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गुप्त साम्राज्य और जैन धर्म। [९९ कलापको विशेष महत्वकी दृष्टिसे नहीं देखती रहीं। जैनधर्म भी अभीतक अपने नैसर्गिक रूपको धारण किये हुये था । पूजा-पाठकी सादगी और वात्सल्यभावकी विशालता उसमें भी अब भी मौजूद थी। समन्तभद्र स्वामी सम्यक्त्व युक्त एक चांडालको देवोंद्वारा बंदनीय ठहराने है। और उनके टीकाकार श्री प्रभाचंद्राचार्य उसे एक राजाकी बरोबरीमें बैठने योग्य वतलाते है । मथुराके पुरातत्वसे जिनेन्द्रभगवानकी पूजा-अर्चनाकी सरलता स्पष्ट है । भक्तजन अपनेर वरोंके फल-फूल आदि सामिग्री लेजाते थे । और स्त्री-पुरुष एकसाथ मिलकर पूजा-अर्चा करते थे। जिन प्रतिमायें भी दानकी वस्तुयें बताई गई है। जब निर्ग्रन्थ संघ वि० सं० १३६ में दिगंबर और श्वेता
वर नामक दो संप्रदायोमे विभक्त होगया, दिगम्बर जैन संघ। तो दिगंबर संप्रदायका उल्लेख मूल संघके
रूपमें होने लगा और वह चार संघों एवं गणादिमें बंटगया, यह लिखा जाचुका है। इस मूल संवकी स्थापना भी भद्रबाहु द्वितीयके समय हुई थी। भद्रबाहुके उत्तराधिकारी गुप्तगुप्ति नामक आचार्य थे, जिनके उपर नाम अर्हडलि और विशाखाचार्य थे। मूलसंघमें उपरांत माघनंदि प्रथम, जिनचंद्र प्रथम, कुंदकुन्दाचार्य, उमास्वामी, लोहाचार्य दूसरे, यश कीर्ति. यशोनंदि, देवनंदि प्रथम ( पूज्यपाद), जयनंदि, गुणनंदि प्रथम, वज्रनंदि, कुमा
१-रश्रा० पृ०२७ सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् । देवा देव विदुर्भस्मगूढागारान्तरौजसम् ॥ २८॥ २-रश्रा० पृ० ४९ । ३-वीर, वर्ष ४ पृ० ३०४-३११। ४-ईऐ०. भा० २० पृ०-३४६।