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१३८] संक्षिप्त जैन इतिहास। राजा और प्रजा दोनों ही संतुष्ट और सुखी थे। एक प्रत्यक्ष दर्शकने लिखा है कि 'वस्तुपालके राजप्रबन्धमे नीच मनुप्याने वृणित उपायों, द्वारा धनोपार्जन करना छोड दिया। बदमाश उसके सम्मुख पीले पड जाते थे और भले मानस खूब फलते फूलने थे। सव ही अपने कार्योको बड़ी नेकनीयती और ईमानदारीसे करते थे। वस्तुपालने लुटेरोंका अन्त कर दिया और दूधकी दुकानोके लिये चबूतरे वनवा दिये । पुरानी इमारतोंका उनन जीर्णोद्धार कराया, पेड जमवाये, कुये खुदवाये, बगीच लगवाये और नगरको फिरसे बनवाया। सब ही जातिपातिके लोगोंके साथ उसने समानताका व्यवहार किया।" यद्यपि। वह स्वयं जैन धर्मानुयायी थे, किन्तु उन्होंने मुसलमानोंके लिये मसजितें भी बनवाई थीं।
तानकी मुल्ला मक्काका जयारतको जाते हुये धोलकासे निकला । वीरधवलकी इच्छा थी कि उसे गिरफ्तार कर लिया जाय, किन्तु वस्तुपाल राजासे सहमत नहीं हुए। उन्होंने मुल्लाकी अच्छी आवभगत की। फल इसका यह हुआ कि दिल्लीके सुलतान और राजा वीरधवलके बीच मैत्रीभाव बढ गया और दोनोंमें संधि होगई । वस्तुपालका आदर भी सुलतानकी दृष्टिमे बढ़ गया । वस्तुपाल और तेजपाल केवल चतुर राजनीतिज्ञ ही नहीं थे, वे वीर मेनापति और सच्चे धर्मात्मा भी थे । इन्होंने अपने राजाके लिये कई लडाइया लडी थीं । कैम्वेके सैदको उनने परास्त किया था । दिल्लीके मुहम्मद गोरी सुलतान मुइज्जुद्दीन बहरामशाहपर इन्होंने विजय पाई थी और गोधाके सरदार घुघुलको उनने हत्साहस किया
१-बम्बई गजेटियर, २-१-१९९ ।