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१७४] संक्षिप्त जैन इतिहास । तव पनावमे नगरकोट, जो आनकल कोट कागटा नाममे प्रसिद्ध है, एक मुग्व्य जैनतीर्थ था। श्वेतावर जैनांके भी वहा चार मंदिर थे। वहाका गना जैनधर्मम सहानुभूति रखता था । उसके दीवान दि० जैन धर्मानुयायी थे। इस कालमे जैनधर्मकी उन्नति करनेके लिये जैनाचार्योको
अच्छा मुभीता रहा था। जहा आटवी तत्कालीन दिगम्बर शताब्दिके लगभग गदराचार्यकी दिग्विनयके जैन संघ। समक्ष एकवार जैनधर्मको भारी धक्का पहुंचा
था. वहा उपगत कालमे राजाश्रय पाकर वह फिर फलने-फूलने लगा । हम पहले देख आये हे कि दिगंबर
जैनाचार्योका केन्द्र भद्दलपुर (दक्षिण) मे हटकर उज्जैन आगया था। पट्टावलियोंसे प्रगट है कि सन् १०५८ ई० तक उजैन ही जैनाचार्योंका मुख्य स्थान रहा था । उपरान्त वारानगर उनकी कर्मस्थली रही थी। सं० १२६८ मे वहासे हटकर वह केन्द्रस्थल ग्वालि. यरमे जा पहुंचा था। अजमेर और चित्तौड भी इन दिगम्बर जैनाचार्योके लीलारथल रहे थे। इस प्रकार इस कालमे दिगंबर जैन संघका आगमन दक्षिणकी ओरसे उत्तरकी ओर हुआ था । दक्षिण भारतीय जैनोंकी मान्यता है कि एक लक्ष्मीसेन नामक जैनाचार्य बड़े भारी विद्वान् प्रसिद्ध थे। उन्होंने जैनोंके चार विद्यापीठ स्थापित किये थे, जिनमे तीन दक्षिणभारतमे और एक दिल्लीमे था. इससे
१ हि०, भा० १३ पृ०८१। २-ईऐ० भा० २० पृ० ३५१ --३५५ व जैहि०, भा० ६-७-८ पृ० ३२ । ३-जैग०, भा० २२ पृ० ३७ ।
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