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सम्राट् खारवेल। नुष्ठान किया था। किंतु खारवेलके इस पराक्रम, चातुर्य और रणकौगलको देखकर ढग रह जाना पडता है। एक ही वर्षमें वह कलिङ्गसे चलकर उत्तर भारतके राजाओंको जीतते हुये मगध जा पहुंचते है और वहाके राजाको परास्त कर डालते है ! उनका यह कार्य ठीक नेपोलियनके दङ्गका है ! इस महाविजयके साथ ही खारवेलको सुदूर दक्षिणके पाण्ड्य
देशके नरेशमे बहुमूल्य रत्न, हाथियोंको ले पांड्यदेशके नरे- जानेवाले जहाज आदि पदार्थ भेंटमे मिले शकी भेट। थे। यह पदार्थ अद्भुत और अलौकिक
थे। मालूम होता है कि खारवेलकी पाण्ड्यनरेगमे मित्रता श्री ! इस प्रकार साम्राज्य विस्तारके इन प्रयत्नोंका 'फल यह हुआ कि कलिङ्गका साम्राज्य बढ़ गया। तथापि उस समयके प्रसिद्ध राज्य मगधपर अपना अधिकार जमाकर खारवेलने अपने आपको समग्र भारतमें सर्वोपरि गासक प्रमाणित कर दिया। वह भारतवर्षके सम्राट होगए। __ यहा यह दृष्टव्य है कि उस समय कलिंगकी गणना भारत
वर्षमें नहीं होती थी। इस कालके दो शतातत्कालीन दशा। दि बाद समग्र भारतका उल्लेख 'भारतवर्षे
के नाममे होने लगा था। जैनधर्मका इस समय बहु प्रचार था । मौर्य साम्राज्यके नष्ट होनेके पश्चात् अवश्य ही जैनधर्मकी प्रभा शिथिल होगई थी। शुङ्गवंश एवं दक्षिणके सातवाहन वंश ब्राह्मण धर्मानुयायी थे। उनके द्वारा वैदिक धर्मको उत्तेजना मिली थी और अश्वमेधादि यज्ञ भी हुए थे। किन्तु खार