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सम्राट् खारवेल। मिलता है । उससे प्रगट है कि खारवेलके पहले कलिङ्गमे बौद्ध राजा थे। खारवेलने ब्राह्मणोंको साथ लेकर उन्हें मार भगाया और आप स्वयं वहांके राजा बन गये । महान् सेना लेकर उन्होने दिग्विजयकी और वह सार्वभौम सम्राट् होगये । वह भीम कालवेर वीर चक्रवर्ती कहलाते थे।
अन्तमें उन्होंने अपने धर्मगुरुके कहनेसे राज्यका त्याग कर दिया-विष्णु-कर (खर) को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करके वह वनमें जाकर तपस्या करने लगे। शिलालेखमे उनके राज्यके १३ वर्षके उपरांत कोई वर्णन नहीं है। इसका कारण यही है कि थोड़े समय पश्चात् ही वह मुनि होगये थे । उक्त ग्रन्थोंसे भी उनका जैनी होना सिद्ध है। वह श्रावकके व्रतोका अभ्यास पहले ही करने लगे थे। अन्तमे उनका मुनि होजाना स्वाभाविक था।
ईस्वी प्रथम शताब्दिमे कलिग आंध्रवंशके राजाओंके अधिकारमे आगया। उसपर भी जैनधर्मका अस्तित्व वहा ११-१२ वीं शताब्दितक खूब रहा था; किन्तु उपरान्त मुसलमानोंके आक्रमणों एवं जैनेतर संप्रदायोंके प्रावल्यसे वहां जैन धर्मका प्रायः अभाव हो गया। इतनेपर भी आज वहा हजारोंकी संख्या में 'सराक' (श्रावक) लोग मौजूद हैं, जो प्राचीन जैनी है, परन्तु अपनेको भूले हुये है। उनको पुनः जैन धर्ममें लानेका उद्योग होरहा है। सातवीं शताब्दिमें जब चीनी यात्री हुएनसांग यहा आया था, तव भी उसे कलिंगमें जैन धर्म उन्नतावस्थामें मिला था।'
१-जविमोसो०, भा० १६ पृ० १९९-२०३ । २-३० वि० स्मा० पृ०८७-८८1