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गुजरातमें जैनधर्म व श्व० ग्रंथोत्पत्ति। [११५ पाल सोलंकीके समय जलकर नष्ट होगया था । और उसके स्थानपर पापाण मंदिर निर्मित था । वल्लभीवंगके ताम्रपत्रोंमें वृषभ चिन्ह है
और उनमे भट्टारक शब्द है। इन दोनों बातोंका सम्बन्ध जैनधर्मसे है । मालम होता है इस वंशके कई राजा जैन धर्मानुयायी थे। ___ सन् २२८ ई०का शिलादित्य प्रथम नामक गजा नि संदेह जैनधर्मानुयायी था । फरिस्ताने उसे भारतका राजा जून ' लिखा है । फाह्यान नामक चीनी यात्रीको वल्लभीके जैन राजा भारतपर राज्य करते मिले थे। तब इस वंशका शिलादित्य सप्तम नामक राजा (सन् ३९०) जैन सिंहासनारूढ था। वल्लभीमे फाहानने जिन मंदिरोंके दर्शन किये थे। उस चीनी यात्रीने जैनियोके पर्युषण पर्वमें रथोत्सवकी बडी प्रशंसा लिखी है। फाह्यानने लिखा है कि उन दिनोंमें देशभरमें कोई किसी जंतुका वध नहीं करता था, न मदिरा पीता था न लहसुन-प्याज खाता था। बाजारमे मूनागार नहीं थे, न पशुओंका व्यापार होता था, न कसाईकी दुकानें खुलती थीं और न शरावकी दुकानें थीं। वल्लभीवंशके नाश होने'पर चालुक्योंने दक्षिणसे आकर गुजरातपर अधिकार जमाया था । इस वंशमें संभवतः जयसिह बर्मन परम भट्टारक (६६६-६९३ ) को जैनधर्मसे प्रेम था। इसी समय एक छोटासा गुर्जर राज्य भरूचके पास राज्य करता था। उसमें जयभट्ट प्रथम एक विजयी
और धर्मात्मा राजा था तथा उसकी उपाधिमें वीतराग' शब्द है । इसी प्रकार उसके पुत्र दहा द्वितीयकी उपाधि प्रशातगग' थी।
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१-माडर्नरिव्यू (जुलाई १९३२)पृ ८८ ।