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गुजरातमें जैनधर्म व श्वे० ग्रंथोत्पत्ति। [१२३ पुरसे २० मिलकी दूरीपर लखमेश्वर नामक स्थानसे तीन शिलालेख (१) राजा विनयदित्य (६८०-६९७), (२) विजयदित्य (६९७-७३३), (३) और राजा विक्रमादित्य द्वितीय (७३३७४७ ) के शासनकालके मिले हे उनमें जैन मंदिरों और गुरुओको दान देनेका उल्लेख है । इन दातारोंमे एक हरिकेशरीदेव वंकापुरके निवामी थे। इन्होंने पांच धार्मिक महाविद्यालयोंकी स्थापना की थी। यह नगरसेठ थे और महाजन थे । इस समय यह स्थान जैनधर्मका केन्द्र बनरहा था। श्रीगुणभद्राचार्यजीने अपना 'उत्तरपुराण' सन् ८९८ में वहीं समाप्त किया था । तब यह स्थान वनवासी राज्यकी राजधानी थी और यहा राष्ट्रकूटवंशी राजा अकालवर्षका सामन्त लोकादित्य राज्य करता था. जो जैनधर्मका भक्त था। चालुक्यवंशमें सत्याश्रय पुलिकेशी द्वितीयके समान कोई भी प्रतापी राजा नहीं हुआ। वह शक सं० ५३१में राजगादी पर बैठा था। इस वंशके अन्य राजाओंका विशेष वर्णन हम तीसरे खण्डमें करेंगे। राष्ट्रकूट वंशके राजा लोग गुजरातमें सन् ७४३ में शासना
धिकारी हुये थे। यह अपनेको चन्द्रवंशीअथवा राष्ट्रकूटवंशमें जैनधर्म। यदुवंशी कहते है। राष्ट्रकूटवंशी राजा गोविंद
तृतीयने ( ८१२ ई० ) लाटदेश (गुजरात) का राज्य अपने छोटे भाई इन्द्रराजके सुपुर्द किया था। गोविन्द बड़ा प्रतापी राजा था। प्रभूतवर्ष गंगवंशी द्वितीयने चाकि राजाके अनुरोधसे जैन मुनि विजयकीर्तिके शिष्य अर्ककीर्तिको दान दिया
१-माप्रारा०, भा० ३ पृ० ६९।