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५०] संक्षिप्त जैन इतिहास । वुल्हर सा० सन् १६० ई०पू० इतनी प्राचीन मानते है । शिलालेखमे कुल चार चिन्ह है। इनमेसे प्रथम पक्तिके प्रारम्भमे,जो हे, वह-(१) स्वस्तिका और (२) वर्द्धमंगल है। तीसरा चिन्ह 'नंदिपद' भी प्रथम पंक्तिमे है, परन्तु वह खारवेलके नामके ठीक बादमे अंकित है । यह चिन्ह अशोकके जाडगढके लेख एवं सिकों
आदिमे भी मिलता है । चौथा कल्पवृक्ष लेखके अंतमे है। ऐसे ही चिन्ह उदयगिरिकी सिंह और वैकुण्ठ नामक गुफाओंमे है । यह शिलालेख सन् १७० ई०पू०के समय किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा लिखा गया प्रगट होता है, जो खारवेलसे वयमे वडा था। और जिसको उनका परिचय वाल्यकालसे था। मि० जायसवालने पहले इस लेखमे (पंक्ति १६) मौर्या
व्दका उल्लेख हुआ अनुमान किया था किंतु नन्दाब्द। उनका यह अनुमान ठीक न निकला और
उन्होंने इस पक्तिको फिरसे पढ़ा है एवं इसका अर्थ जैन वागमयका उद्धार करना प्रगट किया है, इस प्रकार यद्यपि मौर्यान्दका कोई उल्लेख इस लेखमे नहीं है, कितु नन्दोंके एक अब्दका उल्लेख (पंक्ति ६) अवश्य है । विद्वान लोग इस नन्द अन्दको नंदवर्द्धन द्वारा प्रचलित किया गया प्रमाणित करते है। वह कहते है कि नन्दवर्द्धनका राज्य ई०पू० सन् ४५७ से प्रारम्भ हुआ था और सन् ४५८ ई० पू०से उनका अब्द प्रारम्भ हुआ था। सन् १०३० के समय जब अलरुनी भारतमे आया था तब यह नंदाब्द मथुरा और कनौजमे बहु प्रचलिन था ।
(जविओसो०, भा० १३ पृ० २३७-२४१)