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संक्षिप्त जैन इतिहास |
जैन मान्यता इसका निकास इक्ष्वाकु नामक क्षत्रिय वासे हुआ प्रगट करती है । वस्तुत. नागवंशजोंक विवाह सम्बन्ध भारतीय क्षत्री घगनोंसे होते थे । अहिच्छत्रमे इस वंशका राज्य सभवतः भगवान पार्श्वI नाथजीके समय से था । तत्कालीन राजाने भगवान पार्श्वनाथकी बढी चिनय की थी। भगवान महावीरजीके तीर्थकाल्मे वहाके एक राजा वसुपाल थे । उन्होंने अहिच्छत्रमे एक सुन्दर और भव्य जैन मंदिर निर्माण कराया था । वहाके कटारी खेडा की खुदाईमे डा० फुहरर सा० ने एक समूचा सभा मंदिर खुदवा निकलवाया था । यह मंदिर ई० पू० प्रथम शताब्दिका अनुमान किया गया है और यह श्री पार्श्वनाथजीका मंदिर था । इसमेमे मिली हुई नम जैन मूर्तिया सन् ९६ से १५२ तककी हे । एक ईंटोंका बना हुआ प्राचीन स्तूप भी वहा मिला था । वहा स्तंभपर एक लेख इस प्रकार था - ' महाचार्यइन्द्रनंदिशिष्य पार्श्वपतिस्स कोट्टारी ।"२
इन वस्तुओंसे ईसवी सन्के प्रारम्भ कालमे वहा जैनधर्मका विशेष प्रचार प्रकट होता है । एक समय मथुराके आसपास भी नागवंशका राज्य रह चुका है। उनकी राजधानी काष्ठा नगरी थी। जैन समाजमे एक काष्ठासंघ विख्यात् है ।
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उसका यह नामकरण उस नगरीकी अपेक्षा हुआ प्रतीत होता है; क्योंकि काष्ठासंघका अपरनाम मथुराकी अपेक्षा माथुरसंघ है और जैन शास्त्रोंमे देश अपेक्षा प्रसिद्ध हुआ कहा भी गया है। अतएव
मथुराका नागवंश और जैनधर्म |
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१ - भपा०, पृ० ३६८ । २ - संप्रा जैस्मा०, पृ० ८१ । ३ - राइ०, भा० १ पृ० २३१ | ४ - जेहि०, भा० १३ पृ० २७२ मैनपुरीके सं०