________________
१६४] संक्षिप्त जैन इतिहास । उत्तरीय और पूर्वीय भारतके समान ही दक्षिण भारत और
राजपूतानामे भी जैनधर्म अपना प्रभाव जमाए राजपूतानामें तत्कालीन हुये था। दक्षिण भारतका विशद वर्णन तो जैनधर्म। इस भागके तृतीय खंडमे किया जायगा,
। किन्तु राजपूतानामे जैनधर्मके प्रभावका दिग्दर्शन यहां करा देना अनुचित न होगा। राजपूताना जिसको पुरातन कालमे 'मरुभूमि' कहते थे, जैनधर्मके सम्पर्कमे एक अतीव प्राचीन कालसे आगया था। यदि हम इतिहासातीत कालकी बातको जाने दें और केवल भगवान् महावीरजीके समयसे ही इस सम्बन्धमे विचार करें तो प्रगट होता है कि जैनधर्मका प्रचार वहा भगवान् महावीर द्वारा हुआ था। उनके बाद मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त और संप्रति आदिके प्रशंसनीय प्रयत्नोंके फलस्वरूप जैनधर्मका मस्तक वहा बहुत ऊंचा रहा था। ईसाकी प्रारम्भिक शताब्दियोसे करीब२ तेरहवीं शताब्दि तक जैनधर्म राजपूतानेमे राजाश्रयमे रहकर फलताफूलता रहा था। किन्हीं विद्वानोंका यह ख्याल है कि राजपूत लोगोंपर जैनधर्मकी अहिंसात्मक शिक्षा कुछ भी प्रभाव नहीं डाल सकी थी। किंतु बात वास्तवमे यों नहीं है। जैनधर्मकी अहिंसात्मक शिक्षा किसी भी प्राणीके लौकिक कार्योंमे वाधा पहुंचानेवाली नहीं है। बडे २ जैन राजाओं और सेनापतियोंने वढ चढ़कर लडाइया लडी है, यह बात पूर्व पृष्ठोंके अवलोकनसे स्पष्ट है । उसपर राजपुत्रों (क्षत्रियों) का जन्म ही उस महापुरुष द्वारा हुआ है, जिसने जैनधर्मकी नींव इस कालमे वखी थी।
भगवान् ऋषभदेव ही क्षत्रियोंके आदिपुरुष है। इस दशामें