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गुप्त साम्राज्य और जैनधर्म । [९१ न लहसुन खाता है । दस्युको चाडाल कहते है । च वाहर रहते है और नगरमें जब पैठने है तो सूचनाके लिये लकडी बजाने चलते हैं कि लोग जान जाय और बचकर चलें ! कहीं उनसे छू न जाय। जनपढमें सूअर और मुर्गी नहीं पालते । न जीवित पशु बेचने है । न कहीं सूनागार और मद्यकी दूकानें है । क्रय विक्रयमे कौडियोका व्यवहार है। केवल चाडाल मछली मारने, मृगया करते और मांस बेचते है । यह उस समयके रामराज्यका वर्णन है।
पाटलिपुत्र भी उन्नतिपर था। अशोकका महल अभीतक मौजूद था। 'लोग धनाढ्य और सुखी थे। दानशील संस्थाओं
और अस्पतालोंकी संख्या बहुत थी। पाटलिपुत्र में एक ऐसा अम्पताल था, जिसमें भोजन और वस्त्र भी मुफ्त दिये जाते थे। राजा प्रजाके कामोंमें बहुत कम हस्तक्षेप करता था । सडकें अच्छी थीं। डाकुओ और लुटेरोका डर नहीं था। विद्याका भी खूब प्रचार था। पठन-पाठनका ढग मौखिक था। और प्रजाको धार्मिक स्वतंत्रता थी। फाह्यान लिखता है कि " मध्यप्रदेशमे ९६ पाखण्डोका प्रचार है। सब लोक और परलोक मानते हैं। उनके साधुसंघ हैं। वे भिक्षा करते हैं, केवल भिक्षापात्र नहीं रखते । सब नाना रूपसे धर्मानुष्ठान करते है। मार्गोपर धर्मशालाये स्थापित है। वहा आये गयेको आवास, खाट, विस्तर, खाना पीना मिलता है। यती भी वहां आते जाते है और वास करते है।"
फाह्यानके इस वर्णनसे प्रगट है कि मध्यदेशमे (मथुरासे दक्षिण ) उस समय बौद्धधर्मके अतिरिक्त अन्य मतोंका प्रचार भी १-फाह्यान, पृ०३१.२-भाइ०, पृ०९१-९२.३-फाह्यान, पृ०४६।