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________________ गुप्त साम्राज्य और जैनधर्म । [८९ 'महाराजाधिराज' की पदवी धारण की थी और अपने नामके सोनेके सिक्के चलाये थे । दक्षिण बिहार, अवध, तिर्हत और उसके निकटवर्ती जिलोंमें उसका राज्य था । चन्द्रगुप्तने कुल दस या पंद्रह वर्ष राज्य किया था। उसके बाद चन्द्रगुप्तका बेटा समुद्रगुप्त राजा हुआ । यह वडा योग्य और यशस्वी शासक था। विद्वान् समुद्रगुप्त । लोग इसे हिद नेपोलियन अनुमान करते है । यह विद्वान् और प्रतिभाशाली कवि भी था । संगीत विद्यासे भी उसे बडा प्रेम था। उसने सैकड़ों युद्धोंमे विजय प्राप्त की थी। इसके कारण उसके शरीरमें अनेक घावोंके चिह्न थे। पहले समस्त उत्तरी भारतको वश करके उसने दक्षिण भारतपर अपनी विजय पताका फहराई । उसने अश्वमेध यज्ञ भी किया था। और महाराजाधिराजकी उपाधि धारण की थी। इलाहाबादके किलेवाले स्तम्भ लेखसे प्रगट है कि उसे सब राजा अपना सम्राट मानते थे। विदेशी राज्योंसे भी उसका संबन्ध था। वौद्ध ग्रन्थकार वसुबन्धुसे उसका घनिष्ट संवन्ध था। समुद्रगुप्तका उत्तराधिकारी उनका चंद्रगुप्त नामक पुत्र था। __ यह उनका ज्येष्ठ पुत्र नहीं था, परन्तु समुद्रचन्द्रगुप्त द्वितीय गुप्तने उन्हें ही अपना युवराज बनाया था। (विक्रमादित्य) उसकी उपाधि 'विक्रमादित्य' थी और वह सन् ३७५ ई०में गद्दीपर बैठा था। चन्द्रगुप्तने सौराष्ट्र, मालवा और काठियावाडको जीतकर अपने राज्यमें मिलाया और क्षत्रपवंगी शक लोगोंको लड़ाईमें हराया था। उसकी
SR No.010472
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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