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________________ सम्राट् खारवेल । [ ४९ कालमें हुआ प्रकट होता है, क्योंकि जैन पट्टावलियोंके अनुसार भद्रबाहुजीसे १८३ वर्षोंमें हुये दशपूर्वीयोका अन्तिम समय सन् २०० ई० पू० ठहरता है और इस समय खारवेल विद्यमान थे । इस दशा में कहना होगा कि खारवेलके शुभ प्रयत्न से लुप्त - प्रायः अङ्गग्रन्थ पुनः उपलब्ध हुये थे । समग्र भारतके ऋषि कुमारी पर्वत पर एकत्र हुये थे और वहा जिन२को जिसर अङ्गका जितना ज्ञान था, उसको प्रकट किया था और इस प्रकारके सहयोगसे अङ्गज्ञानका उद्धार होगया। साथ ही इस उल्लेखसे सम्राट् खारवेलका प्राचीन निग्रैथसंघका पोपक होना प्रमाणित है । यह लिखा जाचुका है कि श्रुतकेवली भद्रबाहुजीके बादसे ही जैन संघमें भेद उपस्थित होगया. था. जो ईसवी प्रथम शताब्दिमें पूर्ण व्यक्त हुआ था । सचमुच कलिङ्गमें उस जैन धर्मका प्रचार था जिसमें सम्राट् चंद्रगुप्त मौय्यके समयमें आचार्य स्थूलभद्रकी अध्यक्षतामें एकत्र हुये जैन संघके द्वारा स्वीकृत अङ्ग ज्ञानको स्वीकार नहीं किया गया था । (हॉ जै० पृ० ७०-७२ व जविओसो ० भा० १३ पृ० २३६ ) सम्राट् खारवेलका हाथी गुफावाला शिलालेख भारतीय इतिहासके लिये बड़े महत्वका है । वेदश्रीके खारवेलका शिलालेख | नानाघाटवाले शिलालेखके बाद प्राचीनतामें इसीको दूसरा नंबर प्राप्त है । यह करीब १५ फीट १ इंच लंबा और ५॥ फीट चौड़ा है और १७ पंक्तियोंमें विभक्त है । इसकी भाषा एक ऐसी प्राकृत है, जो अपभ्रंश प्राकृत, अर्धमागधी और पालीमे मिलती जुलती है तथा उसमें जैन प्राकृत शब्द भी है । लिपि उत्तरीय ब्राह्मी है; जिसे J
SR No.010472
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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