें जैन धर्मका अस्तित्व बहुत प्राचीन सिद्ध होता है। हम देख चुके कलिङ्गमें जैनधर्म | है कि जैन शास्त्रोंमें तो उसे जैनधर्मसे संबन्धित भगवान ऋषभदेवके समय से बताया गया है । फलत: कलिङ्गमें जिस प्राचीन कालमे जैनधर्मका सम्पर्क जैन शास्त्र प्रगट करते है, उसका समर्थन इस लेखसे होता है । 'पंक्ति १२ में स्पष्ट उल्लेख है कि नन्दराज कलिङ्ग विजयके समयमें रत्नों व अन्य बहुमूल्य पदार्थोंके साथ जिन भगवानकी एक मूर्ति भी गये थे । खारवेलने जब अङ्ग और मगधपर अपना अधिकार जमा लिया था, तब वह इस मूर्तिको वापिस कलिङ्ग लेआये थे । इस उल्लेखसे नन्दराजाका जैन धर्मानुयायी होना प्रमाणित है तथा यह भी सिद्ध है कि ओड़ीसासे जैनधर्मका सम्पर्क स्वयं भगवान महावीरजीके समयमें था । जैन मूर्तिया भी उस समय अर्थात् सन् ४५० ई० पू० के पहलेसे बनने लगी थी । इस आधारसे मि० जायसवाल कहते है कि जव ओडीसामें सन् ४५० ई० पू० के पहलेसे जैनधर्म आगया था और जैन मूर्तियां बनने लगीं थीं; तब महावीर निर्वाण सन् ५४५ ई० पू० मानना ही ठीक है, जैसे वह प्रमाणित कर चुके हैं । (जीवओसो० भा० १५० ९९-१०५) उक्त शीलालेखमें सन् १७० ई० पू० तक जो २ बातें खारवेल के राज्यमें हुई थीं, उनका बर्णन खारवेलका अतिम जीवन है। इसके उपरात ऐसा कोई निश्चयात्मक और उनके उत्तराधिकारी । साधन प्राप्त नहीं है, जिससे खारवेलके अंतिम जीवनका पता चलसके । इस समय Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२] संक्षिप्त जैन इतिहास । खारवेलकी आयु करीव ३७ वर्षकी थी। खारवेल जैसे पराक्रमी वीर अवश्य ही इस समय हृष्टपृष्ट होंगे । अत. उनका सन् १७० ई० पू०से और १०-२० वर्ष और राज्य करना बहुत कुछ सभव है। हमारे विचारसे जब खारवेलके सुपुत्रकी अवस्था २४ वर्षकी होगई तव सन् १५२ ई० पू० मे खारवेलका राज्य कार्यसे विलग होजाना प्राकृत सुसंगत है। इस समय वह वृद्ध होचले थे और यह भी संभव है कि उन्होंने जिन दीक्षा ग्रहण करली हो। जो हो, मि० जायसवाल जो उनका स्वर्ग वास काल सन् १६९-१५२ ई० पू० मे मानते है, वह ठीक है । खारवेलके उत्तराधिकारी उनके सुपुत्र हुये थे। संभवत उन्हींका उल्लेख खंडगिरीकी एक गुफाके शिलालेखमे है। उसमे उनको कलिङ्गाधिपतकुदेप श्री खर महामेघवाहन लिखा है । जबिओसो० भा०३ पृ० ५०५) यह भी जैनधर्मानुयायी थे। खारवेलके बाद कलिङ्गके इस प्रसिद्ध राजवंशका कुछ पता नहीं चलता, किन्तु भुवनेश्वरके एक संस्कृत खारवेलका वंश गर्द- ग्रंथमे मौर्योके पश्चात् जिस राजवंशने कलिभिल्ल वंश है। झमे राज्य किया था, उसका परिचय 'भिल' वंशके नामसे दिया है। इस वंशमे कल सात राजा हुये थे, जिनके नाम क्रमानुसार इस प्रकार है:-(१) ऐर मिल, (२) खर मिल, (३) सुर मिल, (४) नर भिल, (५) दर भिल, (६) सर मिल और (७) खर मिल द्वितीय । उक्त ग्रन्थमें जो समय इस वंगके राज्यकालका दिया है उससे पता चलता है कि ई० पू० ८९ मे इस वंशका अंत होगया था। विद्वान लोग इस वंशको खारवेलसे सम्बन्धित बतलाते है तथा उक्त राजाओंमे नं० Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् खारवेल । [ ५३ २ के राजाको खारवेल बतलाते है ।' हिन्दू पुराणोंमें आन्धवंगी राजाओंके समसामयिक राजवंशोंमे एक 'गर्दभिल' भी बताया गया है, जिसके कुल सात राजा थे । खारवेल शातकर्णि प्रथमका समकालीन था और कलिंगमें मौर्योके बाद उनके वंशने ही राज्य किया था । अतएव उक्त भिलवंश अथवा गर्दभिलवंशको खारवेलके राजवंशका द्योतक मानना उचित है । मम० जायसवाल इस शव्दकी उत्पत्ति खारवेल नामसे ठहराते है । खारवेलसे खरवेल हुआ, खर और गर्दभ संस्कृतमे पर्यायवाची एक ही अर्थके शब्द है । और वेल शब्द भिल्लमें पलट दिया गया । इस रूपमें खरवेलसे ' गर्दभिल्ल या 'गर्द भिल' शव्द बन गया । जिनसेनाचार्यने इन्हीं राजाओंका उल्लेख रासभ राजाओंके नामसे किया है। , 3 ४ इस वंशके अंतिम राजा खर भिल द्वितीय (खरवेल द्वितीय) ही उज्जैन के गर्दभिल्ल अनुमान किये गये हैं क्योंकि दोनोंका समय एक है और वह विक्रमादित्य के श्वसुर थे । विक्रमादित्य गर्द भिल्लका उत्तराधिकारी माना ही जाता है। काल्काचार्यने इसी गर्दभिल्ल वंशके विरुद्ध शकोंको भेजा था । अतः इस उल्लेखसे खारवेलके राजवंशका राज्य उसके बाद पांच पीड़ियों तक रहा प्रमाणित होता है । 'प्राची' महात्म्य' नामक पुस्तकमें एक चित्र नामक व्यक्तिका वर्णन है । विद्वज्जन उसको खारवेलका दादा अनुमान करते हैं । उसकी पत्नी १ - जविओोसो० भा० १६० १९९ - १९६ । २ - जविओोसो०, भा० १६ पृ० ३०३ । ३ - जविओोसो० भा० १६५० ३०६-३०७१ ४ - जविओोसो० भा० १६ पृ० ३०५ । , Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४] संक्षिप्त जैन इतिहास । ब्राह्मणवर्णकी थी और उसके पुत्र उसके जीवनकालमे ही स्वर्गवासी होगये थे। फलत. उसके पौत्रका नन्हा वालक होना उचित है। खारवेलके शिलालेखसे यह प्रकट ही है कि बाल अवस्थासे ही कलिंगराज्यका भार उनपर आगया था। उपरोक्त पुस्तकोंके अतिरिक्त उडियाके “ मदल पनि " (Madal Panji) नामक ग्रन्थमे भी उडिया ग्रन्थोंमें खारवेलका वर्णन भोज नामसे हुआ अनुमान खारवेल। किया जाता है। इस ग्रन्थसे राजा भोजके राज्यका प्रारम्भ ई० पूर्व १९४से प्रमाणित होता है और खारवेल ई० पूर्व १९२ मे युवराज हुए थे। संभवत. भोज नामकी प्रसिद्धिके कारण अथवा खारवेलके विरुद्ध भिक्षुराजके अपभ्रंश (भोजराज) के रूपमे यह नाम उक्त ग्रन्थमें खारवेलके लिये लिखा गया है। उक्त ग्रन्थसे प्रगट है कि खारवेल एक वीर, पराक्रमी, उदार, न्यायशील और दयालु राजा थे। उनके दरवारमें ७५० प्रसिद्ध कवि थे, जिनमे मुख्य कालीदास थे। उनके रचे हुये । चनक और महानाटक नामक ग्रन्थ थे। महानाटकका प्रचार कहीर अब भी ओडीसामे मिलता है । खारवेलके द्वारा नावों, चरों और गाड़ियोंका प्रचार पहले२ कलिझमे हुआ था। उन्होंने सारे भारतवर्षपर विजय प्राप्त की थी। सब ही राजाओंको अपना करद बना लिया था। सिन्धु देशके यवनोंको भी खारवेलने मार भगाया था। ' सारला महाभारत' नामक उडिया काव्यमे भी खारवेलका वर्णन १-जविओसो०, भा० १६ पृ० १९४-१९६ । २-जविमोसो०, भा० १६ पृ० २११-२१५ । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् खारवेल। मिलता है । उससे प्रगट है कि खारवेलके पहले कलिङ्गमे बौद्ध राजा थे। खारवेलने ब्राह्मणोंको साथ लेकर उन्हें मार भगाया और आप स्वयं वहांके राजा बन गये । महान् सेना लेकर उन्होने दिग्विजयकी और वह सार्वभौम सम्राट् होगये । वह भीम कालवेर वीर चक्रवर्ती कहलाते थे। अन्तमें उन्होंने अपने धर्मगुरुके कहनेसे राज्यका त्याग कर दिया-विष्णु-कर (खर) को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करके वह वनमें जाकर तपस्या करने लगे। शिलालेखमे उनके राज्यके १३ वर्षके उपरांत कोई वर्णन नहीं है। इसका कारण यही है कि थोड़े समय पश्चात् ही वह मुनि होगये थे । उक्त ग्रन्थोंसे भी उनका जैनी होना सिद्ध है। वह श्रावकके व्रतोका अभ्यास पहले ही करने लगे थे। अन्तमे उनका मुनि होजाना स्वाभाविक था। ईस्वी प्रथम शताब्दिमे कलिग आंध्रवंशके राजाओंके अधिकारमे आगया। उसपर भी जैनधर्मका अस्तित्व वहा ११-१२ वीं शताब्दितक खूब रहा था; किन्तु उपरान्त मुसलमानोंके आक्रमणों एवं जैनेतर संप्रदायोंके प्रावल्यसे वहां जैन धर्मका प्रायः अभाव हो गया। इतनेपर भी आज वहा हजारोंकी संख्या में 'सराक' (श्रावक) लोग मौजूद हैं, जो प्राचीन जैनी है, परन्तु अपनेको भूले हुये है। उनको पुनः जैन धर्ममें लानेका उद्योग होरहा है। सातवीं शताब्दिमें जब चीनी यात्री हुएनसांग यहा आया था, तव भी उसे कलिंगमें जैन धर्म उन्नतावस्थामें मिला था।' १-जविमोसो०, भा० १६ पृ० १९९-२०३ । २-३० वि० स्मा० पृ०८७-८८1 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास। संक्षिप्त संवदवार विवरण:सन् ईसवी पूर्व २२५ कलिंगमे चढिवंश और दक्षिणमें सातवाहन राज्यका उदय। २०७ खारवेलका जन्म १९२ खारवेलको युवराजपद प्राप्त हुआ; २८८ पुष्यमित्रका राज्यारोहण; १८३ खारवेलको राज्य-प्राप्तिः ९८२ शातकर्णि प्रथम राज्य करने और खारवेलका आक्रमण; १७९ खारवेलका राष्ट्रिक व भोजक क्षत्रियोंपर विजय पाना; २७८ तनसुलिय-बाट नहरका राजधानीमे लाना; १७७ खारवेलने सम्राट्पद ग्रहण कियाः महाराजाभिषेक व राजसूय यज्ञ हुआ; २७६ संभवत. खारवेलको राजकुमारकी प्राप्ति १७५ गोरथगिरिकी लड़ाई,दमविय (डिमिट्रियस)का मथुरा छोड़जाना। १७३ खारवेलका उतरापथपर आक्रमण; १७२ खारवेल द्वारा कलिंगमें जैन पूजाका सुधार; १७१ पुप्यमित्रकी पराजय; १७० खारवेलका कुमारी पर्वतपर व्रत उपचाम करना और मंदिरादि वन वाना;जैन संघ एकत्र होना और जैन वांगमयका उद्धार कराना। (संभवतः शिलालेख भी इसी वर्षमें उत्कीर्ण कराया गया था।) १६९-१५२ संभवतः खारवेलका देहावसान हुआ। १५२ युप्यमित्रकी मृत्यु ! Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ amam NAVANAVVNNNNN अन्य राजा और जैन संघ। [५७ (३) ঞ্জ হাজী জহ জাল স্থ। दिगम्बर-श्वेतांबर-भेद; उपजातियोंकी उत्पत्ति। (सन् १०० ई० पू०-सन् २०० ई०) ईसवीकी प्रारम्भिक शताब्दियों सुतरां उससे भी किंचित् पह लेका भारतीय इतिहास अन्धकारापन्न है। तत्कालीन जैनधर्म। उस समयका कुछ भी ठीक पता नहीं चलता। तौभी जो कुछ भी परिचय प्राप्त है, उसके आधारसे यहापर इस कालमें जैनधर्मके अस्तित्वका ज्ञान कराया जाता है । शक और कुशन आदि विदेशियोंका राज्य ई० से पूर्व प्रथम शताब्दिसे भारतमे उत्तर पश्चिमीय सीमा प्रांतसे लेकर पंजाब, मथुरा और मालवा तक जमा हुआ था और इन स्थानों एवं इन विदेशियोंमें जैनधर्मकी मान्यता भी विशेष थी, यह लिखा जाचुका है। इनके अतिरिक्त उस समय उत्तर भारतमें जैनोंका सम्पर्क किन २ राजवंशोंसे था, यह ठीकसर बताना कठिन है। रोटेलखण्ड उस समय अहिच्छत्रके राजाओंके अधिकारमें था। अहिच्छत्र (रामनगर-बरेली) के राजा लोग अहिच्छत्रके राजवंशमें नागवंश अनुमान किये गये हैं। इस जैन धर्म। वंशका अस्तित्व भारतमें महाभारतकाल अथवा राजा तक्षक नागके समयसे प्रमाणित है। यद्यपि यह वंश विदेशी और संभवतः हूण जातिका था; किन्तु १-कंजाई, पृ० ४१२। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | जैन मान्यता इसका निकास इक्ष्वाकु नामक क्षत्रिय वासे हुआ प्रगट करती है । वस्तुत. नागवंशजोंक विवाह सम्बन्ध भारतीय क्षत्री घगनोंसे होते थे । अहिच्छत्रमे इस वंशका राज्य सभवतः भगवान पार्श्वI नाथजीके समय से था । तत्कालीन राजाने भगवान पार्श्वनाथकी बढी चिनय की थी। भगवान महावीरजीके तीर्थकाल्मे वहाके एक राजा वसुपाल थे । उन्होंने अहिच्छत्रमे एक सुन्दर और भव्य जैन मंदिर निर्माण कराया था । वहाके कटारी खेडा की खुदाईमे डा० फुहरर सा० ने एक समूचा सभा मंदिर खुदवा निकलवाया था । यह मंदिर ई० पू० प्रथम शताब्दिका अनुमान किया गया है और यह श्री पार्श्वनाथजीका मंदिर था । इसमेमे मिली हुई नम जैन मूर्तिया सन् ९६ से १५२ तककी हे । एक ईंटोंका बना हुआ प्राचीन स्तूप भी वहा मिला था । वहा स्तंभपर एक लेख इस प्रकार था - ' महाचार्यइन्द्रनंदिशिष्य पार्श्वपतिस्स कोट्टारी ।"२ इन वस्तुओंसे ईसवी सन्के प्रारम्भ कालमे वहा जैनधर्मका विशेष प्रचार प्रकट होता है । एक समय मथुराके आसपास भी नागवंशका राज्य रह चुका है। उनकी राजधानी काष्ठा नगरी थी। जैन समाजमे एक काष्ठासंघ विख्यात् है । a. उसका यह नामकरण उस नगरीकी अपेक्षा हुआ प्रतीत होता है; क्योंकि काष्ठासंघका अपरनाम मथुराकी अपेक्षा माथुरसंघ है और जैन शास्त्रोंमे देश अपेक्षा प्रसिद्ध हुआ कहा भी गया है। अतएव मथुराका नागवंश और जैनधर्म | L १ - भपा०, पृ० ३६८ । २ - संप्रा जैस्मा०, पृ० ८१ । ३ - राइ०, भा० १ पृ० २३१ | ४ - जेहि०, भा० १३ पृ० २७२ मैनपुरीके सं० Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा और जैन संघ। [५९ काष्ठानगरमे एक समय और संभवतः उक्त नागवंशके राज्य कालमें ही जैनधर्मका प्रभाव विशेप था। वहांका जैनसंघ आज भी भारतके विभिन्न स्थानोंमें फैला हुआ है। यह भी संभव है कि उक्त नागवंशके राजा जैन संघके पोषक हों । संभवतः इसी कारण वहाका संघ खूब फूला फला था। मथुरासे उत्तर पूर्वकी ओर पाचाल राज्य था। उसकी राज धानी प्राचीन कालसे कापिल्य थी। जैनोंके पांचाल राज्यमें जैनधर्म तेरहवें तीर्थङ्कर श्री विमलनाथजीका जन्मस्थान व दानवीर भवड़ । और तपोभूमि भी यही नगर था। विक्रमकी पहली शताब्दिमें यहांपर तपन नामक राजा राज्य करता था। उसी समय भावड़ नामक एक धर्मात्मा जैन सेठ यहां रहते थे। यह एक प्रतिष्ठित धनी व्यापारी थे। इनका व्यापार देश-विदेशसे होता था । जहाजोंमे माल भेजा जाता था। एक दफे दुर्भाग्यसे इनके सारे जहाज समुद्रमें डूब गये। इससे उनके व्यापारको वडा धक्का लगा। किन्तु वह धीरजसे व्यापार करते रहे। एक घोड़ीसे इनके भाग चमक गये । वहांके राजाने तीन लाख रु० में उस घोड़ीको भावड़से खरीद लिया था। उसके वछेड़को भावड़ने विक्रम राजाको भेट किया। राजाने प्रसन्न होकर उन्हें महुआ आदि कई ग्राम दिये। भावड़ उन ग्रामोंका नायक बन गया। उनकी भावला नामक स्त्रीसे उनको भवड नामक पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई। १८६७के लिखे हुए एक गुटकेमें काष्ठासंघकी रीतिया काष्टादि देशकी कहीं गई हैं (काष्ठासंघश्चिरंजीयाक्रिया काष्ठादि देशकः) अतः काष्ठा नाम देश अपेक्षा ही है। -- - Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०] संक्षिप्त जैन इतिहास । यह बडा दानवीर था। शिक्षित और युवा होनेपर भवडका विवाह घेटी सेठकी पुत्री सुशीलासे स्वयंवर विघिसे हुआ था । भवड सानंद कालयापन कर रहा था कि अचानक यवन सेनाका आक्रमण हुआ। भवड इस लडाईमे बंदी हुआ और यवन लोग उसे अपने साथ लेगये । भवड वहा भी अपना धर्म-पालन करता रहा और उसने मंदिर भी बनवाये । उसने एक मासका उपवास किया और उसके पुण्यफलसे चक्रेश्वरीदेवीकी सहायता उसे प्राप्त हुई । उसकी सहायतासे भवड बन्धन मुक्त हुआ और तक्षगिलासे आदिनाथ प्रभुकी मूर्ति लेकर वह जहाजमे बैठा और महुआ आगया । अब सौभाग्यसे उसे समुद्रमे खोये हुए जहाज भी मिल गये। भवडके “दिन फिर गये । उस समय आचार्य वज्रस्वामीके उपदेशसे शत्रुजय तीर्थका उसने उद्धार कराया और खूब दान-पुण्य किया। श्री आदिनाथ भगवानकी प्रतिमा वहा विराजमान कराई। वज्रस्वामी एक प्रतिभासम्पन्न साधु थे। उन्होंने दक्षिणके किसी बौद्ध सम्राटको जैनी बनाया था। श्वतावर संप्रदायमे भवड सेठ और वज्रस्वामी बहु प्रसिद्ध है।' न मालम इस श्वेतांवर कथामे कितना सत्य है ? कोशाम्बीके पुरातत्वसे वहापर जैनधर्मका विशेष सम्पर्क रहा प्रमाणित है । वहासे कुगानकालका मथुरा कोशाम्बी राज्यमें जैसा एक आयागपट्ट मिला है, जिसे राजा जैनधर्म। शिवमित्रके राज्यमे शिवनंदिकी शिप्या वडी स्थविरा बलदासाके कहनेसे शिवपालि१-शत्रुजय माहात्म्य-गुसापरि० जैनवि०, पृ० ५५-५६ । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा और जैन संघ। [६१ तने अहंतोंकी पूजाके लिये स्थापित किया था। इस उल्लेखसे कोशाबीमें एक वृहत् जैन संघके रहनेका पता चलता है। यहींपर काश्यपी अर्हतोंके सं० १०मे आषाढ़सेनने एक गुफा बनवाई थी। वह आषाढ़सेन अहिच्छत्रके राजा शोनकायनके प्रपौत्र और राजा. वंगपाल व रानी त्रिवेणीके पौत्र थे। इनके पिताका नाम राजा भागवत था और इनकी मां वैहिदरी थीं। यह गुफा सन् १००२०० ई० पू० के लगभग बनी थी। यह प्रगट है कि अहिच्छत्रके राजाओंमे जैनधर्मकी मान्यता प्राचीन कालसे थी। साथ ही उक्त काश्यपी अर्हत शब्द भगवान महावीरका द्योतक प्रतीत होता है; क्योंकि भगवानका गोत्र काश्यप था । अतः यह संभव है कि उक्त गुफा जैनोंके लिये वनाई गई हो। ___ स्कंधगुप्तका लेख जो भिटारीके स्तम्भपर अङ्कित है, उसमें लिखा है कि स्कंधगुप्तने पुष्पमित्रको विजय जैन राजा पुष्पमित्र । किया था। यह पुष्पमित्र सन् ४५५ में राज्य कर रहा था। इस वंशका प्रारंभ सन् ७८ ई० से सन् ९३७ ई० तक चलता रहा था । इसका निकास कहांसे और कैसे हुआ था, यह कुछ ज्ञात नहीं है। राजा कनिप्कके समयमें यह वंश वुलन्दशहरके पास बस गया था और अपनेको जैन धर्मानुयायी कहता था। जैन शास्त्रोंसे इस समय विक्रमादित्य नामक एक प्रसिद्ध सम्राट्का पता चलता है; यद्यपि इतिहासमें १-संप्राजैस्मा०, पृ०२५. २-संप्राजस्मा०, पृ० २८.३-बंप्राजैस्मा, पृ० १८७. Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२] संक्षिप्त जन इतिहास। राजा विक्रमादित्य इस नामके राजाका तब कोई उल्लेख नहीं गौतमीपुत्र शातकर्णि। मिलता है। वास्तवमे विक्रमादित्य कार्ड खास नाम न होकर केवल उपाधि मात्र है। इस अपेक्षा उस समयके इतिहासमे इस नामका कोई राजा न मिलना कुछ अनोखापन नहीं रखता । अत. आवश्यक है कि तत्कालीन राजाओंमे ऐसे किसी वीर और पराक्रमी राजाका पता चलाया जाय, जो विक्रमादित्य उपाधिका अधिकारी होसके। इस अपेक्षा अब प्रायः सब ही विद्वान इस समय एक विक्रमादित्य राजाका होना स्वीकार करने लगे है। जैन गाम्म्र कहते है कि वह गर्दभिलका पुत्र था । और प्रतिष्ठानपुरसे आकर उसने शकोंको परास्त करके भारतका विदेशी लोगोंसे उद्धार किया था। जैन, अजैन एवं गिलालेखीय आधारसे मम० कागीप्रसाद जायसवाल इस परिणामपर पहुंचे है कि यह विक्रमादित्य प्रतिष्ठानपुरके आन्ध्रवंशका गौतमीपुत्र शातकर्णि नामका प्रसिद्ध राजा था। 'गाथासप्तगती' के कर्ता राजा हालने (ई० सन् २१) एक गाथामे विकमाउच्च (विक्रमादित्य) की दानशीलताका वर्णन किया है। इस उल्लेखसे विक्रमादित्य उपाधिधारी राजाका-उनसे पहले होजाना सिद्ध है। वस्तुतः आन्ध्रवंशमे गौतमीपुत्र गातकर्णि हालसे पहले होचुके थे। उनका समय ई० पूर्व १००-४४ है। जैन शास्त्र विक्रमादित्यको प्रतिष्ठानपुरसे आया बताते ही है और उनकी जीवनघटनायें भी गौतमीपुत्र शातकर्णिके जीवनसे मिलती है। इस कारण उन्हें गौतमीपुत्र शातकर्णी मानना ठीक १-कैहिंइ०, भा० १ पृ० १६७-१६८, मलाहाबाद यूनीवर्सिटी स्टडीज, भा० २ पृ० ११३-१४७. - Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा और जन संघ। [६३ है। किन्तु जैन शास्त्र उन्हें गर्दभिल्लका पुत्र बताते है और गौतमीपुत्र संभवतः मेघस्वातिके पुत्र थे। इस भेदका सामञ्जस्य विक्रमादित्यको गर्दभिल्लका उत्तराधिकारी माननेसे होजाता है। गर्दभिल्लवंश वस्तुतः आन्ध्रवंशसे भिन्न है। जैन और अजैन शास्त्र उनका उल्लेख अलग-अलग ही करते है और यह निश्चित् है कि प्रतिष्ठानपुरमे आन्ध्रवंशके राजा राज्य करने थे। अतएव प्रतिष्ठान. पुरसे आया हुआ विक्रमादित्य गर्दभिल्लका पुत्र न होकर उत्तराधिकारी होना चाहिये । सोमदेवकी 'कथासरितसागर' से प्रगट है कि गौतमीपुत्रका वंशज कुन्तल शातकर्णि, जिसका राज्यकाल ७५-८३ ई० है, कलिगके भिल्ल (गर्दभिल्ल) राजाका जामाता था और उसने पुनः कोंको उज्जैनीसे भगाकर — विक्रमादित्य' उपाधि ग्रहण की थी। इस प्रकार 'विक्रमादित्य' उपाधिधारी राजा आन्ध्रवंशमें दो हुए थे। जैन लेखकने कुन्तलको गर्दभिल्लका जमाता जानकर पहले विक्रमादित्यको भ्रमसे उसका पुत्र लिख दिया प्रतीत होता है। इस दशामें पहले विक्रमादित्य अर्थात गौतमीपुत्र शातकर्णि जैन शास्त्रोंको विक्रमादित्य प्रगट होते है। ____ "आवश्यकसूत्रमाप्य" से स्पष्ट है कि गौतमीपुत्रने नहपान शकको परास्त कर दिया था । उधर गौतमी पुत्र और ऋषभदत्तके शिलालेखों तथा नहपानके सिक्कों से प्रमाणित है कि गौतमी पुत्रने नहपानको मालवा, सौराष्ट्र आदि देशको शकोंसे मुक्त करदिया था। यह घटना ई० पू० ५८ की है । जैन शास्त्र भी विक्रमादित्यको १-जविमोसो०, भा० १६ पृ० २५१-२७८. २-जविमोसो०, भा० १६ पृ० २५१ । - Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] संक्षिप्त जैन इतिहास । 'शकारि' और उसे ई० पू० ५८ मे उनपर विजय प्राप्त करते लिखते है । जैन ग्रन्थोंसे यह भी प्रकट है कि जब विक्रमादित्य इस असार संसारको छोडगये तो उनके पुत्र विक्रम चरित्र अथवा धर्मादित्यने ४० वर्षांतक मालवापर राज्य किया । धर्मादित्यके पुत्र भैल्यने ११ वर्षतक उस देशपर शासन किशा । उपरात नेल्यने १४ वर्षतक राज्य किया। नैल्यका उत्तराधिकारी नहड़ वा नहद हुआ, जिसने १० वर्ष राज्य किया। उसीके समयमें सुवर्णगिरि ( शिखिर सम्मेदजी) पर भगवान महावीरजीका एक विशाल मंदिर निर्माण हुआ था।' इन नामोंमे 'धर्मादित्य' उपाधि प्रकट होती है, और विक्रमचरित्र कुंतलशातकर्णि (विक्रमादित्य द्वितीय ) के अपरनाम' : विवमशील ' ( चरित्र-शील ) का द्योतक है। कुंतलके समयमे शकोंद्वारा धर्मका विध्वंश पुन. होने लगा था। उसने शकोंको मार भगाकर धर्मरक्षा की थी। इसी लिये उसको 'धर्मादित्य ' कहा गया है । किन्तु वह गौतमी पुत्रका उत्तराधिकारी न होकर उसके बाद उस वंशमे उतना ही प्रख्यात राजा था। गौतमीपुत्रका उत्तराधिकारी श्री विल्व पुलोमवि प्रथम था। उक्त नामोंमे 'भैल्य' को हिला (भिल्व भैल्य) का अपभ्रंश कह सक्ते है, किन्तु शेष दो नामोंका पता आन्ध्रवंशावलीमे लगाना कठिन है। 'नहद' सभवत स्कन्दस्वातिका द्योतक हो। 'जो हो, यह स्पष्ट है कि जैन लेखकने क्रमवार और ठीक नामोंसे विक्रमादित्यके उत्तरा १-जैसिमा० भा० १ किरण २-३ पृ०६०।२-जविमोसो०, भा० १६ पृ० २०६।३-जविमोसो० भा० १६ पृ० २७९-२७९। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा और जैन संघ। [६५ धिकारियोका उल्लेख नहीं किया है; यद्यपि वह आन्ध्रवंशके राजाओका ही उल्लेख करता प्रतीत होता है। गौतमीपुत्र शातकर्णिने अपने राज्याभिषेकके १८ वें वर्षमें शकोंको परास्त किया था। उस समय विक्रमादित्य व अर्थात् ई० पू० ५८ में उनकी अवस्था ४२ जैनधर्म। वर्षकी थी। आंध्र राज्यका भार उनपर ही बाल्यावस्थासे-जन्मसे ही आन पड़ा था। चौवीस वर्षकी आयु प्राप्तकर लेनेपर पुरातन प्रथाके अनुसार उनका राज्याभिषेक हुआ था । इन चौवीस वर्षों में उनके नामपर राजमाता गौतमीन. शिवाजीकी माता जीजाबाईके समान, राजकाज किया था। उनका कुल राज्यकाल ५६ वर्ष था। ई० पृ० १४ मे वह इस संसारको छोड गये थे। जैनोंकी पट्टावलियोमे जो वीर निर्वाणसे ४७० वर्ष पश्चात् विक्रमादित्यका जन्म हुआ लिखा है तथा वीर निर्वाण संवत् विक्रम संवतके आरम्भसे ४७० वर्ष पहले वीर निर्वाण हुआ मानकर प्रचलित है, उस १८ वर्ष के अंतरका कारण मम० जायसवाल यही प्रगट करने है कि एक गणना गौतमी पुत्र शा० के जन्मसे राज्य करने (विक्रमका जन्म होने ) की द्योतक है और दूसरी जिसके अनुसार वीर निर्वाण प्रचलित है उनकी शक विजयसे गिनी गई है। जिसकी स्मृतिमे वह संवत चला था, जो विक्रम संवतके नामसे प्रचलित है, उसमें इस वातका ध्यान नहीं रक्खा गया है कि वह घटना गौतमी पुत्र विक्रमादित्यके राज्यकालके १८ वर्षकी है। जैनोंके इस मतभेदसे भी विक्रमादित्यका गौतमी पुत्र शातकर्णि होना Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास। प्रमाणित है। विक्रमादित्य अपने आरम्भिक जीवनमे ब्रामणधर्मके अनुयायी थे, कितु शेष जीवन उन्होंने एक जैन गृहस्थ श्रावकक समान व्यतीत किया था । जैन ग्रन्मामे उनका वर्णन खूब मिलता है। 'वैताल पचविगनिका' :मिहामन द्वात्रिंगतिका 'विक्रम प्रबन्ध आदि ग्रन्थोंमे उनके चारित्रको प्रगट करनेवाली कथायें मिलनी है। सचमुच वह एक आदर्श जैन गृहस्थ, महान शामक और विद्यारसिक राजा थे। उनके समयमे विद्या और कलाकी विशेष उन्नति हुई थी। कहा जाता हे कि विक्रमादित्य ने अपनी गक विजयकी स्मृ तिमे ई० पू० ५८ मे एक संवत् भी चलाया विक्रम सम्वत् । श्रा और उस विक्रम संवत्का प्रचार जैनोंमें और उनके द्वारा विशेष हुआ था। किन्तु इतिहासमे पता चलता है कि यह जनश्रुति तथ्यपूर्ण नहीं है, क्योंकि गौतमीपुत्र गातकर्णि, जो विक्रमादित्य प्रमाणित होता है. ने अपने शिलालेखोंमे संवत् न लिखकर अशोक आदि प्राचीन राजाओंके समान अपने राज्यके वर्व लिग्वे हे तथा मालवा और राजपूतानासे ऐसे सिक्के ई० पू० प्रथम शताब्दिके मिले है, जिनसे मालवगण द्वारा उक्त संवतका प्रचलित होना प्रमाणित है। उन सिकोंमे 'माल[वगणकी किसी महान् विजय' का उल्लेख है ('मालवाना जय'--'मालवगणस्य जय') यह मालवगण राज्य तब पूर्वीय राजपूतानामे स्थित था। मालम होता है जिस समय गौतमीपुत्र शातकर्णिने मालवा १-जविभोसो० भा० १६ पृ० २५३-२५४ । २-जैन पावली और विक्रम प्रवध देखो। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा और जैन संघ। [६७ और मौराष्ट्रकी ओर शकोंपर चढ़ाई की थी, उस समय उक्त गणने उममे गहरा भाग लिया था और विक्रमादित्यकी महान विजयको अपनी विजय समझकर उसकी स्मृतिमें उक्त मिक्के ढाले थे। उन्होंने इस महान विजयके उपलक्षमें संवत भी चलाया, जिसका प्रचार राजपूताना और मालवाके लोगोंमे होगया । वही कालान्तरमे विक्रम संवतके नामसे प्रसिद्ध होगया । विक्रम संवत्की उत्पत्ति उक्त प्रकार हुई स्वीकार करनेसे, जिसका स्वीकार करना उचित प्रतीत होता विक्रम संवत् व है, जैनोंमें प्रचलित विक्रम संवत् विषयक वीर संवत। मान्यता अपना बहुत कुछ महत्व खो बैठनी है, क्योंकि यह स्पष्ट होजाता है कि विक्रम संवत् न तो विक्रमादित्यके राज्यारोहण कालमे हुआ और न वह उसकी मृत्युका स्मारक है । हा, जैनोंकी तद्विषयक मान्यतामें ऐतिहासिक तथ्यांग अवश्य है, क्योंकि वह इस बातकी द्योतक है कि विक्रमादित्यपर राज्यभार जन्मते ही आगया था और अपने राज्यके १वें वर्ष है. पर्व ५८में उन्होंने गक विजय की थी. जैसे कि लिखा जाचुका है। उधर विक्रम विषयक जो जैन उल्लेख उपलब्ध है उन सबमे यही कहा गया है कि वीरनिर्वाणसे ४७० वाद विक्रमराजा हुआ और किन्हीं गाथाओंमें स्पष्टतः उनका जन्म लिखा है। और यह निश्चित है कि विक्रम संवत् ई० पू० ५८से विक्रमादित्य (गौतमीपुत्र शातकर्णि) की शकविजय विषयक घटनाके स्मारकरूपमे चला है । अतएव विक्रम संवत्से ४७० वर्ष पूर्व वीर १-जविमोसो, भा० १६ पृष्ट २५१-२५४. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] संक्षिप्त जैन इतिहास। निर्माण हुआ मानना ठीक नहीं है। यह समय उसके राजा होनेका मानना ठीक है। मम. जायसवालजी, जैन और हिन्दू पुराणोंकी गणनाके आधारसे उसे ई० पूर्व ५४५मे अर्थात् विक्रम संवत्मे ४८८ वर्ष पूर्व सिद्ध करते है। हरिवशपुराण मे श्री जिनसेनाचार्यन नहपानशकके राज्यकालका अन्तिम समय वीर निर्वाणमे ४८७ वा वर्ष लिखा है और यह लिखा ही जाचुका है कि विक्रमादित्य गौतमीपुत्रने ई० पूर्व ५८मे नहपानको परास्त करके उसके राज्यका अन्त करदिया था। अत जिनसेनाचार्यके मतानुसार भी विक्रम संवत्से ४८७-४८८ वर्ष पूर्व वीरनिर्वाण हुआ प्रगट है। हम अन्यत्र इस ही मतको स्वतन्त्ररूपमे सिद्ध कर चुके है । फलत. वीर निर्वाणका शुद्ध रूप ई० पूर्व ५४५ मानना ठीक है। १-जविओसो० भा० १ पृ० ९९-१०५ व भा० १३ पृ०२४५. २-"वीरनिर्वाणकाले च पालकोऽत्राभिषिक्ष्यते । लोकेऽवतिसुतो राजा प्रजाना प्रतिपालकः ।। पष्टिवर्षाणि तद्राज्य ततो विजयभूभुजा । शत च पच पचाशत् वर्षाणि तदुदीरित ॥ चत्वारिंशत् पुरुढाना भूमंडलमरवंडित । त्रिंशत्तु पुष्यमित्राणा पष्टिर्वस्वग्निमित्रयोः॥शत रासभराजानां नरवाहनमप्यतः। चत्वारिंशत्ततो द्वाभ्या चत्वारिच्छतद्वयं ॥ भट्टवाणस्य तद्राज्यं गुप्ताना च शतद्वयं । एकविशच वर्षाणि कालविद्भिदाहत ।" "हरिवशपुराण" के उक्त श्लोकोंके अनुसार वीरनिर्वाणके समय अवतिके सिंहासन पर पालक राजाका अभिषेक हुआ था । उस वशने ६० वर्ष, विजय (नंद ) वंशने १५५ वर्ष, पुरुढ वंशने ४० वर्ष, पुष्यमित्रने ३०, वसुमित्र अग्निमित्रने ६०, रासभ (गर्दभिल्ल) वशने १००, नरवाहनने ४२, भट्टबाण (आन्ध्रभृत्य) ने २४२ और गुप्तवंशने २२१ वर्ष राज्य किया। नरवाहन, जो नहपानका द्योतक है, - - - Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा और जैन संघ । [ ६९ ईसवी प्रथम शताब्दिसे किचित् पूर्वसे जैन संघकी दशा विचित्र हो रही थी । यह पहले ही लिखा दिगम्बर और श्वेतांवर जा चुका है कि सम्राट् चन्द्रगुप्तके समय में जैनसंघ में मतभेद उपस्थित होगया था । संघ-भेड़ । और नये दलकी क्षीणधारा बल संचय करती हुई प्रथक रूपसे चलरही थी । स्थूलभद्रके बाद इस नई धारामें आर्यमहागिरि, आर्य सुहस्तिसूरि, सुस्थितमूरि, इंद्रदिन्नसूरि (काल्कचार्य ), प्रियग्रंथसरि, वृद्धवादिसूरि, दिन्नसरि, सिंहगिरि, वज्रस्वामी आदि अनेक आचार्य हुये, जिनकी वंशपरम्परा आजतक श्वेतावर कुल ४८८ वर्षे होती हैं। श्वेताम्बरोंके तपागच्छकी पट्टावलीमें भी लगभग यही गणना लिखी गई है; जैसे कि निम्न कोष्टकके रूपमें मम० जायसवालजीने प्रगट की हैःश्व० पट्टावली पालक........ वर्ष ६० AAAA नन्द्रवंश ...१५६ मौर्यवंश ......१०८ · पुष्यमित्र ३० बलमित्र - भानु मंत्र ६० नहवान.... ४० गर्द भिल्ल १३ ४ 11. ..... .. शक (विक्रमके राज्याभिषेक होनेतक १८ की वर्षे ) जोड़ ४८८ ..... .. .. हरिवंशपुराण पालक .......वर्ष ६० विजयवश . १५५ ४० - 4000 पुरुढ़वश पुष्यमित्र वसुमित्र अग्निमित्र ६० ३० रासभ (गर्द भिल्ल) १०० नरवाहन ४२ जोड़ ४८७ ***. ..... 4 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०] संक्षिप्त जैन इतिहास। सम्प्रदायमे चली आरही है। इनमेसे आर्यमहागिरिने नई धागको पुन प्राचीन मार्गपर लेआनेक प्रयत्न किये थे । वह जिनकल्ली ( नन ) साधु थे और उन्होंने इस बातको स्वीकार किया था कि स्थूलभद्र द्वारा अनेक वान धर्मके विरुद्ध प्रचलित होगई है। किंतु वह अपने सदप्रयासमे असफल रहे। भला वह नया मंध कने इन साधुमहात्माकी वात मानसक्ता था. जिसने श्रुतकेवली भद्रबाहुको संघ वाह्यसा करदिया था। उपरोक्त गणनामे सर्व अंतिम वज्रस्वामीका समय सन् ७१ ई० है। इनके समयमे रोहगुप्त नामक जैन साधुने एक मतभेद उपस्थित किया था। इनके गिप्य कनाट द्वारा वैशेशिक दर्शनकी उत्पत्ति हुई थी। वज्रस्वामीके उत्तराधिकारी वज्रसेन हुये और इनके समयमें दिगम्बर और श्वेतावर भेट बिल्कुल स्पष्ट होगया था। मौर्यकालकी क्षीणधारा इतनी वेगवती होगई थी कि वह पुरातन धारा सम्मुख आडटी ' वतावर कहते है कि स्थवीरपुरके राजाका एक नौकर मुनि होगया था। इसका नाम शिवभूति हुआ। राजाने इन्हें कीमनी कम्बल भेंट किया, जिसे उनने स्वीकार कर लिया । किंतु उनके १-जैसा सं०, भा० १, वीर वंशावलि, पृ० ८-११ २-हॉ० पृ० ७२ Mahaguri's rule is also notes orthy for his iendeavours to bring the community back to their primitive faith and practice He was a real ascetic and recoge Primativeafanth and sRAICHCHIs was Dised that under Shulbhadra's sway many abuscs had crept in to the order -Heart of Jainism P 72 ३-हॉजै० पृ० ७८ व जैसा सं० भा० १ वीर वंशा० पृ० १३॥ ४-हॉजे०, पृ० ७९। - Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा और जैन संघ। [७१ गुरुने शिवभृतिका कम्बलने विशेष मोह देखा तो उसे फाडकर फेंक दिया । शिवभूति नाराज होगया और नग्न रहने लगा। इसके दो. शिप्य कौन्डिन्य और कट्टवीर हुये । इसकी बहिन उत्तराने भी साधु होना चाहा. परन्तु स्त्रीके लिये नम रहना असंभव जानकर शिवभूतिने उसे साधु दीक्षा नहीं दी और घोपणा करदी कि कोई जीवा स्री भवसे मोक्ष नहीं जासकता ! वतावरोंकी इस कथामे कुछ भी ऐतिहासिक तथ्य नहीं है; क्योंकि बौद्ध ग्रन्थोंके आधारसे सिद्ध किया जा चुका है कि जैन मुनियोका प्राचीन भेष नम (दिगंबर) था और यह बात स्वयं श्वतावरोंके आर्य महागिरि विषयक उपरोक्त. कथनसे भी स्पष्ट है । अतएव इस कथामे केवल इतनी बात तथ्यपूर्ण है कि जैन संघमें दिगम्बर और खेतांबर भंद इस समय पूर्ण प्रगट होगया था । दिगंबर संप्रदायकी मान्यताके अनुसार हम देख चुके है कि सम्राट् खारवेलके पश्चात् नक्षत्र आदि आचार्य दि० जैन संघ व ग्यारह अंगके धारी हुये थे। इनके बाद उसके प्रभेद। सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोह ये चार आचार्य आचाराङ्गके धारक हुए । शेष कुछ आचार्य ग्यारह अंग चौदह पूर्वके एक अंशके ज्ञाता थे और ये सब ११८ वर्षमें हुऐ थे। इस प्रकार भगवान् महावीरजीके निर्वाण उपरांत ६८३ वर्षमें द्वादशांग वाणीका ज्ञान करीब २ बिलकुल लुप्त होगया; अर्थात् सन् १३८ में अंग पूर्वोका ज्ञान आंशिकरूपमें 'शेष रहा था। इस समयसे किचित् पहले श्री धरसेनाचार्य हुये थे १-तिल्लोयपण्णत्ति, गा०८०-८२, जैहि० भा० १३ पृ० ५३२। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] संक्षिप्त जैन इतिहास। जिनके निकटसे नहपान राजाने जैन मुनि होकर पटखण्डागम अन्थकी रचना करके उसे ज्येष्ठ शुक्ल पंचमीके दिन अंकलेश मे लिपिबद्ध किया था। इसी कारण यह पवित्र दिन "श्रुतावतार" के नामसे प्रसिद्ध है। श्रीधरसेनाचार्य गिरनारकी चंद्र-गुफामें बिराजमान थे। वहींपर नहपान राजर्षि (भूतबलि मुनि) और सुबुद्धि श्रेष्ठी (पुष्पदन्त मुनि) ने उनसे शास्त्र ज्ञान प्राप्त किया था। ये दोनों ऋषि उस समय वेणातटकपुरके जैन संघमे निवास ही करते थे। गिरनारसे ये दोनों ऋषि कुरीश्वर देशमे पहुंचे थे और वहापर इन्होंने चातुर्मास किया था । पश्चात् दक्षिण भारतकी ओर इनका विहार हुआ था । पुष्पदन्त मुनि अपने भानजे जिन पालितको मुनि बनाकर दक्षिणके वनवास देशको चले गये थे और भूतवलि मुनि दक्षिण मथुराको प्रस्थान कर गये थे। इसी जिन पालितके निमित्तसे षट्खण्डागम ग्रन्थकी रचना हुई थी। __ श्री इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार कथाके अनुसार इस घटनाके 'पहले जैनसंघ नन्दि, देव, सेन, वीर (सिह) और भद्र नामक संघोंमे विभक्त होगया था। ये विभाग श्री अर्हद्वलि आचार्य द्वारा किये गये थे। इनमे कोई सिद्धात भेद नहीं है। किन्तु श्रवणबेलगुलके शिलालेख नं० १०८ से प्रगट है कि अकलंकस्वामीके स्वर्गवासके 'पश्चात् सघ देशभेदसे 'सेन', 'नंदि', 'देव' और 'सिंह' इन चार भेदोंमें विभाजित हुआ था। श्री पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार प्रगट १-श्रुतावतार कथा, पृ० १६-२० २-जैशिसं० भूमिका, पृ० १४५ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा और जैन संघ। [७३ करते है कि 'अकलंकसे पहलेके साहित्यमे इन चार प्रकारके संधोंका कोई उल्लेख भी अभीतक देखनेमें नहीं आया, जिससे इस (शि० नं० १०८ के ) कथनके सत्य होनेकी बहुत कुछ सम्भावना पाई जानी है। संभव है मुग्न्तार सा०का यह अनुमान ठीक होः कितु कुशानकालके कौगाचीवाले लेखमे एक आचार्यका नाम शिवनंदि है और यह 'नंदि विशेषण युक्त है। वेताम्बर संप्रदायमे भी इसी समयके लगभग अर्थात् वीर निर्वाणाळसे ५८२ वर्ष वाढ (१) नागिन्द्र, (२) चंद्र, (३) निर्वृनि और (४) विद्याधर नामक चार शाखाय प्रगट हुई थीं, जिनमे ही उपरान्त ८४ गच्छ निकले थे।' अतएव अर्हद्वलि आचार्यके समयमे ही दिगम्बर जैन संघ चार भागोंमें विभक्त हुआ हो तो कोई आश्चर्य नहीं ! अर्हद्वलिको श्री गुप्तिगुप्ति और विशाखाचार्य भी कहते है-श्री अर्हद्वलि, माघनदि, धरसेन, पुप्पडन्त और भृतवलि, ये सब प्रायः एक ही समयके विद्वान् प्रतीत होते हैं। बलात्कारगणकी उत्पत्तिके विषयमें कुछ ज्ञात नहीं है । डॉ० हॉर्णल अनुमान करने हैं कि अर्हद्वलिके नाम अपेक्षा ही इस गणकी उत्पत्ति हुई है। नंदिगण, देशीगण और बलात्कारगण परस्पर अमिन्न है। गणभेद जैन संघमे भगवान महावीरजीके समयसे १-श्रा०, जीवनी पृ० १८१ । २-संप्राजैस्मा० पृ० २५ । ३-जैसा स०, भा० १, वीर वंशावलि, पृ० १५ । ४-रश्रा०, जीवनी, पृ० १८७ । ५-इऐ०, भा० २०, पृ० ३४२ । ६-जैशि० सं०, भूमिका पृ० १४६। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४] संक्षिप्त जैन इतिहास । विद्यमान था । उपरान्त इस गणके अनेक भेट देश अथवा आचार्यपरम्पराको लक्ष्य करके होगये है। उदाहरणत. 'देशीगण को ले लीजिये । 'बाहुबलिचरित्र' मे इस गणके आचार्योकी प्रसिद्धि देश देशान्तरों (देशदेशनिकरे ) मे होनेके कारण इसका नाम देशीगण पडा बतलाया है, कितु मि० गोविन्दपै इस व्याग्ज्याको स्वीकार नहीं करते है। वह कहते है कि दक्षिण भारतके पश्चिमीयघाट, बालाघाट, कर्णाटक और गोदावरी नदीका मध्यवर्ती प्रदेश 'देश' नामसे प्रसिद्ध है और वहाके ब्राह्मण आज भी 'देशस्थ ब्राह्मण' कहलाते है। अत. नंदिसंघके आचार्योका केंद्र इस देश नामक प्रदेशमें रहनेके कारण 'देशीयगण' के नामसे विख्यात हुआ उचित' जंचता है। 'पुन्नाट गण' पुन्नाट देशकी अपेक्षा प्रसिद्ध हुआ मिलता ही है । इस प्रकार प्राचीन आचार्य परम्परा आजतक दि० जैनोंमे भी चली आरही है। जब सन् ८०-८१ ई० में जैन संघ दिगंबर और श्वेताबर इन दो संप्रदायोंमे विभक्त होगया; तब दि० सम्प्रदाय 'मूलसंघ' (Real Snngna) के नामसे प्रसिद्ध हुआ; क्योकि उसकी मान्यतायें प्राचीन जैनधर्मके अनुसार थीं। कितु इस नामकरणकी तिथि बतलाना कठिन है । अब दिगम्बर जैन दृष्टिसे भी संघ भेदपर एक नजर डालिये। १-बौद्धोंके 'दीर्घनिकाय' (१४८-४९) में भगवान महावीरको गणाचार्य लिखा है। गणधरोंके अस्तित्वसे गणकाहोना स्वतः सिद्ध है।। २-द्रव्य संग्रह (s B.J., Vol 1.) भूमिका पृ० ३० । ३-'महाराष्ट्रीय ज्ञानकोष', भा० १५-'देश' लेख देखो। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m अन्य राजा और जन संघ। [७५. श्री देवसेनाचार्यजीके " दर्शनसार" नामक । दि० मतानुसार श्वे० ग्रन्थके अनुसार विक्रम संवत् १३६ में संप्रदायकी उत्पत्ति। श्वेतांबर संप्रदायको उत्पत्ति हुई प्रमाणित है।' मोरठ देशकी वल्लभी नगरीमें यह संप्रदाय उत्पन्न हुआ था। किन्तु भट्टारक रत्ननंदिके 'भद्रबाहु चरित्र' एवं श्रवणबेलगोलके शिलालेखो तथा खेतांबरोंकी मान्यताओंसे प्रगट है. जैसे कि हम देख चुके हे कि जैनसंघमे भद्रबाहुजी श्रुतकेवलीके समय ही भेद पड़ गये थे। बौद्ध ग्रंथोंसे भी जैनसंघका भगवान् महावीरके उपरांत विभक्त होना सिद्ध है। ये बौद्ध ग्रंथ सम्राट अगोकके समय संशोधित और निर्णित हुये थे। अतएव सम्राट चंद्रगुप्तके समयमें जैन संघमें भेद पड़ा देखकर उन्होंने उक्त प्रकार उल्लेख किया है । इस दशामे देवसेनाचार्यका सं० १३६ ( सन् ८०-८१ ) मे श्वेतांबरोंकी उत्पत्ति होना बताना कुछ उचित नहीं जंचती. किन्तु उनका यह कथन तथ्यपूर्ण है। श्वेतांवर भी दिगम्बर संप्रदायकी ओरसे उपस्थितकी जानेवाली गाथाके समान ही एक गाथा द्वारा दिगम्बरोंकी उत्पत्ति लगभग इसी समय प्रगट करते है । उसपर भट्टारक रत्ननंदिके 'भद्रबाहु चरित्र' १-छत्तीसे वरिससए विकमरायस्स मरण पत्तस्स । सोरटे बलहीए उप्पण्णो सेवडो संघो ॥ ११॥-दर्शनसारः। २-दीनि० ३ पृ० ११७-११८, मनि० भा० २ पृ० १४३ व भमवु० पृ० २१४ । ३-"छवास सहस्सेहि नवुत्तरेहि सिद्धि गवस्स वीरस्स । तो बोडियाण विट्ठी रहवीरपुरे समुपन्ना ॥" किन्तु श्वेताबरोंकी यह प्रमाणभूत गाथा दिगम्बर ग्रन्थकी निम्न गाथाका रूपातर प्रतीत होता है। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६] संक्षिप्त जन इतिहास । से प्रगट है कि भद्रबाहु स्वामीक समय गंब भट उपस्थित हुआ. तब भीण रुपमे प्राचीन निग्रंथ मघमे एक शाखा अलग होगई थी और वह अपने मिद्धात ग्रन्थ आदि टीक करनेमें व्यग्र दी थी। वह 'अर्द्धफालक मंप्रदाय थी और इसके सायु खण्ड यत्र ग्रहण करने थे । श्वेताराका पूर्वज यह 'अर्द्धफालक' संप्रदाय था। कनिपय विद्वान् 'अर्द्धफालक मप्रदायका अस्तित्व स्वीकार नहीं मग्न है। किन्तु मथुराके पुगतत्वमे इस मन्प्रदायका अस्तित्व प्रमाणित होता है। मथुगका प्लेट नं० १७ एक नारण स्तम्भका चित्र है ! टममें एक जैन साधु सक्म दिग्वाया गया है। इसी प्रकार एक पनामनम्य जैन मूर्ति यार शरीरपर वस्त्र पहने हुए एंट नं० १के त्रिमे दाई गई है। नं०१७ वाली इंटमे दूसरी ओर जो दृश्य अद्वित है वह अर्द्धफालक सम्प्रदायक अस्तित्वकी प्रमाणिक साक्षी है। उसके ऊपरक अंगमे एक स्तूप है और उसके दोनों ओर दो दो नीर्थकर है । नीचके अशमे एक मुनि हाथकी कलाई पर कपडा डाले हुये खड़े है। उनका सीधा हाथ कवकी ओर उठा हुआ है जिसमे क्योंकि स्वय श्वेतावगचार्य जिनेश्वरसूग्नेि दिगम्बरोंके इन गाथाका उल्लेख किया है.- 'छब्यास सएहि न उत्तरेहि तत्या' सिद्धि गयस्म वीरस्स | कवलियाण विट्ठी बलही पुरिए समुप्पण्णा" जहि० मा० १३ पृ० ४००। १-जैस्तूर० पृ० २४॥ २-जैस्तूप० पृ० ४१। श्वेतावर शास्त्र अपनी मूर्तियोंमें वस्त्र चिन्ह अंकित करना बतलाते हैं। उनमें मृतियोंको वस्त्राच्छादित बनाने का विधान हमारे देखने में नहीं आया। भूमृतिको वस्त्रालंकारसेषित करनेकी प्रथा श्वेताबरोंमें अर्वाचीन है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा और जैन संघ। ७७. पीछी है उनका नाम 'कन्ह' लिखा हुआ है। इसपर कुशन मं० ९.५ का एक लेख है जिसमे कोटियगण थानियकुल और वैरशाखाके आर्य अरहका उल्लेख है। इन गणादिका पता संभवत श्वेताबरोकी स्थिविरावलीमे लगता है। इस दशामे 'अर्धफालक' संप्र. दायको श्वेताबरोंका पूर्वज मानना अनुचित नहीं है। ___ इस पटक मुनि अर्धफालक सम्प्रदायके मालूम होते है, क्योंकि इनके पास कपडेका केवल एक टुकडा' (खंडवस्त्र ) ही है । और यह चित्र है भी उस समयका जब श्वेतावर और दिगंवर भेद पूर्णतः व्यक्त होनेके सन्निकट था । एमे समयमे जैन सघमें एक महा __ क्रान्निसी उपस्थित हुई प्रतीत होती है । यही कारण है कि नं० १६ व नं० १७ के प्लेटोमे सवस्त्रधारी मूर्ति और साधुतक दर्शाये गये है । माटम एसा होता है कि मौर्यकालमे ईसवी सन्के प्रारम्भिक समयतकके अन्तरालमे वह शाखा जो प्राचीन निग्रंथ (नग्न) मंबसे अलग हुई थी, इतनी बलवान होगई थी कि वह अव तीर्थों और मूर्तियोंपर भी अपना अधिकार स्थापित करनेकी चेष्टा करने लगी थी । भगवान् कुंद्रकुदाचार्य इसी समय हुये थे और उनके वक्तव्योंमें स्पष्ट है कि उनके समयमें अवश्य ही जैन मुनि वस्त्र धारण करने लगे थे, अपने मन्तव्यको पुष्ट करनेवाले ग्रन्थ रचने लगे थे और मूर्ति आदिक लिये झगड़ने लगे थे। आचार्य महाराजने. तिलतुपमात्र परिग्रह रहित दिगंबर मुनिको ही चैत्यग्रह बतलाया है। उन्होंने लोगोंका ध्यान व्यवहारकी ओरसे हटानेका प्रयत्न किया था, क्योंकि उसमें निवृनि मार्गके उपासक साधु लोग भी बुरी तरह फंस Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___७८] संक्षिप्त जैन इतिहास । - गैयेथे। दिगम्बर और श्वेतावर दोनो सप्रदायोंके ग्रथोंसे प्रकट हे कि इस कालके लगभग तीर्थोके सवन्धमे दोनों सप्रदायोंमे झगडा हुआ था। - कुढकुटाचार्यने उज्जयंत (गिरिनार) पर सरस्वतीकी पापाण मृतिको वाचाल करके नग्न रहनेवाले निग्रंथ साधुओंके पक्षको सवल बनाया था। ___श्वेताबराके पूर्वज ( Fori Tuuners ) प्राचीन मूर्तियोकी आकृतियोंको नहीं बढल पाये थे अर्थात् इस समयतक जैन मूर्तिया बिलकुल वस्त्र चिह्न रहित नग्न बनाई जाती थीं, जैसे कि मथुरा और खण्डगिरिकी गुफाओंवाली प्राचीन मूर्तियोंसे प्रमाणित है। प्राचीन मूर्तियोंको भले ही श्वेताबर बदलनेमे असमर्थ रहे हों, कितु उन्होंने नवीन मूर्तियोंको वस्त्र चिह्नाङ्कित बनाना प्रारम्भ कर दिया था, इसमे संशय नहीं। जैन सघमे हुई इस क्रातिका कटु परिणाम यह निकला कि वि० सं० १३६ (सन् ८० ई०)मे दिगंवर और श्वेतावर सप्रदायोंकी जड खूब पुख्ता जम गई और उनमे आपसी विरोध पड गया। भद्रबाह द्वितीय संभवत इस समय दि० सम्प्रदायके अध्यक्ष थे। उपरोक्त वर्णनने स्पष्ट है कि भगवान् महावीरजीके निर्वाण ___ कालसे लेकर ईसवी सन्के प्रारंभिक काल तत्कालीन जैनधर्म । तकके समयमे जैनधर्ममे बड़ा अंतर पड गया था। द्वादशागवाणी बिलकुल लुप्त होगई थी। उसके स्थानपर नये २ ग्रन्थ आचार्यों द्वारा रचे जाने लगे थे। उधर १-विशेषके लिये देखो 'वीर' वर्ष ४ पृ० ३०४-३०९ । २-'प्रवचन परीक्षा' प्रकरण १-जैहि० भा० १३ पृ० २८९ । ३-इऐ०, भा० २० पृ० ३४२ । ४-जैहि०, भा० १३ पृ० २९०। ५-इऐ०, भा० २० पृ० ३४२-३४३ । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा और जैन संघ। [७९ श्वेतांवर संप्रदायमें अपने मनोनीत ढंगपर द्वादशांगवाणीका पुनरुद्धार किया गया था। जिन प्रतिमाओंका रूप भी इस संप्रदायने बदल दिया था। श्वेतांबर साधु वस्त्र धारण करने लगे थे। इन मान्यताओंको लक्ष्य करके श्वेतांवर संप्रदायमें वत्र सहित अवस्थासे भी मोक्ष प्राप्त कर लेना विधेय ठहराया गया था। स्त्री मुक्ति, केवली काबलहार आदि बातें भी स्वीकार की गई थीं। किन्तु दिगम्बर सम्प्रदायमें प्राचीन मान्यताओंको ही स्थान मिला रहा और इस संप्रदायके अनुयायियोंमें तबतक पुरातन रीतिरिवाजोंकी मान्यता रही; यद्यपि दिगम्बर संघ भी चार भागोंमे विभक्त होगया था और ग्रहस्थोंमें भी अनेक उपजातिया उत्पन्न होगई थीं। ___ अब भी दिगम्बर जैन धर्मका द्वार प्रत्येक प्राणीके लिये खुला हुआ था। जिस प्रकार भगवान महावीरजीके समयमे विदेशियों और चोर, डाकुओंके समान पतित लोगोको उनके धर्ममें शरण मिली थी; वैसे ही इसकाल अर्थात् ई० सन्के प्रारम्भमें भी शोंके सदृश विदेशी लोगो और वेश्यायों जैसे पतित व्यक्तियोंको जैन रीत्यानुसार धर्माराधन करनेका अवसर मिला था । नहपान राजा विदेशी शक जातिका था, पर तो भी जैनमुनि होकर उन्होंने हमें द्वादशाह वाणीका आंशिक ज्ञान कराकर बझ उपकार किया है । देवसंघके जैनमुनियोंने देवदत्ता नामक वेश्याके घरमें चातुर्मास व्यतित करके जैन धर्मके पतित पावन रूपको स्पष्ट कर दिया था। इतना ही क्यों ? १-इंऐ, भा० २० पृ०३४६ 'यो देवदत्ता वेश्यागृहे वर्षायोगो स्थापितवान् सहदेवसंघश्चकार ||४|| Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] संक्षिप्त जैन इतिहास । मथुराके पुरातत्वमे नर्तक लोगों. रंगरेजों और गणिकाओं द्वारा अर्हत भगवानकी पुजाके लिये जिन मदिर आदि बननका पता चलता है।' ये सब बातें उस समय भी जैन धर्मक व्यापक रुपकी द्योतक है । साथ ही श्रावकोंमे परस्पर प्रेम व्यवहारका अभाव नहीं था । उनमे परस्पर सामाजिक व्यवहार होता था। एक वणिकका विवाह क्षत्रियाणी साधर्माक माथ होनेका उदाहरण मिलता है। उपजातिवोंमे परस्पर विवाहसम्बन्ध तो बारहवीं-नरहवीं शतानि तक होने रहे थे जैसे कि आवृपरके वस्तुपालबाल गिलालेखस प्रगट है। उपजातियोंका जन्म यद्यपि इस समय होगया थाः किनुप्रनको विशेष महत्व प्राप्त नहीं था। शिलालेखा और शाम्रोमे उनका उल्लेख ' वणिक ' या · वैश्य ' नामसे मिलता है। उनमे परस्पर कुछ भी भेदभाव न था। जिस प्रकार आज एक ही उपजानिक विविध गोत्र ग्रामों अपेक्षा, जमे कागलीवाल. रपरिया आदि स्वतंत्र रूपमे उल्लिखित होते हुए भी उपजानिमे कुछ भी विरोध नहीं रखते. इसी तरह मालम होता है, उस समय एक वडी वैश्य जातिके अन्तर्गत यह उपजातिया ग्रामादि अपेक्षा अपना प्रथक् नामकरण रखते हुए भी उसमे विलग नहीं थीं। - - १-'वीर' वर्ष ४ पृ० ३०२-Mathera jaan image inscrption of sama 25 records the gift of Vasu, the wife of a dyer .. इऍ०, भा० ३३ पृ० ३७-३८ २-वीर, वर्ष ४ पृ० ३०१ ३-प्राजैलेसं० पृ० ८७ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा और जैन संघ। [८१ जिस समय इस भरतक्षेत्रमें कर्मभूमिका प्रादुर्भाव हुआ था,. तब यहांके मनुप्योंमे किसी भी प्रकारकी उपजातियोंकी कोई जाति अथवा वर्णव्यवस्था नहीं थी। उत्पत्ति । जनता कर्मभूमिके कर्तव्योसे अपरिचित थी और वह भयभीत हुई तत्कालीन राजा ऋष भदेवके सन्निकट सभ्यताकी प्राथमिक शिक्षा ग्रहण कर रही थी इसी समय ऋषभदेवने जनताकी समुचित रक्षा और उन्नतिकेभावमे वर्ण अथवा जाति व्यवस्थाको जन्म दिया था। उन्होंने उन पुरुषोंको 'क्षत्रिय' संज्ञाप्से विभृपित किया, जिनको जनताकी रक्षाके योग्य समझकर यह भार सौपा गया। इसी प्रकार मनुष्योंकी योग्यताके अनुसार वैश्य और शब्द नियत हुए । तथापि भरत महाराजने ऋषभदेवजी द्वारा धर्मकी प्रवर्तना होनेपर उपरोक्त तीनों वर्णोमेके व्रती पुरुषोंमेसे ब्राह्मण वर्णकी स्थापना की थी, जैसे कि प्रथम भागमें लिखा जाचुका है ।' मूलमे यहापर इस प्रकार चातुर्वर्णमय व्यवस्था थी । इन चारवर्णो के साथ विविध कुलोंकी स्थापना भी होगई थी। यह अधिकाश कुटुम्बोंके महापुरुषो अथवा ग्रामोकी अपेक्षा हुई थी, जैसे _राजा अर्ककीर्तिकी अपेक्षा अर्क अथवा सूर्यवश और यदुकी अपेक्षा यदुवंश विख्यात हुए थे । भगवान महावीरजीके समय तक यह चातुर्वर्ण व्यवस्था समुचित रीतिसे चल रही थी; कितु उसके उपरांत ये वर्ण अनेक उपजातियोंमें विभक्त होचले थे। जैनाचार्य इंद्रनंदिजी पंचमकालके प्रारंभमें ग्रामादि अपेक्षा इन उपजातियोंका जन्म हुआ लिखते हैं । इतिहासकी स्वाधीन साक्षीसे भी प्रमाणित है ५-संज इ० भा० १ पृ० ४२ व आदि पुराण, पर्व ३९। २-नीतिमार Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] संक्षिप्त जैन इतिहास । कि उपजातियोकी जड बौद्व कालमे पड गई थी और वह गुप्तकालमे आकर पल्लवित हुई थी। अग्रवाल जातिकी उत्पत्ति लगभग इसी समय हुई थी। कहते हे कि अयोन्याके राजा मानवाताकी ५२ अग्रवाल वैश्य जाति। वीं पीढीमे वीर निर्वाणमे १९८१ वर्ष पूर्व श्री नमिनाथजीक तीर्थकात्मे अग्रमेन नामक राजा थे। उनके पिता महावीर दिगम्बर मुनि गये थे । उनके मुनि होनेपर राजकुमार अग्रमेनको वीर नि० पूर्व ४९.४६ मे राजगद्दी मिली थी। सन् ४५२१ वी० नि० पूर्वमे उन्हाने मिश्र देशके जैनधर्मी गजा 'कुरुपविन्द पर आक्रमण किया था और इस युद्धमे यह वीर गतिको प्राप्त हुये थे । राजा अग्रसेनने वेदानुयायी पातञ्जलि नामक ऋपिके उपदेगरे अपने पितृधर्म-जैनधर्मका परित्याग कर दिया था । यदि यह पातञ्जलि अपि पातञ्जलिभाप्य के कर्ता है, तो राजा उग्रनका समय भगवान नेमिनाथजीके तीर्थमे होना अशक्य है, परन्तु ऐसा कोई साधन नहीं है जिसके आधारपर उक्त दोनों पातञ्जलि एक माने जावें । जो हो, इन्हीं गजा अग्रसेनके १८ पुत्र हुये थे । जिस समय इन १८ पुत्रोंकी संतान राजच्युत होगई, तो वह राजा र ग्रोनके नाम अपेक्षा 'अग्रवाल' नामले प्रसिद्ध हुई । प्राचीन जैन लेखमे इसका उल्लेख 'अग्रोत' वशके रपमे हुआ मिलता है। राजा अग्रसेनकी सतति। कई पीडियोतक वैदिक धर्मकी मान्यता रही थी। किंतु उपर त अरोड़ापति राजा दिवाकरदेवके राज्यमे वीर नि० सं०५१५५६५के लगभग (वि० सं० २५-७७ १-बुई०, पृ० ५५-५९ २-भाइ०, ९३-९९ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा और जैन संघ। [८३ के अन्तर्गत) जैनाचार्य श्रीलोहार्यजीके उपदेशसे जैनधर्म फिर इसवंशमें -स्थान पागया, जिसे इस जातिके बहुतसे लोग आज भी पालन कर रहे है। इस प्रकार अपने क्षत्री धर्मसे च्युत होकर अग्रवाल जाति व्यापार-प्रधान होनानेके कारण वैश्य वर्णमे परिगणित होगई है !' खंडेलवाल जातिकी उत्पत्तिका समय भी करी१२ वही है । यह जनश्रुति है कि वि० स० १ में खंडेलवालकी उत्पत्ति ! किसी जिनसेन नामक जैनाचार्यने राज पूतानेके खण्डेला नामक ग्रामके राजाको प्रभावित करके जैनधर्ममें दीक्षित किया था। राजाके साथ उसके ८२ ग्रामोंके सरदार भी अपनी प्रजा समेत जैनी होगये थे । इन ८२ ग्रामोंके अतिरिक्त दो ग्रामोंके सुनार (मोनी) भी जैनी हुये थे। जैनाचार्यने इनका उल्लेख 'खंडेलयाम' की अपेक्षा 'खंडेलवालान्वय' के नामसे किया था । इसी कारण इनकी प्रसिद्धि खण्डेलवाल नाममे हुई है । राजभृष्ट होकर व्यापार करने लगनेके कारण यह जानि भी वैश्योंमे गिनी जाने लगी है। उपरोक्त ८४ ग्रामोंकी अपेक्षा इस जातिमे ८४ गोत्र भी है।' आसवाल जातिका जन्म भी इसी ढंगपर हुआ कहा जाता है। ईस्वी दूसरी शताब्दिमें किसी जैनाचाओसवाल जातिका यने ओसिया नामक नगरके निवासी राजपूत प्रादुर्भाव। लोगोंको जैनधर्मानुयायी बनाया था। इस १-अग्रवाल इतिहास व वृजश०, भा० १ पृ०७१-७२।। २-खण्डेलवाल जन इतिहाम व जहि०, भा० १ पृ.० ३३३ और हिवि० भा० ५ पृ० ७१८। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जन इतिहास । ओमिया नगरको लक्ष्य करके इनका नामकरण 'ओसवाल' होगया है। इनमे अधिकाश लोग अब व्यापार करने लगे है । इस कारण यह लोग भी वैश्य माने जाते है । अंग्रेजोंके भारतमे अधिकार जमानेके समय तक इनमे बडे २ योद्धा हो चुके है। अब भी कई देशी रियासतोंमे ओसवाल लोग दीवान या मंत्रिपदपर नियुक्त है। लमेचू (लम्बकञ्चुक) जातिका निकास भी लगभग इसी समय हुआ था। पन्द्रहवीं शतान्डिके गिलालेखो लम्वकञ्चुक जातिका एव. पट्टावली आदिसे इस जातिका मूलमें जन्म। . यदुवशी होना प्रमाणित है । कहा जाता है कि यदुवंशमे एक राजा लोमकरण (या लम्बकर्ण ) नामक हुये थे । और वह लम्बकाञ्चन नामक देगमें जाकर राज्य करने लगे थे। उन्हींकी संतान 'लग्वकाञ्चन' नामक देशकी अपेक्षा लग्वकञ्चुक नाममे प्रख्यात हुई थी। इसपरसे श्री० पण्डित झम्मनलालजी तर्कतीर्य आदि लंबेचू विद्वान् अपनी जातिका निकास भगवान् नेमिनाथजीके तीर्थमे हुआ अनुमान करते है कितु यह ठीक नहीं है, क्योंकि भगवान् नेमिनाथजीके मोक्ष चले जानेके बाद द्वारिका सब ही यदुवंशियों समेत जलकर भस्म होगई थी। केवल कृष्ण, बलराम और जरतकुमार बचरहे थे । कृष्ण और बलरामकी भी जीवनलीलायें शीत्र समाप्त होगई थीं । यदुवंशका नाम लेवा मात्र जरत्कुमार रह गया । इस जरत्कुमारकी पट्टरानी कलि १-मप्रांजैस्मा०, पृ० १५२ । २-प्राजलेस०, भा० १ पृ० ८३-८४ । ३-लंवेचू जातिका परिचय, नामक पुस्तक देखो। - Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा और जैन संघ। [८५ शराजकी पुत्री थी । जरत्कुमार अपनी ससुरालमें जाकर रहने लगा और वहांपर उसका पुत्र वसुध्वज राज्याधिकारी हुआ था । वसुकी छठी पीढ़ीमें नितगत्रु नामक कलिङ्गका राजा भगवान महावीरजीका समकालीन था और जैन मुनि होगया था; यह पहले लिखा जाचुका है। उसके बाद कलिंग राज्यका क्या हुआ ? यह कुछ पता नहीं चलता। शायद किसी अन्य राजाका वहांपर अधिकार होगया हो । जैन सम्राट् खारवेलके शिलालेखके अनुसार कौशल देशके राजाका कलिङ्गमें आधिपत्य जमना प्रगट है। किंतु वीचमें मगधके नन्दराज भी वहां कुछ वर्षोंतक राज्याधिकारी रहे थे। अतः यह निस्सन्देह ठीक प्रतीत होता है कि कलिङ्गमें यदुवंगी जरत्कुमारके वंशज राजभ्रष्ट होगये थे । मालूम होता है कि वह कलिङ्ग छोड़कर कहीं अन्यत्र चले गये थे। अतः लोमकरण राजा इसी समय हुये होंगे । जरत्कुमारकी संतानमे उनका होना संभावित है; क्योंकि भगवान महावीरजीके समयतक यदुवंगके जो राजा हुए उनमें इस नामका कोई राजा नहीं है । इस अवस्थामे नंदराजद्वारा पराजित होकर कलिङ्गसे निकलनेपर जो राजा इस वंशमें हुए, उनमें ही लोमकरण राजाका होना सुसंगत है । इस अपेक्षा वह ईसवी पूर्व पहली व दूसरी शताब्दिमें हुए अनुमान किये जासकते है। उन्हें भगवान नेमिनाथजीके समयमें हुआ मानना ठीक नहीं है। लमेचुओंकी पुरानी पट्टावलियोंमें राजा लोमकरण अथवा लम्बकर्णको १-हरि० पृ० ५८७-६०२ और ६२३ । २-जविमोसो० भा० ३.पृ० ४३५-४३८। ३-हरि० पृ० ६२३ । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६] संक्षिप्त जैन इतिहास । अपना देश छोडकर लम्बकाचन देगमे राज्य स्थापित करने लिखा है।' __ यह घटना भी कलिङ्गसे यदुवंशियों (हरिवंगी) के अन्यत्र जानके उल्लेखसे ठीक वैठनी है । किन्तु कोई महाशय लम्बकाचन दंगको द्वारिकाका निकटवर्ती अथवा उसका अपर नाम ही समझने है । पर यह नाम द्वारिकाका अथवा उसके आसपासवाले किसी देगका नहीं मिलता । इस कारण लन्वकाचन देशको गुजगतमे मान लेना कठिन है । ' राजावली कथा · मे भी समन्तभद्र स्वामीके भ्रमण सम्बन्धी वर्णनमे एक देश — लाग्बुश ' भी उल्लिखित हुआ है और यह मणुवकहल्ली नामक देश अथवा नगरके वाट गिनाया गया है। इसका सादृश्य लम्बकाचनसे है । सभव है कि लाम्बुगका अपर नाम लम्बकाचन हो। मणुवकहल्ली देश दक्षिण भारतमे स्थित प्रतीत होता है। अतएव लावुश देश उसके समीप ही कहीं होना उपयुक्त है । यदि लम्बकाञ्चनको एक संयुक्त नाम माना जाय. तो प्रगट है कि 'लम्ब' तो 'लाम्बुग' का द्योतक है और 'काञ्चन' जैनोंके प्राचीन केन्द्र काचीपुरका परिचायक होसक्ता है। इस दगामे लम्बकाञ्चन देश दक्षिणमे ठहरता है और उसका वहापर होना इसलिये संभव है कि कलिङ्गसे आया हुआ राजकुल दक्षिणके निकटवर्ती प्रदेशमें कहीं ठहरेगा, वह एकदम गुजरात नहीं पहुंच जायगा । दक्षिण भारतके तामिल देशमे ईसवी प्रारंभिक शताब्दियोंमे लम्बवर्ण नामक क्षत्रिय प्रसिद्ध थे, यह बात इतिहाससे सिद्ध है। उधर पट्टावलीमें १-लमेचूओंका इतिहास, पृ० १२-१५। २-उत्कर्ष, वर्ष १ सं० ६ पृ० १४१ । ३-रश्रा०, जीवनी पृ० ३२ । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य राजा और जैन संघ। ८७ यह कहा गया है कि सं० १४९ मे राजा लोमकरण या लम्बकर्णकी संतानको लम्बकाञ्चन देश छोडना पडा था और वह राज्यसे हाथ धोकर राजपूतानेकी ओर चले आये थे । आठवीं शताब्दिके कवि धनपालने 'भविप्यदत्त चरित्र मे लम्वर्ण क्षत्रियोंको उज्जैनके आसपास वसा लिखा है। अत. यह संभव है कि दक्षिण भारतके लम्बकर्ण क्षत्रियोका सम्बन्ध पट्टावलीके राजा लम्वकर्णसे हो । अपना राज गंवाकर इन क्षत्रियोंने वणिकवृत्ति गृहण कर ली थी। इसी कारण यदवंशी लोमकरण या लम्बकर्णकी सन्तान लमेचू आज क्षत्री न होकर वैश्य है । इनका जन्म भी ईसवी सन्के प्रारम्भमें हुआ प्रगट है। इसी प्रकार अन्य जातियोंकी उत्पत्तिका पता लगाया जासत्ता है; किंतु यह वात नहीं है कि सब ही जैन जातियां राजभ्रष्ट क्षत्रियोंकी संतान हैं। प्रत्युत जैसवाल, पोरवाल आदि जातियां मूलमें वैश्य वर्णकी है। उनका नामकरण जायस व पोर नामक ग्रामोंकी अपेक्षा हुआ है । मागधी व्यापारियोंकी जाति तो पहलेसे प्रख्यात थी । ये वडे वीर, पराक्रमी, चालाक और नीति निपुण थे। पिता अपेक्षा यह व्यापारी थे और माता इनकी क्षत्री थीं। इस प्रकार उपजानियोंकी उत्पत्तिका इतिहास है। यह सनातन नहीं है, बल्कि विशेष कारणों से हजार डेढ़ हजार वर्ष पहले इनका जन्म हुआ था। इनके इतिहाससे प्रकट है कि एक वर्णके व्यक्ति किस तरह दूसरे वर्णके होसक्ते हैं ! १-वीर, मा०७पृ० ४७०-४७१।२-एरि०,भा०९पृ०७९/ - Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] संक्षिप्त जैन इतिहास । (४) मुन्ना सामाज्य और जैनश्चम । (सन् ३२०-५०० ई० )* ईसाकी प्रारम्भिक शताड़ियोंके अंधकारापन्न इतिहासको पार ___ कर जब हम कुछ उजालेमे पहुंचते है, तो “गुप्त राजवंशका आदि- एक नये वंशको भारतमे राज्याधिकारी पाने पुरुष चंद्रगुप्त प्र० । है । यह था गुप्तवंश ! गुप्तवशीय राजाओंके नामोंके अंतमें गुप्तनाम रहता था, इस कारण यह वंश 'गुप्त' नामसे प्रख्यात हुआ था । इस वंशका सर्व प्रथम राजा चद्रगुप्त नामका था । इतिहासमे यह चन्द्रगुप्त प्रथमके नामसे परिचित है । ईसवी तीसरी शताब्दिके लगभग पाटलिपुत्रपर जैन धर्ममे ख्याति प्राप्त लिच्छवि वंशका अधिकार था। चंद्रगुप्त प्रथ मने इसी लिच्छविवंशकी राजकुमारी कुमार देवीसे विवाह करके पाटलीपुत्रको अपने आधीन किया था। इसी राजासे गुप्तराज्यका नींवारोपण हुआ था । इस राजाने अपना संवत् चलाया था, जिसे कति'पय विद्वान् २६ फरवरी सन् ३२० ई०से आरम्भ होना बताते है । संभवत. इसी तिथिको चन्द्रगुप्तका राज्यतिलक हुआ था। उसने * मम० जायसवालजीने आध्रवशके अन्तिम राजाका समय सन् २३१-२३८ ई० प्रगट किया है। (जविओसो० १६-२७९७ और आधोंके पश्चात गुप्त राजाओं का राज्य हुआ शास्त्रों में कहा गया है। इस अपेक्षा 'हरिवशपुराण' में गुप्तोंका राज्यकाल जो २२१ वर्ष लिखा है वह प्रायः ठीक बैठता है। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुप्त साम्राज्य और जैनधर्म । [८९ 'महाराजाधिराज' की पदवी धारण की थी और अपने नामके सोनेके सिक्के चलाये थे । दक्षिण बिहार, अवध, तिर्हत और उसके निकटवर्ती जिलोंमें उसका राज्य था । चन्द्रगुप्तने कुल दस या पंद्रह वर्ष राज्य किया था। उसके बाद चन्द्रगुप्तका बेटा समुद्रगुप्त राजा हुआ । यह वडा योग्य और यशस्वी शासक था। विद्वान् समुद्रगुप्त । लोग इसे हिद नेपोलियन अनुमान करते है । यह विद्वान् और प्रतिभाशाली कवि भी था । संगीत विद्यासे भी उसे बडा प्रेम था। उसने सैकड़ों युद्धोंमे विजय प्राप्त की थी। इसके कारण उसके शरीरमें अनेक घावोंके चिह्न थे। पहले समस्त उत्तरी भारतको वश करके उसने दक्षिण भारतपर अपनी विजय पताका फहराई । उसने अश्वमेध यज्ञ भी किया था। और महाराजाधिराजकी उपाधि धारण की थी। इलाहाबादके किलेवाले स्तम्भ लेखसे प्रगट है कि उसे सब राजा अपना सम्राट मानते थे। विदेशी राज्योंसे भी उसका संबन्ध था। वौद्ध ग्रन्थकार वसुबन्धुसे उसका घनिष्ट संवन्ध था। समुद्रगुप्तका उत्तराधिकारी उनका चंद्रगुप्त नामक पुत्र था। __ यह उनका ज्येष्ठ पुत्र नहीं था, परन्तु समुद्रचन्द्रगुप्त द्वितीय गुप्तने उन्हें ही अपना युवराज बनाया था। (विक्रमादित्य) उसकी उपाधि 'विक्रमादित्य' थी और वह सन् ३७५ ई०में गद्दीपर बैठा था। चन्द्रगुप्तने सौराष्ट्र, मालवा और काठियावाडको जीतकर अपने राज्यमें मिलाया और क्षत्रपवंगी शक लोगोंको लड़ाईमें हराया था। उसकी Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०] संक्षिप्त जैन इतिहास । राजधानी उज्जैन व्यापारका केन्द्र था और उसमे विद्वानोंका अच्छा जमाव था। ज्योतिष विद्याका यहा एक अच्छा विद्यालय था। जिसमें नक्षत्रों और तारोंकी परीक्षा होती थी। प्राचीन कालसे पश्चिमके अगणित वंदरगाहोंके साथ उज्जैनका सम्पर्क था। चंद्रगुप्तके राजकालमे उसकी उन्नति खूब हुई। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्यके शासनकालमे फाशान नामक चीनी यात्री भारतमे आया था। चीन देशसे चलचीनी यात्री फाह्यान । कर वह भारतके उत्तर पश्चिमीय सीमा प्रातके मुहानेमे भारतमे प्रविष्ट हुआ था । वह छ. वर्षे तक भारतमे घूमता रहा था। भारतमे आकर उसने बौद्ध धर्म और पाली एवं संस्कृत भापाका अध्ययन किया था। बौद्धधर्म संबंधी अनेक ग्रन्थोंको वह चीन लेगया था। सचमुच फाह्यानका धर्म प्रेम अत्यन्त सराहनीय और अनुकरणीय है। इस यात्रामे उसे कुल १५ वर्ष लगे थे। उसने अपने भ्रमण-वृतातमें तत्कालीन भारतका अच्छा वर्णन लिखा है। उसने भारतके मध्य देग' के सम्बन्धमे लिखा है कि प्रजा प्रभूत और सुखी है । व्यवहारको लिखा पढ़ी और पंचायत कुछ नहीं है। वे राजाकी भूमि जोतते है और उसका अंश देते है,जहा चाहें जाय, जहा चाहें रहें । राजा न प्राण दण्ड देता है न शारीरिक दण्ड देता है। अपराधीको अवस्थानुसार उत्तम साहस वा मध्यय साहसका अर्थ दण्ड दिया जाता है। वार कार दस्युकर्म करनेपर दक्षिण करच्छेद किया जाता है । राजाके प्रतिहार और सहचर वेतन भोगी होते है । सारे देशमे सिवाय चाडालके कोई अधिवासी न जीव हिंसा करता है, न मद्य पीता है और Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुप्त साम्राज्य और जैनधर्म । [९१ न लहसुन खाता है । दस्युको चाडाल कहते है । च वाहर रहते है और नगरमें जब पैठने है तो सूचनाके लिये लकडी बजाने चलते हैं कि लोग जान जाय और बचकर चलें ! कहीं उनसे छू न जाय। जनपढमें सूअर और मुर्गी नहीं पालते । न जीवित पशु बेचने है । न कहीं सूनागार और मद्यकी दूकानें है । क्रय विक्रयमे कौडियोका व्यवहार है। केवल चाडाल मछली मारने, मृगया करते और मांस बेचते है । यह उस समयके रामराज्यका वर्णन है। पाटलिपुत्र भी उन्नतिपर था। अशोकका महल अभीतक मौजूद था। 'लोग धनाढ्य और सुखी थे। दानशील संस्थाओं और अस्पतालोंकी संख्या बहुत थी। पाटलिपुत्र में एक ऐसा अम्पताल था, जिसमें भोजन और वस्त्र भी मुफ्त दिये जाते थे। राजा प्रजाके कामोंमें बहुत कम हस्तक्षेप करता था । सडकें अच्छी थीं। डाकुओ और लुटेरोका डर नहीं था। विद्याका भी खूब प्रचार था। पठन-पाठनका ढग मौखिक था। और प्रजाको धार्मिक स्वतंत्रता थी। फाह्यान लिखता है कि " मध्यप्रदेशमे ९६ पाखण्डोका प्रचार है। सब लोक और परलोक मानते हैं। उनके साधुसंघ हैं। वे भिक्षा करते हैं, केवल भिक्षापात्र नहीं रखते । सब नाना रूपसे धर्मानुष्ठान करते है। मार्गोपर धर्मशालाये स्थापित है। वहा आये गयेको आवास, खाट, विस्तर, खाना पीना मिलता है। यती भी वहां आते जाते है और वास करते है।" फाह्यानके इस वर्णनसे प्रगट है कि मध्यदेशमे (मथुरासे दक्षिण ) उस समय बौद्धधर्मके अतिरिक्त अन्य मतोंका प्रचार भी १-फाह्यान, पृ०३१.२-भाइ०, पृ०९१-९२.३-फाह्यान, पृ०४६। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२] संक्षिप्त जैन इतिहास । काफी था। इससे वहा अहिंसा धर्मकी प्रधानता और ऐसे साधुसघ वतलाकर कि जिनके अनुयायी भिक्षापात्र नहीं रखते थे. वह हमें जैनधर्मके वहु प्रचारके दर्शन कराने है, क्योंकि जैनमतमे ही बौद्धोंके अतिरिक्त 'संघ' बनानेकी पृथा है और जैन साधु भिक्षापात्र नहीं रखते । संकाश्य, श्रावस्ती, राजगृह आदि स्थानोंमे वह स्पष्टत. जैनधर्मका प्रभाव प्रगट करता है ।' फाह्यान लिखता है कि सकाश्यके सम्बन्धमे बौद्धो और जैनोंमे विवाद हुआ । भिक्षु (बौद्ध) निग्रहस्थानपर आरहे थे। इससे प्रगट है कि उस समय जैनोंका वहापर प्राबल्य अधिक 'था। संकाश्य सम्भवत. जैनोंका प्राचीन तीर्थ था और बहुत करके वह भगवान विमलनाथनीका तपोन्थान था। उसका अपर नाम 'अघहत' (अघहतिया) इसी वातका द्योतक है । यहापर आज भी अनेक जैन मूर्तिया मिलती है। श्रावस्तीमे भी बौद्धों और "जैनोंमे परस्पर विवाद होनेका उल्लेख वह करता है । ब्राह्मणोसे भी झगडा होता था। साराशतः उस समय संप्रदायोंमे एक दूसरेको नीचा दिखानेकी स्पर्धा चल रही थी। उस कालमें हिंदुधर्मका पुनरुत्थान हुआ था। नवीन हिंदू धर्म इभी समय संगठित हुआ और अधिकाश हिंदू पुराणोंकी रचना भी इसी समय हुई थी ! कहते है कि चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य वैष्णव संप्रदाय युक्त थे । कितु फाह्यानके उक्त वर्णनसे यहाके राजाका चंद्रगुप्त और जैनधर्म । परम अहिंसा धर्मानुयायी होना प्रगट है। और यह स्पष्ट है कि उस समय यहां चंद्रगुप्त १-फाह्यान, पृ० ३५-३६, व पृ० ४०-४५ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुप्त साम्राज्य और जैनधर्म । [९३ विक्रमादित्यका ही राज्य था। अत. सभव है कि चन्द्रगुप्त द्वितीयका प्रेम जैनधर्मके प्रति था । यह तो प्रमाणित ही है कि बौद्धों और जनोंके साथ उसका वर्ताव अच्छा था। जैन ग्रंथोंमे कथा है। कि जैनाचार्य मिद्धमेन दिवाकरने ' अवन्ती' के महाकालके मंदिरमें एक अतिशय दिखाकर विक्रमादित्य राजाको जैन धर्मानुयायी बनाया था। स्व० महामहोपाध्याय डा० शतीशचन्द्रजी विद्याभूषणने. विक्रमादित्यके दरबारके नौ कबिग्लोमे परिगणित क्षपणकको सिद्धसेन ही प्रगट किया है और यह विक्रमादित्य चंद्रगुप्त द्वितीयके अतिरिक्त और कोई नहीं है। विक्रम संवतके प्रचारक विक्रमादित्य इनसे भिन्न ईसाकी प्रथम शतालिमे हुये थे। प्रसिद्ध कवि कालिदास भी उन्हींके समयमे हुये थे। मालम होता है कि वराह मिहिरके समकालीन कालिदास दृमरे थे। सिद्धसेनका समय भी ईसाकी चौथी शताब्दि प्रगट होता है । अतः यह होसक्ता है कि चंद्रगुप्त विक्रमादित्यको भी सिद्धमेन दिवाकरने उनके राज्यके अतमे जैनी बनालिया हो।' चंद्रगुप्तकी मृत्युके बाद सन् ४१३ ई० में उसका पुत्र कुमार गुप्त राजसिहासनपर आरूढ हुआ था। 'गुप्तवंशके अतिम राजा। उसने अश्वमेध यज्ञ किया था। उसके राज्यमें हूण लोगोंने भारतपर हमला किया था और सन् ४५५ मे वह उनके साथ लढ़ाई में मारा गया। १-भाइ० पृ०९१ । २-वीर, वर्ष १ पृ० ४७१ । ३-अलाहाबाद युनीवर्सिटी स्टडीज भा० २ (The date of Kandas)! ४-वीर वर्ष १ पृ० ३३५ व पृ० ४७१। - . Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | उसका उत्तराधिकारी उसका बेटा स्कधगुप्त था । स्वगुप्तके समय मे भी हूणोका आक्रमण हुआ था, किंतु उसने उनको लडाईमे हरा दिया था । वह बडा चीर योद्धा था । उसका एक युद्ध बुलन्दशहके जैन धर्मानुयायी पुप्यमित्र वशीय राजाओगे हुआ था और उसमे भी इसकी जीन हुई थी । यह पुष्पमित्र उस समय धन और सेनासे युक्त प्रबल राजा थे ओर कनि कके समय से यह बुलन्द - शहर मे जावसे थे । स्कन्धगुप्तके राज्य कालमे गोरखपुर जिलेके पूर्वपटनेमे ९० मील कहौम ( ककुभग्राम ) ग्राममे एक भव्य जैन मंदिर मानस्तंभ सहित निर्मित हुआ था । स्तंभावर एक लेख गुप्त संवत १४१ ( ई० सन् ४६० ) का है, जिससे प्रगट है कि साधुओंके संसर्गसे पवित्र, ककुभ - ग्राम - रत्न, गुणसागर, सोमिलका पुत्र महाधनी भट्टिमोम था । उनके पुत्र विस्तीर्ण यशवाले रुद्रमोम हुये और उनको मद्र नामक पुत्ररलकी प्राप्ति हुई । यह मद्र ब्राह्मण वर्णका था और यह गुरुओं और यतियोंमे प्रीतिमान था । इसीने आदिनाथसे आदिले पाच तीर्थकरों की प्रतिमायें स्थापित कराई । और स्तंभ बनवाया था । झासी जिलेके देवगढ नामक स्थानमे भी जैनोंका प्राबल्य अधिक था । यह स्थान भी गुप्तसाम्राज्यके अन्तर्गत १- भाप्रारा० भा० २ पृ० २८७ - स्कवगुप्तके मिटारीवाले लेख में है, (पक्ति १०) - विचलितकुल लक्ष्मी स्तम्भनायोद्यतेन क्षितितलायनीये येन नीता त्रियामा । समु - (पक्ति ११) - दितवलकोषान्पुप्यमित्राश्च जित्वा क्षितिपचरणपीठे स्थापितो वामपाद । २ - वप्रा जैस्मा० पृ० १८७ - Curps Irs Ind Vol III. ३- सप्राजैस्मा०, पृ० ४-५ । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुप्त साम्राज्य और जैन धर्म । [९५ था। कहने हे कि देवगढ़मे पारागाह और उनके दो भाई देवपति और खेवपति बड़े प्रभावशाली थे। उनने देवगढ़मे कई एक जैन मंदिर बनवाये थे। न्कन्दगुप्तने हूणोंको परास्त कर दिया था, परन्तु वे हताश ___नहीं हुये । उनके आक्रमण भारतपर बराबर गुप्त राज्यकी अवनति होने से। 'उनके राजा तोरमाणने गुप्त व राज्यप्रवन्ध । राज्यका पश्चिमीय देश जीत लिया। और सन् ५१० ई० तक राजपूताना, मालवा, गुजरात. मध्यप्रदेश आदि देश हुणोके आधीन होगये । इस छिन्न भिन्न होने हुये साम्राज्यकी दशाको सम्भालनेके लिये गुप्तवंशके अंतिम राजा भानुगुप्सने प्रयज्ञ विया, परन्तु उसे सफलता प्राप्त न हुई, और गुप्तवंग नष्ट होगया । इस वशके सब ही राजा बड़े योग्य और तेजम्वी थे । उन्होने अपने अपने राज्यका अच्छा प्रबन्ध कियाथा, जिसमे प्रजा सुखी थी । उमसमयकी आर्थिक स्थिति बड़ी अच्छी थी। तब उत्तर और मध्यभारतमें छै आनेका मन सवामन नेल विकता था और एक रुपया एक मनुष्य के तीन महीनेके भोजनके लिये पर्याप्त होता था।' विद्वानोका आदर भी विरोप था और साहित्य व कलकी उन्नति भी खूब हुई थी। गुप्तकालमें ब्राह्मण, जैन और बौद्धधर्म मुख्य थे। हैवेल सा० कहते है कि ई० तीसरी शताब्दितक प्रायः १-सप्रास्मा०, पृ० ४७। २-भाड०, पृ० ९३।३-माप्रारा० मा० २ पृ० २२६-२२७ । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६] संक्षिप्त जैन इतिहास । तत्कालीन धर्म व सब ही राजकीय अथवा अन्य दान जैन और साहित्य ! बौद्ध सस्थाओंको दिये जाते थे। ब्राह्मण वर्गकी मान्यता तबतक न कुछ थी।' कितु गुप्तकालमे ब्राह्मणोका भाग्य चमका था। गुप्तराजाओंकी राजधानी ब्राह्मण धर्मका केन्द्र वन गई और नवीन वैदिक धर्मका पुनरुत्थान होगया । इतनेपर भी जनसाधारणमे जैन और बौद्ध धर्मोकी प्रधानता अक्षुण्ण रही थी। जैन मठोंमे उच्चकोटिकी शिक्षाका प्रबन्ध प्राय देशभरमे था। इन तीनों धर्मो के विद्वानोंमे परस्सर सा भी खूब थी, जैसे कि पहले लिखा जाचुका है। ब्राह्मण वर्गकी मुख्य भाषा संस्कृत थीं। कितु जैनों और बौद्धोंके ग्रन्य अव भी प्राकृत और पाली भाषाओंमें थे। राज्यका संरक्षण पाकर इस समय सस्कृ तका प्रचार और महत्व बढ रहा था । बौद्धोंने भी संस्कृतमे ग्रन्थ रचना प्रारम्भ कर दी थी और उनकी देखादेखी जैनोंने भी सस्कृ तको प्रधानता दी थी, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि इस समयके पहले जैनोंमे संस्कृत रचनाओका अभाव था। इस समयके ग्रन्थोंमे मुख्य विषय तर्क और न्याय था। विद्वानोंमे परस्पर वाढ होते थे। सिद्धसेनदिवाकरके समान चतुर्दश विद्या १-हिमारूइ०, पृ० १४७ । २-हिमारूइ०, पृ० १५६।गुप्तकालमें संस्कृत भाषाका अधिक प्रचार हुआ। कवि कालीदास नामक कोई कवि इसी समय हुए थे। अमरकोष, आर्यभट्टका गणित शास्त्र, वराहमिहिरका ज्योतिष प्रथ और धन्वतरिका वैद्यक विज्ञान इसी समयकी रचनायें हैं। ३-जैहि०, भा० १९ पृ० १५६ । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुप्त साम्राज्य और जैनधर्म। [९७५ पारंगत ब्राह्मण विद्वान् एक ऐसे ही बादमें पराजित होकर जैन होगये थे। उनके उद्गारोंसे पता लगता है कि " उस समय सरल वाद-पद्धति और आकर्षक शांतिवृत्तिका लोगोंपर बहुत अच्छा प्रभाव पडता था। निर्यन्थ अकेले दुकेले ही ऐसे स्थलोपर जापहुंचते थे, और ब्राह्मणादि परवादी विस्तृत-शिष्यसमूह और जनसमुदायके सहित राजसी ठाटवाटके साथ पेश आते थे, नोभी जो यश निर्ग्रन्थोंको मिलता था वह उन प्रतिवादियोंको अप्राप्य था। लोग ब्राह्मणोंके जल्पवितण्डा-परिपूर्ण शुष्क वाद और कर्मकाडके प्रपंचसे ऊब गये थे और शातिपूर्ण सात्विक मार्गके. उत्सुक बन गये थे।"" जैन ऋपियों की प्रतिभाशाली पवित्र लेखनी इन्हीं गुणाको परिपुष्ट करनेवाली ग्रंथ रचनामें प्रवर्त हुई थी। जैनाचार्यो में इस समय प्रायः सब ही आचार्य दक्षिगभारत अथवा मालवा और गुजरातकी ओरके निवासी थे। इनका विशद वर्णन हम, नीमरे खंडमें करेंगे । इनमें भी कुन्दकुन्दाचार्य, रविपेणाचार्य, उमास्वाति. यतिपम, वण्णदेव, केशवचंद्र, सिद्धसेन दिवाकर इत्यादि आचार्य विशेष उल्लेखनीय है । इनकी मूल्यमय रचनाओंसे। मानवोंका बडा उपकार हुवा था । अध्यात्मवाद, दर्शन, ज्योतिष, इतिहास, काव्य आदि विषयोंमें अपूर्व रचनायें हुई थीं। विमलसूरिका 'पउमचरिय ' जैनरामायणकी एक बहुप्राचीन और मूल्यमई आवृत्ति है । यह आचार्य नागिलवंशके विजय नामक आचार्यके शिष्य थे ।। गुरूशिष्य परंपरासे चले आये हुये रामचरितको इन्होंने वी. नि. सं० १-जैहि० भा० १४ पृ० १५६-१५७ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •९८] संक्षिप्त जैन इतिहास। ५३० में गाथावद्ध किया था । श्री मल्लिपेपणजीका ' नागकुमार चरित् ' इससमयके इतिहासका द्योतक है ।२ । भगवती आराधना ' शिवार्य महाराजकी रचना हे और इममे जैन मुनियोंके चरित्रका अच्छा विवेचन है। यह आचार्य आर्य जिननन्दिगणि, आर्य सर्वगुप्तगणि और आर्य मित्रनन्टिक समकालीन थे। अनु. -मानत यह समन्तभद्राचार्य जीसे सो दो सौ वर्ष पहले हुये थे ।' उमास्वातिजीका ‘तत्वार्थसूत्र' जैन दर्शनको गागरमें सागरके समान प्रगट करनेवाला है। सर्वनन्दि आचार्यका भूगोल विषयक ग्रथ · लोकविभाग ' वि० सं० ४५८ में रचा गया था। इसप्रकार अनेक आचार्योने जैन दर्शनके अभ्युदय और जनकल्याण की दृष्टिसे अतुल ग्रंथरचनाकी थी । इतना ही क्यो ? वह प्राणीमात्रकी हित दृष्टिसे अपने शातिमय एकान्तवासको भी एकतरह विस्मरण कर चुके थे। वे ' जगतके ' कल्याणार्थ और परम पुरुष महावीरके मोक्षमार्गका सत्यल्ल स्थापनार्थ, मौनधर्मको त्यागकर जन सहवासमें' आगये और वाद-विवादके युद्धक्षेत्रमें उपस्थित होकर, अपने प्रतिपक्षियोंका मुकाबला करने लगे। उनके इस शुम प्रयाससे जनताको यथार्थ धर्मका स्वरूप ज्ञात रहा और वह क्रिया १-जैहि० भा० ११ पृ० १३३ व कलि० पृ० ३६ भूओ साहु परम्पराए सयल लोये ठिय पायड । एत्ताहे विमलेण सुत्तसहिय गाहा'निबद्ध कय ॥१०२॥ पचवेय वाससया दुममाए तीस वरीस संजुता । वीरे सिद्धमुवगए तओ निजद्ध इम चरियं ॥१०३॥२-इहिका०, भा० २ 'पृ० १८९ । ३-जेहि० भा० ११ पृ० ५४८ । ४-तत्वार्थसूत्र (S. B. J ) भूमिका । ५-इहिका० भा० २ पृ. ४५१ । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुप्त साम्राज्य और जैन धर्म। [९९ कलापको विशेष महत्वकी दृष्टिसे नहीं देखती रहीं। जैनधर्म भी अभीतक अपने नैसर्गिक रूपको धारण किये हुये था । पूजा-पाठकी सादगी और वात्सल्यभावकी विशालता उसमें भी अब भी मौजूद थी। समन्तभद्र स्वामी सम्यक्त्व युक्त एक चांडालको देवोंद्वारा बंदनीय ठहराने है। और उनके टीकाकार श्री प्रभाचंद्राचार्य उसे एक राजाकी बरोबरीमें बैठने योग्य वतलाते है । मथुराके पुरातत्वसे जिनेन्द्रभगवानकी पूजा-अर्चनाकी सरलता स्पष्ट है । भक्तजन अपनेर वरोंके फल-फूल आदि सामिग्री लेजाते थे । और स्त्री-पुरुष एकसाथ मिलकर पूजा-अर्चा करते थे। जिन प्रतिमायें भी दानकी वस्तुयें बताई गई है। जब निर्ग्रन्थ संघ वि० सं० १३६ में दिगंबर और श्वेता वर नामक दो संप्रदायोमे विभक्त होगया, दिगम्बर जैन संघ। तो दिगंबर संप्रदायका उल्लेख मूल संघके रूपमें होने लगा और वह चार संघों एवं गणादिमें बंटगया, यह लिखा जाचुका है। इस मूल संवकी स्थापना भी भद्रबाहु द्वितीयके समय हुई थी। भद्रबाहुके उत्तराधिकारी गुप्तगुप्ति नामक आचार्य थे, जिनके उपर नाम अर्हडलि और विशाखाचार्य थे। मूलसंघमें उपरांत माघनंदि प्रथम, जिनचंद्र प्रथम, कुंदकुन्दाचार्य, उमास्वामी, लोहाचार्य दूसरे, यश कीर्ति. यशोनंदि, देवनंदि प्रथम ( पूज्यपाद), जयनंदि, गुणनंदि प्रथम, वज्रनंदि, कुमा १-रश्रा० पृ०२७ सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् । देवा देव विदुर्भस्मगूढागारान्तरौजसम् ॥ २८॥ २-रश्रा० पृ० ४९ । ३-वीर, वर्ष ४ पृ० ३०४-३११। ४-ईऐ०. भा० २० पृ०-३४६। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००] संक्षिप्त जैन इतिहास । रनंदि, लोकचंद्र प्रथम, प्रभाचंद्र प्रथम, नेमिचंद्र प्रथम, भानुनंदि, जयनन्दि (सिहनन्दि ), वसुनन्दि, वीरनन्दि. रतनन्दि, इस समयके लगभग हुये थे। इन आचार्योंका केन्दस्थान उज्जैनके निकट भद्दलपुर था । कितु एक ' गुर्वावलि ' मे श्री लोहाचार्य दूसरेके उपरात पूर्वका पट्ट और उत्तरका पट्ट इस तरह दो पट्ट स्थापित हुये बताये गये है। और दक्षिण भारतमे मान्यता है कि इस समय चार पट्ट स्थापित हुये थे, जिनमे दो दक्षिण भारतमे थे. एक कोल्हापुरमे था और एक दिल्लीमे । इन पट्टावलियोंमे परस्पर और इतिहास विरुद्ध इतना कथन है कि इनकी सव ही बातोंको ज्योंका त्यों स्वीकार करलेना कठिन है।" जो हो, यह स्पष्ट है कि गुप्त साम्राज्य कालमे जैनधर्मकी उन्नति विशेष थी। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्यकी राजधानी उज्जैन जैन धर्मका केन्द्र अब भी थी। रजनंदिके पाचवे पट्टधर महाकीर्ति भद्दलपुरसे उज्जैन आगये थे। यह सव आचार्य निग्रंथ मुनिवत् रहते थे । गुप्त कालके विद्वानों जैसे अमरसिंह, वराहमिहिर, आदिने भी अपने ग्रंथोंमें जैनोंका उल्लेख किया है । इससे भी उस समय जैनधर्मका उन्नत रूपमे होना प्रगट है । प्राचीन कालसे मथुरा, उज्जैन, गिरिनगर, कांचीपुर, पटना आदि नगर जैनोंके केन्द्रस्थान रहे है । गुप्तकालमें भी उनको वही महत्व प्राप्त था। १-जैहि० भा० ६ अक ७-८ पृ० २९ व इऐ० भा० २० पृ० ३५१ । २-इऐ० भा० २० पृ० ३५२ । ३-जैहि० भा० ६ अक ७-८ पृ० २३ । ४-जैग० भा० २२ पृ० ३७ । ५-रश्रा०, जीवनी, पृ०११४-१९६।६-ईऐ० भा० २० पृ० ३५२। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुप्त साम्राज्य और जैनधर्म । [१०१ बंगालमें इस कालमें पहाड़पुरका निग्रंथ संघ प्रसिद्ध था ।x उसके अध्यक्ष आचार्य गुहनंदि, संभवतः नंदि बङ्गाकलिङ्गमें जैनधर्म । संघके थे। बौद्धग्रंथ दाठावंसोसे प्रगट है कि पटनाका तत्कालीन राजा पाण्डू भी जैनभक्त था। कलिङ्गमें जैनधर्म अब भी राष्ट्रधर्म बना हुआ था। वहांका गुहगिव नामक राजा दिगम्बर जैनधर्मका अनुयायी था । इस प्रकार जैनधर्म उस समय उन्नत रूपमें था। विद्याके साथ ही ललितकलाकी भी उन्नति गुप्तराजाओंके समय विशेष हुई थी। स्थापत्य भास्कर-शिल्प गुप्तकालकी ललितकला । और चित्रकारी तो इस समयकी देखने बनती है। संयुक्तप्रांतके झांसी जिलेमें ललितपुरके पास देवगढ़के जैनमंदिर इस समयके भास्कर शिल्पका सर्वोत्कृष्ट नमूना है । कितु दुःख है कि जैनोने इस रम्य और पवित्र स्थानके प्रति उदासीनता ग्रहण कर रक्खी है। सरकारी पुरातत्व विभा__गके अधिकारमे उन्होंने इसको लेलिया था कितु बहुत प्रयत्नके बाद वह क्षेत्र पुनः जैनोंके हाथमें आया है । इस समय धातुकी अच्छी२ मूर्तिया बनी मिलती है । दिल्लीका लोहस्तम्भ भी इसी समयका बना हुआ अनुमान किया जाता है; जो अपने अदभुतपनके लिये प्रसिद्ध है । अजन्ताकी गुफाओंका आलेख्य और चित्रकारी सर्वोत्कृष्ट है। ये गुफायें बहुत प्राचीन हैं, परन्तु इनमें सबसे बढ़िया काम इसी समयका बना हुआ है। मथुरा और काशी भी ललितकलाके केन्द्र xइंहिका० भा० ७ पृ० ४४१।। +दाठावसो अ० २ व दिगम्मरत्व और दि० मुनि पृ० १२५॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२] संक्षिप्त जैन इतिहास। थे। उस समय यहा ललितकलाओंकी शिक्षाका खासा प्रवन्ध था और यहाकी कलाका प्रभाव विदेशोंकी कलापर भी पड़ा था।' गुप्तकालमे भारतीय व्यापारकी भी खूब उन्नति हुई थी। जैन श्रेष्टी दूर दूर देशोमे व्यापार करते थे। उस समयके व्यापारी। पश्चिमीय देशोसे यह व्यापार खूब बढ़ा था। रोमके जहाज दक्षिण भारतमे आते थे और मसाले, इत्र, हाथीदात, बढ़िया वस्त्र, पत्थर आदि लेजाते थे। मित्र देशका अलेकजन्डिया नगर तव भी इस भारतीय व्यापारका केन्द्र था । वहा भारतीय व्यापारी मौजूद थे। देशमे तव व्यापारके कई मार्ग थे । एक तो मौर्य राजाओंके कालकी सडक पाटलिपुत्रकी पश्चिमोत्तर सीमातक जाती थी। दूमरी मच्छलीपट्टनसे भड़ौचको जाती थी। भडौच प्रसिद्ध बन्दरगाह था। रोमके विद्वान् लिनीका कथन है कि रोमसे प्रतिवर्ष लाखों रुपया भारतको जाता था । जावा आदि पूर्वीय देशोंके साथ भी व्यापार होता था। इसका सम्बन्ध खासकर कलिङ्ग देशसे था। मध्य-ऐशियामे एक हूण नामकी जाति रहती थी। इस जातिने भारतपर आक्रमण किया था और हूण-राज्य। उसके सरदार तोरमाणने सन् ५१० के लगभग भारतमे अपना राज्य स्थापित किया था, यह पहले कह चुके है। उसके बाद उसका पुत्र मिहिरकुल हूणोंका राजा हुआ । वह बढ़ा अत्याचारी शासक था । कहते है १-भाइ० पृ०९५-९६। २-जमीसो० भा० १८ पृ० ३१०। ३-भाइ० पृ० ९७। ४-इंहिका० भा० १ पृ० ३१५॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुप्त साम्राज्य और जैनधर्म। [१०३ कि पहले वह वौद्ध था, किंतु कारणवश रुष्ट होकर उसने बौद्धोंको नष्ट करनेकी आज्ञा देदी थी। बौद्धधर्मके कितने ही स्तूप और विहार उसने तुड़वाडाले और लाखों मनुप्योंके प्राण ले लिये थे। वह कट्टर शव था और अन्य धर्मोका तिरस्कार करता था। देशी राजाओंने उसके विरुद्ध एक संघ रचा, जिसके नेता मालवानरेश यगोधर्मन और मगधके राजा नृसिहवालादित्य थे । सन् ५२८ ई० के लगभग इस संवने उसे कहैरार नामक स्थानपर हरा दिया। और वह काश्मीरकी ओर भाग दिया। मिहिरकुलके बाद भारतके राजा यशोधर्मन हुए। यशोधर्मन __ बड़े प्रतिभाशाली राजा और वीर योद्धा थे। यशोधर्मा । मन्दसौरमे मिले हुए लेखसे प्रगट है कि होंगर अंतिम विजय उसीने प्राप्त की थी। उसका राज्य बहुत बडा था। ब्रह्मपुत्रनदीसे पूर्वी घाटतक और हिमालय पर्वतसे समुद्र तटके राजाओंको उसने अपने आधीन किया' था। मि० जायसवाल यशोधर्मनको पुराण वर्णित कल्कि अवतार प्रमाणित करते है। जैन ग्रंथोंमे कल्किा नाम चतुर्मुख, उसके पिताका नाम इन्द्र और पुत्रका नाम अजितंजय मिलता है । कल्किने ४२ वर्ष राज्य किया था। अपनी दिग्विजयके उपरात वह जैन मुनियोंको खूब त्रास देने लगा था। हिंदुओं के कल्किपुराणसे भी यह बात प्रगट है। अन्तमें उखका नाश एक असुर द्वारा हुआ १-भाइ० पृ० ९८ । २-भाप्रारा० २ पृ० ३३२ । ३-जेहि० भा० १३ पृ० ५१६-५२२) ४-त्रिलोकप्रज्ञप्ति गा० १०१-१०६६ हि० भा० १३ पृ० ५३४ । ५-जैहि० भा० ५२२ । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४] संक्षिप्त जैन इतिहास । था और उसका पुत्र अजितजय गज्याधिकारी हुआ था, जिसने जैन धमकी रक्षा की थी। यशोधर्मनकी मृत्यु सन् ५३३ ई० के लग-भग हुई अनुमान की जाती है और फिर उसके बाद दो तीनमो वर्ष -तक मालवाके इतिहासका कुछ भी पता नहीं चलता है । हो सकता है कि यशोधर्मन्का पुत्र राज्याधिकारी हुआ हो, जैसे कि जैनग्रंथ 'प्रगट करते है । जैनोंका आचार्य-पट्ट इस समय भी उज्जैनमे था । (५) हर्षवर्धन और चीनीयान्त्री हुएनसांग । मिहिरकुलकी पराजयके वाढ भारतका राज्य छिन्नभिन्न होगया। छठी शताब्दिमे कोई ऐसा राजा नहीं था जो इपवर्द्धन। सारे देशको अपने अधिकारमे करता । इस शताब्दिमे अनेक छोटे २ स्वतंत्र राज्य स्थापित होगये थे। छठी शताब्दिके अन्तिम भागमे थानेश्वरके राजा 'प्रभाकर वर्द्धनने उत्तरीय भारतमें अपना राज्य स्थापित किया था। सन् ६०४ ई० मे उसकी मृत्यु होगई । उसका ज्येष्ठ पुत्र राज्यवर्धन शशाङ्कनामक राजाके हाथोंसे धोखेमे मारडाला गया था । मालवा नरेशके बन्दीगृहसे अपनी वहिनको मुक्त करनेके लिये उसने उनसे युद्ध किया था और उसमें विजय प्राप्त की थी। राज्यवर्धनके बाद उसका भाई हर्षवर्धन हुआ था। वह सन् ६०६ में गद्दीपर बैठा था। हर्ष श्रीहर्ष और शिलादित्यके नामसे भी प्रसिद्ध था । वह बड़ा वीर था । उसने बंगाल आसामसे काश्मीर Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन और चीनी यात्री हुएनत्सांग। [१०५ तक और नेपालसे नर्मदातक सारे देश अपने आधीन कर लिये थे। परन्तु सन् ६२० ई० में जब वह विजयकी लालसासे दक्षिणकी ओर बढ़ा तो चालुक्य वंशके प्रसिद्ध राजा पुलकेशी द्वितीयने उसे हरा दिया। हर्पने कन्नौजको अपनी राजधानी बनाया था और वह शातिपूर्वक राज्य करता रहा । उसने एक संवत् भी चलाया था; परन्तु वह अधिक दिनोंतक नहीं टिका । हर्पका शासन प्रवन्ध वडा अच्छा था । हर्ष वर्षाऋतुमे भी सारे देगमे दौरा करता था और बदमाशोंको दण्ड तथा भले आठमियोंको इनाम देता था। उसका फौजदारी कानून कड़ा था । ' सरकारी दफ्तरोंका प्रबन्ध अच्छा था। शिक्षाका भी खूव प्रचार था'।' नालन्दका बौद्ध विश्वविद्यालय प्रख्यात् था । समाजमें विद्वानों और पण्डितोंका राजाओसे भी अधिक मान था। सड़कोंपर धर्मशालायें थीं। उनमे दीन-हीन पथिकोंको भोजन और वीमारोंको औषधि भी मिलती थी। किसानोंमे उपजका छठा भाग लिया जाता था। राज्य कर्मचारियोंको उचित वेतन मिलता था। लोग सत्यवादी और सरल हृदय थे। राजा सव धर्मोका आदर करता था। उसने अपने राज्यमें जीवहिसा तथा मांस भक्षणकी मनाही करदी थी। जो कोई इस आज्ञाको नहीं मानता था, उसे प्राणदण्ड मिलता था। प्रत्येक पाँचवें वर्ष राजा हर्ष वडे समारोहसे प्रयाग जाता था और गंगा-यमुनाके संगमपर दान करता था । हर्ष विद्वान् भी बड़ा था। वह स्वयं गद्य-पद्यमय रचनायें रचता था। उसके लिखे हुये नागानन्द रत्नावली और प्रियदर्शिका नाटक अभीतक मौजूद है। उसके १-भाइ० पृ० १००-१०३ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६] संक्षिप्त जैन इतिहास | · दरवारमे वाकवि प्रसिद्ध थे | उनने 'हर्षचरित ' नामक ऐतिहा मिक पुस्तक बड़े कामकी लिखी है। उसमे लिखा है कि हर्ष राजा जब गहन जङ्गलमे जापहुंचा तो उसने वहा अनेक प्रकार के तपस्त्रीदेखे | उनमे नग्न आई ( जैन ) साधु भी थे। सन् ६४७ ई० मे हर्पका देहान्त होगया था । उसके साम्राज्यके छिन्न भिन्न होने ही उत्तर भारतमे सर्वत्र अशाति फैलाई थी ।' हर्षवर्धनका शासनकाल अपनी सामाजिक उदारता लिये भी उल्लेखनीय है । इस समय अर्थात् सातवीं ● धार्मिक उदारता | शताब्दीमे धार्मिक कट्टरताका जोर नहीं दिखाई पड़ता था । स्वयं सम्राट् हर्षवर्धन सब धर्मोका आदर करते थे, यद्यपि उनके निकट शिव, सूर्य तथा बुद्धकी मान्यता विशेप थी । हर्षक भाई बहिन बौद्ध थे और उनके पिता सूर्यकी उपासना करते थे । इस कालसे पहले हुये प्रसिद्ध कोपकार अमरसिंहके समयमे भी इस उदारताका होना संभव है । स्वयं अमरसिंह बौद्ध थे और उनकी पत्नी जैन थीं । जैन कवि धनंजयकी सहधर्मिणी बौद्ध धर्मका आदर करती थीं। यह परिस्थिति धार्मिक कट्टरताके अभावकी द्योतक है । इस नमय बौद्धधर्मकी अवनति होरही थी । जैनधर्मका उत्तरीय भारतमे पहले जैसा विशेष प्रचार प्रगट नहीं होता। अधिकांश जनता पौराणिक हिंदू धर्मको मानती थी । ब्राह्मणलोग प्रभावशाली थे । पर्दाका रिवाज नहीं था । हर्षकी विधवा वहिन राज्यश्री राजसभामे बैठनी और वार्तालाप १-भाइ० पृ० १०३-१०४।२ - जैन मित्र वर्ष ६ अंक ४ पृ० ११ । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन और चीनी यात्री हुएनत्सांग। [१०७. करती थी। वालविवाह नहीं होते थे। हर्पकालीन सामाजिकस्थितिके विपयमे श्रीकृष्णचन्द्र विद्यालङ्कार का कहना है कि "(वैदिक कालीन) भारतके सामाजिक स्थिति । सामाजिक जीवनकी सबसे मुख्य संस्थामे वर्ण व्यवस्था और आश्रम व्यवस्था है। हर्षकालमें इन दोनों संस्थाओका अस्तित्व सुसंगठित रूपमे विद्यमान था; यद्यपि बौद्धों और जैनियोके समानतावादके प्रचारके कारण ये दोनों संस्थायें उत्तने आदर्श और व्यापक रूपमे नहीं रही थीं। हर्षकालमें बौद्धो और जैनियोकी बहुत बड़ी श्रेणिया विद्यमान थीं। इनके अनुयायियोंकी संख्या बहुत अधिक थी। उत्तर भारतमें वौद्धो और दक्षिणी पश्चिमी भारतमे जैनियोंका काफी जोर था। बहुतसे प्रातीय राजा भी इनके अनुयायी थे। इनके धार्मिक सिद्धात और रीति-रिवाजका भी तत्कालीन समाजमे साधुओं, तपस्वियो, भिक्षुओं और यतियोका एक बड़ा भारी समुदाय था, जो उस समयके समाजमे विशेष महत्व रखता था। बहुतसे साधु शहरों व गावोमे घूमर कर लोगाको उपदेश एवं शिक्षा दिया करते थे। यही हाल बौद्ध भिक्षुओं और जैन साधुओका भी था। साधारणतः लोगोके जीवनको नैतिक एवं धार्मिक वनानेमे इन साधुओं, यतियो और भिक्षुओंका वडा भारी भाग था। बौद्धोंके मठों, जैन यतियोंके उपाश्रयों और हिंदुओंके मंदिरोंमे शिक्षणालय होते थे। बौद्ध, जैन और ब्राह्मणधर्ममे पारस्परिक द्वेष नहीं था। वौद्ध और जैनधर्मके प्रचारके कारण लोगोंमे मास भक्षणकी रुचि अधिक रूपसे नहीं रही थी। ३-भाइ० पृ० १०४ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] संक्षिप्त जैन इतिहास। दक्षिण भारतमे जैनधर्मका अधिक प्रचार हानेके कारण, उत्तरी भारतकी अपेक्षा, वहा मासका रिवाज कम था। स्त्रियोंकी तब राजनैतिक स्थिति भी मानी जाती थी। उन्हें भी जायदाद दी जाती थी। स्त्रियोंका भी सम्पत्तिपर अधिकार होता था। साधारण नागरिक-स्त्री-नागरिक भी अपनी इच्छानुसार धर्मपरिवर्तनमे स्वतत्र था। साधारण जनताका प्राय प्रत्येक कार्य ग्रामीण पंचायतों द्वारा होता 'था। सरकारी न्यायालय भी स्थान २ पर होते थे। शासन विधान परिष्कृत रूपमे था" x सन् ६३० ई०मे हुएनत्साग नामक एक चीनी यात्री भारतमे ___ आया था। उसने सारे भारतका पर्यटन चीनी यात्री हुएन- किया था और यहा १६ वर्ष रहकर वह त्सांगका विवरण | सन् ६४५ ई०मे अपने देशको लौटगया था। उसकी यात्राका हाल एक पुस्तकमे लिखा मिलता है। वह अफगानिस्थानसे होकर भारतमे दाखिल हुआ था। उसे अफगानिस्तानमे दि० जैन लोग एक बडी संख्यामे मिले थे। कावुलका राजा हिन्दू था । यदि कावुलके आसपासके पुरातत्वकी खोज की जाय, तो जैन चिन्ह मिलना संभव है। अफगानिस्तानसे अगाडी चलकर पेशावर व कान्धारमें भी जैनोंकी बाहुल्यता थी। सिंहपुरमे हूएनत्सागको दिगम्बर और श्वेतांवर दोनों संप्रदायके जैनी मिले थे। गाधारमे भी उसे जैनी अधिक संख्यामे मिले थे। xत्यागभूमि, वर्ष २ भा० १ पृ० ३००-३०३ । १-कंजाऐंइं० । पृ० ६७१। २-भाप्रासह० पृ० १९ व कंजाएइ पृ० १४३ । ३न । पृ०६७१। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - हर्षवर्धन और चीनी यात्री हुएनत्सांग। [१०९ मालूम होता है कि सिकंदर महानके समयसे ही दिगम्बर जैनोका प्राबल्य यहा घटा नहीं था। पेशावरके पड़ोसमे स्थित काश्मीरमें भी जैन प्रभाव कार्यकारी था, ऐसा प्रतीत होता है। वहापर मेघवाहन राजा जैनोंके समान अहिसा धर्मको पालन करनेकी स्पर्धा करता था। उसने यज्ञमें हिसाका निषेध किया था और एक झीलके किनारे पक्षियों और मछलियोंको न मारनेकी आज्ञा निकाली थी।' काश्मीरके एक दूसरे राजा अनन्तिवर्मन (सन् ८५५-८८३ ई०) ने भी ऐसी ही राजाज्ञा प्रगट की थी। इन उल्लेखोंसे काश्मीरमें जैनमुनियोका प्रभावशाली होना प्रगट है। इस समयके मुनिजन प्राचीन दिगम्बर भेषमे रहते थे, यह वात हुएनत्सांगके कथनसे प्रमाणित है । वह कहता है कि 'निग्रंथ (Li-h1) लोग अपने शरीरको नग्न रखते है और बालोको नौंचडालन है। उनके देहकी चमड़ी चटखजाती है और उनके पैर सख्त होने और फटजाते है। इन्हीं मुनिजनोकी प्रधानता प्रायः सारे देशमे थी। हुएनत्सांगको समूचे भारतवर्ष में बल्कि उसके बाहर भी जैनी विखरे हुए मिले थे। मध्य देशमे भी उनका प्रभाव पर्याप्त था। यह बात राजा हर्प द्वारा बुलाये गये एक सार्वधर्म सम्मेलनके विवरणग्ने प्रगट है। यह सम्मेलन सम्प्रदाय--विशेषका नहीं था। सन् ६४३ ई० के फरवरी और मार्च मासमें कन्नौजके बाहर इस सम्मेलन के लिये बने हुए एक राजशिविरमें हर्षने डेरा किया था। चार १-राजतरिङ्गणी ३-७; १-१२ व ५-११९।२-३-जमीसो० भा० १८ पृ० ३१ । ४-ट्रैवेल्स ऑफ ह्यन्तसाग, (st. Julien, Vienna; p.224)५-इंसेजै०पृ०४५-४६।६-हिमालई पृ० २०७। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०] - -- - संक्षिप्त जैन इतिहास । हजार बौद्धभिक्षु इसमे शामिल हुये थे । तीन हजार ब्रामण और जैन पडित थे । राजाके मित्र ह्वेनसागसे किसीने शाम्रार्थ नहीं किया। बल्कि उससे चिढकर किन्हीं विपक्षियोंने सभामटपमे आग लगाकर उसका अन्त कर दिया। कहते है कि इस कार्यके उपलक्षमे ५०० ब्राह्मण देशमे निर्वामित कर दिये गये थे। राजा हर्षने सवही धर्मालम्बियोंको उपहार दिये थे। जैना एवं अन्य लोगोंको भी २० दिन तक यह उपहार मिले थे। इस वर्णनमे कन्नौजके आसपास जैनोंका पर्याप्त संख्यामे प्रभावशाली होना प्रमाणित है। यही कारण है कि उन्हें राज-सम्मेलनमे भुलाया नहीं गया था। ___ जब हुएनत्साग वंगालमे पहुंचा तो वहा भी उसे जैनोंकी आबादी 'मिली। पुन्ड्रवर्द्धन (उत्तरीय बंगाल) मे निर्ग्रन्थ लोग (दिगम्बर जैन) सबसे अधिक थे । कामरूपके दक्षिगमे समतट और पूर्वीय बंगालमें भी दिगम्बर जैन असंख्य थे। कलिङ्ग तो जैनोंका मुख्य केन्द्र था और दक्षिण भारतमें भी दिगम्बर जैनोका प्रावल्य था। गुजरात और काठियावाडमे भी जैनोंकी संख्या अधिक थी। वल्लभीनगर उनका केन्द्र था और मालवामें उज्जैन भी दिगम्बर जैन मुनियोंका मुख्यस्थान बना हुआ था। साराशत हुएनत्सागके वर्णनसे जैनोंका प्रभावशाली अस्तित्व उस समय मिलता है। इतिहासकारोंकी मान्यता है कि सन् ५५०-७५३ ई०के मध्यवर्ती कालमें बौद्धधर्मके ह्रास होनेपर जैनधर्म और पौराणिक हिन्दू मतने वहुत उन्नति की थी। १-लाभाइ०, पृ० २४२-२४३ । २-हिमालइ०, पृ० २०५। ३-भाप्रासइ०,भा०४ पृ०३८ । ४-कलि०, पृ० १८। ५-लाभाइ०, 'पृ० २८३ । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षवर्धन और चीनी यात्री हुएनत्सांग। [१११ हुएनत्सांगने उस समय भारतमें एक व्यवस्थित शिक्षा प्रणा लीका अच्छा परिचय कराया है। वह कहता तत्कालीन शिक्षा है कि बालकोंको शिक्षा 'सिद्धम् ' नामक प्रणाली। प्राइमरी पुस्तकसे प्रारन की जाती थी। जव बालक सात वर्षके होते थे तो उन्हें 'पंचशास्त्रों का ज्ञान कराया जाता था। इसमे सर्व प्रमुख व्याकरण था। बादमें साहित्य और कला सिखाई जाती थी। तीसरे शास्त्रके अनुसार आयुर्वेदका अध्ययन कराया जाता था। चौथेमे न्यायशास्त्र और सबके अन्तमें दर्शनशास्त्रकी शिक्षा दीजाती थी। यह शिक्षा प्रायः सब ही संप्रदायोंके गृहस्थोके लिये प्रचलित थी। पठन-पाठनकी प्रणाली मौखिक थी। अध्यापकगण बडे परिश्रमसे पढ़ाते थे। हैवेल सा० कहते है कि भारतीयोंकी यह शिक्षा प्रणाली आजकलके शिक्षाक्रमसे कहीं अच्छी थी।' १-हिमारूइ०, पृ० १९७। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास | (६) गुजरातमें जैनधर्म और श्वेताम्बर आगम ग्रन्थोंको उत्पत्ति । प्राचीनकालके तीन अर्थात् (१) आनर्त ( २ ) सौराष्ट्र और (३) लाट देशोंका नाम गुजरात है। जैनोंकी प्राचीनकाल से गुज- मान्यता है कि कर्मभूमिकी आदिमे भगवान् रात में जैनधर्म । ऋत्रभदेवके समय विविध देशका नामकरण और विभाग हुआ था । परन्तु उस समय यह देश संभवत सौवीरके नामसे प्रख्यात था । उपरांत भगवान् महावीरजीके समयमे सौवीर वर्तमानके ईंडर राज्य जितना था । यहां प्रसिद्ध जिनेन्द्रभक्त राजा उदयन राज्याधिकारी था । किंतु इसके पहले भगवान् नेमनाथके समयमे गुजरातपर यादवोंका अधिकार होगया था । यादवोंके अगमनपर ही द्वारिका नगर बसाया गया था और वही उनकी राजधानी था।' यादववंशी राजा उग्रसेनका राज्य जूनागढ़मे था । भगवान नेमिनाथजीका विवाह इन्हीं राजाकी पुत्री राजकुमारी राजुलसे होना निश्चिन हुआ था, किन्तु नेमिनाथजी बारात से ही विरक्त होकर गिरनार पर्वतपर जाकर तपश्चरण करने लगे थे और वहींसे उन्होंने मुक्तपद पाया था । तबसे गिरनार जैनोंका वडा तीर्थ है । ऐतिहासिक कालमे हमे पता चलता है कि गुजरातमें जैन सम्राट् चन्द्रगुप्तका राज्य था। उनके वैश्य जातीय सालेने जूनागढ़मे १ - हरि०, पृ० ३९६-३९९ । ११२ ] Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- गुजरातमें जैनधर्म व श्वे० ग्रंथोत्पत्ति। [११३ एक 'मुदर्शन नामक झील बनवाई थी। बहुत संभव है कि यह श्रेष्टीपुत्र भी जैनधर्मानुयायी हो। मौर्य चंद्रगुप्तका प्रपौत्र सम्प्रति परम जैन धर्मानुयायी था, और उसने अनेक जैनमंदिर बनवाये थे, यह लिखा जाचुका है । उसका राज्य गुजरातमे भी था और वहा भी उसके बनाये हुये मंदिर आजतक स्थित बताये जाते है, यद्यपि वह मौर्यकाल जितने प्राचीन नहीं है।' सम्प्रतिके भाई शालिशूकने सौराष्ट्रको विजय किया था और जैनधमकी विशेष प्रभावना की थी अत स्पष्ट है कि मौर्यकालसे गुजरातमें जैनधर्मका उत्कर्ष खूब था । मौर्य साम्राज्यके बाद गुजरातमें विदेशी यूनानियोंका अधिकार जमा था। सम्राट् खारवेलने जैन धर्मोन्नतिके अनेक कार्य किये थे। हो सक्ता है कि गुजरातमे भी उन्होंने जैनतिहासिक कालमें धर्म प्रभावनाके लिये प्रयास किया हो ! राजा गुजरातका जैनधर्म। मिनेन्डर तो जैनधर्मानुयायी प्रगट ही है और' उसका राज्य भी गुजरात ( सौराष्ट्र ) में था। कालकाचार्यके कथानकसे प्रगट है कि इन विदेशियोंमें जैनसाधु धर्मप्रचार करते रहते थे। यही बात राजा नरवाहन (नहपान)की कथासे प्रकट है । इन विदेशियोंमे अनेकोंने जैनधर्म ग्रहण किया था। और उनने धर्म प्रभावना करनेके सह प्रयत्न किये थे । छत्रप नहपानने जैनमुनि होकर जैन सिद्धान्तका उद्धार गुजरातसे ही किया था। अंकलेश्वरमें सर्व प्रथम जैनग्रंथ लिपिवद्ध हुये थे। छत्रप रुद्रसिंहने जूनागढ़में वावा प्याराका मठ और अपरकोटकी गुफायें जैनोके लिये निर्मित कराइ थीं, यह प्रगट किया जा चुका है। १-राइ०, भा० १ पृ. ९४ । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४] संक्षिप्त जैन इतिहास। अपरकोटकी गुफायें वह ही प्रतीत होती है जिनमें धरमेनाचार्य अपने मंच सहित रहते थे। नालम होता है कि गिरिनगरके निकट इन गुफाओमे जैनोंका एक नघ बहुन दिनामे रहता चला आरहा था। सारालत उन विगिरोके नभ्यमे गुजरातमे जैनधर्मकी विशेष उन्नति थी । मचमुच यहा पर जैनधर्मकी गति एक बहुत प्राचीन कालसे है। छत्रपवंगके बाद गुजरातमे गुतराजा अधिकारी हुये थे। मालूम होता है कि उनके समयमे भी गुजमध्यकालमें गुजरात रातमे जैनधर्म उन्नत था। मिद्धमेन दिवाकर पर गुप्त बल्लभी आदि प्रभृति जैनाचार्य जैनधर्मका उद्यात करते हुये राज्य व जैनधम । विचर रहे थे । किन्तु इसके पहले जैनाचार्य श्री कुन्दकुन्दस्वामीका गुजगतमे शुभागमन हो चुका था । प्राचीन जैनों और नवीन अर्द्धकालक (खण्डवस्त्रधारी= श्वेतपट) जैनोंमे जो गिरिनार तीर्थक सम्बन्ध्मे झगडा होरहा था, उसको उन्होंने सरस्वती देगकी पाषाण मूर्तिको वाचाल करके निवटा दिया था। गुप्तोंके बाद वल्लमीवंगके राजा लोग गुजरातपर शासन करने लगे थे। इनकी राजधानी वल्लभीमे थी। चीन यात्री हुएनसांगने इस नगरको बड़ा समृद्धिनाली पाया था। वहांपर सौसे ऊपर करोडपति थे और अनेक माथु थे । ध्रुवपद नामक राजा बौद्ध था । वहा मकान व मंदिर इंटों और लडीके होने थे । गजय तीर्थपर एक जैन मंदिर लकडीका था, जो राजा कुमार १-जविभोसो०, भा० १६ पृ० ३०-३१। २-कैहिइ०, भा० १ पृ० १६६ । ३-दिगम्बर जैन डायरेक्टरी पृ० ७६५ । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातमें जैनधर्म व श्व० ग्रंथोत्पत्ति। [११५ पाल सोलंकीके समय जलकर नष्ट होगया था । और उसके स्थानपर पापाण मंदिर निर्मित था । वल्लभीवंगके ताम्रपत्रोंमें वृषभ चिन्ह है और उनमे भट्टारक शब्द है। इन दोनों बातोंका सम्बन्ध जैनधर्मसे है । मालम होता है इस वंशके कई राजा जैन धर्मानुयायी थे। ___ सन् २२८ ई०का शिलादित्य प्रथम नामक गजा नि संदेह जैनधर्मानुयायी था । फरिस्ताने उसे भारतका राजा जून ' लिखा है । फाह्यान नामक चीनी यात्रीको वल्लभीके जैन राजा भारतपर राज्य करते मिले थे। तब इस वंशका शिलादित्य सप्तम नामक राजा (सन् ३९०) जैन सिंहासनारूढ था। वल्लभीमे फाहानने जिन मंदिरोंके दर्शन किये थे। उस चीनी यात्रीने जैनियोके पर्युषण पर्वमें रथोत्सवकी बडी प्रशंसा लिखी है। फाह्यानने लिखा है कि उन दिनोंमें देशभरमें कोई किसी जंतुका वध नहीं करता था, न मदिरा पीता था न लहसुन-प्याज खाता था। बाजारमे मूनागार नहीं थे, न पशुओंका व्यापार होता था, न कसाईकी दुकानें खुलती थीं और न शरावकी दुकानें थीं। वल्लभीवंशके नाश होने'पर चालुक्योंने दक्षिणसे आकर गुजरातपर अधिकार जमाया था । इस वंशमें संभवतः जयसिह बर्मन परम भट्टारक (६६६-६९३ ) को जैनधर्मसे प्रेम था। इसी समय एक छोटासा गुर्जर राज्य भरूचके पास राज्य करता था। उसमें जयभट्ट प्रथम एक विजयी और धर्मात्मा राजा था तथा उसकी उपाधिमें वीतराग' शब्द है । इसी प्रकार उसके पुत्र दहा द्वितीयकी उपाधि प्रशातगग' थी। - - १-माडर्नरिव्यू (जुलाई १९३२)पृ ८८ । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] संक्षिप्त जैन इतिहास । इन राजाओका जैनी होना संभव है। चालुक्योंके बाद राष्ट्रकूट वंशका अधिकार गुजरातपर हुआ था। वल्लभीमे जब ध्रुवसेन प्रथम ( ५२६-५३५ ई०) राज्य ____कर रहे थे. उस समय श्वेतावर मंप्रदायमें श्वे० आगम ग्रंथोंकी देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण नामक एक प्रख्यात् उत्पत्ति । साधु थे। उन्होंने बल्लभमे वतावर जैन संघको एकत्र किया था और उसमे अंग ग्रंथोका पुनः संशोधन करके उन्हें लिपिबद्ध करदिया। इस समयके बहुत पहले ही श्वतावर संप्रदायका जन्म होचुका था और उसने और भी कितनी ही प्राचीन वातोमे रद्दोबदल किया था जैसे साधुओके भेषमे और मूर्तियोंके निर्माणमे आदि । इस अवस्थामे क्षमाश्रमणके लिये यह अवश्यक था कि वह श्वेतावर जैन सिद्धातको लिपिबद्ध कर देते । ब्राह्मण और बौद्ध तथापि स्वयं दिगम्बर जैनोंके ग्रथ पहले ही लिपिवद्ध होचुके थे । श्वेताबरोंको भी यह ठीक नहीं जंचा कि उनके धर्मग्रंथ पुस्तकरूपमे लिपिबद्ध न हों। वह लिपिबद्ध कर लिये गये और उनमेसे 'जिनचरित्र ' ( महावीर चरित्र) का व्याख्यान आनंदपुरमे राजा ध्रुवसेनके समक्ष हुआ था। इस १-बंप्राजैस्मा०, पृ० १९५-१९६ । २-'कल्पसूत्र' (Jacobi. ed. p. 67 ) लिखा-'समणस्स भगवो महावीरस्स जावसव्व दुक्खप्पहिणस्स नववासस्स यायिम विक्कय-तइ दसमस्सय वासस्सयस्सा अयं असी इमे सवच्चेरकाले गच्छह इति।'-विनय विजयगणि इसकी टीकामें लिखते है:-'बलही पुरम्मि नयरे देवइढिप मुहसवलसहि। पुव्वे मागम लिहिऊ नव सय असी मानुवीराउ ॥ ३-उसू०, भूमिका पृ० १६ । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गुजरातमें जैनधर्म व श्वे० ग्रन्धोत्पत्ति। [११७ मकार वर्तमानमें श्वेतांबरोंके जो आगम ग्रंथ मिलते हैं, वह ई० छठी शताब्दिके संशोधित और लिखे हुये है। उन्हें श्रुतकेवली भद्रबाहु द्वारा प्रतिपादित यथाजात अंग ग्रन्थ बतलाना एक अति साहसी वक्तव्य है। श्वेतांबर निरुक्तियां भी इन आचार्यकी रचना नहीं है। यह विद्वान् प्रगट कर चुके है। साथ ही श्वतांवर आगम ग्रन्थोंका सादृश्य वौद्धोंके पिटक ग्रन्थोंसे बहुत कुछ है। बौद्धोंके पिटक-ग्रन्थ श्वे० ग्रंथोंका वौद्ध पाली भाषामें है और पाली भाषा श्वेतावर ग्रंथोंसे सादृश्य । जैनोंके अंगग्रन्थोंकी अर्द्ध मागधी भाषासे प्राचीन है। इस अवस्थामें यह कहा जासकता है कि अर्द्धमागधीमें पाली भाषासे बहुत कुछ लिया गया है। साथ ही हमें मालम है कि वौद्धोंके पिटक ग्रंथोंकी व्यवस्था श्व० जैनोंके पाटलिपुत्रवाले संघके बहुत पहले होचुकी थी और वह लिपिवद्ध भी श्वेतांबर जैनोंके अंग ग्रन्थोंके लिखे जानेके पहले होचुके थे।' अतएव यह संभव है कि श्वेतांबर आगम ग्रंथोंमें बहुत कुछ बौडोंके पिटकत्रयसे लिया गया हो। बौद्ध श्वे. जैनोंपर इस प्रकारका आक्षेप भी करते हैं। वौद्ध यात्री हुएनत्सांग लिखता है.-"(सिंहपुर ) स्तूपकी वगलमें थोड़ी दूरपर एक स्थान है, जहां श्वेतांबर साधुको सिद्धातोंका ज्ञान हुआ था और उसने सबसे पहले धर्मका उपदेश दिया था।...इन लोगोंने अधिकतर बौद्ध पुस्तकोंमेंसे सिद्धांतोंको १-जैनसूत्र (. B B.) भूमिका भा० २ पृ० ३९ व उसू० भूमिका पृ० १-३२ व सर आसुतोप मिमेरियल वाल्युम पृ० २१ । २-इंहिका०, भा० ४ पृ० २३-३० । ३-भमवु०, पृ० १८८ । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] संक्षिप्त जैन इतिहास । उडाकर अपने धर्ममे सम्मिलित कर लिया है " । (हुएनत्सांगका भारत भ्रमण पृ० १४२ ) सभवत यही कारण है कि दिगम्बर मान्यताकी अपेक्षा श्वेतावरों द्वारा वर्णित भगवान महावी-जीक चरित्रका सादृश्य म० बुद्धके जीवनसे अधिक है । श्वतावर भगवान महावीरको म० बुद्धकी तरह यशोढा नामक राजकुमारीसे विवाह करते लिखते है और बतलाते है कि उनके भाई नन्दवर्धन थे। गौतमबुद्धके भाईका नाम भी नन्द था। दिगम्बर ग्रंथोंमे भगवानका कोई भाई बहिन कोई प्रगट नहीं किया गया है। उनमे भगवानके पाचोंकल्याणोंके समय विशाखा नक्षत्रका होना लिखा है, परन्तु श्वेतांबरोंने तब हस्तोत्तरा नक्षत्रका होना' म० बुद्धके जन्म; बोधि और परिनिर्वाण अवसरोंके समान लिखा है । ___महावीरजीको श्वेताम्बर ग्रंथोंमे पापोंसे विलग रहनेका निश्चय जिन शब्दोंमे ( सव्वं मे अपणिज्ज पापं ) प्रकट करते बताया है; करीब २ ठीक वैसे ही शब्दोंमे गौतमबुद्ध वैसा ही निश्चय प्रगट करते हुये बौद्धग्रंथ " धम्मपद" (१८३) मे बताये गये है (सव्व पापस्म अकरण) । केवल इतनी ही साश्यता नहीं है बल्कि विद्वानोंने प्रगट कर दिया है कि श्वे. जैन और बौद्ध ग्रंथोंमे अनेकों एक समान कथानक, वाक्य, उक्तिया और उपदेश है। 'उत्तराध्ययन सूत्र मे राजा श्रेणिकका समागम जो एक जैन मुनिसे हुआ . १-साम्स आफ ब्रदरन, पृ० १२६ । २-आसू० २-२४-२०। ३-मनि०, २६-१७। ४-उसू०की भूमिका व 'सर मासुतोष मिमोरियल बॉल्यूम' भा० २ में प्रो० बपटका "जैन अर्द्धमागधी टेक्स्ट' शीर्षक लेख देखो। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातमें जैनधर्म व श्वे० ग्रंथोत्पत्ति। [११९ - - बताया गया है, वह 'सुत्तनिपात' (३-१)मे वर्णित म० वुद्ध और श्रेणिकके मिलापकी याद दिलाता है। अगाडी ' उत्तराध्ययन ' में हरिकेश आदिकी कथायें बौद्धोकी जातक कथाओंके समान है।" 'उत्तराध्ययन सूत्र एव अन्य अंगग्रन्थ भी किसी एक आचार्यकी रचना नहीं है। बल्कि वह कई विद्वानोंकी रचना है, यह विदेशी विद्वानोंने सिद्ध किया है। अतएव यह हो सकता है कि क्षमाश्रमणने संग्रह करते हुये बौद्ध श्रोतसे भी साहाय्य ग्रहण कर लिया हो; जिससे उनकी रचनायें प्राचीन प्रगट हो। श्वेताम्बरोंने जो अपने साधुओके भेषका वर्णन किया है. वह ठीक एक बौद्ध भिक्षुके भंपके समान है। बौद्ध भिक्षुके लिये तीन 'चीवरों' (वस्त्रों) को रखनेका विधान है, श्वेताम्बर ग्रंथ भी 'स्थिवरकल्पी' जैन साधुके लिये तीन वस्त्रोतकको धारण करनेकी आज्ञा देते है। इनके नाम भी प्रायः दोनों संप्रदायोंमें एक समान हैं, जैसे अन्तरिजर्ग-पाली अन्तरावासकं, उत्तरिज्जगं-उत्तरासंगं, संघाडि संघाटि। इसके अतिरिक्त दोनों संप्रदायोके शास्त्रोंमें एक जैसे ही वाक्य और शब्द भी मिलते है। जैसे कि प्रो० पी० वी० वपट सा० ने प्रगट किये है। (१) वेयरनीऽभिदुग्गां (श्वे. जैन--सूय० १-५-१-८) अथ वेतरणिम् पनदुग्गं (बौद्ध. - सुनि० ६७४)। (२) विपरिया समुवेन्ति (आसू० १-२-६-३) विपरियासमेन्ति । १-उसू०, भूमिका पृ० ३८-४६ । २-उसू० भूमिका पृ० ४०-५० व जैन सुत्रकी भूमिका | २-सऑमि वॉ० भा० २ पृ० ९६-९७ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___१२०] संक्षिप्त जैन इतिहास । (३) जस्स नत्थि ममायित ( आसू० १-२-६-४)3 -यस्स नत्थि ममायितं ( सुनि० ९५०)। (४) उक्वुच्चण-बञ्चग, माया, नियढि, कुढ. कवट. साह, सम्पयोग बहुता (सूप० २-२, २९ वा सूत्र )=३ कोतन वचन, निकति. साचियोग (दीनि० १-१-१०)। (५) पुवुट्टई पच्छाणिवाती ( आमू० १-५-२३) पुन्छहाई पच्छानिपाती। (६) इञ्चत्य गढे लोए (आसू० १-५-२३) एत्थ गत्तितो लोको। (७) उट्ठ अहे तिरियं दिसामु (आसू० १-८-१८)उद्धं अधो च तिरियं च (सुनि० १५५)। (८) आहारोवचैया देह! (आमू० १-८-३-५) सरीणं आहारोवैयं आहारोपचितो देशे। (९) अहुणा पब्वजितो (आसू० १.-९--१.-१) अचिरम्पव्वजितो। (१०) मायण्णे असणपाणस्स (आसू० १--९.-१--२०) -मत्तजू हाहि भोजने। (११) गामे वा अदु वा रण्णे ( आसू० १-८-८-७)= गामे वा यदि वाऽरण्णे । (सुनि० ११९) इत्यादि वाक्योंके अतिरिक्त अनेक शब्द भी समान है । यथाः__“ सयणासण-(पाली) सेनाससन, लूह-लुख, सेह सेख, वुसीमउवुसीमतो, णीवारा=निवाप, मच्चिय=मच्चा या मातिया, भूइपण्णे= Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातमें जैनधर्म व श्वे० ग्रंथोत्पत्ति। [१२१ भरिपजो, विगपगेही-विगतगिद्धो; इत्यादि, इत्यादि । (देखो सर आसुतोष मेमोरियल बॉल्यूम, भा० २ पृ० १०१-१०३)। अतएव यह बहुत कुछ संभव है कि क्षमा श्रमणके समयमें श्वेताम्बर आगम ग्रंथोंमें बौद्ध साहित्यसे साहाय्य ग्रहण किया गया हो। डो० वुल्हर भी इस बातको संभव बताते है ।* विक्रम संवत् ५५० मे ७९०के वीचमे हैहय अथवा कल चूरि वंशके राजाओंका राज्य भी चेदी और लचूरी राजा गुजरात (लाट )में था।' इस वंशके राजा और जैनधर्म। भारतमें एक प्राचीन कालसे राज्य कर रहे थे। किन्तु इनका पूर्व वृतान्त ज्ञात नहीं है। हैहयवंशी राजा अपनी उत्पत्ति नर्मदा तट पर स्थित माहिप्मतीके राजा कार्तवीर्यसे बतलाते है। इनकी उपाधि 'कालंजर-परवारा धोम्बर' भी है । इससे इनका निकास कालंजर नामसे हुआ अनुमान किया जाता है । कनिधम सा के अनुसार ९ मीसे ११ मी शताब्दि तक हैहय गजागण बुन्देलखंडमें चेदिवंशकी एक बलवान शाखा थी। चेदि राष्ट्रकी उत्पत्ति जैनगजा अभिचंद्रसे हुई थी। और चंदिवंशमे जैनसम्राट् खारवेल हुये थे । हैहय अथवा कलचूरि लोग भी जैनी थे। 'कलचूरि' शब्दका अर्थ ही उनके जैनत्वका द्योतक है अर्थात 'कल' देह और चूरि-नाश करना । देहको नाश "In the late fixing of the canon of the Swetamberas in the sixth century after Christ, it may have been drawn from Buddhist works, Indian sect of the Jaisas p 45. १-भाप्रारा०, मा० १ पृ० ३९। २-एइ०, भा० २ पृ०८। ३-बंगाजैस्मा०, पृ० ११३-११९ । ४-हरि०, पृ० १९४ । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] संक्षिप्त जैन इतिहास । करके परम अतीन्द्रिय सुख पानेका विधान जैनधर्ममे है। हैहय और चेदि शब्द भी जैनत्वके द्योतक है। हैहय 'अधहय' अथवा अहहयका रूपान्तर है अर्थात् पापोके चुग्नेवाला । चेदिसे भाव आत्माको चेतानेवालेका है । दक्षिण भारतमे इस वंशके राजाओंने जैनधर्मके लिये बड़े अच्छे २ काम किये थे । इस वंशके राजा शंकरगणने, जिनकी राजधानी जबलपुर जिलेकी तेवर (त्रिपुरी) थी, कुलपाक नीर्थकी स्थापना (सं०६८०मे)की थी। हैहयोंमे कर्णदेव राजा प्रख्यात थे। यह वीर थे और इन्होंने कई लडाइया लड़ी थीं। इनकी राजधानी काशीमे थी। मालवाके राजा भोजको इन्होने परास्त किया था। गुजरातके राजा भीमको भी इन्होंने अपने साथ रक्खा था। इनका विवाह हूण जातिकी आवल्लदेवीसे हुआ था, जिससे या कर्णदेवका जन्म हुआ था। हैहयवंशकी इस शाखाका अस्तित्व १३ वीं शताब्दि तक रहा था। गुजरातमे चालुक्य वंशके राजाओंने सन् ६३४ से ७४० ___ तक राज्य किया था । इनके एवं गुर्जर और चाल्युक्य राजा व राष्ट्रवंशके अधिकारके समय गुजरातमे साहिजैनधर्म । त्यकी खूब उन्नति हुई थी। तथा इन राजा ओंने जैनधर्मको महत्व दिया था। इस वंशका प्राचीन लेख धारवाड़ जिलेमें आदुर ग्रामसे मिला है । यह राजकीर्तिवर्मा प्रथमका है और इसमे राजाके दानका उल्लेख है, जो उसने नगरसेठ द्वारा बनवाये गये जैनमंदिरको दिया था। बंका १-भाप्रारा०, भा० १ पृ० ४८-५०।२ बंप्राजैस्मा०, पृ० १। ३-बंप्राजेस्मा०, पृ० ११३-१२० । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ गुजरातमें जैनधर्म व श्वे० ग्रंथोत्पत्ति। [१२३ पुरसे २० मिलकी दूरीपर लखमेश्वर नामक स्थानसे तीन शिलालेख (१) राजा विनयदित्य (६८०-६९७), (२) विजयदित्य (६९७-७३३), (३) और राजा विक्रमादित्य द्वितीय (७३३७४७ ) के शासनकालके मिले हे उनमें जैन मंदिरों और गुरुओको दान देनेका उल्लेख है । इन दातारोंमे एक हरिकेशरीदेव वंकापुरके निवामी थे। इन्होंने पांच धार्मिक महाविद्यालयोंकी स्थापना की थी। यह नगरसेठ थे और महाजन थे । इस समय यह स्थान जैनधर्मका केन्द्र बनरहा था। श्रीगुणभद्राचार्यजीने अपना 'उत्तरपुराण' सन् ८९८ में वहीं समाप्त किया था । तब यह स्थान वनवासी राज्यकी राजधानी थी और यहा राष्ट्रकूटवंशी राजा अकालवर्षका सामन्त लोकादित्य राज्य करता था. जो जैनधर्मका भक्त था। चालुक्यवंशमें सत्याश्रय पुलिकेशी द्वितीयके समान कोई भी प्रतापी राजा नहीं हुआ। वह शक सं० ५३१में राजगादी पर बैठा था। इस वंशके अन्य राजाओंका विशेष वर्णन हम तीसरे खण्डमें करेंगे। राष्ट्रकूट वंशके राजा लोग गुजरातमें सन् ७४३ में शासना धिकारी हुये थे। यह अपनेको चन्द्रवंशीअथवा राष्ट्रकूटवंशमें जैनधर्म। यदुवंशी कहते है। राष्ट्रकूटवंशी राजा गोविंद तृतीयने ( ८१२ ई० ) लाटदेश (गुजरात) का राज्य अपने छोटे भाई इन्द्रराजके सुपुर्द किया था। गोविन्द बड़ा प्रतापी राजा था। प्रभूतवर्ष गंगवंशी द्वितीयने चाकि राजाके अनुरोधसे जैन मुनि विजयकीर्तिके शिष्य अर्ककीर्तिको दान दिया १-माप्रारा०, भा० ३ पृ० ६९। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | . थी । राष्ट्रकूटवशकी गुजरातवाली शाखामे इन्द्रका उत्तराधिकारी कर्क प्रथम (८१२-८२१) हुआ था, जिसने नौसारी (सूरत) के एक जैन मंदिरको अम्बापातक नामका ग्राम भेट किया था । सन् ९१० ई० के लगभग राष्ट्रकूटवंशकी इस शाखाका अंत होगया था । सन ९७२ ई० मे गुजरात पश्चिमी चालुक्य राजा तैलप्पके अधिकार में चला गया । गुजरात में चावडवंशका राज्य भी सन् ७२० से ९६१ तक रहा था। पहले चावड सरदार पंचासर ग्राममे राज्य करते थे । सन् ६९६ मे जयशेखर चावडको चालुक्य राजा भुवडने मार डाला । उसकी रूपसुदरी नामक स्त्री गर्भवती थी । इसीका पुत्र वनराज था, जिसने अनहिलवाडा वसाया और अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करके सन् ७४६ से ७८० तक राज्य किया । वनराज जैनधर्मानुयायी था । इसने पंचासर पार्श्वनाथजीका जैन मंदिर बनवाया था | वनराजका उत्तराधिकारी उसका भाई योगराज हुआ और उसके पश्चात् चार राजाओंने इस वंशमे सन् ९६१ तक राज्य किया था । वनराजका मुख्य मंत्री चम्पा नामक जैन श्रेष्ठी - था, जिनका व्यापार अफरीका व अरबसे खूब चलता था, उन्होंने चावड़ राजाओंके जैनकार्य । १ - इऐ०, भा० १२ पृ० १३ - १६ - यह जैनमुनि अर्ककीर्ति श्री - कीर्त्याचार्यके अन्वय में थेः । श्री यापनीय नेमिसघपुनागवृक्षमुलगणे श्री कीर्त्यचर्यान्वये ॥” २ - बप्रा जैस्मा० पृ० २०० । ३ - भाप्राए० - भा० ३. पृ० ७५ । ४ - बप्राजेस्मा ०, पृ० २०२-२०३ । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातमें जैनधर्म व वे० ग्रथोत्पत्ति। [१२५ कई जैन मंदिर बनवाये थे। चम्पानेर नामक नगरकी नींव भी उन्होंने डाली थी। चावडोंके बाद गुजरातमे सोलंकियोंका राज्याधिकार सन् ९६४ से १२४२ ई० तक रहा था। सोलंकी राजा जैनधर्मानुयायी थे । अंतिम चावडा गजा भूभत था। उसकी वहिनका विवाह चालुक्य अथवा सोलंकी राजा महाराजाधिराज राजीसे हुआ था। इसी राजीका पुत्र मूलराज मृभतके वाढ गुजरातका राजा हुआ था। गुजरातमे इसीसे सोलंकी वंशका सोलंकी राजा व प्रारभ हुआ माना जाता है। यह प्रभावजैनधर्म। शाली राजा था। इसने अपने राज्यका विस्तार किया था । लाडके राजा वारप्पासे तथा अजमेरके राजा विग्रहराजसे युद्ध किया था। मूलराजका बनवाया हुआ जैनमंदिर अनहिलवाडामे 'मूल-वस्तिका नामसे प्रसिद्ध है। इसके बनाये हुये शिवमंदिर भी मिलते है । मूलराजने अपना बहुतसा समय सिद्धपरके पवित्र मंदिरमें बिताया था, जो अनहिवाडासे उत्तर पूर्व १५ मील है। मूलराजका उत्तराधिकारी उसका पुत्र चामुड़ (९९७-१०१०) हुआ। चामुड वनारसकी यात्राको गया था कि मार्गमे राजा मुंजने हरा कर इसका छत्र छीन लिया था। चामुड़के वाद दुर्लभराजा हुआ और उसके बाद उसका भतीजा भीम प्रथम (सन् १०२२-१०६४) शासनाधिकारी हुआ था। भीमने सिंधुदेश और चेदि अथवा बुन्देलखंड पर हमला किया था और इसमे वह विजयी हुआ था । सहमद गजनवी द्वारा नष्ट किये गये १-वंप्राजैस्मा०, पृ०८-१७।-प्राजैस्मा०, पृ० २०३-२०४। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - १२६] संक्षिप्त जैन इतिहास । सोमनाथके मंदिरको इसने फिरसे पाषाणका बनवा दिया था। भीमकी अनवन आबके सरदार धन्धुक परमारसे हुई थी और उसके सेनापति विमलने उसे पगस्त किया था ।' आक्री चित्रकूट पहाडी “विमलशाहको मिली, जिसपर उसने सुंदर जैन मदिर बनवाया। यह मदिर 'विमलवमही' नामले प्रसिद्ध है । इस मंदिरके विषयमे कर्नल टॉड सा० ने “ ट्रेविल्स इन बैटर्न दन्डिया " मे लिखा है कि "हिन्दुस्तान भरमे यह मदिर सर्वोत्तम है और ताजमहालके सिवा कोई दूसरा स्थान इसकी समता नहीं कर सक्ता । 'उदय-वराह' नामक भीमका पुत्र कर्ण उसके उपरान्त राज्यका अधिकारी हुआ। इसने सन १०६४ से १०९४ ई० तक मुंजालु, सातु और उदय नामक मत्रियोंकी सम्मतिसे राज्य किया । उदय मारवाडके श्रीमाली बनिये थे । उन्होने कर्णावती नगग्मे एक जैन मंदिर बनवाया था, जिसमे ७२ नीर्षझरोंकी मूर्तियां विराजमान थीं। कर्णावती नगरीकी स्थापना राजा कर्णद्वारा हुई थी और यह नगर आजकाल अहमदाबाढके नामसे प्रसिद्ध है। उदयके पाच पुत्र-आहड, चाहड, वाह्ड, अनड और सोल्ला थे। इनमेसे पहेले चारने राजा कुमारपालकी सेवा कीथी और सोल्ला व्यापारी हो गया था । दूसरे मंत्री सातु भी जैनी थे। इन्होंने सातुवसही नामक जैनमदिर बनवाया था। राजा कर्णने श्वेताम्बराचार्य अभयदेवसूरिका आदर किया था । इनका विरुद 'मलधारिन' था १-बप्रास्मा०, पृ० २०४-२०५ । २-राइ०, भा० १ पृ० २३ । ३. वप्राजैस्मा०, पृ० २०५। ४-हिवि०, भा० ३ पृ० २३९ । ५-प्राजैस्मा०, पृ० २०५ । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातर्मे जैनधर्म व श्वे० ग्रन्थोत्पत्ति। [१२७ और यह 'प्रश्नवाहनकुल, कोटिवगण, मध्यमशाखा, स्थूलिभद्र मुनिवंगे हर्षपुरीय गच्छक जयसिहसूरीके शिष्य थे। इनने कितनेही ब्राह्मणोंको जैनधर्ममें दीक्षित किया था। सौराष्ट्रके खेशार और सकम्मरिके पृथ्वीराजचौहानसे आदर पाया था । अजमेरमें इनका स्वर्गवास हुआ था । कर्णका उत्तराधिकारी उनके पुत्र सिद्धराज जयसिहने सन् २०१४ - ११४३ तक राज्य किया। मुंजाल और संतु इसके भी मंत्री रहे थे । सिद्धराज एक बड़ा बलवान, धार्मिक व दानी राजा था। यह सोमनाथ महादेवका भी भक्त था । इसे मंत्रशास्त्र भी ज्ञात था; जिसके कारण इसको 'सिद्धचक्रवर्ती' कहते थे । सिद्धपुरमें सरस्वती नदीके किनारे इसने 'रुद्रमाल' नामक एक वृहद् शिवालय और जैन तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामीका मंदिर बनवाया। इसने वर्द्धमानपुर (वधवान)में सौराष्ट्र राजा नोधनको विजय किया तथा सोरटदेश लेकर सज्जनको अधिकारी नियत किया । सज्जनने श्री गिरिनारमे नेमिनाथजीका जैन मंदिर बनवाया। सिद्धराजको जैनधर्मसे भी प्रेम था। उसने श्री शत्रंजयजीकी यात्रा करके, श्री आदिनाथजीको १२ ग्राम भेंट किये थे। सिद्धराजने एक संवत् भी चलाया था। मालवाके राजा नरवर्मा परमार तथा यशोवर्मा परमारसे इसका एक युद्ध लगभग १२ वर्ष तक हुआ था । अंतमें सन ११३४ में सिद्धगज विजयी हुआ था। तबसे इसका नान 'अवन्तिनाथ' प्रसिद्ध हुआ था। वर्बर १-डिजेबा०, पृ० ८।२-प्राजैस्मा०, पृ० २०६ । ३-हिवि०, मा० ७ पृ० ५९४ । ४ - बप्राजैस्मा०, पृ० २०६। ५-ईऐ०, भा० ६ पृ० १९४। - Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] संक्षिप्त जैन इतिहास । राजाको भी इसने परास्त किया था। महोवाके चंदेलराजा मदनवर्माने इससे सन्धि करली थी। श्वेताम्बर जैनाचार्य हेमचन्द्रने इसी समय 'सिद्धी व्याकरण और द्वाश्रय द्राव्य लिखा था।' राजा सिद्धराजने एक बाद सभा भी कराई थी। करणटक देशसे कुमुढचंद्र नामक एक दिगम्बर जैनाचार्य अहमदाबाद आये थे। श्वेताम्बराचार्य देवसूरि तब वहा 'अरीष्टनेमिके जैनमंदिरमे थे। किन्तु इन्होंने वहा शास्त्रार्थ करवा मंजूर नहीं किया । दिगम्बराचार्य नमावस्थामे ही पाटन पहुंचे । सिद्धराजने उनका बडा आदर किया। हेमचंद्राचार्य वाढ करनेको राजी न हुये। इस कारण देवरिमे वाढ हुआ । सभामे कुमुदचंद्रने कहा कि कोई स्त्री मुक्ति नहीं पा सकी । सिद्धराजने इससे महाराणीका अपमान हुआ समझा । उवर सवस्त्र साधु दशासे मोक्षनिषेध करनेके कारण राजमंत्री भी रुष्ट हो गये । सभामे हुल्लड मचगया और कुमुदचंद्रको पराजित तथा उनके प्रतिपक्षी देवसूरिको विजयी ठहरा दिया गया। देवसूरिको अजितसरि भी कहा गया है और यह 'लाद्वाद-रत्नाकर' नानक ग्रंथके कर्ता थे।४ सिद्धराजके एक मंत्री आलिग नामक भी था। उसने वि० सं० ११९८मे एक जैन मंदिर निर्मापित कराया था और उसका नाम 'राजविहार' रक्खा था। उसके मित्र सज्जन जूनागढ़के शासक जैन धर्मानुयायी थे। सिद्धराजने 'आनन्दसूरि और उनके सहभ्राता १-हिवि०, भा० ७ पृ० ५९४ । २-वप्राज॑म्मा०, पृ० २०७। ३-हिवि०, भा० ५ पृ० १०५ व बप्राजेस्मा०, पृ० २०७-२०८ । ४-डिजेबा० भाग १ पृ० ३१ । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातमें जैनधर्म व खे० ग्रन्योत्पत्ति। [१२९ अमरचन्द्रमूरिका बडा आठर किया था । और उन्हें क्रमश 'व्याघ्रशिशुक' व 'सिहशिशुक' नामक उपाधियोसे विभूपित किया था । ये दोनों श्वेताम्बराचार्य बड़े भारी नैयायिक थे। इनके शिष्य हरिभद्रसूरि द्वितीय नागेन्द्र गच्छीय थे । इनकी प्रमिद्धि " कलिकाल गौतम" के नामसे थी।' इनके दो शिष्य हम और परमहंस नामक जैनधर्म प्रचार करते हुये भोटादेशमें (तिव्बतमे। बौद्धोद्वारा मार डाले गये बताये जाते है । जयसिह सिद्धराजकी मृत्यु सन् ११४३ ई० मे हुई थी। 'सिद्धराजके कोई पुत्र नहीं था। किन्तु भीम प्रथमकी एक प्रेमिकासे उत्पन्न पुत्र हरिपालकी संतान इस सम्राट् कुमारपाल। समय मौजूद थी। इस कारण त्रिभुवनपाल और उसके तीन लडके जिनमें सबमे वडे कुमारपाल थे, राज्य पानेके प्रयत्न करने लगे और अन्तमें कुमारपाल चालुवयवंशका राजा हुआ। कोई कुमारपालको सिद्धराजका भाग्नेय बतलाते है । कुमारपालकी एक वहिन प्रमलदेवीका विवाह सिद्धराजके सेनापति कण्हदेवसे हुआ था और दूसरी वहिन देवल सपादलक्षके राजा अरणोगजको विवाही गई थी। सिद्धराजकी मन्ना नहीं थी कि कुमारपालको राज्य मिले । उसने त्रिभुवनपालको मरवा डाला और कुमारपालको मरवानेके भी उसने प्रयत्न किये, किन्तु अनहिलपट्टनके आलिङ्ग नामक कुम्हारकी सहायतासे कुमारपालकी रक्षा हुई । वह भृगुकच्छको भाग गया। कैलम्बपत्तन (Camhav) में १-हि०, भा० १० पृ० ३४० । २-सडिज०, पृ०३, ३-हिवि०, मा० ५ पृ० ८३ । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०] संक्षिप्त जैन इतिहास । कैलम्बगजने इनको अर्धाग दे मरक्षण किया। फिर प्रतिष्ठानपुर, उज्जयनी आदि स्थानोंमे कुछ समय विताकर वह नागेन्द्रपत्तनमे अपने बहनोई कण्हढेवके पाम रहे। रेलम्बराजकी सहायतासे इन्होंने राज्याधिकार प्राप्त किया था । राजपुरोहित देवश्रीने इनका राज्या‘भिषेक किया था। राजा होने पर कुमारपालने इन सवका समुचित आदर किया था। अलिङ्ग कुम्हार उनके राजदरबारका मुसावि नियत हुआ था। इस समय कुमारपालकी अवस्था पचास वर्ष के लगभग थी । इनका जन्म सन् १०९३ मे दधिस्थली (देवस्थली) में हुआ था । यहीं श्वेताबराचार्य हेमचन्द्रजीसे इनने सदुपदेश ग्रहण किया था। कुमारपाल राजा हो गये, परन्तु पुराने राजदरवारी इनके खिलाफ रहे। फलत. इनने उनका निराकण कुमारपालकी साम्राज्य किया । कण्हदेवने कुमारपालको राजा बनावृद्धि। नेमे पूरी सहायता दी थी, इस कारण वह इनको कोई चीज ही नहीं समझता था। कुमारपालने उसे सावधान किया, परन्तु वह नहीं माना । आखिर उनने उसे गिरफ्तार कराके उसकी आखें निकलवालीं। सिद्धराजने एक छहड नामक व्यक्तिको गोद लेकर उसे अपना पुत्र प्रगट किया था। कुमारपालके राजा होनेसे वह रुष्ट होकर सपादलक्ष पहुंचा और वहा अरणोगजने उसे आश्रय दिया था। और उसके लिये उसने कुमारपालमे लडाई भी लडी, किन्तु उसमे उसकी हार हुई। १-सडिजे०, पृ० ५, हिवि०, भा० ५ पृ० ८३ व वप्रा जैस्मा० पृ० २०८-२०९। - Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातमें जनधर्म व वे० ग्रंथोत्पत्ति। [१३१ छहडको कुमारपालने माफ करके उसे राजदरवारमे एक उच्च पदपर नियत किया। इसी बीचमें चन्द्रावतीका सरदार विक्रमसिंह भी कुमारपालके विरुद्ध उठ खडा हुशा; किनु उसे भी मुंहकी खानी पड़ी। उसकी जागीर छीनकर कुमारपालने अपने भतीजे यशोधवलको ददी । इसके बाद कुमारपालने मालवाके राजाको प्राणरहित किया और चित्तौरको जीतकर पंजाबमे अपना झंडा फहराया। चित्तौरकी जागीरको उसने अलिङ्कके सुपुर्द किया और वह स्वयं 'अवन्तीनाथ' कहलाया । सन् १९५० के लगभग कुमारपालने सपादलक्षपर हमला किया था क्योंकि अरणोराजने उसकी बहिनका अपमान किया था। परिणामत: अरणोराजको कुमारपालकी सत्ता स्वीकार करना पड़ी थी। सन ११५६ ई० के करीव कुमारपालने उत्तरीय कोकणको जीतनेके लिये अपने सेनापति अम्बड़को भेजा था, किन्तु वह वहाके राजा मलिकअर्जुन सिल्हारसे हार गया। कुमारपाल इससे हताग नहीं हुआ और दूसरे हमलेमें अम्बड सिल्हार राजाको नष्ट करके कोकणदेगको चालुक्य साम्राज्यमें मिलानेमे सफल हुआ। इस विजयकी खुगीमें कुमारपालने अम्बड़को 'राजपितामह'के विरुदसे विभूषित किया। कुमारपालने उदयनको मंत्री और उसके पुत्र वाहड़को महा __मात्य नियत किया था। गुजरातके एक युद्धमें जैन मंत्री वाहड़। यह जैन मंत्री घायल हो गया और सन् ११४९ मे मर गया। उसकी इच्छानुसार उसके पुत्र वाहढ़ और अम्बडने शत्रुजय आदि तीर्थोपर जैन मंदिर आदि वनवाये थे। जब सुकुनिका विहारमे श्री मुनिसुव्रतनाथजीकी १-सडिजे० पृ० ८-९ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२] संक्षिप्त जैन इतिहास । प्रतिष्ठा हुई थी। तब कुमारपाल अपनी सभा मण्डली सहित पधारे थे। बाहडने शत्रुजयके पास बाहडपुर बसाया था और 'त्रिभुवनपाल' नामक जैन मंदिर बनवाया। गिरनारपर सीडिया वनवाई थी और सोमनाथके मंदिरका जीर्णोद्धार किया था। पाटण, धंधुका आदि स्थानोंपर भी मंदिर बनवाये थे। कुमारपाल अपने प्रारंभिक जीवनमे शैवधर्मानुयायी था और __ मास-मद्यसे उसे परहेज न था। वह पशुकुमारपाल व जैनधर्म । ओंकी बलि देता था। किन्तु श्री हेमचंद्रा चार्यके उपदेशसे कुमारपालको जैनधर्ममे रुचि हो गई और उसने सन् ११५९ मे प्रगटतः जैनधर्मको ग्रहण कर लिया। कुमारपालने श्रावकके व्रतोको धारण किया था और उसने धर्मप्रचारके लिये बहु प्रयास किये थे। कुमारपालके जैनी होने पर भी उसके नागर ब्राह्मण पुरोहितोंने अपनी पुरोहिताई छोडी नहीं थी। जैनधर्मके संसर्गमे आकर कुमारपालकी बिल्कुल कायापलट होगई । वह एक बडा अहिंसक वीर हो गया। मद्य-मांसादि सब ही उससे छूट गये। उसने अहिसा धर्मका खूब प्रचार किया । अपने राज्यमे अभयदान सूचक — अमारी घोष ' उसने कई वार कराये थे । जीवहत्या करनेवालेको प्राणदण्ड नियत किया था। वैसे उसने प्राणदण्ड उठा दिया था। बनारसके राजा जयचंद्रके दरबारमे उसने उपदेशक भेजे थे कि वह अपने राज्यमें हिसाका निषेध कर दे । अपने पडोसके कमजोर राजाओंके अधिकारोंको भी १-बंगाजैस्मा० पृ० २०९-२१० । २-राइ० भा० १ पृ० ११४ । ३-अहिइ० पृ० १९० । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातमें जैनधर्म व श्वे० ग्रंथोत्पत्ति। [१३३ सुरक्षित रक्खा था। विधवाओंकी सम्पत्तिको ग्रहण करना भी उसने छोड़ दिया था। मद्यविक्री उसने क़ानूनन नाजायज ठहरा दी थी और जुआ तथा शिकार खेलनेके विरोधमे भी कानून बनाये थे। कुमारपालके इस अनुकरणीय कार्यका प्रभाव तत्कालीक अन्य राजाओं पर भी पडा था। राजपूतानेके कई राजाओंने हिंसा रोकनेके लेख खुढवाये थे, जो अबतक विद्यमान है। कुमारपालने शजयजी गिरनारजी आदिकी यात्राका एक जनसंघ निकालकर ' संघपति की उपाधि ग्रहण कीथी और अनेक जैनमंदिर बनवाये थे। औषधालय भी अनेक खुलवाये थे, जिनमें गरीबोंको मुफ्त दवा और आहार मिलता था। उसने पोषधशालायें और उपाश्रय भी बनवाए थे। जिस समय कुमारपाल राजगद्दीपर आरूढ हुये उस समय वह लिखना पढना कुछ भी नहीं जानते थे; कुमारपाल व साहित्य किंतु कपरदिन नामक राजमंत्रीके कहनेसे वृद्धि। उनने एक वर्ष में ही पढ़ना सीख लिया। अकबरके समान उन्हें विद्वानोंकी संगतिका बड़ा शौक था । वह विद्वानोंके व्याख्यान और उपदेश बड़े चावसे सुना करते थे। उनके गुरू हेमचन्द्राचार्य बड़े प्रख्यात् और विद्वान् श्वेतांवर साधु थे। उनका जन्म अहमदावादके निकट धंधुक ग्राममें सन् १०८८ में एक जैन वैश्य परिवारके मध्य हुआ था और उनका गृहस्थ दशाका नाम चङ्गदेव था। उनके विद्यागुरु देवचंद साधु थे; जिनने कैम्बे लेजाकर इनको पढ़ाया था । श्वेतांवर संप्रदायमें उनकी १-सडिजै० पृ०९-१० । २-राइ० भा० १ पृ० ११ । ३-वप्राजैस्मा० पृ० २१० व सडिजे० पृ०१०-११॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४] संक्षिप्त जैन इतिहास। वडी मान्यता है । उन्होंने गुजरातका इतिहास भी लिखा था। तथापि उनके अन्य ग्रंथ धर्म, सिद्धान्त और साहित्य विषयोंपर वडे मार्मिक है, जैसे योगशास्त्र, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, द्वाश्रय, शब्दानगासन इत्यादि । हेमचन्द्र के अतिरिक्त कुमारपालके दरवारमें रामचंद्र और उदयचंद्र नामक जैन पण्डित भी थे। रामचंद्रके काव्य ग्रन्थ प्रसिद्ध है । 'प्रबन्धशतक' ग्रन्थ उन्हींकी रचना है। किंतु राजकवि होनेका सौभाग्य कवि श्रीपालको ही प्राप्त था और सोलक नामक गवैया राजदरबारमे संगीत शास्त्रका पण्डित था। कुमारपालने इक्कीस शास्त्रभंडार अथवा पुस्तकालय स्थापित किये थे और एक 'प्रतिलिपि-विभाग' खोला था, जिसके द्वारा प्राचीन ग्रंथोकी नकल की जाती थी। कहते है कि अपनी दिग्विजयमे कुमारपाल जब सिधु सौवीर देशको विजय कर रहे थे तब सिंधुके पश्चिम कुमारपालका गार्हस्थ्य पारस्थ पद्मपुरकी राजकन्या पद्मिनीके साथ व अंतिम जीवन। उनका विवाह हुआ था। किंतु अन्यत्र उनकी महारानीका नाम भूपालदेवी लिखा मिलता है । भूपालदेवीकी कोखसे उन्हें एक कन्याका जन्म हुआ था। कुमारपालके कोई पुत्र नहीं था। इस कन्याका नाम लिल था और इसका पुत्र प्रतापमल कुमारपालका उत्तराधिकारी था। कितु प्रतापमलके अतिरिक्त कुमारपालके भतीजे अजयपालका भी १-हॉजे० पृ० २८७ । २-सडिजै०, पृ० ११-१२। ३-हिवि०, भा० ५ पृ० ८३ | ४-सडिजै०, पृ० १२ व वपालस्मा०, पृ० २०९-२१०। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरात में जैनधर्म व शे० ग्रंथोत्पत्ति । [ १३५. 49. हक़ राजगद्दी पर था । कुमारपालने अजयपालको राजसिंहासन, नहीं दिया, बल्कि हेमचंद्राचार्य आदिकी सम्मतिमे प्रतापमलको ही अपना उत्तराधिकारी नियत कर दिया । इसी समय हेमचद्राचार्यका स्वास्थ्य खराब होगया और उनका स्वर्गवास चौरासी वर्षकी अव-स्थामें सन १९७२ मे होगया ! कुमारपालके दिलको उनके स्वर्गवाससे वडा भारी धक्का लगा और है महीन के भीतर ही उनकी ऐसी शोचनीय दशा होगई कि वह चारपाईसे लग गये । और सन् १९७४ में वह भी अपने गुरुके अनुगामी होगये ! कुमारपाल एक आदर्श राजा थे । उनकी उदारता साधुओं जैसी थी और बुद्धिमत्ता वह एक अच्छे राजनीतिज्ञमे वड चढ़कर थे । वह न्यायी और परिश्रमी भी खूब थे। अपने दैनिक जीवनमे वह सादा मिजाज और मितव्ययी थे तथापि धार्मिक व्रतोको पालन करनेमे वह कट्टर थे। उनकी ' परनारीसहोदर ', ' शरणागतवज्रपञ्जर', 'जीवढाता', ' विचार- चतुर्मुख ' ' दीनोद्धारक ' 'राजर्षि' आदि उपाधियां सर्वथा, उन्हींके उपयुक्त थी । पवन | कुमारपालके पश्चात् अजयपालने राज्यपर अधिकार जमा लिया था | चालुक्य सम्राट् होनेपर उसने सोलंकी राज्यका उन लोगोंस बदला लिया था, जिन्होंने उसके विरुद्ध प्रतापमलको राज्य देनेकी सम्मति दी थी। उसने बड़ी निर्दयतासे पहले राजदरबारियोंकी जीवन लीलायें समाप्त की थी और अनेक जैन मंदिर उसने धराशायी कर दिये थे । राजमंत्री कपर दिनको पकडवाकर उसने बंदीखाने में डलवा दिया था । कवि रामचन्द्रको ताम्बेकी गरम. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६] संक्षिप्त जैन इतिहास । चद्दरपर विठलाकर प्राण रहित कर दिया था। और फिर सेनापति अम्बडको उसने ललकारा था, किन्तु धर्मात्मा वीर अम्बडने इस धर्मद्रोही राजाकी सेवा करना स्वीकार नहीं की। उनने दृढ़ता और निर्भीकतासे कहा कि इस जन्ममे मेरे देव श्री अरहंत भगवानके सिवा और कोई नहीं है। गुरु हेमचन्द्राचार्य रहे है और कुमारपाल स्वामी थे । इनके अतिरिक्त मैं किसीकी सेवा नहीं कर सक्ता । अजयपाल यह सुनते ही आग बबूला होगया । अबड और अजवपालका युद्ध हुआ और अंबड अपने धर्म और राजाके लिये उसमे वीर गतिको प्राप्त हुआ। अत्याचारी अजयपाल भी अविक दिन जीवित न रहा । तीन वर्षके भीतर ही उसके एक दरवानने उसका कतल कर दिया । अजयपालके वाढ मूलराज द्वितीय और भीम द्वितीय नामक राजा इस वंशमे और हुये थे और इनके साथ ही सन् १२४२ मे इस वंशका अन्त होगया। भीमके बाद वाघेलवंशने सन् १२१९ से १३०४ तक गुज रातपर राज्य किया था, जो सोलंकी वंशकी वाघेलवंश और ही एक शाखा थी। इस वंशका पहला राजा जैनधर्म। अर्ण कुमारपालकी माताकी वहनका पुत्र था। इसने सन् १९७० से १२०० तक अनहिलवाडासे दक्षिण पश्चिम १० मील वाघेला नामक ग्राममे राज्य किया था। इनका उत्तराधिकारी लवणप्रसाद था। जिस समय भीम द्वितीय उत्तरमे अपनी सत्ता जमानेमे व्यस्त था, उसी समय इसने घोलका और उसके आसपासके देशोंपर अधिकार जमा लिया था। १-सडिजै०, पृ० १२-१३ । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातमें जैनधर्म व श्० ग्रंथोत्पत्ति । [ १३७ लवणप्रसाद के बाद उसका पुत्र वीरधवल गुजरातका राजा हुआ और -इसने सन १२३३ मे १२३८ तक राज्य किया । इसके मंत्री और सेनापति प्रसिद्ध जैन श्रेष्ठी वस्तुपाल महान ( Vastopal the great ) और उनके भाई तेजपाल थे । वीरधवलके उपरान्त क्रमशः विशालदेव, अर्जुनदेव, सारंगदेव और कर्णदेव नामक राजा सन १३०४ तक इस वंशमे हुये और इनके बाद फिर मुसलमानोका अधिकार गुजरातपर होगया । वाघेलवंशके राजाओंकी सहानुभूति जैन धर्ममे थी । ' वस्तुपाल और तेजपाल युगलिया भाई भाई थे । उनका जन्म प्राग्वाट जातिय असराजकी पत्नी कुमारदेवीकी वस्तुपाल और कोख से सन १२०५ में हुआ था । असराज कुमारदेवीके दूसरे पति थे । कुमारदेवी अन्न तेजपाल | हिलपट्टनकी प्रसिद्ध सुन्दर और युवती विधवा थीं । एक दफे हरिभद्रसूरिका व्याख्यान सुनने वह गई थीं। वहीं असराज उनके रूपपर मुग्ध होगया और उनको बलात्कार ले भागा । आखिर कुमारदेवीने भी इसको अपना पति स्वीकार कर लिया । असराज के इनमे कई संतानें हुई । वस्तुपाल और तेजपाल के विवाह भी कुमारदेवी के सामने ही होगये थे । वस्तुपालकी पत्नी ललितादेवी मोढ़ जातिकी थी, और तेजपालकी पत्नी अनुपमा अपने गुणोंके लिये प्रसिद्ध थीं । वस्तुपाल और तेजपालका परिचय वाघेल राजा वीरधवलसे होगया । राजाने इनके गुणोंपर मुग्ध होकर इन्हें अपना मंत्री और सेनापति नियत कर लिया । वस्तुपालके मंत्रित्वकालमें धोलका के १ - वप्राजेस्मा ०, पृ० २११-२१२ । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८] संक्षिप्त जैन इतिहास। राजा और प्रजा दोनों ही संतुष्ट और सुखी थे। एक प्रत्यक्ष दर्शकने लिखा है कि 'वस्तुपालके राजप्रबन्धमे नीच मनुप्याने वृणित उपायों, द्वारा धनोपार्जन करना छोड दिया। बदमाश उसके सम्मुख पीले पड जाते थे और भले मानस खूब फलते फूलने थे। सव ही अपने कार्योको बड़ी नेकनीयती और ईमानदारीसे करते थे। वस्तुपालने लुटेरोंका अन्त कर दिया और दूधकी दुकानोके लिये चबूतरे वनवा दिये । पुरानी इमारतोंका उनन जीर्णोद्धार कराया, पेड जमवाये, कुये खुदवाये, बगीच लगवाये और नगरको फिरसे बनवाया। सब ही जातिपातिके लोगोंके साथ उसने समानताका व्यवहार किया।" यद्यपि। वह स्वयं जैन धर्मानुयायी थे, किन्तु उन्होंने मुसलमानोंके लिये मसजितें भी बनवाई थीं। तानकी मुल्ला मक्काका जयारतको जाते हुये धोलकासे निकला । वीरधवलकी इच्छा थी कि उसे गिरफ्तार कर लिया जाय, किन्तु वस्तुपाल राजासे सहमत नहीं हुए। उन्होंने मुल्लाकी अच्छी आवभगत की। फल इसका यह हुआ कि दिल्लीके सुलतान और राजा वीरधवलके बीच मैत्रीभाव बढ गया और दोनोंमें संधि होगई । वस्तुपालका आदर भी सुलतानकी दृष्टिमे बढ़ गया । वस्तुपाल और तेजपाल केवल चतुर राजनीतिज्ञ ही नहीं थे, वे वीर मेनापति और सच्चे धर्मात्मा भी थे । इन्होंने अपने राजाके लिये कई लडाइया लडी थीं । कैम्वेके सैदको उनने परास्त किया था । दिल्लीके मुहम्मद गोरी सुलतान मुइज्जुद्दीन बहरामशाहपर इन्होंने विजय पाई थी और गोधाके सरदार घुघुलको उनने हत्साहस किया १-बम्बई गजेटियर, २-१-१९९ । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गुजरातमें जैनधर्म व श्वे० ग्रन्थोत्पत्ति। [१३९ था। उनके इन वीरोचित कार्योका बखान वई कवियों और भाटोने किया है । जैनधर्मके लिये भी इन दोनों भाइयोने जीतोड़ परिश्रम किया था। सन् १२२० में शत्रुजय और गिरनारजीके लिये संघ निकाल कर उनने 'संधपति' की पदवी प्राप्त की थी। कहते है कि इस संघमे इक्कीस हजार श्वेतांबर जैन और तीनसौ दिगम्बर जैनी .. सम्मिलित थे। सन् १२२८ में जगचंन्द्र नामक एक श्वेताम्बराचार्यने तपा गच्छकी स्थापनाकी थी। वस्तुपालने इस आबुके जैनपंदिर । गच्छकी उन्नतिमें बड़ी सहायता की । इन दोनों भाइयोंने मंदिर, पौषधशालायें, उपाश्रय आदि बनवाये थे । आबूपर्वत पर उन्होने बडा बढिया मंदिर वनवाया था, जिसको सोभनदेव नामक प्रसिद्ध कारीगरने बनाया था। यह मंदिर विमलगाहके मंदिरके सन्निकट है और सन् १२३० में बनकर तैयार हुआ था। यह अपने भास्कर कार्यके लिये भुवनविख्यात् और अद्वितीय है। वस्तुपालने गिरनार और शत्रुजय पर भी जैनमंदिर बनवाये थे। वस्तुपाल एक अच्छे कवि भी थे। उनका उपनाम 'वसन्तपाल'' था। उनकी रचनाओंकी प्रशंसा उस समय वस्तुपालका अतिम के अच्छे २ कवियोंने. कीथीन 'नरनारायणाजीवन। नन्द' उनकी उत्तम रचना है। वस्तुपालके निकट अन्य कवियोने भी आश्रय पाया था। १-सडिजै०, पृ० ४७-६० । २-हिस्ट्री ऑफ इन्डियन एण्ड ईस्टर्न आर्किटेक्चर भा० २ पृ०३६ । - Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०] संक्षिप्त जैन इतिहास । सन् १२३८ ई० मे राजा वीरधवलकी मृत्यु होगई । उस घटनामे राज्य भरमे हाहाकार मच गया । अनेक प्रजाजन राजाके साथ ही अपनी जीवनलीला समाप्त करनेको तत्पर हो गये; किन्तु तेजपालके प्रबन्धसे उनकी रक्षा हुई। वीर धवलके वाढ राज्याधिकार पानेक लिये उसके वीरम् और वीसल नामक दोनों पुत्रोंमे अगडा हुआ। वस्तुपालने वीसलका पक्ष लिया और वही राजा हुआ । वीरम जालोर अपने स्वसुरके पास भाग गया, जहा वह योग्वमे माग गया था । वीसलदेवके राज्यकालमे ही दोनों भाइयोंकी अवनति हुई । कहते है कि वीसलके चाचा सिहने एक जैनसाधुका अपमान किया था। वस्तुपाल इस धर्म विद्रोहको सहन न कर सके। उन्होंने मिहकी उंगली कटवाली। वीसलदेवने वस्तुपालके इस दुस्साहसका पुरस्कार प्राणदण्ड दिया । किन्तु इस समय कविवर सोमेश्वरने बीचमे पड कर वस्तुपालकी रक्षा की थी। इस घटनाके कुछ दिनों ही वाद वस्तु. पालका स्वास्थ्य खराव हुआ और वह गर्जेजयकी यात्राको जाते हुए अकेवलिय ग्राममे स्वर्ग लोकके वासी हुये । नेपालके पुत्राने इस स्थानपर एक भव्य मंदिर बनवा दिया था। यह सन् १२९१ की बात है और इसके करीव १० वर्ष बाद तेजपाल भी अपने भाईके साथी बने । वस्तुपालको उस समय लोग राजनीति गुरु कौटिल्यमे कम नहीं मानते थे। उपरोक्त वर्णनसे यह स्पष्ट है कि गुजरातमे जैनधर्मकी प्रधानता प्राचीनकालसे रही है । तथापि सोलंकी राजाओंके राज्यकालमे -सडिजै०, पृ० ५१-६९ । २-इहिको०, भा० १ पृ० ७८६ । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरात में जैनधर्म व श्व० ग्रंथोत्पत्ति । [ १४१ 1 श्वेताम्बर जैनधर्मका उसका अभ्युदय विशेष हुआ था । श्वेतावर अभ्युदय । जैनाचार्योंने इस समय जैनधर्मको दिगन्तव्यापी इ. बनाने में कुछ उठा न रक्खा था। श्री हरिभद्रसूरि, जिनेश्वरसूरि, हेमचन्द्र आदि प्रख्यात आचार्य थे । जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागर आचार्यने श्वेतांबर यतियोका तीव्र विरोध किया था। उनके उद्योगसे खूब सुधार हुआ था तथा उन्होंने श्वेतावर साहित्यका एक नवीन मार्ग में प्रवेश कराया था । श्वेताम्बर अर्वाचीन साहित्यके वे कथे । पहिले श्वेतांबरों का केवल आगम ग्रन्थ साहित्य था, परन्तु ३-४ शताब्दियों में न्याय, व्याकरण, काव्य आदि विपयोंके गः ग्रंथ लिखे गये थे । ई० १०-११ वीं शताब्दिमें गुजरात देशमें अधिकांशत देवनागरी लिपिका प्रचार था। ईसवी पूर्वकी मागधिलिपिका विकास होते २ नागरीलिपिने अपना रूप संभाल लिया था । जैनोंद्वारा इस लिपिका वहु प्रचार हुआ और प्राचीन गुर्जर साहित्य भी उन्हींका ऋणी है। जैनोंके 'सप्तक्षेत्रीरास ' 'गौतमरास' आदि ग्रंथ गुजरातीके प्राचीन साहित्यके नमूने है । इस प्राचीनकालसे जैनोंने गुजराती साहित्यकी अच्छी सेवा की थी। जैनाचार्योने बौद्धोंके न्यायग्रंथोंपर टिप्पण भी लिखे थे | किन्तु कुमारपालके उपरान्त गुजरातमे जैनोंका ह्रास होना शुरू हो गया । अजयपाल के विद्रोहसे उसका सूत्रपात हुआ सही, किन्तु मुसलमानोंके आक्रमणसे उसका सत्यानाश हुआ। हजारों जैनमंदिर मसजिद बना लिये गये । जैनलोग अपनी प्राणरक्षामें धर्म प्रभावनाके कार्योंको 3 · " १ - जैहि० ३ - पूर्व०, पृ० १४ । भा० १३ पृ० ४१७ । २ - गुसापरि०, पृ० ७२ । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२] संक्षिप्त जैन इतिहास । सुचारु रीतिम न चला सके। कैन् आदि स्थानोके जैनमंदिगको नष्ट करके मुसलमानोंने उनका मनमाने ढंगमे उपयोग किया। यही कारण है कि जैनशिल्यका प्रभाव मुसलमानी शिल्पपर पड़ा हुआ मिलता है।' इस कालमे जैनोका सम्पर्क हिन्दु.मे विशेष हो चला था इस कारण उनके रीतिरिवाजोंका प्रभाव भी उन पर पड़ने लगा था। गुजरातमे दिगम्बर जैन धर्मका अस्तित्व तो स्वयं भगवान ___महावीरके समयमे था। मौर्यकालमे भी दिगम्बर जैनधर्मका वह यहा पर विद्यमान था। गिरनारकी उत्कर्प। प्राचीन गुफायें इसी बातकी द्योतक है। उपगन्त शक और छत्रपगजाओंके समयमे -भी दिगम्बर जैनधर्म यहा प्रधान रहा था। नहपान, रुद्रसिह आदि छत्रसगजा इमी धर्मके अनुयायी थे। राष्ट्रकूट और चालुक्य राज्य कालमे भी दिगम्बर जैनोंकी महत्ता गुजरातमे कम नहीं हुई थी। ईडर और सूरत दिगम्बर जैनधर्मके मुग्व्य केन्द्र स्थान थे । अंकलेश्वर दिगम्बर जैनोका पवित्र तीर्थ स्थान है, जहा जिनवाणी सर्व प्रथम लिपिवद्ध हुई थी। चालुक्य सिद्धराज जयसिहके दरवारमे दिगम्बर और श्वेताम्बरोंका वान होना, इस वातका द्योतक है कि तब तक दिगम्बर जैनोंका महत्व यहा अवश्य ही इतना काफी था कि वह राजाका ध्यान भी अपनी ओर आकर्षित कर सके थे। किन्तु वादके लिये कांटक देशसे एक दिगम्बराचार्यको बुलाना प्रगट करता १-चार वर्ष ५ पृ० ३०१ । २-हिवि० भा०२ पृ० २९२ । ३-जेहि० भा० ६ अक ११-१२ पृ० २०॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातमें जैनधम व श्वे० ग्रंथोत्पत्ति । [ १४३ है कि वहां दिगम्बर जैनोंमें दिग्गज विद्वानोंका प्रायः अभाव था । 'नेमिनिर्वाण काव्य' और 'वाग्भट्टालंकार' के कर्ता सोमश्रेष्टीके पुत्र . - वाग्भट्ट तो महाराज जयसिह के प्रधान मंत्रियोमे से थे । ' भक्तामर कथा' में वर्णित राजा प्रजापाल यहीं जयसिह प्रतीत होने है। तथा इस कथामे राजा कुमारपाल और उसके मंत्री आवडका भी उल्लेख है । ' २ I 3 इन कथाओंसे तत्कालीन जैनधर्मका महत्व प्रगट होता है । अंकलेश्वरके राजा जयसेन मुनि गुणभूषणको आहारदान देकर पुण्य संचय करते थे । दिगम्बर जैनमुनि देशभर मे विचरते हुये जैन - धर्मका उद्योत करते थे । गुजरातके देवपुर नामक नगर में एक मुनि जीवनन्दी संघ सहित पहुंचे थे । वहा जैनोका नामनिशान नहीं था । वह शैवमंदिरमे गये और लोगोंको उपदेश देकर जैनी बना लिया और इस प्रकार सब संघको आहारदान पानेकी सुविधा कर दी। इस घटना तब तक जैनधर्म के उदाररूपका पता चलता है, किन्तु उपरान्त कालमें जैनधर्मकी यह उड़ाग्ता लोगोने भुलादी । इस प्रकार गुजरातमें दिगम्बर जैविक अतिव भी प्रभावशाली रहा है। उसका प्रभाव, मालूम होना, श्वेताम्बरों पर भी पडा था; यही कारण है कि संवत् ७०५ से श्रीकलश नामक एक श्वेताम्ब - राचार्यने कल्याण नामक स्थान पर यापनीय संघकी स्थापना की थी; जिसमें मुनियोंको नग्न रहना दिगम्बरोकी भाति आवश्यक ठहराया था । स्त्री मुक्ति आदि मान्यतायें इस संवमें श्वेतांबरों के समान थीं x १ - जैप्रा० पृ० २४० | २ भक्तामर कथा, काव्य २९ । ३ - जैप्रा० पृ० २४० | x जेहि० भा० १३ पृ० २५० । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] संक्षिप्त जैन इतिहास । (७) उत्तरी भारतले अन्य राज ब जैनधर्म हर्षके बाद उत्तर भारतमे कोई ऐसा शक्तिशाली राजा नहीं था जो उसके विस्तृत साम्राज्यका समुचित राजपूत और प्रबन्ध करता। इसका परिणाम यह हुआ जैनधर्म । कि साम्राज्य छिन्नभिन्न हो गया और अनेक छोटे २ राज्य बन गये। इनमेमे अधिकाग राजपूतोके अधिकारमे थे। 'राजवृत' गन्द गजपुत्रका अपभ्रंश है और यह राज्य सत्ताधिकारी क्षत्रियोंका द्योतक है। कहा जाता है कि संभवत राजपूत विशुद्ध आर्य क्षत्रियोंकी संतान नहीं है। 'जैसे अन्य जातिया मिश्रित है, उसी प्रकार राजपूत जाति भी अनेक जातियोंके मिश्रणसे बनी है। इन्हीं लोगोकी प्रधानता उत्तर भारतमे मुसलमानोंके आक्रमण तक रही थी। इन लोगोंने जैनधर्मको भी अपनाया था। जैनोके एक प्राचीन गुटकेमे इन चौहान. पडिहार आदि राजपूत क्षत्रियोंको जैनधर्मभुक्त और उनके कुलदेवता चक्रवरा, अम्बा आदि शासन देविया प्रगट की है। गुप्त राजाओंके समयमे कन्नौज वडी उन्नत ढगामे था। 'नवीं शताब्दिमे फिर यहांका राज्य उत्तरीभारतके कन्नौजके राजा भोज राज्योमे सर्व प्रधान हो गया। इस समय परिहार। भोज परिहार (८४०-९० ई०) वहांका राजा था। इससे पहले सन् ७१२ में १-भाई०, पृ० १०६ । २-वीर०, वर्ष ३ पृ. ४७२ । ३-भाई०, पृ० १०८-१०९। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। [१४५ __ अरबके मुसलमानोने भारत पर हमला करके सिन्ध प्रातको जीत. लिया था। वहांका हिन्दूराना और गनी रणक्षेत्रमे वीरगतिको प्राप्त हुये थे। किन्तु मुसलमानोके इस हमलेका अधिक प्रभाव भारतपर नहीं पडा था; बल्कि मुसलमानोंने भारतीय सभ्यतामे बहुत कुछज्योतिष और वैद्यक आदि सीग्या था । भोज परिहार समस्त उत्तरी भारतमे-पश्चिममें जूनागढ़ तक और पूर्वमे हजारीबाग तक राज्य करते थे: परंतु उनके बाद उनके उत्तराधिकारी इस राज्यको संभाल न सके । तथापि महमूद गजनवीका साथ देने आदि कारणोंसे __ यह अपना महत्व खो बैंठ।' श्री वप्पमूरि नामक जैनाचार्यने संभवतः - इसी राजा भोजके दरवारमें आदर प्राप्त किया था। इन आचार्यने राजपूतानेसे लेकर बङ्गाल तक विचरण करके जैन धर्मका प्रचार किया था । और राजाओंको जैनधर्मका भक्त बनाया था । नेपालके राजाओंको भी संभवत. उन्होंने ही जैनधर्मप्रेमी बनाया था। भोजके पूर्वज वस्त्सराज प्रतिहारका भी जैनधर्मके प्रति सद्भाव था। उन्होंने मन् ७८४ ई० में ओसिया ग्राममे एक जैनमंदिर बनवाया था। किन्तु प्रतिहार (परिहार) वंशके वाढ सन् १०९० ई० के लगभग गहग्वार (राठौर ) राजपूतोका अधिकार कन्नौज पर हो गया था। इसी वंशमे राजा जयचन्द्र हुआ था, जिसे महम्मदगोरीने लडाईमें हराया था। आजकलके संयुक्त प्रान्तमे भी उस समय कई राज्य थे और १-माइ०, पृ० १०८-१०९। २-दिगम्बर जैन, वर्ष २३ पृ० ८९ | ४-एनुअल रिपोर्ट ऑफ आर्क० सर्वे इडिया, १९०६-७ १० २०९। १० Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६] मंक्षिप्त जैन इतिहाम। उनमेमे उडे एक जैनधर्मानुयायी थे। श्रावस्ती. विविध गजवंगामें मथुग अमाइन्ड़ा. देवगढ़ आदि म्यान जैनधर्म । जैनयम नुन्थ्य न्द्र थे। गना कीनि न्मांक मंत्री वत्मराजका एक जैनलेख मन १०२७ का राजगटीके पास मिल है।' ११ वीं गतानि । थानीने जनधर्म बहुत उन्नति पर थ । वहा पर जैन धमांनुयायी गजवंग एक दीवालसे राज्य कर रहा था । इस वंगका सर्व अंतिम राजा मुहद्वज नामक था। हाथिली नामक ग्राममें उसने मैयद सालारको लबाडमे तलवारके घाट उतरा था। मुहदृजकी इस विजयमे करीब १० वर्ष पीछे इस जैनवंशका अन्त हुआ था। नहीं है कि एक दं गजा प्रामान्तरसे लोट नहीं पाया कि न्यास्त हो चला । गत्रि भोजन निषिद्ध जानकर रानी बड़ी छटपटाई परंतु परम शीलवती राजाके छोटे भाईकी पत्नीक नीलप्रभावमे सूर्यास्त हात २ वच गया और राजाने सानन्द भोजन किया। किन्तु बाडमें गजाकी नियत्त अपने छोटे भाईकी इस साबी बी पर टल गई और उसीके गापमे इस वंशका अन्त हुआ था। श्रावस्तीक अतिरिक्त अयोध्या राजा मदीगल और सगरपुरके राजा सागर भी जैन धगंनुगयी थे। ईसवी चारहवीं गतान्जिमे फैनाबादमीगतद नानक बंगना राज्य श । इम वंशका मुख्य राजा तिलकचंद्र जैनयमानुयायी थ जिनका युद्ध नुहन्मद गजनवीक सिपहसालारसे हुआ थ। बनारसने राजा भानसेन मी जैनी थे। - स्मा०, पृ० ११ । २-संप्रान्ग०, पृ० ६५ ३-जैम०, पृ. २४०१४-समाजस्म०, पृ० ७०। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। [१४७ वह अन्तमे पिहिताश्रव नामक जैनमुनि हुये थे।' सं० १२७८में बनारसके राजासे श्वेताम्बर जैनाचार्य अभयदेवरिने 'वादीसिह का विरुद प्राप्त किया था। इसी समयके लगभग मथुरामे ग्णकेतु नामक राजा जैनधर्मानुयायी था। वह अपने भाई गुणवर्मा सहित नित्य जिनेन्द्रपूजन किया करता था। अन्तमे गुणवर्माको गज्य देकर वह जैनमुनि हो गया था। वर्मान्त नामवाले राजाओका राज्य मन्दमोर (ग्वालियर ) और गंगधारमे गुप्तकालमे था । इनमेंसे एक नग्वर्मा राजाका उल्लेख जैनोंकी द्वादशी व्रत कथामे भी है। संभवत इसी वंशका अधिकार उपरात मथुरामें हो गया होगा और गुणवर्मा इन्हींका वंशज हो सक्ता है । मथुरामें १२-१३ वीं गताब्दिकी जैनमूर्तिया मिली है। उनमे भी तब तक वहा पर जैनधर्मका प्राबल्य प्रगट होता है। सूरीपुर ( जिला आगरा ) का राजा जितगत्रु भी जैनी था, जो बड़े २ विद्वानोंका आदर करता था । अन्तमें वह जैनमुनि हो गया था। और शातिकीर्तिके नामसे प्रसिद्ध हुआ था। जमनाके किनारे पर स्थित असाईग्वेड़ा ग्राममें ग्यारहवीं शताब्दि तककी जैन प्रतिमाय अगणित मिलती है | जिला इटावा और आगरेके निकटवर्ती ग्रामोमें जैनध्वंशविशेषोंका मिलना, यहा पर जैनोंकी प्रधानताका द्योतक है । सचमुख भदावर प्रान्नमें हस्तिकातनगर जैनोंका मुख्य केन्द्र था। यहा विक्रमकी ११ वीं शताब्दिमे १६ वीं शता. १-जैप्रा० पृ० २९२ । २-डिजेबा०, पृ०९।३ जे२०, पृ० २४२। ४-राइ०, पृ० १२५-१२६ । ५-भपा०, पृ० १९८17 ६-जैप्र०, पृ० २४१ । - - Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८] संक्षिप्त जैन इतिहास । न्दि तक जैनोंका प्राबल्य अधिक था । यहाके निवामियोंने ५२ जिनप्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा कराई थी। सं० ११६८ मे यहा पर चौहान राजा उदयराजदेवका राज्य था।' अहिच्छत्र (बली ) का प्रसिद्ध राजा मयूरध्वज भी जैनी था। संभव है कि इस राजाका सम्बन्ध श्रावस्तीके ध्वञ् नामान्तक राजाओंके जैनवंशसे है । इस देशमे जैनधर्म उन्नति पर था। अहिच्छत्र ई० सन् २००४ तक बसा हुआ था। कहते है कि सन् २७५ ई० मे ग्वालियरकी स्थापना राजा सूर्यसेन द्वाग हुई थी । भोजदेव परिहार ग्वालियरके राजा (८८२ ई० ) के कनिष्ठ पौत्र विनायक और जैनधर्म। पालके वाढ कच्छवाहा वंशी वदामा वालि । यरपर अधिकार करके नवराज वंशके प्रतिछाता हुए थे। यहां एक जैनमूर्तिके पवित्र अङ्गमे उत्कीर्ण वज्रनामाकी शिलालिपिसे प्रगट है कि वह लक्ष्मणके पुत्र थे और उन्होंने ही पहले गोपगिरी दुर्गमे जयढक्का बजाया था । सास बहूके दिगम्बर जैन मंदिरमे स० ११५० व ११६० के उत्कीर्ण इस वंशके राजा महीपालके दो शिलालेखोंसे जाना जाता है कि वज्रनामाके पुत्र मङ्गल थे और उनके वंगज क्रमा कीर्तिपाल, भुवनपाल, देवपाल, पद्मपाल, सूर्यपाल, और महीपाल थे । इन सबने ग्वालियरमे राज्य किया। उपरांत मधसूदन कच्छावाहाके हाथसे ग्वालियर निकलकर परिहार वंशी क्षत्रियोंके अधिकारमें पहुंच गया था। राजा कीर्तिसिंहके समयमें ग्वालियरमें खूब शिल्पकार्य हुआथा। जैन शिल्प १-प्राजैलेसं०, भा० १ पृ०९९ । २-संपाजैस्मा०, पृ० ८१॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। [१४९ अपने नैपुण्यके लिये प्रसिद्ध है। इस समय ग्वालियरमें जैनोंकी विशेष उन्नति हुई थी। दि०जैन विद्वानोंकी मान्यता भी यहा खूब थी। वि० सं० १०१३ में माधवके पुत्र महेन्द्रचंद्रने ग्वालियरके निकट मुहनिया नामक स्थानपर एक जैन मृर्तिकी प्रतिष्ठा कराई थी। महंन्द्रचन्द्र संभवतः ग्वालियरका एक राजा था । ( जर्नल आब ऐ० सो० वंगाल, भा० ३१ पृ० ३९०.) सुहनिया उस समय जैनोंका केन्द्र था। ____ मध्यभारतके बुन्देलखण्ड प्रांतमें चन्देल राजपूतोंका राज्य था। आठवीं शताब्दिमें यह देश जैजाकभुक्ति कहमध्य भारतमें जैनधर्म । लाता था । चंदेलवंशका मूल पुरुष नंनुक चन्देला था ; जिसने एक परिहार सरदारको पराजित करके बुन्देलखण्डमें अपना अधिकार जमाया था। चन्देलोंकी राजधानी महोबा थी। चंदेरी (ग्वालियर ) में भी चन्देलराजाओंने सन् ७००से ११८४ तक राज्य किया था। चन्देरीको चन्देलोंने ही वसाया था। पहाड़ी पर राजमहल है, जिसके सन्निकट अनेक जैनमूर्तियां मिलती है। महोबाके आसपास भी जैनमूर्तियोंकी बाहुल्यता है और वह चन्देल राजा परमाल द्वारा प्रतिष्ठित बताई जाती है । इन बातोंसे चन्देलवंशमें जैनधर्मकी मान्यता प्रगट होती है। सन् १००० ई०में यह राज्य उन्नतिके शिखर पर था। इस वंशमें सबसे प्रसिद्ध राजा धन (९५०-९९) और कीर्तिवर्मा (१०४९-११०० ई०) हुये थे। राजा धङ्कके राजत्वकालमें १-हिवि०, भा० ५ पृ० ७४१ । २-माई०, प्र० ११० । ३-मप्राजैस्मा०, पृ० ६३ । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०] संक्षिप्त जैन इतिहास। जैनधर्म उन्नति पर था। खुजराहोमे इन्हीं राजासे आदर प्राप्त सूर्यवंशी पाहिलने सन् ९५४ में जिननाथके मंदिरको अनेक उद्यान वान किये थे।' सं० १२१५ को गृहपतिकुलंक पाहिलके पुत्र दंडने एक जैन-विम्बकी प्रतिष्ठा कराई थी। घटाईका प्रसिद्ध मंदिर भी इसी समयका बना हुआ है। यहांके नं० २५ वाले मंदिरमें राजपुत्र श्री जयसिहका उल्लेख है। ऐसे ही अन्य लोगोंने भी अनेक जैनमंदिर वनवाये थे। सन् १२०३में चन्देलोको मुसलमानोंने जीत लिया था। दसवीं शताब्दिके लगभग बहाड प्रान्तमें ईल नामक राजा प्रसिद्ध हो गया है। यह जैनी था । इसने राजा ईल ओर सन् १०००में अपने नामसे ईलिचपुर (ईलेजैनधर्मका अभ्युदय। शपुर) नगर वसाया था। मुसलमानोंके हाथो वह मारागया था। 'भक्तामरकथा' (का०२०) से प्रगट है कि नागपुरमें भी लगभग इसी समय नाभिराज नामक एक जैनधर्मानुयायी राजा था।' और 'प्रभावक चरित्र ' से प्रगट है कि सं० ११७४ में नागपुरका राजा आल्हादन नामका था, जो जैनाचार्य मुनिचन्द्रका शिप्य था ।* किन्तु बहाड़ प्रान्तमें विक्रमकी आठवीं शताब्दिसे दसवीं शताब्दि तक क्रमशः चालुक्य और राष्ट्रकूट राजाओका राज्य रहा था। ये दोनोंही राजवंशजैनधर्मके पोषक थे; इस कारण उक्तकालमें जैनधर्मका यहां खूव प्रचार रहा था। १-मप्रामस्मा०, पृ० ११६-११७ । २-हिवि०, भा० ५ पृ० .६८० । ३-संप्राजैस्मा०, पृ० ४३। ४-मप्राजैस्मा०, पृ० १४ भूमिका | ५-जैप्र०, पृ० २४० । *-डिजैवा० पृ० ४२ । ६-मप्राजैस्मा०, पृ० १४ भूमिका। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A N उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म । [१५१ मध्यप्रान्तका सबसे बडा राजवंश कलचूरियोंका था, जिनका प्राबल्य ८ वीं व ९वीं शताब्दिमे खूब रहा मध्यप्रांतमें जैनधर्म । था। एक समय कलचूरि राज्य बंगालसे गुजरात और बनारससे कर्णाटक तक फैला हुआ था और इस वंशके राजाओंका प्रेम जैन धर्मसे विशेप था । जैन धर्मानुयायी राष्ट्रकूटवंशी राजाओके साथ इनके विवाह सम्बन्ध हुये थे। कलचूरियोकी राजधानी त्रिपुरी और रतनपुर थे। इन स्थानोंमें अनेक जैन मूर्तियां और खंडहर मिलत है। वडगांव (जबलपुर) के जैन शिलालेखोंमे कलचूरी राजा कर्णदेवका उल्लेख है; जिनका युद्ध कीर्तिवर्मन चन्देलेसे हुआ था। देवपुरसे प्राप्त एक जैन मूर्तिपर भी सं० ००७ का कलचूरी बंगका लेख है। लखनादोनके किलेसे एक भन्न शिलालेख १० वीं गताब्दिका मिला है, जिससे प्रकट है कि विक्रमसेनने जैन तीर्थकरकी भक्तिमे मंदिर बनवाया था। कलचरिवंगके बड़े प्रतापी नरेश विजल (विजयसिहदेव सन् १९८०)के पक्के जैन धर्मानुयायी होनेके प्रमाण उपलब्ध. है; किन्तु इसी राजाके समयसे कलचूरि राजदरवारमें जैनियोंका जोर घट गया और शैवधर्मका प्रावल्य बढ़ा था। जैनधर्म राजाश्रयविहीन क्षीण अवश्य होगया, पर उसका सर्वथा लोप न होसका। स्वयं कलचूरि वंगमे जैन धर्मका प्रभाव बना ही रहा। मध्यप्रान्तमें जो जैन कलवार सहस्रोंकी संख्यामे मिलते है, वे इन्हीं कलचूरियोंकी संतान है। १-पूर्व०, पृ० ८-१० । २-मप्राजैस्मा०, पृ० १६ । ३-पूर्व० पृ० २३ | ४-पूर्व० भूमिका पृ० ११-१२ । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२] संक्षिप्त जैन इतिहास । नवीं और दशवीं शताब्दिमे मध्यभारतमे भी जैनोंकी विशेष उन्नति और कीर्ति फैली हुई थी। धागके धाराका राजवंश और नरेगोन जैन धर्मको खूब अपनाया था । यह जैन धर्म। परमारवंगके राजा थे। इस वंशकी नींव उपेन्द्र नामक सरदारने ०.वीं शताब्दिमे डाली थी। परमार राजाओं द्वारा सम्कृत माहित्यकी विशेष उन्ननि हुई थी। इसी वंगमे सुप्रसिद्ध राजा भोज हुआ था। वह सन् १०१८ ई०मे धारानगरीकी गद्दीपर बैठा था। धारा उस समय मालवाकी राजधानी थी, उसने बहुतमे राज्याको जीता था। भाज बडा विद्याप्रेमी था, कहते है कि ज्योतिष शास्त्र, वास्तुविद्या. पद्यरचना आदि विपयोंपर उसने कई ग्रन्थ लिखे है। उसने धारामे एक विद्यापीठ स्थापित किया था और उसमे गिलाओपर काव्य. व्याकरण तथा ज्योतिपके ग्रन्थ खुदवाकर रक्वे थे। इस विद्यापीठको तोडकर पीछेसे मुसलमानोने मसजिद बनाई।" व्याकरणमे जैन ग्रन्थ 'कातन्त्र' के अनेक सूत्र धाराकी भोजशालामे सर्पवद्ध उकेरे हुये है। भोज एक बडा आदर्श राजा था. उसने अनेक जैन और अजैन विद्वानोका सम्मान किया था। वह सन् १०६० ई० तक राज्य करता रहा था। भोजके वंशज १३ वीं शताब्दि ई० तक मालवामे राज्य करते रहे, परन्तु अन्तमे मुसलमानोने उन्हें भी पराजित किया था। ___ मालवाके परमारोंमे मुंजनरेश भी एक पराक्रमी और विद्वान् १-भाइ० पृ० १०९। २-महिइ०, पृ० १६ । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। [१५३ ___ राजा था। वह विद्वानोंका बहुत बड़ा आश्र• राजा मुंज और यदाता था। उसके दरबारमें धनपाल, पद्मजैन विद्वान् । गुप्त, धनंजय, धनिक, हलायुध आदि अनेक विद्वान् थे।' मुंजनरेशसे जैनाचार्य महासेनसरिने विशेष सम्मान पाया था। मुंजके उत्तराधिकारी सिंधुराजके एक महासामन्तके अनुरोधसे उनने 'प्रद्युम्नचरित' काव्यकी रचना की थी। मुंजके दरवारी कवि धनपाल काश्यपगोत्री ब्राह्मण उज्जैनके निवासी थे। वह अच्छे विद्वान थे और जैनोंका उनसे विशेष 'समागम रहा था। धनपालका छोटा भाई जैन होगया था, परन्तु उन्हें जैनोंसे घृणा थी। इसी कारण वह जैनोंके केन्द्र उजैनको छोड़ कर धारामें जारहे, वहां उन्होंने वि० सं० १०२९ में 'पाइलच्छी 'नाममाला' नामक प्राकृत कोष अपनी छोटी बहन सुन्दरीके लिए ' बनाया था। वह भी विदुषी थी और कविता करती थी। अन्ततः धनपाल अपने भाई शोभनके उपदेशसे कट्टर जैन हो गया था। उसने जीवहिंसा रोकनेके लिये राजा भोजको उपदेश दिया था। ' तथा जैन हो जाने पर 'तिलकमञ्जरी' की रचना की थी। 'ऋषम पञ्चाशिका' भी इसी कविकी बनाई हुई है। कवि धनञ्जयने 'दशरूपक' नामका ग्रंथ बनवाया था। श्री शुभचन्द्राचार्य भी राजा मुंजके समयमें हुये थे और यह राजपुत्र थे। इन्होंने 'ज्ञानावर्णव' ग्रंथकी रचना की थी। कहते हैं कि कवि भृर्तृहरि इन्हीके भाई थे। .' १-भाप्राण०,, भा० १ पृ० १०० । २-भप्राजैस्मा० भूमिका पृ०.२० । ३-भाप्रा०, भा० १ पृ० १०३-१०४ । ४-मजैइ०, • पृ० ५४.५५। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १५४] संक्षिप्त जैन इतिहास। राजा मुंजके समयमे ही प्रसिद्ध दिगम्बर जैनाचार्य श्री अमि तगनिजी हुये थे। यह माथुरसंघीय माधवअमितगति आचार्य । सेनके शिष्य थे। कहाँ हैं कि वि० सं० १९२५ के कुछ पहिले इनका जन्म हुआ था। आचार्यवर्य अमितगनि बढे भारी विद्वान और कवि थे। इनकी असाधारण विद्वत्ताका परिचय पानेको इनके ग्रंथोंका मनन करना चाहिए । रचना सरल और सुखसाव होनेपर भी वर्डी गंभीर और मधुर है। संस्कृत भाषापर इनका अच्छा अधिकार था। इन्होंने अपने 'धर्मपरीक्षा' नामक ग्रंथको केवल दो महीनेमे लिखकर समाप्त किया था, जिसे पढ़कर लोग मुग्ध हो जाते है । सन् २०१३ ई० मे यह ग्रंथ पूर्ण हुआ था। इसके पहले सन् ९९३मे आचार्यवर्यने 'सुभाषित रत्नसंदोह' नामक ग्रंथ रचा था। इनके अतिरिक्त उन्होंने (१) श्रावकाचार (२) भावनाद्वात्रिंगति. (३) पचसंग्रह. (४) जम्बृद्वीप प्रज्ञप्ति. (५) चन्द्र प्रज्ञप्ति. (६) सार्द्धद्वयद्वीप प्रज्ञप्ति. (७) व्याख्याप्रज्ञप्ति. (८) योगसार प्रभृति ग्रंथ रचे थे। 'पंचसंग्रह' नामक ग्रंथको आपने राजा भोजके पिता सिधुराजके समयमे लिखा था। उसकी प्रशस्तिमे आचार्यवर्य अपनेको गौतम गणधरके समान लिखते है। उनके अद्वितीय ग्रंथोंको प्रकाशमें लानेकी आवश्यक्ता है। श्री महाकवि सामदेवसूरि इन आचार्यकै समकालीन थे. जिन्होंने यगस्तिलकचम्पू. नीतिवाक्यामृत आदि ग्रंथ रचे थे। अमितगतिजीके गुरु माधवसेनके सहपाठी प्रसिद्ध विद्वान आचार्य देवसेन थे: जिन्होंने १-हिवि०, भा० २ पृ० ६४ । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। [१५५ सं० ९०० मे धारानगरके पार्श्वनाथ चैत्यालयमे 'दर्शनसार' ग्रंथकी रचना की थी + राजा भोजका युद्ध गुजरातके चालुक्य राजा भीमसे हुआ था. परन्तु अन्तमे इन दोनोके बीच सन्धि हो राजा भोज और गई थी। राजा भोजके जैन सेनापति कुलजैनधर्म। चन्द्रने अनहिलवाडामे भीमको हरा दिया था। राजा भोजके दरबार में जैनोका सम्मान विशेष था; यद्यपि वह स्वयं शैव था। वह जैनो और हिन्दुओके शालार्थका बड़ा अनुरागी था।' श्रवणबेलगोलसे प्राप्त संभवतः सन्, १११५ ई०के लेखमे प्रगट है कि भोजने प्रभाचन्द्र जैनाचार्यके पैर पूजे थे। दूबकुण्डवाले शिलालेखसे प्रगट है कि 'भोजके सामने सभामें शान्तिसेन नामक जैनने सैकडों विद्वानोको हराया था। क्यो कि उन्होंने उसके पहले अम्बरसेन आदि जैन विद्वानोंका सामना किया था।' भोजकी सभामे कालिदास, वररुचि, सुबन्धु, बाण, अमर, रामदेव, हरिवंश. गडर, कलिङ्ग, कपूर, विनायक, मदन, राजशेखर, माघ, धनपाल, मीता, मानतुङ्ग, आदि विद्वानोंका होना बताया जाता है। धनपाल जैन थे, यह पहले लिखा जाचुका है। शोभनके जैन होनेपर भोजने कुछ समयतक जैनोका धारामे आना बंद कर दिया था। कालिदास कवि मेघदूत आदि ग्रंथोंके रचयिता - कालिदाससे भिन्न थे। इनकी स्पर्धा जैनाचार्य मानतुङ्गजीसे विशेष थी। इनके , उकसानेपर भोजने मानतुगाचार्यको अडतालीस कोठरियोंके भीतर ___ *-विर०, पृ० ११५। १-भाषाए०, भा० ? पृ० ११५ । २-भाषाए०, भा० १ पृ० ११८-१२१ । - Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | बंधवाकर टल्वा दिया था; परन्तु वह अपने आत्मबलसे बन्धनमुक्त होगये थे । इस कारावासकी दशामे ही मुनि मानतुङ्गजीन प्रसिद्ध भक्तामर स्तोत्र रचा था जिसका छ्यालीसवां काव्य रचने२ ही उनके वन्धन अपने आप नष्ट होगये थे। उनके माहात्म्यसे प्रभावित हो कहने है कि राजा भोज और कवि कालिदास भी जैन धर्मानुयायी होगये थे ।' जैन कवि धनंजय भी राजा भोजके समकालीन बताये जाते है। इन्होंने अपने पुत्रको सर्पदशके विषसे मुक्त करनेके लिये विषापहार स्तोत्र' की रचना की थी। इनके अन्य ग्रन्थ नाम-माला, द्विसंधानकाव्य, विपापहारस्तोत्र. वैचकनिघंटु आदि है । ब्रह्मदेवके अनुसार 'द्रव्यसंग्रह' के कर्त्ता श्री नेमिचंद्राचार्य श्री भोजदेवके दरवारमे थे । नयनंढि नामक जैनाचार्यने अपना सुदर्शन चरित्र इन्हींके राजत्वकाल्मे समाप्त किया था । · भोजने चालीस वर्षतक राज्य किया था और उसके वाद संभवत उसका पुत्र जयसिह गद्दीपर बैठा था । इसके समयमे राजा भोजके साम्राज्यपर विपत्तिके वादल छागये थे, जिनको इसके उत्तराधिकारी उदयादित्यने दूर किया था । राजा भोजका समकालीन कच्छपघात ( कच्छवाहा ) वंशी राजा अभिमन्यु था और उसकी प्रशंसा स्वयं भोजदूवकुंडके कच्छवाहे राजने की थी। यह राजा चडोभनगर (टूबकुंडव जैनश्रेष्टी दाहड़ । शिवपुर) से राज्य करता था । इसके नाती विक्रमसिंहका एक शिलालेख संवत् १९४५ १- भक्तामर कथा - जैप्र० पृ० २३९ । २- मजैड़० पृ० ५६ | ३ - मप्रानैस्मा०, भूमिका पृ० २० । ४- अहि०, पृ० ३१७ । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M उत्तरी भारतके अन्य राजा वजैनधर्म। [१५७ का देवकुंडके जैनमंदिरमे मिला है; जिसमे वहांके जैनश्रेष्टी दाइड द्वाग निर्मित जैनमंदिरको महाराज विक्रमसिहने जो दान दिया था. उसका उल्लेख है। दाहड़ जायसपुरसे आये हुये वणिक जासूकके वंशमे था। उसके बडे भाई ऋपिको विक्रमसिहने श्रेष्टीपद प्रदान किया था । दाहड़ने श्री लाटवागटगणके जैनाचार्य विजयकीर्तिके उपदेशसे भव्य जैनमंदिर बनवाया था। यह कच्छप राजा परमारोंके सामन्त प्रतीत होते है।' मालवाके परमारामे नरवर्मा भी प्रसिद्ध राजा था। गुजरातके राजा जयसिंहसे उसका युद्ध हुआ था, जिसमें राजा नरवाके सम- उसे पराजित होना पड़ा था। नरवर्मा विद्वान यगे जैन धर्म। था, मन् ११०४ की नागपुरवाली प्रशस्ति उसीकी रचना है। उदयादित्यके निर्माण किये हुये वर्णो तथा नामो एवं धातुओंके प्रत्ययोंके नागबंध चित्र उसने 'उन गांव (इन्दौर) में खुदवाये थे। ये वहांके जैन मंदिरमें अव भी मौजूद है। यह मंदिर पहले विद्यालय था । विद्या और दानमें नग्वर्माकी तुलना भोजसे की जाती थी। उसके समयमें भी मालवा विद्यापीठ समझा जाता था और जैन तथा वैदिक मतावलंबियोंके बीच शास्त्रार्थ भी हुये थे। महाकालके मंदिर में जैनाचार्य रत्नसूरि और जैव विद्याशिववादीका परस्पर एक बड़ा भारी शास्त्रार्थ हुआ था। जैनाचार्य समुद्रघोप भी नरवर्माकी सभामें मौजूद थे और उसकी विद्वत्तापर नरवर्म बड़े प्रसन्न थे। अभयदेवसूरिके 'जयन्तकाव्य' की -मप्राजैस्मा० पृ० ७३-७६ । २-भाप्रारा०. भा० ३ पृ० १९५ । ३-मप्राजैस्मा० पृ० ९२ । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८] संक्षिप्त जैन इतिहास । प्रगन्तिमे नग्वांका जैन वल्लभमरिके चरणोंपर सिर झुकाना लिया है। नग्बकि पुत्र यशावमांने अपनी आग्मे जैनधर्मावलम्बी मंत्री जैनचद्रको गुजरातका हाक्मि नियत किया था। परमार राजाओंका मर्थ गुजगतमे हानेका ही यह परिणाम प्रतीत होता है कि तांवर जैनाचार्य भी मारवाकी और आगये ज माने गजग्वारमे मान्यता प्राप्त की थी। इमी वनका विन्ध्यवमा नामक राजा भी विद्याका वडा अनु गगी था उसके मंत्रीका नाम विल्हण था। 'कविवर आशाधर । कविवर आगाधरकी मिन्नता इनसे अधिक श्री। आगावर एक प्रसिद्ध जैन पण्डित होगये है । ई० सन ११९२ मे दिल्लीका चौहान राजा पृथ्वीराज शाहाबुद्दीन गारीमे हार गया था. इस कारण उत्तरी भारतमें मुमलमानोंका आतंक छा गया था। अनेक हिंदू विद्वानोंको अपना नंग छोड़ना पड़ा था । कविवर आगाधर भी ऐमे विद्वानोंमेसे एक थे । मूलमे आगाधर सपादलक्ष देशके मंडलकर ( माडलगढ़मेवाड ) नामक ग्रामके निवासी थे। तब यह देश चौहानोंके अजमेर राज्यके अंतर्गत था । आशाधरजीका जन्म वि० सं० १२३५ के लगभग बघरवाल जैन श्रेष्टी सल्लमणकी भायां रनीकी कोखसे हुआ था । मुसलमानोंके आतन्कसे बचनेके लिये आगाधर सपरिवार धागनगरीमे जाबमे थे । गरानगरीमे उन्होंने वादिराज पं० धरमेनके गिप्य पं० महावीरसे जैनेन्द्र व्याकरण और जैन सिद्धांत १-माप्रारा० मा० १ पृ० १४४-१४५। २-भाप्रारा० भा० १ पृ० १५६ । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। [१५९ पटे थे । आगाधरकी स्त्री सरस्वतीये छाहड नामक पुत्र हुआ था; जिसने धाराके महाराजाधिराज अर्जुनदेवको अपने गुणोंसे मोहित कर लिया था। वह भी अपने पिताकी तरह बडा भारी विद्वान था। विन्ध्यवर्माका विल्हन मंत्री आगावरको कविराज कहा करता था। इनकी कविनाका विद्वान बहुत आदर करते थे। यहातक कि जैन मुनि उदयसेनने उन्हें ' कलि कालिदास की उपाधि दी थी। मुनि मदनकीर्तिने उन्हें 'प्रज्ञाका पुज' अर्थात् विद्याका भण्डार कहकर 'पुकारा था। कवि विल्हणने उन्होंकी मित्रतासे प्रेरित हो कर 'कर्णसुंदरी नाटिका के मंगलाचरणमें जिनदेवको नमस्कार किया था। यह नाटिका अणहिलपाटनके राजा कर्णके जैनमत्री सम्पत्करके बनवाये हुये आदिनाथ भगवानके यात्रामहोत्सवके लिये बनाई गई थी। आगाधरजीके एक मिप्य मदनोपाध्याय थे। यह माहाराज अर्जनदेवके गजारु और महाकवि थे। यह अर्जनदेव विन्ध्यवमौके पुत्र थे । आगाधर और उनके पुत्रने उनको भी अपने गुणोंसे प्रसन्न कर लिया था । मदनोपाध्यायके अतिरिक्त आगाधरने देवेन्द्र आदि विद्वानोंको व्याकरण, विशालकीर्ति आदिको तर्कशास्त्र और विनयचंद्र आदिको जैन सिद्धांत पढाया था। उससे आशाधरकी विद्वत्ता, पढ़ानेकी शक्ति और परोपकारशीलताका पता चलता है। उनके स्वयं गृहस्थ होनेपर भी बडे २ मुनि उनके पास विद्याध्ययन करने आते थे । राजा अर्जुन के राज्य समयमे जैनधर्मकी उन्नतिके लिये आगाधर नालछा ( नलकच्छपुर ) के नेमिनाथजीके मन्दिरमें जारहे थे । नालछा उस समय जैनधमका केंद्र था। कविराजने. अनेक अमूल्य ग्रथ रचकर एवं अन्य उपायों द्वारा जैनधर्मका मस्तक Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०] संक्षिप्त जैन इतिहास । ऊंचा किया था। उनके रचे हुये ग्रन्थ बहुत ही अपूर्व है । उनके ग्रंथामे 'सागारधर्मामृत' विशेष उल्लेखनीय है । 'अध्यात्मरहस्य नामक ग्रन्थ कविराजने अपने पिताकी आज्ञासे बनाया था। उनके पिता धारामे आकर अर्जुनदेवके सन्धिविग्रहिक मंत्री होगये थे। कविराज़के बनाये हुए ग्रंथोंके नाम इस प्रकार है " (१) प्रमेय रत्नाकर (स्याद्वाढ मतका तर्क ग्रंथ), (२) भरतेश्वराभ्युदय काव्य और उसकी टीका. (३) धर्मामृत गाल टीका सहित (जैन मुनि और श्रावकोंके आचारका ग्रन्थ). (४) गजीमनी विप्रलम्भ (नेमिनाथ विषयक खण्डकाव्य), (५) अध्यात्म रहस्य (योगका ), (६) मूलारावना टीका, इष्टोपदेश टीका. चतुविशतिस्तव आदिकी टीका. (७) क्रिया कलाप (अमरकोप टीका). (८) रुद्रटकून काव्यालंकारपर टीका. (९) सटीक सहस्रनाम स्तव. (१०) सटीक जिनयज्ञ कल्प. (११) त्रिषष्ठि स्मृति ( आर्ष महापुराणके आधारपर ६३ महापुरुषोंकी कथा ), (१२) नित्य महोद्योत (जिन पूजन), (१३) रत्नत्रयविधान और (१४) वाग्भटसंहिता (वैद्यक ) पर अष्टाग हृदयाद्योत नामकी टीका । उल्लिखित ग्रन्थामेसे त्रिषष्ठि स्मृति वि० सं० १२९२ मे और भव्य कुमुढचंद्रिका नामकी धर्मामृत शास्त्रपाटीका वि० सं० १३०० मे समाप्त हुई। यह धर्मामृत शास्त्र भी आगाधरने देवपालदेवके पुत्र जैतुगिदेवके ही समयमे बनाया था। __ कविवर अर्हद्दासने आशाधरजीके उपदेशसे जैनधर्म ग्रहण १-विर०, पृ० ९५-११४ । २-भानारा०, भा०१ पृ० १५७ । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म [ १६१ किया था। उनका रचा हुआ ' मुनिमुत्रतकाव्य ' विशेष प्रसिद्ध है । श्वतावर ग्रन्थ 'चतुर्विंशति प्रबन्ध में लिखा है (सं० १४०५) कि उज्जैनी में विशालकीर्ति नामक दिगम्बर साधु थे । उन्होंने वादियोको पराजित करके ' महाप्रमाणिक' पदवी पाई थी । यह संभवतः आशावरजीके ही शिष्य थे। इन्होने कर्णाटक देशमें जाकर विजयपुर नरेश के दरवारमें आदर पाया था और अनेक विद्वानों को पराजित किया था । किंतु अंतमे वह मुनिपदसे भ्रष्ट होगये थे । ' उत्तर और मध्यमार की तरह बंगाल और ओडीसा में भी जैन धर्मका अस्तित्व ईसवी १३ वीं शताब्दितक बंगाल और ओड़ी - रहा था । 'भक्तामरकथा' से प्रगट है कि इस सामें जैनधर्म | समयमे चम्पापुरका राजा कर्ण जैनी था । भगवान् महावीरकी जन्म नगरी विशालाका राजा लोकपाल भी जैनधर्म भक्त था । विशालामे जब हूयेनत्सांग पहुचा था, तब उसे बहुत जैनी मिले थे । यहासे कई मुद्रायें ऐसी मिली है जिनपर तीर्थकरों की पादुकायें है । तथापि सन् २०० के लगभगवाली मुहरपर 'भट्टारक महाराजाधिराज' का उल्लेख है। पटनाका राजा धात्रीवाहन था, जिसकी कामलता नामक कन्या बडी विद्यासम्पन्न थी। ये शिवभूपण नामक जैनमुनिके उपदेशसे जैनी हुये थे । गौड देशका राजा प्रजापति प्रारम्भमे वौद्धधर्मी था; परन्तु जैनसाधु मतिसागरकी वादशक्तिपर मुग्ध होकर यह राजा और प्रजा जैनी हुये थे । तामलक नगर में महेभ नामक जैन सेठ बड़ा प्रसिद्ध था । वह ચે १ - जैहि०, भा० १९ पृ० ४८५ । २ - जैप्र० पृ० २४० । ३ - विभोजैस्मा० पृ० २३–२६ । 3 ૧૧ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] संक्षिप्त जैन इतिहास | सिंहलद्वीपसे जहाजो द्वारा व्यापार करता था।' तामूलक जैनोंका सिद्धक्षेत्र है । उक्त राजा और सेट सभवत ७वी ८वीं शताब्दीमें हुये होगे, क्योंकि इन शताब्दियोंमे बङ्गामे दिगम्बर जनोंका अधिक प्रावल्य था, जैसा कि चीन यात्री हुग्नत्मागक कथनमे प्रगट है ।२ ९वीं शताब्दिसे १२ वीं गतान्ति तक बंगालमे पालवणके राजाओंका अधिकार रहा था और ये बौद्धधर्मानुयायी थे। इनके बाद ११ वीं शताब्दिके लगभग सेनवंगका अभ्युदय हुआ था। सेनवंशका सम्पर्क मूलमें जैनधर्मसे प्रगट होता है, परन्तु मालम नहीं कि बंगालमे सेनवंशी राजाओंने जैनधर्मको संरक्षण दिया था या नहीं। इस प्रकार इस कालमे यहापर राजाश्रय विहीन होकर जैन धर्म अपना प्रावल्य खो चला और मुसलमानोंके आक्रमणके साथ वह यहा नष्टप्रायः होगया। किंतु वंगाल, बिहार, ओडीसा प्रातोंसे जैनोंका जो अत्यधिक पुरातत्व इस कालका मिलता है, उससे इस समय जैनधर्मका जनसाधारणमे बहु प्रचलित होना प्रमाणित है। राजग्रहीमे एक जैनगुफापरके लेखसे प्रगट है कि इसी समयके लगभग परम तेजस्वी आचार्य वैरदेवकी अध्यक्षतामे वहा एक जनसंघ शा। राजगिरीसे एक ऐसा सिक्का भी मिला है, जिनपर गुप्तकालके अक्षरोंमे : जिनरक्षितस्य ' लिखा है, इसमे उस सिकेका चालक राजा जैनधर्मानुयायी प्रगट होता है। राजगिरि जैनोंका प्राचीन तीर्थ है। मम्मेदशिखर, चम्पापुर, पावापुर, कुंडलपुर आदि जैन तीर्थ १-जैप्र० पृ० २४१-२४३ । २-वीर वर्ष ३ पृ० ३७१ । ३-वीर वर्ष ४ पृ० ३२८-३३२ । ४-बबिमोजस्मा० पृ० १६ । - Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। भी वंगाल-विहारमें है। मानभूम जिलेके सराक लोग आज भी वहांपर फैले हुये प्राचीन जैनधर्मको प्रगट कर रहे हैं। ये प्राचीन जैन श्रावक हैं । सिंहभूम जिलेपर एक समय जैनोका अधिकार था। वहां इन प्राचीन श्रावकोंने जंगलोंमें घुसकर ताबेकी काने सोधी थीं और अपने धार्मिक स्मारक वहा बनवाये थे । वामन घाटीसे दो ताम्रपत्र १२०० ई०के मिले है जिनसे प्रगट है कि मयूरभंजके भंजवंगके राजाओंने बहुतसे ग्राम जिनमंदिरोंको भेट किये थे। इस वंशके संस्थापक वीरभद्र थे, जो एक करोड साधुओंके गुरु थे। ये जैन थे।' ऐसे ही और भी अनेक जैन लेख विखरे हुये पडे है। जो हो, बंगालमें भगवान महावीरके समयसे लेकर ७ वीं शताब्दि ई० तक जैनधर्म सफलतापूर्वक फैला हुआ था। ओड़ीसामें खारवेलके वंशजोके बाद आन्ध्रवंशका अधिकार होगया था और ये प्रायः बौद्धधर्मानुयायी ओड़ीसाके अंतिम थे । उपरांत ययाति केसरी द्वारा स्थापित राजा व जैनधर्म। केसरी वंशने वहां १२ वीं शताब्दितक राज्य किया था। उनके समयमे जैनधर्मका पुनरुत्थान हुआ मालम होता है; क्योंकि उद्योतकेसरी राजाके राज्यकालके कई जैन लेख मिले है, जिनसे वहांपर जैनाचार्यों द्वारा धर्म प्रचार होनेका बोध होता है। इन आचार्योंमें शुमचंद्र और यशनंदि उल्लेखनीय है । जब गङ्गराजाओंका अधिकार ओडीसापर हुआ तो उन्होंने चरण-ब्राह्मणोंके कहनेसे जैनियोंको बहुत सताया। इस अत्याचारसे जैनोंका अस्तित्व ही वहा मुश्किल होगया । १-पूर्व० पृ० ६५-६६ । २-पूर्व पृ० ९२-१०४। - - Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] संक्षिप्त जैन इतिहास । उत्तरीय और पूर्वीय भारतके समान ही दक्षिण भारत और राजपूतानामे भी जैनधर्म अपना प्रभाव जमाए राजपूतानामें तत्कालीन हुये था। दक्षिण भारतका विशद वर्णन तो जैनधर्म। इस भागके तृतीय खंडमे किया जायगा, । किन्तु राजपूतानामे जैनधर्मके प्रभावका दिग्दर्शन यहां करा देना अनुचित न होगा। राजपूताना जिसको पुरातन कालमे 'मरुभूमि' कहते थे, जैनधर्मके सम्पर्कमे एक अतीव प्राचीन कालसे आगया था। यदि हम इतिहासातीत कालकी बातको जाने दें और केवल भगवान् महावीरजीके समयसे ही इस सम्बन्धमे विचार करें तो प्रगट होता है कि जैनधर्मका प्रचार वहा भगवान् महावीर द्वारा हुआ था। उनके बाद मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त और संप्रति आदिके प्रशंसनीय प्रयत्नोंके फलस्वरूप जैनधर्मका मस्तक वहा बहुत ऊंचा रहा था। ईसाकी प्रारम्भिक शताब्दियोसे करीब२ तेरहवीं शताब्दि तक जैनधर्म राजपूतानेमे राजाश्रयमे रहकर फलताफूलता रहा था। किन्हीं विद्वानोंका यह ख्याल है कि राजपूत लोगोंपर जैनधर्मकी अहिंसात्मक शिक्षा कुछ भी प्रभाव नहीं डाल सकी थी। किंतु बात वास्तवमे यों नहीं है। जैनधर्मकी अहिंसात्मक शिक्षा किसी भी प्राणीके लौकिक कार्योंमे वाधा पहुंचानेवाली नहीं है। बडे २ जैन राजाओं और सेनापतियोंने वढ चढ़कर लडाइया लडी है, यह बात पूर्व पृष्ठोंके अवलोकनसे स्पष्ट है । उसपर राजपुत्रों (क्षत्रियों) का जन्म ही उस महापुरुष द्वारा हुआ है, जिसने जैनधर्मकी नींव इस कालमे वखी थी। भगवान् ऋषभदेव ही क्षत्रियोंके आदिपुरुष है। इस दशामें Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। [४६५ 'क्षत्रियों द्वारा उसको सन्मान न मिलना एक असंभव बात है। कर्नल - टॉड सा०ने जो राजपूतोंकी उत्पत्ति आबू पर्वतपर अमिकुण्डसे . . हुई लिखी है, उससे भी इन लोगोंका जैनधर्मसे बहु संपर्क प्रमाणित • है। टॉड सा० लिखते हैं कि 'पराक्रमकारी जैन लोगोंकी चढ़ाईसे . अपने धर्मकी रक्षा करनेको ब्राह्मणोंने अनिकुल उत्पन्न किया। परन्तु मुसलमानोंकी चढ़ाईके समय अग्निकुलके अधिकांश लोग जैन होगये।' अग्निकुलके सोलंकी, परमार आदि राजपूत वंश इस मुसलमानोंके आक्रमणके पहलेसे ही जैनधर्मको आश्रय देरहे थे, यह लिखा जाचुका 'है । आबूपर जहां अग्निकुण्ड जलाकर अग्निवंशकी स्थापना की गई थी, वहां आदिनाथ भगवानकी पाषाण पूर्ति वेदीपर विराजमान है।' , राजपूतानामें उदयपुरके राणाओंका वंश प्रसिद्ध है। जैन धर्मकी मान्यता इस वंशमें एक अतीव प्राचीन मेवाडके राणावंशमें कालसे प्रगट होती है। आज भी मेवाड़. जैनधर्म। राजवंशमें जैनधर्मको विशेष सम्मान प्राप्त है। __इस वंशकी उत्पत्ति उसी वंशसे हुई मानी जाती है; जिसमें प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेवका जन्म हुआ था।' राणाओंके आदिपुरुष गुहिल नामक क्षत्री ई० स० ५६८में हुये थे। कर्नल टॉड सा० कहते है कि गिल्हौत कुलके आदिपुरुष भी जैनधर्ममें दीक्षित थे । इसी कारण गिल्हौतकुलके राजा लोग अपने पितृपुरुषों के धर्मपर अनुराग करते रहे हैं। अतः प्रारंभसे ही राजाश्रय पाकर । १-टॉड, राजस्थान (वेङ्कटेश्वर प्रेस) मा० १ पृ० ५२-५७ । २-राई०, भा० १. पृ०.३६९ । ३-डॉरा०, भा० १ पृ०,७१५॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' १६६] संक्षिप्त जैन इतिहास । जैनधर्म मेवाडमे खूब फलाफूला है। मेवाडकी प्राचीन कीर्तियां इस बातकी साक्षी है। चितौडमे जैन कीर्तिस्तंभ एक अपूर्व जैन शिल्प है। उसके नीचे एक पापाण खंड परके सं० ९५२के लेखसे उस समय वहापर बहुतसे दिगवर जैनियोंका होना प्रगट है। जैन कीर्तिस्तंभको दिगंबर संप्रदायके बघेरवाल महाजन सा (साह) नामके पुत्र जीजाने वि० सं०की १४ वीं शताब्दिके उत्तरार्द्धमे बनवाया था। इस स्तंभके पास ही एक प्राचीन जैन मंदिर भी मौजूद है। चितौडमें गोमुखके निकट महाराणा रायमलके समयका बना हुआ एक और जैनमंदिर है, जिसकी मूर्ति दक्षिणसे लाई गई थी। उदयपुरमे विशेष मान्य और प्राचीन जैन स्थान केशरियाजी ऋषभदेवका है। यहाकी मूर्ति अत्यन्त प्राचीन है। दिगंबर जैनाचार्य श्री धर्मचन्द्रजीका सम्मान और विनय महाराणा हम्मीर किया करते थे। सं० १२९५मे रामपालदेवका राज्य था, तब गोहिलवंशीय उद्धरणके पुत्र राजदेवने, जो रामपालके आधीन था, करका बीसवां भाग नादलाईके जैनमंदिरको पूजाके वास्ते दिया था। (मप्राजैस्मा० पृ० १४७) नादालके पद्मप्रभके मंदिरमे सं० १२१५ के लेखसे प्रगट है कि राणा जगतसिहके मंत्री जयमल्लने वह मंदिर बनवाया था। वि० सं० १३३५ (१२७१ ई०)मे रावल समरसिंहकी माता जयतलदेवीने चितौड़मे श्याम पार्श्वनाथका मंदिर बनवाया १-मप्राजैस्मा०, पृ० १३४ । २-राइ०, भा० १ पृ० ३५२३५४ । ३-राई०, भा० १ पृ०३४६ । ४-'श्री धर्मचन्द्रोऽजनि तस्य' पट्टे हमीरभूपालसमचनीयः ।। जैहि०, भा० ६ अंक ७-८ पृ० २६ । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। [१६७ था। इनके उपरान्त महाराणा भीमसिह, कुम्भ इत्यादिने जैनधर्मके लिये जो किया, वह हम तीसरे भागमे देखेंगे। राजपूतानामें उदयपुरके बाद मारवाडकी विशेष प्रमिद्धि है। राजपूतानावासी वैश्य ' मारवाड़ी ' नामसे. मारवाड़ी जैनधर्म। सर्वत्र प्रख्यात् है । सन् १२२६के लगभग मारवाडमें राठौर क्षत्रियों का अधिकार होगया था । राठौर अथवा राष्ट्रकूट वंशके पूर्वजोंमें जैनधर्मकी मर्यादा विशेष रही थी। मारवाड़के राठौरामें चक्रेश्वरी देवीकी विशेप मान्यता है; जो तीयङ्करकी गासन देवता है। मारवाड़ राठौर वंशके चौथे राजा राव रायपालजीके तेरह पुत्र थे, जिनमें ज्येष्ठ पुत्र कनकपाल वि०सं० १३०१ मे राज्याधिकारी हुये थे। शेप पुत्रोमे एक मोहनजी नामक भी थे। मोहनजीने अपना दूसरा विवाह एक श्रीश्रीमाल कन्यासे किया था, जिससे उनके सप्तसेन नामक पुत्र हुआ था । सप्तसेनने जैनधर्म स्वीकार कर लिया था और वह ओसवाल जैनियोंमे सम्मिलित होगया था। उसकी संतान आजकल के मुहणोत ओसवाल है। मारवाड़के राज्यशासनमें उनका हाथ रहा है। उनमें मंत्री और सेनापति कई हुये है। मुहणोतोंके अतिरिक्त जोधपुर राजमें भंडारी ओसवालोका भी हस्तक्षेप रहा है। भंडारी ओसवाल अपनी उत्पत्ति अजमेरके चौहान धरानेसे बताते है । इनके पितामह राव लक्षमण (लखमसी)ने अजमेरके घरानेसे अलग हो नाडौलमें अपना एक प्रथक १-राई०, भा० १ पृ० ३८१ । २-भाप्रारा०, भा० ३ पृ० ११८-१२५ । ३-सडिजै०, पृ० ३३-३४ व भाप्रारा०, भा० ३ पृ० १२७ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८] संक्षिप्त जैन इतिहास । राजकुल स्थापित किया था। लखमसी एक महापुरुप और वीर देशभक्त था । उसने अन्हिलवाडसे कर व चित्तौडके राजामे खिराज वसूल किया था। नाडौलका किला उसीने बनवाया था। उसके २४ पुत्र थे, जिनमे एक दादराव थे। भण्डारी कुलके जन्मदाता यही थे । सन् ९९२ ई० मे श्री यशोभद्र सूरीके उपदेशसे उन्होंने जैनधर्म ग्रहण किया था । दादराव राजभंडारके अधिकारी थे। इसी कारण उनका वंश भण्डारी' नामसे परिचित हुआ है । जोधपुरमे जबसे यह लोग आये तबसे इनकी मान्यता राजदरमे खूब है और ये बडे २ पदोंपर रहे है । नाडौलके चौहान राजाओंकी भी उन्होंने खूब सेवा की थी। वि० सं १२४१ मे भण्डारी यशोवीर पल्ल ग्रामके अधिकारी बना दिये गये थे। उन्होंने महाराज समरसिंहदेवकी आज्ञानुसार एक जैन मंदिरका जीर्णोद्धार कराया था। भंडारी मिगल इसी राजाओंके मंत्रियोंमेसे एक थे। नाडौलके कई एक राजाओं और रानियोंने जैन मंदिरोंके लिये दान दिये थे । उनके पुण्यमई कार्योंसे यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि मारवाडके राजवंशपर जैनधर्मका खूब प्रभाव था। चौहान राजकलमे प्रख्यात् राजा अल्हणदेव थे। उन्होंने सन ११६२ में नाडोलके श्री महावीरजीके जैन नाडौलके चौहान मंदिरके लिये दान किया था। अल्हणके और जैन धर्म। पिता अश्वराज थे और उसने वि० सं० १२०९ से १२१८ तक चालुक्य नृप कुमारपाल जैनके सामन्तरूपमे राज्य किया था। जैनधर्मको उसने खब १-सडिज०, पृ० ३५-३७ । २-डिजैत्रा०, भा० १ पृ० ४३ । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। [१६९ : अपनाया था, उसने एक आज्ञापत्र निकालकर महीनेके कई दिनोंमें - हिसाका निषेध कर दिया था। दादरावको जैनधर्ममुक्त बनानेवाले = -यशोभद्रसूरिके उत्तराधिकारी सालिसरि थे और वह चौहानवंशके भूपण कहे गये हैं। इससे उनका चौहान राजकुमार होना प्रगट है। इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि जैनधर्मने चौहान राजकुलमें कितना गहन और घनिष्ट सम्बन्ध पालिया था। उपरोक्त अल्हणदेवके तीन पुत्र (१) केल्हाण, (२) गजसिंह और (३) कीर्तिपाल थे। कीर्तिपालका पुत्र अभयपाल था। इसने और इसके भाई लखनपालने अपनी माता महिवलदेवीके साथ वि० सं० १२३३ मे जैन मंदिरको इसलिए दान दिया था कि उससे शान्तिनाथ तीर्थंकरका उत्सव मनाया जाया करे। राजपूतानामें राठौर क्षत्रियोंका राज्य पहलेसे होनेके चिह्न मिलते है । हस्तिकुंडी (हyडी) से एक लेख हस्तिकुंडीके राठौड़ोंमें सन् ९९७ ई०का मिला है, उससे वहापर जैनधर्म। राठौडोंका राज्य होना प्रमाणित है । हy डीके राठौरोकी वंशावली हरिवर्मा नामक राजासे प्रारम्भ की गई है । इसका पुत्र विदग्धराज था, जो इसके वाद सन् १.१६ ई० मे राज्याधिकारी हुआ था । विदग्धराज जैन धर्मानुयायी था। उसने ऋषभदेवजीका एक भव्य मंदिर बनवाया था और वलभद्र मुनिकी कृपासे उसके लिए भूमिदान किया था। विदग्धका पुत्र मम्मट था। उसने उक्त दानको बढ़ा दिया था। वह १-सडिने०, पृ०३५ व ३६ । २-डिजैबा०, मा० १ पृ० १२॥ ३-भाप्रारा०, भा० ३ पृ० ९१-९२ । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - १७०] संक्षिप्त जैन इतिहास । सन् ९३९ ई० मे शासन करता था। उसका पुत्र धवल एक पराक्रमी राजा था। अपने बावा और पिताके समान वह भी जैन धर्मानुयायी था । मेवाडपर जब मालवाके राजा मुञ्जने हमला किया था, तब वह उससे लडा था । साभारके चौहान राजा दुर्लभराजसे नाडौलके चौहान राजा महेन्द्रकी रक्षा की थी । और अनहिलवाडाके सोलंकी राजा मूलराज द्वारा नष्ट होते हुये धरणीवाहको आश्रय दिया था। वृद्धावस्थाके कारण धवलने सन् ९९७ के लगभग राज्यभार अपने पुत्र वालप्रसादको सौंप दिया था। धवलके राज्यकालमे शातिभट्टने श्री ऋषभदेवजीके विम्बकी प्रतिष्ठा की थी और उसे विदग्घराज द्वारा वनवाये गये मंदिरमे स्थापित की थी। धवलने इस मंदिरका जीर्णोद्धार कराया। इसके बाद इस जैनधर्म प्रभावक वंशका कुछ हाल नहीं मिलता। हस्तिकुंडिया गच्छके मुनियोंको इनने आश्रय दिया था। राजपूतानामे मण्डोरके प्रतिहार वंशमें भी जैन धर्म आदर पाचुका है । इस राजवंशकी उत्पत्तिके विषमंडोरके प्रतिहारों द्वारा यमे कहा जाता है कि हरिश्चन्द्र नामक एक जैनधर्मका उत्कर्ष । विद्वान् विप्र था और प्रारम्भमे वह किसी राजाका प्रतिहार था । उसकी क्षत्रियवंशकी रानी भद्रासे चार-पुत्र-(१) भोगमट, (२) कक्क, (३) रज्जिल और (४) दद्द हुए। उन्होने माडव्यपुर (मण्डोर ) के दुर्गपर कब्जा करके एक ऊंचा कोट बनवाया था। इस वंशका सर्व अंतिम राजा • कक्कुक वड़ा प्रसिद्ध था । उसके दो लेख घटियालेसे वि० सं० १-मप्राजैस्मा०, पृ० १६२। २-राइ०, मा० १ पृ० १४८-१४९। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। [१७१ ९१८ के मिले है, जिनमे प्रगट होता है कि 'उसने अपने सञ्चारित्रसे मरु, माड, वल्ल, तमणी, अज्ज (आर्य ) एवं गुजरत्राके लोगोका अनुराग प्राप्त किया, वडणाणय मण्डलमे पहाडपरकी पल्लियों (पालों, भीलोके गावो) को जलाया, रोहित्सकूप (घटियाले) के निकट गावमें हट्ट (हाट) बनवाकर महाजनोको वसवाया, और मड्डोअर ( मंडोर ) तथा रोहिन्सकूप गावोमे जयस्तभ स्थापित किये । कक्कुक न्यायी प्रजापालक एवं विद्वान था । और संस्कृतमें काव्य रचना करता था। उसके लेखके प्रारम्भमे श्री जिननाथ ( जिनेन्द्रदेव ) को नमस्कार किया गया है और उसमे एक जैन मंदिर बनवानेका उल्लेख है । इस कारण इस राजाका जैन धर्मानुयायी होना प्रगट है। सं० १२०० के लगभग नाडौलके चौहान राजाओंने मंडोरपर अधिकार जमा लिया था। मालवेके परमार राजा वाक्पतिराजके दूसरे पुत्र डम्बरसिहके वंशमे वागड़के परमार है। उनके अधिकावागड़ प्रांतमें जैनधर्म । रमे वांसवाडा और डूंगरपुरके राज्य थे। उनकी राजधानी उत्थूणक नगर (अथूर्णा ) था। यहांके संवत ११६६ के एक जैन शिलालेखसे प्रगट है कि वागड़ प्रातमें भी जैनधर्म अच्छी उन्नत दशापर था । सं० ११६६ में परमार वंशी विजयराजका राज्य था। नागरवंशी भूषण नामक जैन १-राइ०, भा० १ पृ० १५१-१५२ । २-ॐ सग्गापवग्गमग्गं पदम सयलाण कारण देव । णीसेस दुरिमदलणं परमगुरु णमह जिणणाहं |'-प्राचीन लिपिमाला, पृ० ६५ । ३-भाप्रारा०, भा० १ पृ० १७४। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२] संक्षिप्त जैन इतिहास । श्रेष्टी वहा रहते थे। उन्होंने श्री वृषभदेवका एक सुन्दर मंदिर वनवाया था और भगवानकी दर्शनीय प्रतिमा प्रतिष्ठा कराकर विगजमान कराई थी। माथुरान्वयी श्री छत्रसेनाचार्यने उसकी प्रतिष्ठा कराई थी। यह नागर जैनी तलपाटकपत्तनके निवासी थे। इनके पूर्वजोंमे 'अंबर' नामक व्यक्ति एक प्रसिद्ध वैद्य थे। जैन वासनासे वह इतने अनुवासित थे कि उनकी रग २ मे जैनधर्म व्याप्त था। वह देशव्रती थे और चक्रेश्वरी देवी उनकी सेवा करती थी। झरोली (सिरोही) के श्री गातिनाथ मंदिरके शिलालेखसे प्रगट है कि परमार राजा धारावर्षकी रानी शृगारदेवीने सं० १२५५ मे उक्त मंदिरको भूमिदान किया था । ( मप्राजैस्मा० पृ० १६९) राजपूतानेमे चौहान राजाओंने पांचवीं शताब्दिके लगभग अजमेरको बसाकर उसे अपनी राजधानी अजमेरके चौहान बनाया था। अजमेरके चौहानोंमे जैनधर्मका राजा व जैनधर्म। आदर रहा था। इस वंशके चौथे राजा जय राजका उल्लेख जैन ग्रंथ 'चतुर्विशतिप्रवन्ध' मे है । इस वंशके राजाओंका उल्लेख वीजोल्या ( मेवाड़) के जैन शिलालेखमे खूब दिया हुआ है । वीजोल्याका पंचायतन पार्श्वनाथ मंदिर एक अतिशय क्षेत्र है। वहा मंदिरके वाहर भट्टारकोंकी निषधिकायें भी है। जिनसे पता चलता है कि एक समय यह स्थान जैनोंका मुख्य केन्द्र था। पहले दिगम्वर संप्रदायके पोरवाड़ महाजन लोलाकने यहां पार्श्वनाथजीका तथा सात अन्य मंदिर वनवाये १-जैहि०, भा० १३ पृ० ३३२ । २-भाप्रारा० भा० १ पृ० २२५-२२९ । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। [१७३ 'थे। उनके टूट जानेपर ये पांच मंदिर बनवाये गये है। दो चट्टानोपर लेख खुदे हुए है। उनमें से एक वि० सं० १२२६ फाल्गुण वदी ३ का चौहान राजा सोमेश्वरके समयका लोलाकका खुदवाया हुआ ' है, जिसमें लोलाक एवं उनके पूर्वजोंके धर्म-कार्योका खूब वर्णन है। अजमेरके चौहान राजा पृथ्वीरान (दूसरे) ने मोराकुरी गांव और 'चौहान नृप सोमेश्वरने रेवणा गांव श्री पार्श्वनाथजीके उक्त मंदिरको भेट किये थे। दूसरे चट्टानपर 'उन्नत शिखर पुराण' खुदा हुआ है। इन उल्लेखोंमे अजमेरके चौहान राजाओंका जैनधर्मके प्रति अनुराग प्रगट है।" पन्द्रहवीं शताब्दी तक राजपूतानाके समान सिध और पक्षा वमें भी जैनोंका उल्लेखनीय अस्तित्व था । सिंधु और पंजावमें मध्यकालके बने हुये जैन मंदिर आदि इस जैनधर्म। वातके साक्षी है। सन् १२४० ई०में ब्रह्मक्षत्र गोत्रके अल्हण और दोल्हणने पञ्जाबमें कांगडा जिलेके कीर ग्राममें एक महावीर स्वामीका मंदिर बनवाया था। तक्षशिलाके पासवाले जैन अतिशय क्षेत्रपर भी इस समयका जैन शिल्प मिलता है। सं० १४८४मे जयसागर उपाध्याय द्वारा रचित 'विज्ञप्तित्रिवेणिः' नामक पुस्तकसे प्रकट है कि उनके पहलेसे 'सिंध और पञ्जाबमें जैनोंकी घनी वस्ती थी। मरुकोट्ट, नंदनवन और कोटिलग्राम आदि प्रसिद्ध जैनतीर्थ थे । 'सर्वसाधारण जनताकों और रानादिकोंको भी उस समय जैनधर्मसे बहुत कुछ सहानुभूति थी।' १-राइ०, भा० १ पृ०३६३ । २-डिजैबा०, मा० १ पृ०४२ ३-एजाई नोट्स। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४] संक्षिप्त जैन इतिहास । तव पनावमे नगरकोट, जो आनकल कोट कागटा नाममे प्रसिद्ध है, एक मुग्व्य जैनतीर्थ था। श्वेतावर जैनांके भी वहा चार मंदिर थे। वहाका गना जैनधर्मम सहानुभूति रखता था । उसके दीवान दि० जैन धर्मानुयायी थे। इस कालमे जैनधर्मकी उन्नति करनेके लिये जैनाचार्योको अच्छा मुभीता रहा था। जहा आटवी तत्कालीन दिगम्बर शताब्दिके लगभग गदराचार्यकी दिग्विनयके जैन संघ। समक्ष एकवार जैनधर्मको भारी धक्का पहुंचा था. वहा उपगत कालमे राजाश्रय पाकर वह फिर फलने-फूलने लगा । हम पहले देख आये हे कि दिगंबर जैनाचार्योका केन्द्र भद्दलपुर (दक्षिण) मे हटकर उज्जैन आगया था। पट्टावलियोंसे प्रगट है कि सन् १०५८ ई० तक उजैन ही जैनाचार्योंका मुख्य स्थान रहा था । उपरान्त वारानगर उनकी कर्मस्थली रही थी। सं० १२६८ मे वहासे हटकर वह केन्द्रस्थल ग्वालि. यरमे जा पहुंचा था। अजमेर और चित्तौड भी इन दिगम्बर जैनाचार्योके लीलारथल रहे थे। इस प्रकार इस कालमे दिगंबर जैन संघका आगमन दक्षिणकी ओरसे उत्तरकी ओर हुआ था । दक्षिण भारतीय जैनोंकी मान्यता है कि एक लक्ष्मीसेन नामक जैनाचार्य बड़े भारी विद्वान् प्रसिद्ध थे। उन्होंने जैनोंके चार विद्यापीठ स्थापित किये थे, जिनमे तीन दक्षिणभारतमे और एक दिल्लीमे था. इससे १ हि०, भा० १३ पृ०८१। २-ईऐ० भा० २० पृ० ३५१ --३५५ व जैहि०, भा० ६-७-८ पृ० ३२ । ३-जैग०, भा० २२ पृ० ३७ । - Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। [१७५ भी पट्टावलियोंके उक्त कथनका समर्थन होता है। श्वेताम्बर जैनोंका लीलास्थल मुख्यतः गुजरात ही रहा है ! जिस समय ग्वालियरमें दिगम्बर जैन पट्ट था, उस समय सं० १२९६ मे रत्नकीर्ति नामक एक प्रसिद्ध जैनाचार्य थे । 'यह स्याद्वादविद्याके समुद्र थे, वालब्रह्म. चारी थे, तपसी थे, दयालु थे. उनके शिप्य नाना देशोमें फैले हुए थे।' उस समयके दिगंबर जैन संघमे उज्जैनका संघ प्रख्यात था। उस संघमें तब निम्नलिखित आचार्य हुये उज्जैन व वाराका संघ। थे।-(१) अनंतकीर्ति सन् ७०८ ई०, (२) धर्मनन्दि सन् ७२८ ई०, (३) विद्यानन्दि सन् ७५१ ई०, (४) रामचन्द्र ७८३ ई०, (५) रामकीर्ति ७९० ई०, (६) अभयचंद्र ८२१ ई०, (७) नरचन्द्र ८४० ई०, (८) नागचंद्र ८५० ई०, (९) हरिनन्दि ८८२ ई०, (१०) हरिचंद्र ८९१ ई०, (११) महीचन्द्र ९१७ ई०, (१२) माधचन्द्र ९३३ ई०, (१३) लक्ष्मीचंद्र ९६६ ई०, (१४) गुणकीर्ति ९७० ई०, (१५) गुणचन्द्र ९९१ ई०, (१६) लोकचंद्र २००९ ई०, (१७) श्रुतकीर्ति १०२२ ई०, (१८) भावचन्द्र १०३७ ई०, (१९) महीचन्द्र १०५८ ई० । उज्जैनके उपरान्त दिगम्बर गुनियोंका केन्द्र विन्ध्याचल पर्वतके निकट स्थित वारानगर नामक स्थान हुआ था। वारा प्राचीनकालसे ही जैनधर्मका किला था। आठवीं या नवीं शताब्दिमे वहां श्री पद्मनंदि मुनिने 'जम्बूद्वीपप्रजाप्ति की रचना की थी। इस ग्रन्थकी १-जैहि०, भा०६ अक ७-८ १० २६ । २-जैहि०, भा०६ अङ्क ५-८ पृ० ३०-३१। - - Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६] संक्षिप्त जैन इतिहास | प्रगस्तिमे लिखा है कि "वारा नगरमे गाति नामक राजाका राज्य था। यह नगर धनधान्यसे पूर्ण था। सम्यग्दृष्टि-जनोंसे, मुनियोंके समूहसे और जैनमंदिरोंसे भूपित था । राजा शान्ति जिनगासनवत्सल, वीर और नरपति संपूजित था। श्री पद्मनंदिजीने अपने गुरु आदि रूपमे इन दिगम्बर मुनियोका उल्लेख किया है; वीरनंदि, बलनंदि, ऋपि विजयगुरु, माघनंदि. सकलचंद्र और श्रीनंदि ।' वारानगरके संघमे उपरान्त निम्नाङ्कित आचार्योका अस्तित्व मिलता है। (१) माघचन्द्र सन् १०८३ ई०. (२) बम्नंदि १०८७ ई०, (३) शिवनंदि १०९१ ई०. (१) विश्वचन्द्र १०९८ ई०. (५) हरिनन्दि (सिंहनंदि) १०९०. ई०. (६) भावनंदि ११०३ ई० (७) देवनंदि १११० ई०, (८) विद्याचन्द्र १११३ ई०. (९) सूरचन्द्र १११९ ई०, (१०) माघनंदि ११२७ ई०, (११) ज्ञाननंदि ११३१ ई० (१२) गंगकीर्ति ११४२ । गंगकीर्तिके पश्चात् वारानगरके स्थानपर संघका केन्द्र बालियर होगया था। बारहवीं शताब्दिके अंततक वहा जैनधर्मका खूब उत्कर्ष हुआ। कितु सन् १२०७ मे भट्टारक वसन्तकीर्तिने अजमेरको अपना केन्द्र बनाया। उक्त दिगंबर जैनाचार्य देशभरमे सर्वत्र विहार करके धर्मोद्योत __ करते थे। परवादियोंसे वाद करनेमें उन्हें प्रसिद्ध दिगंवराचार्य। आनन्द आता था। वि० सं० १०२५ मे अल्ल नामक राजाकी सभामे दिगम्बराचा१-जैसास०, मा० १ अङ्क ४ पृ० १६० । २-जैहि०, भा०६ अंक ७-८ पृ० ३१ व इंऐ० २०-३५४ । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म। [१७७ र्यका वाद एक श्वेतांवर आचार्यसे हुआ था। तेरहवीं शताब्दिमे अनन्तवीर्य नामक एक दिगंबराचार्य प्रसिद्ध नैयायिक और वादी थे। उन्होंने अगणित वादियोंको गतमद किया था। इसी समयके लगभग गुणकीर्ति नामक महामुनि विगद धर्म-प्रचारक थे। उन्हींके उपदेशसे पद्मनाम नामक कायस्थ कविने 'यशोधरचरित्र' की रचना की थी। झांसी जिलेका देवगढ़ नामक स्थान भी मध्यकालमें दिगंबर मुनियोंका केन्द्र था। वहां भी कई दिगंबरचार्य हुये थे, जिनके शिष्योंने अनेक धर्मकार्य किये थे। वि० सं० १२२३ मे मुनि देवनंदिके शिप्य मुनि रामचन्द्रजी राज्यमान्य थे। सन् १२९५ में आचार्य महासेन दक्षिणभारतसे दिल्ली आये थे और उन्होंने बादशाह अलाउद्दीनके दरबारमें ब्राह्मण पंडितोंसे वाद करके जैनधर्मकी अपूर्व प्रभावना की थी। ईसवी प्रथम शताब्दिके प्रारम्भमें श्वेताम्बर संप्रदायके अलग होजानेसे यद्यपि निर्ग्रन्थ वीतरागवृत्ति पर मुनि धर्म। संकटके बादल जरा हलके पड़ गये थे; किन्तु श्वेताम्बर जैनोंकी अभिवृद्धिके साथ वह फिरसे जोर पकड़ गये थे। दिगम्बर जैन संघमें भी निर्ग्रन्थवृत्तिमें अपवाद प्रारंभ हो गया; किन्तु भगवत् कुन्दकुन्द, जिनसेन, अमितगति इत्यादि जैनाचार्योंके समक्ष वह अधिक प्रभावशाली नहीं हो सका; यद्यपि काल महाराजकी कृपासे उसने जड़ अवश्य पकड ली। और उसके फलरूप द्राविड़ संघ, काष्ठासंघ आदिका प्रादुर्भाव १-एडिनेवा०, पृ० ४५॥२-पूर्व०, पृ० ८६ । ३-दिगम्बरत्व और दि० मुनि पृ० १५१ । ४-जैमि०, भा० १४ अंक ८ पृ० ७। ५-दानवीर माणिकचन्द्र पृ० ३५ । - Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८] संक्षिप्त जैन इतिहास । हुआ था। तथापि अन्तमे निम्रन्थवृत्तिका पतन हुआ और दिगम्बर संघमें भी वस्त्रधारी भट्टारकों (मुनियों) की उत्पत्ति और उनकी मान्यता होने लगी थी। श्री गुणभद्राचार्यजी (८ वीं श०) के समयमे ही दिगम्बर मुनियोंमे शिथिलता घर कर चुकी थी; ऐसा उनकी उक्तियोंसे मालम होता है। और पं० आगाधरजीके समय में दिगम्बरवृत्ति केवल जुगनूके समान चमकती रह गई थी । अतएव यह काल दिगम्बर जैन संघमे एक बड़ी उलटफेर अथवा क्रातिका समय था। और इस कातिके परिणामरूप प्राचीन सरलवृत्तिको बहुत कुछ धक्का पहुंचा था।' सं० ७५३ मे मुनि कुमारसेन द्वारा काष्ठसंघकी उत्पत्ति मथुरामे हुई थी। मथुरा अब भी दिगम्बर जैनोंका केन्द्र था। ईसवी तेरहवीं शताब्दि तक पौराणिक हिन्दुधर्मके साथ शैव, लिहायत, रामानुज पंथ, आदिके भक्तिवाद गृहस्थ धर्म। एवं क्रियाकाण्डने भारतमे खासा प्रभाव जमा लिया था। दक्षिण भारतमे उसकी तूती बोलने लगी थी। प्राकृत जैनधर्म पर भी इस नूतन धार्मिक वृत्तिका बहुत कुछ असर पड़ा था। जहां एक समय जैन धर्मकी अहिंसा वृत्तिने हिन्दूधर्म पर अपनी गहरी छाप लगाई थी, वहां इस कालमे हिन्दूधर्मके भक्तिवाद और कर्मकाण्डने जैनधर्मके स्वरूपको विकृत बना दिया। जैनधर्ममे जातिभेद यद्यपि प्राकृत रूपमे स्वीकृत था, परन्तु वह पारस्परिक घृणा और द्वेषका कारण नहीं था। उसमे जाति और कुलका मोह मिथ्यात्व माना जाता था। किन्तु ब्राह्मणोंके संसर्गसे जैनधर्मानुयायियोंमे भी जातीय-प्रभेदका भूत सिरपर १-ममी०, पृ० १-१८ । २-रश्रा०, पृ० २६ । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म [१७९ चढ़ बैठा और तबसे वह बराबर उसे अच्छा नाच नचा रहा है। पहले जैन धर्ममें अमिपूजा, श्राद्ध तर्पण. यज्ञोपवीत आदिको भी स्थान प्राप्त नहीं था; किन्तु इस कालमें इनका प्रवेश भी उसमें हो गया। जहां 'पद्मपुराण' जैसे प्राचीन ग्रंथमें ब्राह्मणोंका "सूत्रकण्ठ" कह कर उपहास उडाया है वहा उपरान्तके ग्रंथों में यज्ञोपवीत धारण करना श्रावकोंका कर्तव्य बतलाया गया है। किन्तु पश्चिम भारतमें रहनेके कारण श्वेताम्बर जैनधर्म पर इन बातोंका कम असर पड़ा मालम पड़ता है। उनमें यज्ञोपवीत पृथा प्रचलित नहीं है और न उनमें जातिपातिके भेदकी कहरता मौजूद है। अभी हालमें एक जर्मन महिलाको शुद्ध करके श्वेताम्बर समाजमे सम्मिलित किया जा चुका है। अजैनोंको जैनधर्ममे दीक्षित करनेका प्रयास इस कालमें खूब चालू रहा था। शङ्कराचार्यके बाद जैनधर्मोअजैनोंकी शुद्धि । नतिके समय जैनाचार्योंको अपने शिष्य बढ़ानेकी धुन सवार थी। दिगम्बर जैनाचार्य श्री माघनन्दिजीकी तो यह प्रतिज्ञाथी कि वह जब तक प्रतिदिन पांच अजैनोंको श्रावकधर्ममें दीक्षित नहीं करते थे, तब तक आहार नहीं करते थे। 'महाजनवंशमुक्तावली से प्रगट है कि "सं० ११७६ में भी जिनवल्लभसूरिने पड़िहार जातिके राजपूत राजाको जैनी बनाकर महाजन (वैश्य) वंशमें शामिल किया था। उसका दीवान जो कायस्थ था वह भी जैनी होकर महाजन हुआथा ।खीची राजपूत जो धाड़ा मारते थे, जैनी हुये थे। श्री जिनभद्रसूरिने राठोरवंशी राजपूतोंको जैनी बनाया था। सं० ११६७ में उन्होंने परमारवंशी Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०] संक्षिप्त जैन इतिहास । राजपूतोंको जैनी बना लिया था। सं० १११६ मे जिनदत्तमूरिने एक यदुवंशी राजाको जैनधर्ममे दीक्षित किया था, जो मास-मदिरा मक्षक था । मं० ११६८ मे सोलंकी राजपूत भी जैनधर्मको ग्रहण कर चुके थे। सं० ११९८ मे जैनाचार्यने भाटी राजपूत राजाको भी जैनी किया था। सं० ११८१ मे चौहानोंकी २४ जातियां जैनी हुई थीं। दीवान राठी महेश्वरी भी जैनी हुये थे। श्री नेमिचंद्रसूरिने स० ११८७ मे कितने ही राजपूतोंको जैनी किया था। सं० ११९७मे सोनीगरा जातके राजपूत राजाको जैनधर्मानुयायी बनाया था।" नागर वैश्य भी पहले जैनधर्ममे दीक्षित किये जा चुके है। परवार जैनी भी इसी समयके लगभग जैनधर्ममें दीक्षित किये गये थे। ऐसे ही अन्य बहुतसे लोगोंको जैनाचायोंने जैनधर्मकी शरणमे ला बैठाया था। श्री जिनसेनाचार्यने अपने 'आदिपुराण'मे स्पष्ट लिखा है कि प्रत्येक मुमुक्षुको जैनधर्मकी दीक्षा देना चाहिये और उसको आजीविकाके अनुसार उसका वर्ण स्थापित करके प्राचीन जैनोंको उसके साथ रोटी-बेटीव्यवहार करना चाहिये। रोटी-बेटीका व्यवहार इस कालमे उच्च वर्णों तक ही सीमित नहीं था, बल्कि शूद्रोंकी कन्यायें ग्रहण करली जाती थी। हाँ प्रतिलोभ विवाहका रिवाज बन्द सा हो गया था। स्वयंवर प्रथाका बाहुल्यतासे प्रचार था। खान-पानके लिये भोज्य शूद्रों तकके यहाका शुद्ध निरामिष भोजन ग्रहण करना अनुचित नहीं समझा जाता था। १-आदिपुराण पर्व ३९ श्लो० ६१-७१ । २-मादिपुराण पर्व ४२। ३-प्रायश्चित समुच्चय पृ० २१२। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी भारतके अन्य राजा वजैनधर्म। [181 यही कारण है कि जैनाचार्य झट अजैनोंको शुद्ध करके अर्थात् जैनधर्ममें दीक्षित करके उनके यहां आहार जैनधर्मकी व्यवहारिक ग्रहण कर लेते थे। जैनधर्मकी व्यवहारिक उपयोगिता। उपयोगिता भी उस समय नष्ट नहीं हुई थी। राजपूत क्षत्री भी उसे धारण करते हुये अपने जातीय कर्तव्य असि धर्ममें कुछ भी बाधा आती नहीं पाते थे। सच. मुच जैनधर्म राजनीतिमें बाधक है भी नहीं। आत्मरक्षा अथवा धर्म संरक्षणके लिये शास्त्रविद्याका सीखना उस समय वैश्योंके लिये भी आवश्यक था। इस प्रकार साधारणतः उस समयके जैनधर्मका स्वरूप था।