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९२] संक्षिप्त जैन इतिहास । काफी था। इससे वहा अहिंसा धर्मकी प्रधानता और ऐसे साधुसघ वतलाकर कि जिनके अनुयायी भिक्षापात्र नहीं रखते थे. वह हमें जैनधर्मके वहु प्रचारके दर्शन कराने है, क्योंकि जैनमतमे ही बौद्धोंके अतिरिक्त 'संघ' बनानेकी पृथा है और जैन साधु भिक्षापात्र नहीं रखते । संकाश्य, श्रावस्ती, राजगृह आदि स्थानोंमे वह स्पष्टत.
जैनधर्मका प्रभाव प्रगट करता है ।' फाह्यान लिखता है कि सकाश्यके सम्बन्धमे बौद्धो और जैनोंमे विवाद हुआ । भिक्षु (बौद्ध) निग्रहस्थानपर आरहे थे।
इससे प्रगट है कि उस समय जैनोंका वहापर प्राबल्य अधिक 'था। संकाश्य सम्भवत. जैनोंका प्राचीन तीर्थ था और बहुत करके वह भगवान विमलनाथनीका तपोन्थान था। उसका अपर नाम 'अघहत' (अघहतिया) इसी वातका द्योतक है । यहापर आज भी अनेक जैन मूर्तिया मिलती है। श्रावस्तीमे भी बौद्धों और "जैनोंमे परस्पर विवाद होनेका उल्लेख वह करता है । ब्राह्मणोसे भी झगडा होता था। साराशतः उस समय संप्रदायोंमे एक दूसरेको नीचा दिखानेकी स्पर्धा चल रही थी। उस कालमें हिंदुधर्मका पुनरुत्थान हुआ था। नवीन हिंदू धर्म इभी समय संगठित हुआ और अधिकाश हिंदू पुराणोंकी रचना भी इसी समय हुई थी ! कहते है कि चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य वैष्णव संप्रदाय युक्त थे ।
कितु फाह्यानके उक्त वर्णनसे यहाके राजाका चंद्रगुप्त और जैनधर्म । परम अहिंसा धर्मानुयायी होना प्रगट है।
और यह स्पष्ट है कि उस समय यहां चंद्रगुप्त १-फाह्यान, पृ० ३५-३६, व पृ० ४०-४५