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गुप्त साम्राज्य और जैनधर्म। [९७५ पारंगत ब्राह्मण विद्वान् एक ऐसे ही बादमें पराजित होकर जैन होगये थे। उनके उद्गारोंसे पता लगता है कि " उस समय सरल वाद-पद्धति और आकर्षक शांतिवृत्तिका लोगोंपर बहुत अच्छा प्रभाव पडता था। निर्यन्थ अकेले दुकेले ही ऐसे स्थलोपर जापहुंचते थे, और ब्राह्मणादि परवादी विस्तृत-शिष्यसमूह और जनसमुदायके सहित राजसी ठाटवाटके साथ पेश आते थे, नोभी जो यश निर्ग्रन्थोंको मिलता था वह उन प्रतिवादियोंको अप्राप्य था। लोग ब्राह्मणोंके जल्पवितण्डा-परिपूर्ण शुष्क वाद और कर्मकाडके प्रपंचसे ऊब गये थे और शातिपूर्ण सात्विक मार्गके. उत्सुक बन गये थे।"" जैन ऋपियों की प्रतिभाशाली पवित्र लेखनी इन्हीं गुणाको परिपुष्ट करनेवाली ग्रंथ रचनामें प्रवर्त हुई थी। जैनाचार्यो में इस समय प्रायः सब ही आचार्य दक्षिगभारत अथवा मालवा
और गुजरातकी ओरके निवासी थे। इनका विशद वर्णन हम, नीमरे खंडमें करेंगे । इनमें भी कुन्दकुन्दाचार्य, रविपेणाचार्य, उमास्वाति. यतिपम, वण्णदेव, केशवचंद्र, सिद्धसेन दिवाकर इत्यादि आचार्य विशेष उल्लेखनीय है । इनकी मूल्यमय रचनाओंसे। मानवोंका बडा उपकार हुवा था । अध्यात्मवाद, दर्शन, ज्योतिष, इतिहास, काव्य आदि विषयोंमें अपूर्व रचनायें हुई थीं। विमलसूरिका 'पउमचरिय ' जैनरामायणकी एक बहुप्राचीन और मूल्यमई आवृत्ति है । यह आचार्य नागिलवंशके विजय नामक आचार्यके शिष्य थे ।। गुरूशिष्य परंपरासे चले आये हुये रामचरितको इन्होंने वी. नि. सं०
१-जैहि० भा० १४ पृ० १५६-१५७