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गुजरात में जैनधर्म व शे० ग्रंथोत्पत्ति । [ १३५.
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हक़ राजगद्दी पर था । कुमारपालने अजयपालको राजसिंहासन, नहीं दिया, बल्कि हेमचंद्राचार्य आदिकी सम्मतिमे प्रतापमलको ही अपना उत्तराधिकारी नियत कर दिया । इसी समय हेमचद्राचार्यका स्वास्थ्य खराब होगया और उनका स्वर्गवास चौरासी वर्षकी अव-स्थामें सन १९७२ मे होगया ! कुमारपालके दिलको उनके स्वर्गवाससे वडा भारी धक्का लगा और है महीन के भीतर ही उनकी ऐसी शोचनीय दशा होगई कि वह चारपाईसे लग गये । और सन् १९७४ में वह भी अपने गुरुके अनुगामी होगये ! कुमारपाल एक आदर्श राजा थे । उनकी उदारता साधुओं जैसी थी और बुद्धिमत्ता वह एक अच्छे राजनीतिज्ञमे वड चढ़कर थे । वह न्यायी और परिश्रमी भी खूब थे। अपने दैनिक जीवनमे वह सादा मिजाज और मितव्ययी थे तथापि धार्मिक व्रतोको पालन करनेमे वह कट्टर थे। उनकी ' परनारीसहोदर ', ' शरणागतवज्रपञ्जर', 'जीवढाता', ' विचार- चतुर्मुख ' ' दीनोद्धारक ' 'राजर्षि' आदि उपाधियां सर्वथा, उन्हींके उपयुक्त थी ।
पवन |
कुमारपालके पश्चात् अजयपालने राज्यपर अधिकार जमा लिया था | चालुक्य सम्राट् होनेपर उसने सोलंकी राज्यका उन लोगोंस बदला लिया था, जिन्होंने उसके विरुद्ध प्रतापमलको राज्य देनेकी सम्मति दी थी। उसने बड़ी निर्दयतासे पहले राजदरबारियोंकी जीवन लीलायें समाप्त की थी और अनेक जैन मंदिर उसने धराशायी कर दिये थे । राजमंत्री कपर दिनको पकडवाकर उसने बंदीखाने में डलवा दिया था । कवि रामचन्द्रको ताम्बेकी गरम.