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गुजरातमें जैनधर्म व श्वे० ग्रंथोत्पत्ति। [११९
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बताया गया है, वह 'सुत्तनिपात' (३-१)मे वर्णित म० वुद्ध और श्रेणिकके मिलापकी याद दिलाता है। अगाडी ' उत्तराध्ययन ' में हरिकेश आदिकी कथायें बौद्धोकी जातक कथाओंके समान है।" 'उत्तराध्ययन सूत्र एव अन्य अंगग्रन्थ भी किसी एक आचार्यकी रचना नहीं है। बल्कि वह कई विद्वानोंकी रचना है, यह विदेशी विद्वानोंने सिद्ध किया है। अतएव यह हो सकता है कि क्षमाश्रमणने संग्रह करते हुये बौद्ध श्रोतसे भी साहाय्य ग्रहण कर लिया हो; जिससे उनकी रचनायें प्राचीन प्रगट हो। श्वेताम्बरोंने जो अपने साधुओके भेषका वर्णन किया है. वह ठीक एक बौद्ध भिक्षुके भंपके समान है। बौद्ध भिक्षुके लिये तीन 'चीवरों' (वस्त्रों) को रखनेका विधान है, श्वेताम्बर ग्रंथ भी 'स्थिवरकल्पी' जैन साधुके लिये तीन वस्त्रोतकको धारण करनेकी आज्ञा देते है। इनके नाम भी प्रायः दोनों संप्रदायोंमें एक समान हैं, जैसे अन्तरिजर्ग-पाली अन्तरावासकं, उत्तरिज्जगं-उत्तरासंगं, संघाडि संघाटि। इसके अतिरिक्त दोनों संप्रदायोके शास्त्रोंमें एक जैसे ही वाक्य और शब्द भी मिलते है। जैसे कि प्रो० पी० वी० वपट सा० ने प्रगट किये है।
(१) वेयरनीऽभिदुग्गां (श्वे. जैन--सूय० १-५-१-८) अथ वेतरणिम् पनदुग्गं (बौद्ध. - सुनि० ६७४)।
(२) विपरिया समुवेन्ति (आसू० १-२-६-३) विपरियासमेन्ति ।
१-उसू०, भूमिका पृ० ३८-४६ । २-उसू० भूमिका पृ० ४०-५० व जैन सुत्रकी भूमिका | २-सऑमि वॉ० भा० २ पृ० ९६-९७