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THE FREE INDOLOGICAL
COLLECTION
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- The TFIC Team.
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राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला
प्रधान सम्पादक :- पद्मश्री जिनविजय मुनि, पुरातत्त्वाचार्य [ सम्मान्य संचालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर ]
ग्रन्थाङ्क ६८
समदर्शी श्राचार्य हरिभद्र
प्रकाशक राजस्थान राज्य सस्थापित
राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान
जोधपुर (राजस्थान)
RAJASTHAN ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE, JODHPUR
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राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला
राजस्थान राज्य द्वारा प्रकाशित सामान्यत अखिल भारतीय तथा विशेषत. राजस्थानदेशीय पुरातनकालीन सस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, हिन्दी अादि भापानिबद्ध
विविध वाङ्मयप्रकागिनी विशिष्ट ग्रन्थावली
प्रधान सम्पादक पद्मश्री जिनविजय मुनि, पुरातत्त्वाचार्य सम्मान्य सचालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, ऑनरेरी मेम्बर ऑफ जर्मन श्रोरिएण्टल सोसाइटी, जर्मनी, निवृत्त मम्मान्य नियामक ( प्रॉनरेरी डायरेक्टर ) भारतीय विद्याभवन, वम्बई; प्रधान सम्पादक,
निधी जैन ग्रन्थमाला, इत्यादि
ग्रन्थाङ्क ६८
समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र
प्रकाशक
राजस्थान राज्याज्ञानुसार सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान
जोधपुर ( राजस्थान)
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समदर्शी आचार्य हरिभद्र
[ बम्बई यूनिवर्सिटी सञ्चालित ठक्कर वसनजी माधवजी व्याख्यानमाला मे दिये गये पाँच व्याख्यान ]
विक्रमाब्द २०१६ प्रथमावृत्ति १०००
व्याख्याता
पण्डित सुखलालजी संघवी, डी. लिट्.
अनुवादक शान्तिलाल म. जैन शास्त्राचार्य
एम. ए.,
प्रकाशनकर्त्ता
राजस्थान राज्याज्ञानुसार
सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर ( राजस्थान )
} भारतराष्ट्रीय शकाब्द १८८४
मुद्रक - श्री सोहनलाल जैन, जयपुर प्रिन्टर्स, जयपुर
ख्रिस्ताब्द १९६३
मूल्य ३००
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सञ्चालकीय निवेदन
पुरोवचन
व्याख्यान पहला
प्राचार्य हरिभद्र के जीवन की रूपरेखा :
व्याख्यान दूसरा
जन्मस्थान ५; माता-पिता ७, समय ८ भवविरह १३, पोरवाल जाति की स्थापना १६
व्याख्यान तीसरा
अनुक्रमणिका
दर्शन एवं योग के सम्भवित उद्भवस्थान- उनका प्रसार
गुजरात के साथ उनका सम्बन्ध-उनके विकास में हरिभद्रसूरि का स्थान :
व्याख्यान चौथा
उद्भवस्थान १७ ; प्रसार २६, गुजरात के साथ सम्वन्ध २६, श्राचार्य हरिभद्र का स्थान ३५; समत्व ३५; तुलना ३५, बहुमानवृत्ति ३६; स्वपरम्परा को भी नई दृष्टि और नई भेंट ३६, अन्तर मिटाने का कौशल ३६
दार्शनिक परम्परा में प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता : पड्दर्शनसमुच्चय ४०; शास्त्रवार्तासमुच्चय ४६
व्याख्यान पाँचवाँ
योग - परम्परा मे आचार्य हरिभद्र की विशेषता - १ योगशतक ७३, योगविशिका ७६
परिशिष्ट १
परिशिष्ट २
शब्दसूची शुद्धिपत्रक
योग - परम्परा मे आचार्य हरिभद्र की विशेषता - २ योगदृष्टिसमुच्चय और योगबिन्दु ८०, उपसहार १०५
विद्याभ्यास १०,
6501
2004
•
2008
20.0
4...
१-१६
...
१७-३७
३६-६०
६१-७७
७८-१०५
१०७
१०८
११०
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संचालकीय निवेदन
राजस्थान पुरातन ग्रंथमाला का प्रारंभ करते समय मन मे यह भावना थी कि राजस्थान की विविधरंगी ज्ञानश्री का दर्शन जिज्ञासु को कराना । अबतक जो ग्रन्थ प्रकाशित हुए है, उनमे जो वैविध्य है वह किसी भी पाठक से छिपा नही है। हमारा यह प्रयत्न रहा है कि राजस्थान मे जो सांस्कृतिक सामग्री छिपी हुई पड़ी है उसको प्रकाश मे लाना । इस दृष्टि से हमने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और प्राचीन राजस्थानी भाषा के ननेक विषय के ग्रन्थों का प्रकाशन किया है । और, अब राजस्थान की साहित्यिक श्री के निर्माताओ मे अग्रणी आचार्य हरिभद्र के जीवन की तथा उनके दर्शन और योग विषयक साहित्य मे योगदान की विशद् व्याख्या करने वाला पंडितप्रवर श्री सुखलालजी संघवी का 'समदर्शी श्राचार्य हरिभद्र' नामक ग्रंथ प्रकाशित करते हुए हमे परम प्रमोद का अनुभव हो रहा है |
श्राचार्य हरिभद्र का बाल्यकाल अाधुनिक चित्तौड के पास स्थित प्राचीन भग्नावशिष्ट माध्यमिका नगरी मे बीता था । जैन दीक्षा लेने के बाद तो समग्र राजस्थान और गुजरात मे उन्होने विचरण किया होगा । आचार्य हरिभद्र ने किस विषय मे नही लिखा ? कथा - उपदेश से लेकर तत्कालीन विकसित भारतीय दर्शन के महत्त्वपूर्ण ग्रंथ उन्होने लिखे । कथाकार, धर्मोपदेशक, वादी, योगी और समदर्शी तत्त्वचिन्तक के रूप मे वे अपने साहित्य के माध्यम से हमारे समक्ष उपस्थित होते है । उनके इस बहुदर्शी जीवन मे से समत्व को प्रदर्शित करनेवाले योग और दर्शन विषयक ग्रन्थो का अध्ययन करके पंडितप्रवर श्री सुखलालजी ने बंबई यूनिवर्सिटी
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गुजराती भाषा मे जो व्याख्यान दिये थे, प्रस्तुत ग्रंथ उनका हिन्दी अनुवाद है । इसमे आचार्य हरिभद्र की योग और दर्शन विषयक साहित्य मे जो अपूर्व देन है उसकी विशद व्याख्या की गई है । आचार्य हरिभद्र वैदिक, बौद्ध और जैन तीनो परंपराश्रो के योगविषयक साहित्य से पूर्ण परिचित थे, किन्तु साहित्यिक परिचय होना एक बात है। और योग का अनुभव दूसरी बात । श्राचार्य हरिभद्र के योगविषयक ग्रंथो मे जिस समन्वयदृष्टि का दर्शन हमे होता है वह केवल श्रध्ययन का परिणाम न होकर अनुभवजन्य भी है । यही कारण है कि वे, परिभाषा का भेद होते हुए भी, विविध योगमार्गों मे प्रभेद का दर्शन स्वयं कर सके और भावी पीढी के लिये अपने अनुभव का निचोड अपने योगविषयक ग्रंथो मे निबद्ध भी कर सके । प्राचार्य हरिभद्र की तत्त्वचितक
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दृष्टि से दार्शनिको के वादो की निस्सारता भी प्रोझल न रह सकी। यही कारण है कि उन्होने अपने शास्त्रवार्तासमुच्चय नामक ग्रंथ मे सव दर्शनो मे परिभाषामेद के कारण होनेवाले विवाद का शमन करके अभेद दर्शन कराया है। इतना ही नहीं, किन्तु 'कपिल आदि सभी दार्शनिक प्रवर्तको का समान रूप से श्रादर करणीय है, क्योकि वे सभी समान भाव से वीतरागपद को प्राप्त थे'-इस बात का तर्कसंगत समर्थन भी आचार्य हरिभद्र ने किया है । राजस्थान की एक विभूति ने भारतीय योगमार्ग और दर्शनमार्ग में इस प्रकार अभेददर्शन उपस्थित किया, यह राजस्थान के लिये गौरव की बात है। अतएव 'समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र' का प्रस्तुत प्रकाशन राजस्थान पुरातन ग्रंथमाला मे हो, यह सर्वथा समुचित है।
'समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र' के लेखक-व्याख्याता पंडितप्रवर श्री सुखलालजी मेरे परम श्रद्धेय मित्र है। उनकी तलस्पर्शी विद्वत्ता का विशेष परिचय देने की आवश्यकता नही है । जिस प्रकार प्राचार्य हरिभद्र के जीवन का सार समदर्शित्व है उसी प्रकार पडित श्री सुखलालजी का जीवनकार्य भी समत्व की आराधना है। उन्होने भी समग्र भारतीय दर्शनों का अध्ययन किया है और विरोधशमन के मार्ग की शोध की है। उनके समग्र साहित्य की एक ही ध्वनि है कि विविध विचारधारामो मे, फिर वे दार्शनिक हो, धार्मिक हों या राजनैतिक, किस प्रकार मेल हो ? जन्म से गुजराती होकर भी उन्होने गुजराती की ही तरह राष्ट्रभाषा हिन्दी को भी अपने साहित्यलेखन के माध्यम के रूपमे अपनाया है। उनके हिन्दी लेखन का आदर करके राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा ने उन्हे महात्मा गाधी पुरस्कार प्रदान किया, जो अहिन्दीभापी लेखको को हिन्दी मे उच्च कोटि का साहित्य लिखने के कारण दिया जाता है । उनके गुजराती साहित्य का आदर करके भारत सरकार प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी ने उनके 'दर्शन अने चिंतन' नामक गुजराती लेखो के संग्रहग्रथ के लिये ५०००) का और बंबई सरकार ने २०००)का पुरस्कार दिया था। प्रस्तुत 'समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र' के लिये भी गुजरात सरकार ने पुरस्कार दिया है । इनके अतिरिक्त अन्य भी कई पुरस्कार उन्होने प्राप्त किये है । उन्होने संस्कृत-प्राकृत मे कई ग्रन्यो का संपादन किया है । उनके सपादनो मे तुलनात्मक टिप्पणो की विशेषता है, जो उनके द्वारा संपादित ग्रन्थो के पूर्व दुर्लभ थी। उनके संपादनो मे विस्तृत प्रस्तावनाएँ लिखी गई हैं, जो तत्तद्विषय का हार्द खोलकर वाचक के समक्ष रख देती हैं। ई स. १६५७ मे अखिल भारतीय स्तर पर उनका सम्मान बंबई मे किया गया। तव तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ० राधाकृष्णन ने उनके शिष्यो और प्रशंसको के द्वारा एकत्र की गई करीब एक लाख की निधि उनको समर्पित की थी। उसका श्रीपंडितजी ने
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ज्ञानोदय ट्रस्ट के नामसे एक सार्वजनिक ट्रस्ट बना दिया है । भारतीय धर्म और संस्कृति के विषय मे अध्ययन और लेखन को प्रगति देने के लिये उस ट्रस्ट के धन का उपयोग सार्वजनिक रूप से होता है। मैने एक राजस्थानी प्राचार्य के विषय मे लिखा गया ग्रन्थ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो यह इच्छा श्रद्धेय पंडित श्री सुखलालजी के समक्ष प्रदर्शित की, तब पंडितजी ने उसे सहर्ष स्वीकार किया औरज्ञानोदय ग्रन्थमाला मे प्रकाशित न कराकर हमें वह दे दिया। एतदर्थ ग्रन्थमाला की ओर से मै उनका आभार मानता हू । यहाँ मै यह भी निर्दिष्ट कर देना चाहता हूँ कि ज्ञानोदय ट्रस्ट के ट्रस्टियों ने ही गुजराती से हिन्दी मे अनुवाद के लिए खर्च किया है। एतदर्थ मैं ज्ञानोदय ट्रस्ट का भी आभार मानता हूं।
बंबई यूनिवर्सिटी द्वारा ये व्याख्यान दिये गये थे और उस यूनिवर्सिटी ने ही गुजराती मे उन्हें प्रकाशित किया है । उनका हिन्दी अनुवाद ज्ञानोदय ट्रस्ट प्रकाशित करे इसकी अनुमति यूनिवर्सिटी के अधिकारियो ने श्री पडितजी को दी थी। उन्होने उसी अनुमति के बल पर हमे इसे प्रकाशित करने की अनुज्ञा दी है । अतएव यहाँ बंबई यूनिवर्सिटी का भी आभार मानना आवश्यक है।
'प्राशा है, प्रस्तुत प्रकाशन से समस्त राजस्थान का विद्वद्वर्ग अपने एक अतीत समदर्शी विद्वान् प्राचार्य का परिचय पाकर गौरव का अनुभव करेगा और अन्य हिन्दी भाषाभाषी विशाल वाचकवर्ग भी राजस्थान के इस बहुमूल्य विद्वद्रत्न का परिचय पाकर अपने को धन्य समझेगा।
आषाढ़ी पूणिमा, स० २०२० वि०
मुनि जिनविजय
सम्मान्य सचालक राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान
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प्रस्तुत हिन्दी अनुवाद
मूल गुजराती व्याख्यानो का यह हिन्दी अनुवाद अहमदावाद को श्री ह. का० आर्ट स कॉलेज के संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी के प्राध्यापक श्री गांतिलाल म० जैन ने किया है। कई मियो का यह आग्रह था कि हिन्दी में ये व्याख्यान प्रकाशित हों यह आवश्यक है; अतएव मेने वम्बई यूनिवर्सिटी से हिन्दी में प्रकागन की अनुमति मागी, जो उसके अधिकारियो ने सहर्प दी। एतदर्थ मै उनका आभारी है। पहले यह विचार था कि यह अनुवाद ज्ञानोदय ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित किया जाय, किन्तु मेरे सहृदय मित्र और राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान के अध्यक्ष प्राचार्य श्री जिनविजयजी ने राजस्थान पुरातन ग्रंथमाला में प्रकाशित करने की इच्छा प्रदर्शित की । मैने साभार यह मजूर किया और यह सुन्दर हिन्दी प्रकाशन अव वाचको के समक्ष उपस्थित है। हिन्दीभाषी जिज्ञासुओ की तृप्ति यदि इस अनुवाद से होगी तो में अपना तथा अनुवादक और प्रकाशक का श्रम सफल समझूगा।
सुखलाल संघवी
अहमदावाद २५-४-६३
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पुरोवचन ठक्कर वसनजी माधवजी व्याख्यानमाला की ओर से उस व्याख्यानश्रेणी में व्याख्यान देने का निमंत्रण जब मुझे मिला और मैंने उसको स्वीकार किया, तब गुजरात के किसी असाधारण विद्वान् एवं उसकी कृतियो के विषय मे कुछ कहने का विचार मेरे मन मे आया। परन्तु किस एक विद्वान् एवं उसकी किन कृतियो के बारे मे व्याख्यान दिये जायें यह एक विचारणीय विषय था।
प्राचार्य हरिभद्र के पूर्ववर्ती एवं उत्तरवर्ती कितने ही जैन, बौद्ध और वैदिक विशिष्ट विद्वान् दृष्टिसमक्ष उपस्थित हुए। मेरे अध्ययन एवं चिन्तन के परिणामस्वरूप उनमे से प्रत्येक की विशिष्टता तथा असाधारणता मुझे प्रतीत होती थी, और इस समय भी होती है। तार्किक मल्लवादी और उनके व्याख्याकार सिंहगणी क्षमाश्रमण इन दोनो की कृतियाँ दर्शन और तर्क-परम्परा मे अनेक अज्ञात मुद्दो पर प्रकाश डालने में समर्थ है। श्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण महाभाष्यकार के रूप मे प्रख्यात हैं। शून्यवादी महायानी शान्तिदेवसूरि अहिंसा-धर्म के मार्मिक पुरस्कर्ता के रूप मे विश्वविश्रुत है । कवि-वैयाकरण भट्टि भी अपना एक विशिष्ट स्थान रखते है और ये विद्वान् तो प्राचार्य हरिभद्र के पहले तथा वलभी एवं भड़ोंच के क्षेत्र की मर्यादा मे विचरण करते थे, यह सुविदित है ।
श्राचार्य हरिभद्र के उत्तरवर्ती अनेक विशिष्ट विद्वानो मे से यहा तो दो-चार के नाम का ही निर्देश पर्याप्त होगा . वादी देवसूरि, प्राचार्य हेमचन्द्र, प्रसिद्ध टीकाकार मलयगिरि और अन्त मे न्यायाचार्य यशोविजयजी। इनमे से किसे पसन्द करना इस विचार ने थोडी देर के लिये मुझे उलझन में डाला तो सही, पर अन्त मे प्राचार्य हरिभद्र ने मेरे मन पर अधिकार जमाया। मैने उनके विषय मै भाषण तैयार करने का निश्चय किया तब मेरे मन मे उनकी जो विशिष्टता रममाण थी उसके खास कारण है । उनमे से दो-एक का निर्देश करना उचित होगा।
प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता प्राचार्य हरिभद्र ने प्राकृत-संस्कृत भाषा मे अनेक विषयों पर अनेक ग्रन्थ लिखे हैं, तो उस कोटि की विद्वत्ता तो प्राचार्य हेमचन्द्र तथा न्यायाचार्य यशोविजयजी मे भी है । यह सब होने पर भी प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता केवल गुजरात मे ही
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तैयार हो जाय । इस उपचार मे न पडकर मेरे हृदय मे उनका जो स्थान एवं मान अकित है उसका संकेत करके मै सन्तोष मानता हूँ।
परन्तु सकेतमात्र से सन्तोष मानने के बाद भी चारेक नामों का यहाँ निर्देश करना मुझे अनिवार्य लगता है। कवि-प्राध्यापक श्री उमाशंकर जोशी तथा प्राध्यापक डॉ० श्री मनसुखलाल झवेरी इन दोनो का हार्दिक आग्रह इतना अधिक था कि मैं वम्बई विश्वविद्यालय का निमंत्रण स्वीकार करने के लिए उत्सुक हुआ । श्री भो. जे. विद्याभवन के डाइरेक्टर और मेरे सदा के विद्यासखा श्रीयुत रसिकमाई छो परीख और श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर के डाइरेक्टर पं. श्री दलमुखभाई मालवणिया इन दोनो ने मेरे व्याख्यान सुनकर आवश्यक सूचनाएं की हैं। मै इन चारो विद्वानो का विशेष रूप से कृतज्ञ हूँ।
सरित्कुज, पाश्रम रोड, अहमदाबाद-६. ता० ३० जून, १९६१
सुखलाल संघवी
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व्याख्यान पहला प्राचार्य हरिभद्र के जीवन की रूपरेखा वम्बई विश्वविद्यालय के संचालको ने मुझे 'ठकर वसनजी माधवजी व्याख्यानमाला' मे व्याख्यान देने के लिए प्रामत्रित किया। इस आमंत्रण के लिए आभार मानना या इसे भार रूप समझना, ऐसी एक मिश्र अनुभूति मेरे मन में उत्पन्न हुई । मैं चिन्तन-मनन एवं लेखन के भार से यथाशक्य दूर रहना चाहता था, तब उसी काम के उत्तरदायित्व का स्वीकार करने मे भार का अनुभव होना स्वाभाविक है, परन्तु विश्वविद्यालय जैसी सस्था के प्रामत्रण ने, मित्रो के सहृदय अनुरोध ने और ऐसे विषय के परिशीलन के लम्बे समय से मन मे पडे हुए संस्कारो ने मेरा वह भार एक तरह से हल्का किया और मै पुन. चिन्तन-मनन-लेखनकी आनन्द-पर्यवसायी प्रवृत्ति मे लग गया। ऐसा होते ही प्रारम्भ मे प्रतीत होने वाला वह भार अा-भार अर्थात् ईषद्-भार मे पर्यवसित हो गया। यही है मेरा आभार-निवेदन ।
प्रस्तुत व्याख्यानमाला मे कई ऐसे धुरन्धर विद्वान् व्याख्यान दे गये है कि उनके नाम एवं कार्य को देखते हुए मेरा मन उनकी पक्ति मे बैठने के लिए तैयार नही होता था, परन्तु जब व्याख्यानमाला के सचालको ने उस पक्ति मे मुझे रख ही दिया तब मै एक प्रकार से गौरव का अनुभव करता हूँ, जिसमे वस्तुत देखा जाय तो लाघववृत्ति ही मुख्य रूप से रही हुई है। आज तक के व्याख्यानो के विपयो की ओर दृष्टि डालने पर मुझे तो ऐसा भी लगता है कि मै उन पूर्व सूरियो के पथ से कुछ विलग-सा जा रहा हूँ।
बहुश्रुत, इतिहासकोविद और ब्राह्मणवृत्ति के श्री दुर्गाशंकर भाई के 'भारतीय संस्कारोनुं गुजरातमा अवतरण' विषय पर दिये गये उदात्त पाँच व्याख्यान सुन रहा था, तभी मनमे विचार आया कि क्या गुजरात ने भारतीय संस्कारो का मात्र अपने मे अवतरण ही होने दिया है या उस अवतरण को आत्मसात् करके और उसे पचा कर अपनी विशिष्ट प्रतिभा एवं परम्परा के बल पर उस अवतरण को कोई अपूर्व कहा जा सके ऐसा आकार भी दिया है जो भारतीय संस्कारो मे मनोरम एवं अभिनव भी हो ? इस विचार से जब मै मेरे परिशीलन का प्रत्यवेक्षण अथवा पुनरावलोकन करने
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नही, परन्तु मै जानता हू वहाँ तक, सभी परम्परायों के भारतीय पण्डितों मे निराली श्रौर विरल है । वह विशेषता है साम्प्रदायिक अनेक विषयों के पाण्डित्य के अलावा अपनी कृतियो के द्वारा प्रकट होने वाली उनकी मानसिक एवं ग्राध्यात्मिक ऊर्ध्वगामी वृत्ति ।
उनकी यह वृत्ति किस-किस कृति में किस-किस रूप में श्राविर्भूत हुई है यह दिखलाने के लिए मैने उनकी दर्शनविषयक शास्त्रवार्तासमुच्चय श्रीर पड्दर्शनसमुच्चय इन दो ही कृतियो को तथा योगविषयक उनकी ज्ञात एवं लभ्य चारो कृतियोयोगविशिका, योगशतक, योगविन्दु र योगदृष्टिसमुच्चय- को लेकर अपना वक्तव्य तैयार किया है । यहाँ विशेष रूप मे उसके समर्थन मे कुछ कहने को श्रावश्यकता नही है, यहाँ तो अधिकारी जिज्ञासु एवं उदार पाठको के समक्ष इतना ही निवेदन पर्याप्त होगा कि वे तीसरे और चौथे-पांचवे व्याख्यानो मे उन ग्रन्थो के बारे मे जो संक्षेप में कहा है उसका स्वस्थ चित्त से वाचन एवं मनन करे ।
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मै केवल पाण्डित्य की दृष्टि से प्राचार्य हरिभद्र पर विचार करने के लिए प्रवृत्त नही हुआ । यह तो उनके अनेक विषयों के श्रनेक ग्रन्थ लेकर दिखलाया जा सकता है । पाण्डित्य, विद्याव्यासंग तथा बहुश्रुतत्व - यह सब उपयोगी है ही, फिर भी जीवन मे इनमे भी उच्चतर स्थान निष्पक्ष दृष्टि का, स्व-पर पत्थ या सम्प्रदाय का भेद विना रखे प्रत्येक मे से गुरण ग्रहण करने की वृत्ति का तथा इतर सम्प्रदायो के विशिष्ट विद्वानो और साधको के प्रति भी समझदार चिन्तको का ध्यान सबहुमान प्रापित हो वैसी निरूपणशैली का है । श्राचार्य हरिभद्र मे ये विशेषताएँ जितनी मात्रा मे श्रौर जितनी स्पष्टता से दृष्टिगोचर होती है उतनी मात्रा मे और उतनी स्पष्टता से दूसरे किसी भारतीय विद्वान् मे प्रकट हुई हो तो वह एक शोध का विषय है ।
आचार्य हरिभद्र ने समन्वय की तीन कक्षाएँ सिद्ध की है । अनेकान्तवाद की व्यापक प्रभा से विकसित नववाद में जो समन्वय का प्रकार है उसका पल्लवन तो प्राचार्य हरिभद्र से पहले भी जैन- परम्परा में हुआ है । श्रत वह प्रकार तो सहजभाव से उनके ग्रन्थो मे श्राता ही है । परन्तु इतर दो प्रकार, जिनका पल्लवन-पोषण उन्होने किया है, वह तो केवल उनको अपनी ही विशेषता है । उनमे से पहला प्रकार यह है कि परस्पर विरोधी दर्शन-परम्परानों में दर्शन अथवा आचार के बारे मे मात्र उस-उस परम्परा को ही मान्य जो रूढ परिभाषाएँ प्रचलित हैं- जैसे कि ईश्वरकर्तृत्ववाद, प्रकृतिवाद, अद्वैत, विज्ञान, शून्य जैसी परिभाषाएँ उनको प्राचार्य हरिभद्र ने उदात्त और
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व्यापक अर्थ प्रदान किया है एवं ये परिभाषाएँ स्वयं उन्हे किस प्रकार अभिप्रेत है यह भी दिखलाया है। दूसरा प्रकार उनके इस प्रयत्न मे है कि अर्थ एक होने पर भी भिन्न-भिन्न परम्परानो मे उसके लिए जो भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ स्थिर हुई हैं जैसे कि अविद्या, मोह, दर्शनमोह तथा ब्रह्म, निर्वाण इत्यादि-वे परिभाषाएँ किस प्रकार एक ही अर्थ की सूचक है, यह दिखलाना ।
___ यह और इसके समान दूसरी बहुत-कुछ जानने योग्य सामग्री प्रस्तुत व्याख्यानों मे से पाठको को प्राप्त होगी । यदि प्रोजके विकसनशील दृष्टिबिन्दु को नजर के सामने रखकर कोई प्राचार्य हरिभद्र के उपर्युक्त ग्रन्थो का सागोपाग अध्ययन करेगा तो उसका अध्ययन विद्या के क्षेत्र मे एक बहुमूल्य योगदान समझा जायगा।
प्राचार्य हरिभद्र के व्यक्तित्व का निर्माण मुख्यत. चार-कथाकार, तत्त्वज्ञ, आचारशोधक एवं योगी के रूपो मे हुआ है। उनका सुप्रसिद्ध प्राकृत कथाग्रन्थ समराइच्चकहा है, जिस पर डॉ० हर्मन जेकोबी ने काफी लिखा है और विद्वानो का ध्यान आकर्षित किया है । तत्त्वज्ञ अर्थात् तार्किक-दार्शनिक के रूप मे उनके संस्कृत मे लिखे गये अनेकान्तजयपताका और प्राकृत मे लिखे गये धर्मसग्रहणी जैसे ग्रन्थ मुख्य है। आचार-संशोधक के रूप मे उनके माने जानेवाले सम्बोधप्रकरण मे उन्होने मामिक समालोचना करके यह दिखलाया है कि सच्चा साध्वाचार कौनसा है । योगाभ्यासी के रूप मे उन्होने योगविन्दु आदि चार ग्रन्थ लिखे है, जो योग-परम्परा के साहित्य मे अनेक दृष्टि से विरल कहे जा सकते है ।
__ अाभार निवेदन बम्बई विश्वविद्यालय की ओर से ठक्कर वसनजी माधवजी व्याख्यानमाला के व्यवस्थापको ने मुझे निमन्त्रित न किया होता तो उक्त विश्वविद्यालय के हॉल मे अनेक अधिकारी श्रोताग्रो के समक्ष मेरे विचार प्रदर्शित करने का अवसर मुझे प्राप्त न होता, और मेरे अपने जीवन मे असम्भाव्य ऐसी धन्यता के अनुभव का अवसर उपलब्ध न होता, तथा ये भापण इस रूप में ग्रन्थाकार प्रकट करने का प्रसंग भी न आता। इसके लिए मै इस व्याख्यानमाला के व्यवस्थापको एवं बम्बई विश्वविद्यालय के संचालको का आभार मानता हूं।
इन व्याख्यानो को तैयार करते समय वाचन से लेकर लिखने तक और उसके पश्चात् उनके मुद्रण तक मुझको मेरे जिन अनेक सहृदय विद्याप्रिय मित्रो की ओर से जो-जो सहायता मिली है उन सबके नाम का उल्लेख करूं तो एक खासी लम्बी सूचि
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२]
समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र के लिए प्रेरित हुआ तब मेरे मानस-पट पर गुजरात में होने वाली शान्तिदेव, भट्टि, क्षमाश्रमण सिंहगणी और जिनभद्रगरणी, हरिभद्र, प्राचार्य हेमचन्द्र और वाचक यशोविजयजी जैसी कई विभूतियो के चित्र अंकित हुए, परन्तु आज तो मैने उन विभूतियो मे से एक को ही पसन्द किया है । वह विभूति अर्थात् याकिनीमूनु प्राचार्य हरिभद्र।
प्राचीन गुजरात ने 'जिसे पाला-पोसा और विविध क्षेत्रो मे चिन्तन-लेखन की सुविधा दी ऐमी यह विभूति गत डेढ-सौ वर्ष पहले तो सिर्फ जैन-परम्परा मे ही प्रसिद्ध थी। मै जानता हूँ वहा तक उस काल मे जैन-परम्परा के अतिरिक्त कोई दूसरा प्राचार्य हरिभद्र को जानता हो तो वह 'ललितासहस्रनाम' नामक ग्रन्थ के भाप्यकार भास्करराय ही थे । भास्करराय : मूल मे कर्णाटकवासी थे वह काशी मे आकर रहते थे। उन्होने गुजरात के सूरत शहर के निवासी प्रकाशानन्द नाम के उपासना-मार्ग के प्राचार्य के पास पूर्वाभिषेक-दीक्षा ली थी। भास्करराय विक्रम की अठारहवी शती मे हुए है । उन्होने अपने उस 'सौभाग्य-भास्कर' नाम के भाष्यके
'प्रभावती प्रभारूपा प्रसिद्धा परमेश्वरी।
मूलप्रकृतिरव्यक्ता व्यक्ताव्यक्त स्वरूपिणी ।। १३७ ।' इस श्लोक की व्याख्या करते समय आचार्य हरिभद्र ने 'धर्मसंग्रहणी' नामक प्राकृत ग्रथ की एक गाथा प्रमाण के रूप मे उद्धृत की है। आश्चर्य की बात तो यह है कि श्वेताम्बर से अतिरिक्त दूसरी जैन-शाखाएँ भी हरिभद्र जैसे प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् की कृतियो के विषय मे सर्वथा मौन दिखाई पड़ती हैं, तव एक कर्णाटक-निवासी
और कागीवासी प्रकाण्ड पण्डित भास्करराय का ध्यान हरिभद्र के एक ग्रन्थ की ओर जाता है और वह मूल ग्रन्थ भी संस्कृत नही, किन्तु प्राकृत । ऐसे प्राकृत ग्रन्थ की ओर एक दूरवर्ती विद्वान् का ध्यान जाय और वह भी एक दार्शनिक मुद्दे के बारे मे, तब ऐसा मानना चाहिए कि प्राचार्य हरिभद्र दूसरी तरह से भले अज्ञात जैसे रहे हों,
१ श्री रसिकलाल छो० 'परीख' 'गुजरातनी राजधानीग्रो पृ० ३६-"उत्तर-पूर्व मे श्रावू और पाडावला अथवा अरवल्ली के बाहरी पर्वत, पूर्व मे विन्ध्याद्रि की उपत्यकाए एवं अरण्य तथा दक्षिण में सतपुडा की मुख्य पर्वतमाला के उत्तरीय गिरि-अकुर। इसका स्थानों से निर्देश करूं तो उत्तर मे भिन्नमाल अथवा श्रीमाल, दक्षिण मे सोपारा (जहा वस्तुपाल के 'कीर्तन' अर्थात् देवमन्दिर थे), पूर्व मे दाहोद या रतलाम, पश्चिम मे कच्छभुज-सौराष्ट्र ।"
इस पुस्तक के प्रारम्भ में गुजरात का मानचित्र भी है। - mer निर्गगासागर प्रेस. १९३५ ईसवीय ।
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जीवन की रूपरेखा परन्तु उनकी कृतियो एव उनके विचारो मे बहुश्रुत विद्वानो को आकर्षित करने जितना सामर्थ्य तो है ही।
लगभग डेढ-सौ वर्ष पहले पाश्चात्य संशोधक विद्वानो का ध्यान पुरातत्त्व, साहित्य आदि ज्ञान-साधनो से समृद्ध पौरस्त्य भण्डारो की ओर अभिमुख हुआ और प्रो. किल्हॉर्न, व्हयु लर, पिटर्सन, जेकोबी जैसे विद्वानो ने जैन भण्डार देखे और उनकी समृद्धि का मूल्याकन करने का प्रयत्न किया। इसके परिणाम-स्वरूप भारत में तथा भारत के बाहर ज्ञान की एक नई दिशा खुली। इस दिशोद्घाटन के फलस्वरूप आचार्य हरिभद्र, जो कि अब तक मात्र एक परम्परा के विद्वान् और उसी में अवगत थे, सर्व विदित हुए। जेकोबी, लॉयमान, विन्तनित्स, सुवाली और शुकिंग आदि अनेक विद्वानों ने भिन्न-भिन्न प्रसंगो पर प्राचार्य हरिभद्र के ग्रन्थ एवं जीवन के विषय मे चर्चा की है । जेकोबी, लॉयमान, शुब्रिग और सुवाली आदि विद्वानो ने तो हरिभद्र के भिन्न-भिन्न ग्रंथो का सम्पादन ही नहीं, बल्कि उनमें से किसी का तो अनुवाद या सार भी दिया है। इस प्रकार हरिभद्र जर्मन, अग्रेजी आदि पाश्चात्य भापानो के ज्ञाता विद्वानो के लक्ष्य पर एक विशिष्ट विद्वान् के रूप से उपस्थित हुए। दूसरी ओर पाश्चात्य संशोधन दृष्टि के जो आन्दोलन भारत मे उत्पन्न हुए उनकी वजह से भी हरिभद्र अधिक प्रकाश मे पाये। उन्नीसवी शती के वतुर्थ चरण मे गुजरात के साक्षर-शिरोमणि श्री मणिलाल नभूभाई का ध्यान प्राचार्य हरिभद्र के ग्रन्थों की ओर आकर्षित हुआ। इस पुरुषार्थी विद्वान् ने हरिभद्र के जो ग्रन्थ हाथ मे पाये और जो उनकी मर्यादा थी तदनुसार उनमे से खास-खास ग्रन्थों के गुजराती अनुवाद भी प्रस्तुत किये । इस तरह देखते है तो नव-युग के प्रभाव से प्राचार्य हरिभद्र ने किसी एक धर्म-परम्परा के विद्वान् न रहकर साहित्य के अनन्य विद्वान् और उपासक के रूप मे विद्वन्मण्डल मे स्थान प्राप्त किया।
५ प्रो० किल्हॉर्न (१८६९-७०), व्हय लर (१८७०-७१) पिटर्सन (१८८२ से-) इन सव के हस्तलिखित पोथियो की शोध के उल्लिखित वर्षों की रिपोर्ट देखिये। डॉ० हर्मन जेकोवी ने, जब वह सन् १९१४ मे भारत आये थे तब, जैन भण्डारो का निरीक्षण किया था।
६ डॉ० हर्मन जेकोबी ने 'समराइच्चकहा' का सम्पादन किया है तथा उसका अग्रेजी मे सार भी दिया है । प्रो० सुवाली ने 'योगदृष्टिसमुच्चय', 'योगविन्दु', लोकतत्त्वनिर्णय, एव 'पड्दर्शनसमुच्चय' का सम्पादन किया है, और 'लोकतत्त्वनिर्णय' का इटालियन मे अनुवाद भी किया है।
७ (१) षड्दर्शनसमुच्चय, (२) योगविन्दु, (३) अनेकान्तवादप्रवेश । 'मणिलाल नभूभाई साहित्य साधना' पृ० ३३६ ।
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समदर्शी श्राचार्य हरिभद्र
श्राचार्य हरिभद्र के साहित्य मे जिसने जितने परिमाण में श्रवगाहन किया वह उतने ही परिमाण मे उनकी विद्वत्ता और तटस्थता के प्रति श्रापित हुआ, श्रीर ईसा की बीसवी शताब्दी के प्रारंभ से तो हरिभद्र की ख्याति उत्तरोत्तर बढती ही गई है। उनकी कृतियो का अवलोकन और सम्पादन करने का श्राकर्षरण विद्वानो मे वढता गया है ।
४]
डॉ श्रानन्दशंकर बीघ्र वने १६०९ मे 'गुजरात' संस्कृत साहित्य, ए विपयनु थोडु' क रेखादर्शन' नाम का एक निवन्ध, तीसरी गुजराती साहित्य परिषद् मे पढा था श्रीर १९४७ मे श्री दुर्गाशंकर भाई ने 'भारतीय संस्कारोनु गुजरातमा श्रवतरण' इस शीर्षक के नीचे पांच व्याख्यान दिये थे । इन दोनो बहुश्रुत एवं उदारचेता विद्वानो के निबन्धो मे वलभी के भट्टि, भिन्नमाल के ब्रह्मगुप्त और माघ आदि का निर्देश है। जिन भट्ट, ब्रह्मगुप्त श्रोर माघ जैसे विद्वानो की आज तक एक-एक कृति ही उपलब्ध एव विख्यात है उनका तो निर्देश हो और उसी प्राचीन गुजरात की सुप्रसिद्ध राजधानी भिन्नमाल एवं उसके आसपास के प्रदेश मे रह कर जिन्होने श्रनेक कृतियाँ रची हो तथा जो ग्राज भी उपलब्ध हो उनका निर्देश तक उन निबन्धो मे न हो, यह देखकर किसी को सहजभाव से प्रश्न हो सकता है कि वैसे विशिष्ट विद्वान् का परिचय कराना कैसे रह गया होगा ? परन्तु मुझे लगता है कि श्राचार्य हरिभद्र की दर्शन एवं योग- परम्परा विषयक विशिष्ट कृतिया इन दोनो महारथियो के अवलोकन मे यदि श्राई होती, तो उनका उनकी ओर सविशेष ध्यान गये बिना न रहता । शायद ऐसा भी सम्भव है कि उनकी दृष्टि मे हरिभद्र गुजरात की सीमा मे न भी आते हो ।
परन्तु गुजरात के बहुश्रुत श्रोर सुविद्वान् श्री रसिकलाल छो० परीख ने काव्यानुशासन के दूसरे भाग की अपनी सुविस्तृत और सुसम्बद्ध प्रस्तावना मे थोडे से शब्दो मे भी आचार्य हरिभद्र का जो मूल्याकन किया है वह खास ध्यान खीचे ऐसा है ।
अब तो हरिभद्र के ग्रन्थों को विश्वविद्यालयो के पाठ्यक्रम मे भी स्थान मिला है। खास करके उन्होने दर्शन एव योग विषयक जिन उदात्त ग्रन्थो की रचना की है
"It (Bhinnamala) was also one of the centres of literary activity of Haribhadrasuri, the author of many important works on Jaina Philosophy and also of a general work on the schools of Indian Philosophy known as Shaddarshanasamuchchaya He also composed Samaradityakatha, a novel whose hero is Samaraditya "
- काव्यानुशासन भा २, प्रस्तावना पृ० ६७
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जीवन की रूपरेखा
[ ५
उनकी र विद्वान् उत्तरोत्तर अधिकाधिक आकर्षित होते जा रहे है । ऐसी स्थिति मे मुझे विचार आया कि हरिभद्र के दर्शन एवं योग विषयक ग्रन्थो मे ऐसी कौन-कौनसी विशेषताएं है जिनकी प्रोर अभ्यासियो का लक्ष्य विशेष जाना चाहिए ? इस विचार से मैने इस व्याख्यानमाला मे प्राचार्य हरिभद्र के विषय मे विचार करना पसन्द किया है और वह भी उनकी कतिपय विशिष्ट कृतियो को लेकर । वे कृतियाँ भी ऐसी होनी चाहिए जो समग्र भारतीय दर्शन एवं योग परम्परा के साथ संकलित हो । जिन कृतियो को लेकर मे इन व्याख्यानो मे चर्चा करना चाहता हू उनकी असाधारणता क्या है, यह तो आगे की चर्चा से स्पष्ट हो जायगा ।
मैने पाँचो व्याख्यान नीचे के क्रम मे देने का सोचा है - (१) पहले मे श्राचार्य हरिभद्र के जीवन की रूपरेखा ।
(२) दूसरे मे दर्शन एवं योग के सम्भावित उद्भवस्थान, उनका प्रसार, गुजरात के साथ उनका सम्बन्ध और उनके विकास में प्राचार्य हरिभद्र का स्थान ।
(३) तीसरे मे दार्शनिक परम्परा मे प्राचार्य हरिभद्र के नवीन प्रदान पर विचार |
(४-५) चौथे और पाँचवे में योग- परम्परा मे आचार्य हरिभद्र के अर्पण का सविस्तार निरूपण ।
प्राचार्य हरिभद्र के जीवन एवं कार्य का सूचक तथा उनका वर्णन करने वाला साहित्य लगभग उनके समय से ही लिखा जाता रहा है और उसमे उत्तरोत्तर अभिवृद्धि भी होती रही है । प्राकृत, संस्कृत, गुजराती, हिन्दी, जर्मन और अग्रेजी आदि भाषा मे अनेक विद्वान् और लेखको ने उनके जीवन एव कार्य की चर्चा विस्तार से की है । वैसे साहित्य की एक सूचि श्रन्त मे एक परिशिष्ट के रूप मे देनी योग्य होगी । यहाँ तो इस साहित्य के ग्राधार पर प्रस्तुत प्रसंग के साथ खास आवश्यक प्रतीत होनेवाली बातो के विषय मे ही चर्चा की जायगी । विशेष जिज्ञासु परिशिष्ट मे उल्लिखित ग्रन्थ आदि को देखकर श्रधिक श्राकलन कर सकते है ।
जन्म-स्थान
प्राचार्य हरिभद्र के जीवन के विषय मे जानकारी देने वाले ग्रन्थो मे सबसे अधिक प्राचीन समझा जानेवाला ग्रन्थ भद्रेश्वर की, अबतक प्रमुद्रित, 'कहावली' नाम की प्राकृत कृति है । इसका रचना समय निश्चित नही है, परन्तु इतिहासज्ञ विचारक
8 देखो पुस्तक के अन्त मे परिशिष्ट १
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समदर्गी प्राचार्य हरिभद्र इमे विक्रम की वारहवी गती के आसपास रखते हैं । इसमे आचार्य हरिभद्र के जन्मस्थान का नाम 'पिवंगुई बंभपुणी'१० ऐसा पहा जाता है, जब कि इतर ग्रन्यो में उनका जन्मस्थान चित्तौड-चित्रकूट' कहा गया है। ये दोनो निर्देश भिन्न होने पर भी वस्तुत. इसमें खास विरोध जैमा ज्ञात नही होता है । 'पिवंगुई' ऐसा मूल नाम शुद्ध रूप मे उल्लिखित हो, या फिर कुछ विकृत रूप मे प्राप्त हुआ हो यह कहना कठिन है, परन्तु, उसके साथ जो 'वंभपुणी' का उल्लेख है वह 'ब्रह्मपुरी' का ही विकृत रूप है । इस तरह यह ब्रह्मपुरी कोई छोटा देहात हो, कस्बा हो या किसी नगर-नगरी का एक भाग हो, तो भी वह चित्तौड़ के आसपास ही होगा। इसीलिए उत्तरकालीन ग्रन्यो
मे अधिक प्रख्यात चित्तौड का निर्देश तो रह गया, किन्तु ब्रह्मपुरी गौण बन गई ___ या फिर ख्याल मे ही न रही।
वित्तौडगढ की प्रतिष्टा से पहले उसमे उत्तर मे लगभग ५-६ मील की दूरी पर आई हुई शिवि जनपद की राजधानी 'मध्यमिका' नगरी विख्यात थी। यह अव भी 'नगरी' के नाम से पहचानी जाती है। यह नगरी बहुत प्राचीन है तथा सत्ता, विद्या एवं धर्मो का केन्द्र रही है ।१२ इसीलिए इस पर यदा-कदा आक्रमण होते रहे है। इसका सर्व-प्रयम उल्लेख महाभाष्यकार पतंजलि (ईसा-पूर्व दूसरी शतीने ) अपने भाष्य मे किया है ।'३ मध्यमिका वैदिक परम्परा का केन्द्र तो थी ही, परन्तु भागवत परम्परा का तो वह विशिष्ट केन्द्र घी तथा बौद्ध एवं जैन परम्परानो का ४ भी वह एक विशिष्ट क्षेत्र जैसी थी । उत्तरोत्तर अाक्रमणों के कारण जब यह स्थान
१० "पिवगुईए वभपुणीए" - पाटन, सघवी के पाडे के जन भण्डार की वि० स० १४६७ मे लिखित ताड़पत्रीय पोथी, खण्ड २, पत्र ३०० ।
११ अधोलिखित प्राचीन ग्रन्थो मे जन्मस्थान के रूप मे चित्तौड़-चित्रकूटका उल्लेख मिलता है -
(क) हरिभद्रसूरिकृत 'उपदेशपद' की श्री मुनिचन्द्रमूरिकृत टीका । (वि०स० ११७४) (ख) “गणवरसार्वशतक' की सुमतिगणिकृत वृत्ति । (वि० स० १२६५) (ग) प्रभाबन्द्रसूरिकृत 'प्रभावकचरित्र' नवम श ग । (वि० स० १३३४) (घ) राजशेखरसूरिकृत 'प्रवन्धकोप' अपर नाम 'चतुर्विंशतिप्रवन्ध'। (वि० स०
१४०५) १२ देखो 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' वर्ष ६२, अक २-३ मे प्रकाशित डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल का लेख 'राजस्थान मे भागवत धर्म का प्राचीन केन्द्र' पृ० ११६-२१ ।
१३ "अरुणद् यवनो मध्यमिकाम् ।" ३ २. १११
१८ देखो 'कल्पसूत्र-स्थविरावली'; उसमे मज्जिमिश्रा शाखाका उल्लेख है। वह मव्यमिका नगरी के आधार पर उस नाम से प्रसिद्ध हुई ।
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जीवन की रूपरेखा सुरक्षित न रहा, तब चित्रागद नामक एक मौर्य ने मध्यमिका मे से चित्तौड मे राजधानी बदली।१५ पहाड पर होने के कारण वह अधिक सुरक्षित स्थान था। मध्यमिका के प्राचीन अवशेष अब भी मिलते है । ऐसा प्रतीत होता है कि मध्यमिका मे से चित्तौड पर राजधानी का परिवर्तन होते ही चित्तौड़ का सब तरह से विकास हुआ होगा और विद्या एवं धर्म की जो परम्पराएँ मध्यमिका मे थी उन्होने भी चित्तौड के विकास का लाभ लिया होगा। यह चाहे जो हो, परन्तु ऐसा तो लगता है कि हरिभद्र का जन्मस्थान मूल चित्तौड न हो, तो भी चित्तौड अथवा मध्यमिका मे से किसी एक के साथ उसका अधिक सम्बन्ध होना चाहिए । 'ब्रह्मपुरी' सकेत यथार्थ हो तो ऐसा भी कहा जा सकता है कि वह चित्तौड अथवा मध्यमिका जैसी नगरी का ब्राह्मणो की प्रधानता वाला कोई उपनगर या मुहल्ला भी हो। इस प्रकार जन्म-स्थान का विचार करने पर हरिभद्र प्राचीन गुजरात के प्रदेश से बहुत दूर के नहीं है।
माता-पिता हरिभद्र के माता-पिता का नाम केवल 'कहावली' मे ही उपलब्ध होता है । उसमे माता का नाम गंगा और पिता का नाम शकर भट्ट कहा गया है ।१६ भट्ट शब्द ही सूचित करता है कि वह जाति से ब्राह्मण थे । 'गणधर-सार्धशतक' की सुमतिगणिकृत वृत्ति (रचना सं. १२६५) मे तो हरिभद्र का ब्राह्मण के रूप मे स्पष्ट निर्देश ही है,१७ जब कि प्रभावक-चरित्र मे उन्हे राजा का पुरोहित कहा है ।१८ मतलब कि वह जन्म से ब्राह्मण थे। यदि ब्रह्मपुरी के नाम की उपर्युक्त कल्पना सच हो, तो हरिभद्र के ब्राह्मण होने की कल्पना को उससे और भी पुष्टि मिलती है। प्राचीनकाल से
१५ चित्रकूट की स्थापना चित्रागद ने की थी ऐसी कथा 'कुमारपालचरित्रसग्रह' मे पृ० ५ और पृ० ४७-६ पर आती है। यह चित्रागद मौर्य वश का था ऐसा नीचे के आधारों से निश्चित किया जा सकता है -
__ श्री हीरानद शास्त्री 'A Guide to Elephanta'-This would show that Mewar and the surrounding tracts were held by a Maurya dynasty during the eighth century after Christ" पृ० ७
'ख्यातो' मे भी चित्रागद का मौर्य के रूप में निर्देश मिलता है।
१६ “सकरो नाम भटो, तस्स गगा नाम भट्टिणी। तीसे हरिभद्दो नाम पडिओ पुत्तो।" ३००
१७ एव सो पडित्तगव्वमुव्वहमाणो हरिभद्दो नाम माहणो।"-धर्मसग्रहणी की प्रस्तावना मे उद्घ त, पृ० ५ अ
१८ शृङ्ग , हरिभद्रसूरीचरित्र, श्लोक ८ "अतितरलमति पुरोहितोऽभून्नृपविदितो हरिभद्रनामवित्त.।"
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समदर्शी ग्राचार्य हरिभद्र
ऐसी प्रथा चली आती है कि किसी भी एक जाति के लोग एक ही मुहल्ले टोले मे रहते है, इसी कारण वैशाली के माहरणकुण्ड खत्तियकुण्ड, वाणिजगाम जैसे उपनगर या टोले प्रसिद्ध है, र जहा, 'वाह्मरण ग्राम' का उल्लेख आता है वहा विद्वान् उसके वारे मे ऐसा खुलासा करते आये है कि उस गाव मे ब्राह्मणो का प्राधान्य होता है तथा दूसरे वर्णों के लोग गौण रूप से रहते है । आज भी उदयपुर, जोधपुर, जयपुर जैसे शहरो ब्राह्मणो के मुहल्ले 'ब्रह्मपुरी' के नाम से पहचाने जाते है ।१६
=]
५
समय
О
हरिभद्र के समय का प्रश्न विवादास्पद था । प्राचीन उल्लेखो के अनुसार ऐसा माना जाता था कि हरिभद्र वीर सवत् १०५५ अर्थात् वि. सं ५८५ मे स्वर्गवासी हुए, परन्तु इस वारे मे अन्तिम निर्णय ग्राचार्य श्री जिनविजयजी ने अपने तद्विपयक निबन्ध मे कर डाला है | यह निर्णय प्रत्येक ऐतिहासिक ने मान्य रखा है । तदनुसार हरिभद्र का जीवन काल प्राय वि. सं. ७५७ से ८२७ तक का का जाता है । इस निर्णय पर आने के अनेक प्रमारगो मे से एक खास उल्लेखनीय प्रमाण उद्योतन- सूरि उपनाम दाक्षिण्य - चिह्नकृत कुवलयमाला की प्रशस्ति - गाथाएँ है | दाक्षिण्यचिह्न ने अपनी कुवलयमाला की समाप्ति का समय एक दिवस न्यून शकसंवत् ७०० ग्रर्थात् शक-सवत् ७०० की चैत्र कृष्णा चतुर्दगी लिखा है और उन्होने अपने प्रमाण - न्यायशास्त्र के विद्या गुरु के रूप मे हरिभद्र का निर्देश किया है | २१ इस समय के साथ पूरी तरह से मेल खानेवाले अनेक ग्रन्थ एव ग्रन्थकारो के उल्लेख
१९ वास्तुग्रन्यो मे वर्णन के आधार पर नगर मे मुहल्ले टोलो के निर्मारण का वर्णन श्राया है, जैसे कि -
प्राग्विप्रास्त्वथ दक्षिणे नृपतय शूद्रा कुवेराश्रिता । कर्तव्या पुरमध्यतोऽपि वणिजो वैश्या विचित्रैगॄहै ॥
—मण्डनसूत्रधारकृत वास्तुराजवल्लभ, ४१८ इसके अतिरिक्त देखो 'वास्तुविद्या ' अध्याय २, २६, ३२ ॥
२०. देखो 'जैन साहित्य सशोधक' वर्ष १, अंक १ | यह निबन्ध सन् १९१९ मे
अखिल भारतीय प्राच्यविद्या परिषद् में श्राचार्य श्री जिनविजयजी ने पढा था । २१ जो इच्छइ भवविरह भवविरह कोरण वदए सुयरगो ।
समय-सय- सत्य - गुरुरणो समरमियका कहा जस्स ॥ -- कुवलयमाला पृ० ४, प० सो सिद्धन्तेण गुरु जुत्ती -सत्येहि जस्स हरिभद्दो | बहु - सत्य-गथ - वित्थर - पत्थरिय - पयड - सव्वत्थो ॥
--- कुवलयमाला पृ० २८२, १०१८
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जीवन की रूपरेखा
[e
हरिभद्र के विविध ग्रन्थो मे मिलते है, २२ और इससे हरिभद्र का उपरिनिर्दिष्ट सत्ता समय निर्विवाद सिद्ध होता है ।
प्रो. के. वी अभ्यंकर ने विशतिविशिका नामक हरिभद्र के प्राकृत ग्रन्थ की प्रस्तावना मे उक्त निर्णय के विरुद्ध शंका उपस्थित की है, परन्तु यदि उन्होने प्रो. जेकोबी का स्पष्टीकरण ध्यान से देखा होता, तो वैसी शका उठाने का उनके लिए कोई काररण न रहता । उनकी शंका यह है कि शक संवत् ७०० मे एक दिन कम यानी शक-संवत् ७०० के अन्तिम का अगला दिन । यह दिन चैत्र कृष्ण चतुर्दशी नही हो सकता, परन्तु फागुन कृष्ण चतुर्दशी हो सकता है, क्योकि फागुन कृष्ण अमावस्या के दिन वर्ष पूरा होता है । यह शंका उचित तो लगती है, लेकिन इसका स्पष्टीकरण प्रो. जेकोबी ने जब उन्होने मुनि श्री जिनविजयजी का निर्णय मान्य रखा तब अपने ढंग से बहुत पहले ही किया है । ऐसा होने पर भी हमे इस बारे मे विशेष ऊहापोह करना योग्य जँचा। इससे हमने प्राचीन एवं अर्वाचीन ज्योतिष के निष्णात प्राध्यापक श्री हरिहर भट्ट के समक्ष यह प्रश्न विशेष स्पष्टता के लिए रखा । उन्होने प्रो जेकोबी के खुलासे पर ध्यान से विचार किया और लभ्य सभी साधनो से जांच पडताल की, तो उन्हें ऐसा लगा कि जेसा प्रो. जेकोबी मानते है उस तरह उस समय दो चैत्र नही, किन्तु दो वैशाख थे, फिर भी चैत्र कृष्ण चतुर्दशी का उल्लेख तो सत्य ही है | २४
२२ देखो 'जैन साहित्य सशोधक' वर्ष १, अक १, परिशिष्ट, पृ० ५३ से ।
२३ 'समराइच्चकहा' की प्रस्तावना पृ० १-२ ।
२४ इस विषय मे उन्होने ब्यौरे से हमको जो पत्र लिखा था वह नीचे उद्धृत किया जाता है
हरिहर प्रा० भट्ट
२२, सरस्वती सोसाइटी,
सरखेज रोड, ग्रहमदावाद ७.
तारीख ४ -८ -
५८
पूज्य श्री प० सुखलालजी,
हरिभद्रसूरि के काल - निर्णय के विषय मे उद्योतनसूरि द्वारा कुवलयमाला मे उल्लिखित एक वाक्य को गरिणत की दृष्टि से जाँचने के लिए आपने मुझसे कहा था । उसके बारे मे मेरा मन्तव्य है कि
1
१. उद्योतन के लिखने के अनुसार कुवलयमाला शक ७०० के अन्तिम से पहिले के दिन चैत्र कृष्णा चतुर्दशी को पूर्ण हुई थी । जेकोबी अपने 'Haribhadra's Age, Life and Works' शीर्षक वाले लेख के फुटनोट ५ मे कहते है कि शक ७०१ मे श्रधिक चैत्र था, परन्तु वस्तुत अधिक चैत्र नही, किन्तु अधिक वैशाख था । पिले की Chronology मे तथा केशो लक्ष्मण छत्रे की अधिक मासिक की तालिका में अधिक वैशाख दिया है। सूर्य
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१०]
समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र श्री हरिहर भाई के पर के स्पष्टीकरण से और जेकोबी एवं ऐतिहासिक विद्वान् पन्यास श्री कल्याणविजयजी आदि के निर्विवाद स्वीकार से हरिभद्र के समय के बारे मे मुनि श्री जिनविजयजी का निर्णय अन्तिम है ऐसा मानकर ही हमे हरिभद्र के जीवन एवं कार्य के विषय में विचारना चाहिए ।
विद्याभ्यास हरिभद्र ने बचपन से विद्याभ्यास कहां और किस के पास किया इसका कोई निर्देश मिलता ही नहीं, परन्तु ऐसा लगता है कि जन्म से ब्राह्मण थे और ब्राह्मण परम्परा मे यज्ञोपवीत के समय से ही विद्याभ्यास का प्रारम्भ एक मुख्य कर्तव्य समझा जाता है । उन्होने वह प्रारम्भ अपने कुटुम्ब मे ही किया हो या आसपास के किसी योग्य स्थान मे, परन्तु इतना तो निश्चित प्रतीत होता है कि उन्होने अपने विद्याभ्यास का प्रारम्भ प्राचीन ब्राह्मण परम्परा के अनुसार संस्कृत भापा से किया होगा। उन्होने किसी-न-किसी ब्राह्मण विद्या-गुरु अथवा विद्या-गुरुयो के पास व्याकरण, साहित्य, दर्शन और वर्मशास्त्र आदि संस्कृत-प्रधान विद्याओ का गहरा और पक्का परिशीलन किया होगा। सामान्यत जैसा वनता आया है वैसा हरिभद्र के जीवन मे भी बना। वह यह कि विविध विद्याप्रो एवं यौवन-सुलभ सामर्थ्य मद ने उन्हे अभिमानपूर्ण प्रतीत हो ऐसा एक सकल्प करने के लिये प्रेरित किया। उनका ऐसा सकल्प था कि जिसका कहा न समभू मैं उसका शिप्य हो जाऊँगा । इस अभिमानसूचक सकल ने उन्हें किसी दूसरी ही दिशा की ओर धकेल दिया।
सिद्धान्त एव आर्य-सिद्धान्त के अनुसार मैने गणित किया, तो उस रीति से भी अधिक वैशाख प्राता है। ब्रह्मसिद्धान्त का प्रचार उस काल मे नही था। ब्रह्मसिद्धान्त के अनुसार भी अधिक वैशाख पाता है । जेकोबी किस प्रकार अधिक चैत्र गिनते है, यह समझ मे नही पाता।
२ जेकोबी इम फुटनोट मे किल्हॉर्न का एक वाक्य उद्धृत करते है। जेकोबी लिखते हैं कि 'Kielhorn has shown from dates in inscriptions that in connection with Saka years almost always ananta months are used ' यहां किल्हॉर्न द्वारा प्रयुक्त almost शब्द सूचित करता है कि उसके देखने में कई ऐसे inscriptions भी पाये होंगे, जिनमे पौणिमान्त महीने हो ।
: एक वात जिस पर जेकोबी का ध्यान नहीं गया वह यह है मेरे पास चालू वर्ष का कागी के प० वापूदेव शास्त्री का पचाग है। वह विक्रम मवत् २०१५ और शालिवाहन गक १८८० का है । उसमे अविक श्रावण है। उसमे मास और पक्ष का क्रम इस प्रकार हैपहले चैत्र शुक्ल, उसके पश्चात् वैशाख कृष्ण, फिर वैशाख शुक्ल आदि । अन्त मे फाल्गुन गुक्ल और चैत्र कृष्ण । इस प्रकार मास पौणिमान्त है और शालिवाहन शक का वर्ष चैत्र गुक्न १ ने प्रारम्भ होता है। इससे वर्ष के अन्त से पहिले का दिन चंत्र कृष्ण १४ पाता है।
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जीवन की रूपरेखा
[११ ऐसा हुआ कि एकबार वे चित्तौड के मार्ग पर से गुजर रहे थे। उस समय उपाश्रय मे से एक साध्वी द्वारा बोली जानेवाली एक गाथा उनके सुनने मे आई २५ । गाथा प्राकृत भापा मे और वह भी संक्षिप्त एव सकेतपूर्ण थी; अत. उसका मर्म उनकी समझ मे न आया । परन्तु हरिभद्र मूलतः थे जिज्ञासा की मूर्ति, इससे वे साध्वी के पास पहुँचे और उस गाथा का अर्थ जानने की अपनी इच्छा प्रदर्शित की। उस साध्वी ने अपने गुरु जिनदत्तसूरि के साथ उनका परिचय कराया। उन्होने हरिभद्र को संतोष हो इस तरह बात करके अन्त मे कहा कि यदि प्राकृत शास्त्र तथा जैन-परम्परा का पूरा-पूरा और प्रामाणिक अभ्यास करना हो तो उसके लिए जैनदीक्षा आवश्यक है। हरिभद्र तो उत्कट जिज्ञासु, स्वभाव से एकदम सरल और अपनी प्रतिज्ञा मे दृढ थे। अत उन्होने उस सूरि के पास जैन-दीक्षा अगीकार की
और साथ ही अपनी प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए अपने आपको उस साध्वी के धर्मपुत्र के रूप मे उद्घोषित किया २६ । उस साध्वी का नाम 'याकिनी' था। कोई भी पुरुष पुरुप के पास ही दीक्षा ले सकता है, अत. यद्यपि उन्होने जैन-दीक्षा तो जिनदत्तसूरि के पास ली किन्तु महत्तरा याकिनी साध्वी का धर्मऋण चुकाने के लिए
यो तो पण्डित लोग शालिवाहन शक का वर्ष समग्र भारतवर्ष मे चैत्र शुक्ला १ से गिनते है, फिर भी उत्तर मे पौणिमान्त और दक्षिण मे अमान्त मासगणना चलती है। किल्हॉर्न के almost शब्द से निर्दिष्ट अपवाद उत्तर भारत के होने चाहिए, और हरिभद्रसूरि का case भी उत्तर का है। शालिवाहन शक के मास आज भी उत्तर भारत के पडितो के पचागो मे पौरिणमान्त गिने जाते है, और फिर भी उनमे शक सवत् का प्रारम्भ चैत्र शुक्ला १ से होता है। सम्भव है कि सामान्य जनता मे भिन्न पद्धति प्रचलित हो और तदनुसार inscriptions मे भिन्न रूप से लिखा जाता हो और उद्योतनसूरि ने पण्डितो की पद्धति के अनुसार कुवलयमाला को पूर्ण करने की तिथि लिखी हो; सक्षेप मे, कुवलयमाला मे लिखी हुई तिथि मे कोई दोप मुझे नहीं दिखता। इस प्रकार शा शक ७०० चैत्र कृष्णा चतुर्दशी के दिन ई स ७७६ के मार्च की २१वी तारीख पाती है।
२५. चक्किदुग हरिपणग पणग चक्कीण केसवो चक्की । केसव चक्की केसव दु चक्की केसी अ चक्की अ॥
-आवश्यकनियुक्ति, गाथा ४२१
२६ यद्यपि स्वय हरिभद्र अथवा अन्य कोई याकिनी नाम्नी किसी महत्तरा के व्यक्तित्व के विपय मे कुछ विशेष निर्देश नहीं करते, फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि इस महत्तराका व्यक्तित्व, चारित्र्य, स्वभावमाधुर्य आदि अनेक विशेषतानो के कारण भव्य होना चाहिए।
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१२]
समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र उन्होने अपने आपको "धर्मतो याकिनीमहत्तरासूनु" २७ कहने मे गौरव का अनुभव किया।
यहा से हरिभद्र का विद्या-विषयक दूसरा युग शुरू होता है । वह प्राप्य सभी संस्कृत-प्रधान विद्यालो मे तो निष्णात थे ही, परन्तु प्राकृत आदि इतर भाषा-प्रधान विद्यायो से सर्वथा अपरिचित थे । जैन-दीक्षा अंगीकार करके उन्होने प्राकृत भाषा तथा उसमे लिखे गये और सुलभ ऐसे जैन-परम्परा के अनेकविध गास्त्रो का पारदर्शी अवगाहन कर लिया। इस तरह उन्होने अपने जीवन मे ब्राह्मण एवं श्रमण दोनो परम्परामो को विद्याए एकरस की । यदि वे सस्कृत भापा और उसमे निवद्ध विद्यालो के पारगामी विद्वान् न होते, तो उन्हे जैन-परम्परा के प्राकृत-प्रधान विविध विषयो का थोडे समय मे ऐसा पारदर्शी जान शायद ही होता। इसी पारिगामिता के परिणामस्वरूप ही उन्होने जन-परम्परा के महत्त्व के गिने जा सके ऐसे कई अागम-ग्रन्थो के
अर सस्कृत टीकाए लिखी है २८ तथा प्राकृत भाषा मे विविध प्रकार का विपुल साहित्य भी रचा है २६ ।
हरिभद्र ने अपने माता-पिता या वंश आदि का कही पर भी उल्लेख नही किया है । जब उन्होने स्वयं अपने आपको याकिनी महत्तरा का पुत्र और वह भी धर्मपुत्र कहा, तब उनके इस छोटे-से विशेपण मे से एक विशिष्ट अर्थ फलित होता है ऐसा मैं समझता हूँ। मेरी दृष्टि से वह अर्थ यह है कि अज्ञात समय से जाति एवं धर्म के मिथ्या अभिनिवेश के कारण ब्राह्मण और श्रमण परम्परा के बीच जो एक प्रकार की खाई विछी हुई थी वह याकिनी महत्तरा के परिचय के द्वारा हरिभद्र के जीवन मे पट गई। ऐसा लगता है कि उनके जीवन पर इस घटना का इतना अधिक प्रभाव
२७ आवश्यकटीकाकी प्रगस्ति "समाप्ता चेय शिष्यहिता नामावश्यकटीका। कृति सिताम्बराचार्य - जिनभटनिगदानुसारिणो विद्याधरकुलतिलकाचार्यजिनदत्तशिष्यस्य धर्मतो याकिनीमहत्तरासूनोरल्पमतेराचार्यहरिभद्रस्य"
उपदेश की प्रगस्ति "नाइणिमयहरिपाए रइया एए उ धम्मपुत्तण । हरिभदायरिएण भवविरह इच्छमाणेण ॥"
पचमूत्रविवरण की प्रशस्ति "विवृत च याकिनीमहत्तरासूनु-श्रीहरिभद्राचार्य ।" २८ दशवकालिक, आवश्यक, नन्दी, अनुयोगद्वार, पनवणा, प्रोपनियुक्ति, चैत्यवन्दन जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, जीवाभिगम तथा पिण्डनियुक्ति ।
-धर्ममग्रहणी की प्रस्तावना, पृ १३ से १७ २६ देखो परिशिष्ट २।
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जीवन की रूपरेखा
[१३ पडा कि वह अपने जन्मदाता माता-पिता को याद नही करते, परन्तु उस महत्तरा का धर्ममाता के रूप मे उल्लेख करने मे गौरव का अनुभव करते है । सामान्यत जैनसाधु अपने विद्या या दीक्षा गुरु आदि का स्मरण करता है, परन्तु शायद ही ऐसा कोई साधु या आचार्य हुअा होगा जिसने किसी साध्वी का स्मरण किया हो । हरिभद्र इस छोटे-से विशेपण से याकिनी द्वारा अपने जीवन मे हुए महान् परिवर्तन का सूचन करते हैं और अपने आपको धर्मपुत्र कहकर मानो उस साध्वी के प्रति जन्मदात्री माता की अपेक्षा भी अधिक बहुमान प्रदर्शित करते है। उनके मनमे ऐसी बात जम-सी गई होगी कि यदि मुझे इस साध्वी का परिचय न हुआ होता, तो मैं परम्परागत मिथ्याभिमान के संस्कार से विद्या के एक ही चौके मे बंधा रह जाता और विद्या का जो नया क्षेत्र खुला है वह न खुलता। ऐसे किसी अनन्य भाव से उन्होने उस छोटे-से विशेषण का अपनी कई रचनाओ मे निर्देश किया है। हरिभद्रसूरि ने स्वयं ही "धर्मतो याकिनीमहत्तरासूनु" ऐसे विशेषरण का उल्लेख न किया होता, तो उनके जीवन मे घटित असाधारण क्रान्ति की सूचना उत्तरकाल मे बचने न पाती और मुखपरम्परा से यह घटना चली आती, तो भी शायद वह दन्तकथा मे ही परिगणित हो जाती । अतएव मै ऐसा समझता हूँ कि यह विशेषण हरिभद्र के जीवन का सूचक होने से उनके उत्तरकालीन समन जीवन-प्रवाह पर एक विशेष प्रकार का प्रकाश डालनेवाला है।
भव-विरह हरिभद्र के उपनाम के रूप में दूसरा एक विशेषण प्रसिद्ध है और वह है "भवविरह" 3° | उन्होने स्वयं ही अपनी कई रचनाओ मे "भव-विरह के इच्छुक" के नाम से अपना निर्देश किया है । इस "भव-विरह" के पीछे उनका कौनसा सकेत रहा है, इसका उन्होने कही भी उल्लेख नही किया है, परन्तु उनके जीवन का आलेखन करनेवाले अनेक ग्रंथो मे इसका खुलासा देखा जाता है। इनमे सर्वाधिक प्राचीन
__ ३० प श्रीकल्याणविजयजी ने 'धर्मसग्रहणी' की प्रस्तावना मे (पृ १६ से २१) जिनजिन ग्रन्थो की प्रशस्तियो मे 'विरह' शब्द आता है वे सव प्रशस्तिया उद्धृत की है। उन ग्रन्थो के नाम इस प्रकार है-अष्टक, धर्मविन्दु, ललितविस्तरा, पचवस्तुटीका, शास्त्रवार्तासमुच्चय, योगदृष्टिसमुच्चय, पोडशक, अनेकान्तजयपताका, योगविन्दु, ससारदावानलस्तुति, धर्मसग्रहणी, उपदेशपद, पचाशक और सम्बोधप्रकरण ।
___ इसके अतिरिक्त 'कहावली' के कर्ता भद्रेश्वर ने तो उनके 'भवविरहसूरि' नाम का निर्देश प्रवन्ध मे अनेक वार किया है ।
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१४]
समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र उल्लेख 'कहावली' का होने से उसके आधार पर उसका अर्थ जानना यहाँ आवश्यक प्रतीत होता है।
___"भव-विरह" शब्द के पीछे मुख्यतया जिन तीन घटनामो का संकेत है वे इस प्रकार हैं - (१) धर्म-स्वीकार का प्रसंग १, (२) शिष्यो के वियोग का प्रसंग ३२,
और (३) याचको को दिए जानेवाले आशीर्वाद का और उनके द्वारा किए जानेवाले जय जयकार का प्रस ग 3 3 | इन तीनो प्रसगो को अब हम सक्षेप मे देखे :(१) धर्म-स्वीकार का प्रसंग -
याकिनी महत्तरा जब हरिभद्र को अपने गुरु जिनदत्तसूरि के पास ले गई, तब उन्होने हरिभद्र को प्राकृत गाथा का अर्थ कहा। इसके पश्चात् उन सूरि ने हरिभद्र को याकिनी के धर्मपुत्र बनने की सूचना की। हरिभद्र ने सूरि से पूछा कि धर्म क्या है और उसका फल कौनसा है ? इस पर उन्होने कहा कि "सकाम और निष्काम इस प्रकार धर्म दो तरह का है । इनमे से निष्काम-धर्म का फल तो भव अर्थात् ससार का विरह - मोक्ष है, जबकि सकाम-धर्म का फल स्वर्ग आदि है ।" तब हरिभद्र ने कहा कि "मै तो भव-विरह अर्थात् मोक्ष ही पसन्द करता हू ।' फलत उन्होने प्रव्रज्या लेने का निश्चय किया और जिनदत्तसूरि के पास जैन-प्रव्रज्या अगीकार की। मोक्ष के उद्देश्य से ही वे प्रव्रज्या की ओर अभिमुख हुए थे, अत उनका मुद्रालेख "भवविरह" बन गया। (२) शिष्यो के वियोग का प्रसंग -
चित्तौड मे ही बौद्ध-परम्परा का भी विशिष्ट प्रभाव था। उस परम्परा का अभ्यास करने के लिए गये हुए उनके जिनभद्र एव वीरभद्र नामक दो शिष्यो की, धर्म द्वेप के परिणामस्वरूप, मृत्यु हुई। इससे हरिभद्र उद्विग्न हुए, परन्तु शिष्यो की भाति ग्रंथ भी धर्म की एक महान् विरासत है ऐसा समझकर वे ग्रन्थ-रचना मे उद्युक्त हुए। दीक्षाकालीन "भव-विरह" मुद्रालेख तो उनके मन मे रमाण था ही और शिष्यो की मृत्यु का प्राघात भी मन पर पड़ा हुआ था। इस आघात को शांत करने का बल भी उन्हे अपने मुद्रालेख से ही मिल गया। उन्होने सोचा कि ससार तो अस्थिर ही है, उसमे इष्ट-वियोग कोई असाधारण घटना नहीं है। अत. वैसे
३१ 'कहावली' पत्र ३०० "हरिभद्दो भणइ भयव पिउ मे भवविरहो। ३२. 'प्रभावकचरित्र' शृग ६, श्लोक २०६ । ३३ 'कहावली' पत्र ३०१ अ "चिर जीवउ भवविरहमूरि त्ति ।"
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जीवन की रूपरेखा
[१५ वियोग" के लिए अनुताप करने की अपेक्षा भव-विरह अर्थात् मोक्ष-धर्म को लक्ष्य मे रखकर ग्रन्थ-रचना मे एकाग्र हो जाना ही परम कर्तव्य है । इस प्रकार उन्होने अपने "भव-विरह" के मुद्रालेख मे से आश्वासन प्राप्त किया और शिप्यो के विरहजन्य शोक को शांत किया। इस घटना का स्मरण उन्होंने "भव-विरह" शब्द मे सुरक्षित रक्खा है।
(३) याचकों को आशीर्वाद और उनके जय जयकार का प्रसंग.
तीसरा प्रसंग ऐसा है कि जब कोई भक्त हरिभद्रसूरि के दर्शनार्थ आता तो वह उन्हें आशीर्वाद के रूप मे अाजकल जैसे "धर्मलाभ" कहा जाता है वैसे “भवविरह" का आशीर्वाद देते । इस पर आशीर्वाद लेनेवाला भक्त 'भव-विरहसूरि बहुत जीये' ऐसा कहता । इस विषय की एक खास घटना का उल्लेख 'कहावली' मे आता है, जो जानने जैसा है। लल्लिग नाम का एक व्यापारी गृहस्थ हरिभद्र के ऊपर अनन्य आदरभाव रखता था। वह पहले तो दरिद्र था, परन्तु धीरे धीरे सम्पन्न होने पर वह अपनी सम्पत्ति का उदारता से उपयोग करने लगा। वह प्रतिदिन मुनियो के भिक्षा के समय शंख बजाता और जो कोई भूखा आता उसे खाना खिलाता। उसके मनमे कुछ ऐसा बस गया होगा कि त्यागी गुरु को भिक्षा देना तो कर्तव्य है ही, परंतु गाव की हद मे से कोई भूखा न जाय यह देखने का भी गृहस्थ का धर्म है । यह
आतिथ्य-परम्परा अाज के कडे समय मे भी थोडी बहुत बची तो है ही। धर्मशाला, सराय आदि स्थानो मे सदाव्रत की जो परम्परा बची हुई है वह पूर्वकालीन आतिथ्यधर्म का प्रतीक है । लल्लिग इस धर्म में विशेष रस लेता होगा। श्रागन्तुक लोग भोजनशाला मे भोजन करने के बाद हरिभद्रसूरि को वन्दन करने के लिए भी जाते थे। वह उन्हे, 'भव-विरह प्राप्त करो, तुम्हारा मोक्ष हो' ऐसा आशीर्वाद देते थे । आगन्तुक भी उन्हे 'भव-विरहसूरि बहुत जीये' ऐसा कहकर विदाई लेते थे। इस प्रसंग से भी ऐसा मालूम होता है कि उनका उपनाम 'भव-विरह' विशेष प्रसिद्धि मे आया होगा।
यहा हरिभद्रसूरि के भक्त के रूप मे लल्लिग का जो उल्लेख है उसका एक खास अर्थ भी है, और वह यह कि लल्लिग ने हरिभद्रसूरि को ग्रन्थ-रचना मे बहुत बडी सहायता की थी। हरिभद्रसूरि ने रातदिन अपनी समग्र शक्ति विविध ग्रन्थो की रचना मे लगा दी। वे रात के समय भी लिखते थे, परन्तु उस काल मे कागज जैसे अद्यतन साधन तो थे ही नहीं। पहले तख्ती या दीवार के ऊपर लिखा जाता था, उसमे सशोधन, परिवर्तन या परिवर्धन करके अंतिम रूप देने के उपरात ही ताडपत्र आदि के
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रे त रात मे लिखना हो तो साधु
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१६]
समदर्शी आचार्य हरिभद्र धर्म के कारण दीए आदि की सुविधा उन्हे सुलभ ही नही थी, परन्तु लल्लिग ने प्राप्य उल्लेख के अनुसार, एक देदीप्यमान हीरा उनके पास उपाश्रम मे रक्खा था । वस्तुत वह हीरा होगा या दूसरी कोई वस्तु, परन्तु वह प्रकाश दे और दीए का काम दे ऐसी कोई निर्दोष वस्तु होनी चाहिए। वे उस प्रकाश का उपयोग करके दीवार या तख्ती के ऊपर प्राथमिक मसौदा लिख लेते। इस कार्य मे लल्लिग ने जो सुविधा कर दी और हरिभद्र ने उसका असाधारण उपयोग किया वह उत्तरकालीन हेमचन्द्रसूरि और सिद्धराज एव कुमारपाल के सम्बन्ध का सस्मरण कराता है ३५ ।
हरिभद्रसूरि इस प्रकार छोटे-बड़े ग्रथो की रचना करते और अन्त मे 'भवविरह' पद जोड देते । कहावलीकार आदि ने यदि लल्लिग के इस वृत्तान्त का उल्लेख न किया होता, तो हरिभद्रसूरि की ग्रन्थ-रचना का तप कैसा था इसका पता हमे न चलता और लल्लिग साधुओ की भाति दूसरे याचको को सतुष्ट कर आतिथ्यधर्म की प्राचीन परम्परा का किस तरह पालन एवं पोषण करता था इसकी जानकारी भी हमे उपलब्ध न होती।
पोरवाल जाति की स्थापना हरिभद्र ने मेवाड मे पोरवाल वंश की स्थापना करके उन्हे जैन-परम्परा मे । दाखिल किया ऐसी अनुश्रुति ज्ञातियो का इतिहास लिखनेवालो ने नोट की है ३६ |
३४ कहावली “समप्पिय च सूरिणो लल्लिगेण पुन्वागयरयणाणं मज्झाओ जच्चरयण, तदुज्जोएण य रयणीए विढप्पेइ सूरि भित्तिपट्ठयाइसु गथे ।"
३५ देखो 'प्रभावकचरित्र' गत २२वां हेमचन्द्रसूरिप्रवन्ध, काव्यानुशासन भाग २, प्रस्तावना पृ २७३ से।
३६ प श्री कल्याणविजयजी 'धर्मसग्रहणी' प्रस्तावना पृ ७ ।
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व्याख्यान दूसरा दर्शन एवं योग के सम्भवित उद्भवस्थान- उनका प्रसारगुजरात के साथ उनका सम्बन्ध- उनके विकास में
हरिभद्रसूरि का स्थान
इस व्याख्यान मे समाविष्ट होनेवाले चार मुद्दो पर हम अनुक्रम से विचार करेगे। इनमे से पहला मुद्दा है - दर्शन एवं योग के सम्भवित उद्भवस्थान । उद्भवस्थान का प्रश्न हमे अज्ञात अतीतकाल तक ले जाता है । इसका कोई निर्विवाद और अन्तिम उत्तर देने का कार्य चाहे जैसे समर्थ अभ्यासी के लिए भी सरल नही है । इसके अलावा, इसका उत्तर सोचने और पाने मे साप्रदायिक वृत्ति भी कुछ बाधक होती है। सामान्यतः मानव-मानस परम्परा से ऐसा निर्मित होता आया है कि वह उसे विरासत में मिली हुई सास्कृतिक एवं धार्मिक भावना को दूसरे की वैसी भावना की अपेक्षा विशेष समुन्नत और पवित्र मानने की ओर अभिमुख होता है, फलत. वह उत्तराधिकार में प्राप्त अपनी वैसी सास्कृतिक एवं धार्मिक भावना को हो सके उतनी प्राचीनतम और एकमात्र मौलिक मानने का प्राग्रह रखता है। भारतीय धर्म परम्परामो के दृष्टात से यह बात स्पष्ट करनी हो तो हम यहा तीन वादो का उल्लेख कर सकते हैं- (१) मीमासक का वेद-विषयक अपौरुषेयत्ववाद, (२) न्याय-वैशेपिक जैसे दर्शनो का ईश्वरप्रणीतत्ववाद और (३) आजीवक एवं जैन जैसी परम्परागो का सर्वज्ञप्रणीतत्ववाद । ये वाद असल मे तो ऐसी भावनायो मे से उत्पन्न एव विकसित हुए है कि उस-उस परम्परा के शास्त्र और उनमे आई हुई दार्शनिक एव योग परम्परा खुद उनकी अपनी ही है और उसमे जो कुछ है वह या तो अनादि और सनातन है, या ईश्वरकथित होने से उनमे मानव बुद्धि का स्वतन्त्र प्रदान नही है, या फिर सर्वज्ञप्रणीत होने से वह एक सम्पूर्ण व्यक्ति के पुरुषार्थ का ही परिणाम है । अपनी-अपनी धर्म-परम्परा के प्रति मानव-मन असाधारण आदरभाव रक्खे और उसकी ओर सहज पवित्रता की श्रद्धा रक्खे, तब तक तो वे वाद सत्य-शोधन मे खास बाधक नहीं होते, परन्तु जब जिज्ञासु संशोधक व्यक्ति वस्तुस्थिति जानना चाहता है और प्रयत्न करता है, तब वे वाद बहुत बडा विघ्न खडा करते है। साधारण अनुयायी
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१८]
समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र वर्ग अपनी अपनी धर्म-परम्परा को सर्वथा भिन्न माने और दूसरी परम्परा अथवा दूसरे मानवयूथ के पास से अपनी परम्परा में कुछ भी नयी वात पाने का इन्कार करे, तव सत्य की दृष्टि अवरुद्ध होती है। अतएव सम्भवित उद्भवस्थानो के प्रश्न की विचारणा मे हमे ऐसे वादो को एक ओर ही रखना पडेगा । यद्यपि इन वादो के आसपास सूक्ष्म तार्किक अनुमान और दूसरी रसप्रद वीद्धिक सामग्री भारतीय दार्शनिक साहित्य मे इतनी बडी मात्रा मे सञ्चित हुई है कि उसे देखने तथा उस पर विचार करने पर प्रत्येक पक्षकार के बुद्धि-वैभव के प्रति और उनकी अपने अपने सम्प्रदाय को अनन्य भाव से भजने की वृत्ति के प्रति मान पैदा हुए विना नही रहता, फिर भी सत्य की शोध में निकला हुया मनुप्य अाग्रह एवं अभिनिवेश का परित्याग किए बिना सत्य का साक्षात्कार नहीं कर सकता।
उपर्युक्त अपीरुषेयत्व आदि वाद प्रस्तुत प्रश्न के उत्तर के विचार मे अवरोधक होते है, यह सही है फिर भी प्राचीन समय में भी एक तत्वचिन्तक और स्वतन्त्र परम्परा के पुरस्कर्ता ऐसे हुए हैं जिनका झुकाव उक्त वादो से अलग पडता दिखाई देता है, वह है तथागत बुद्ध । तथागत ने अपने दार्शनिक एवं योग-विषयक सिद्धान्तो के बारे मे अपने गिप्यो के समक्ष अपने ही श्रीमुख से जो कहा था उसका उल्लेख पिटक मे मिलता है। उन्होने कहा था कि मैं जो कुछ कहता हू वह न तो अपीरुषेय है, न ईश्वरप्रणीत है और न सर्वज्ञप्रणीत ही । में तो सिर्फ एक धर्मज्ञ हू । जो धर्म मै तुम्हे समझाता है उसकी जानकारी तक ही मेरी मर्यादा है। उस धर्म-विपयक अनुभव से अधिक जानने का या कहने का मेरा दावा भी नही है। इसीमे तुम मेरे कथन को तर्क एव स्वानुभव से जाचो और कसो। मैंने कहा है इसीलिए उसे मत मानों । बुद्ध का यह कथन हमे अपने विषय मे स्वतन्त्र रूप से विचार करने की
१ मैं जो कुछ कहता हूँ वह परम्परा से सुना करते हो इसलिए उसे सत्य मत मानना, अथवा हमारी पूर्वपरम्परा ऐसी है इसलिए सत्य मत मानना, 'यह ऐसा ही होगा' ऐसा भी जल्दी से मत मान लेना, अथवा यह वात हमारे धर्मग्रन्थो मे है इसलिए भी उसे सत्य मत मानना; यह वात तुम्हारी श्रद्धा के अनुकूल है, इसलिए उस पर विश्वास मत रखना; अथवा तुम्हारे धर्मगुरु ने कहा है, इसलिये उस पर विश्वास मत रखना।
-डॉ राधाकृष्णन कृत Gautama, the Buddha का गुजराती अनुवाद पृ १३
एथ तुम्हे कालामा मा अनुस्सवेन, मा परम्परया, मा इतिकिराय, मा पिटकसपादनेन, मा तक्कहेतु, मा नयहेतु, मा प्राकार परिवितक्केन, मा दिट्ठिनिज्झानक्खतिया, मा भव्यरूपताय, मा समणो नो गुरू ति । यदा तुम्हे कालामा अत्तना व जानेय्याथ-इमे धम्मा अकुसला, इमे धम्मा सावज्जा, इमे धम्मा विञ्च गरहिता, इमे धम्मा ममत्ता समादिना अहिताय, दुक्खाय, सवत्त ती ति- अथ तुम्हे कालामा पजहेय्याथ ।
-~~-अगुत्तरनिकाय भाग १, ३ ६५३, पृ १८६ (पाली टेक्स्ट सोसायटी)
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दर्शन एव योग के विकास मे हरिभद्र का स्थान
[१६ दिशा मे प्रोत्साहक हो सके ऐसा है । यह सच है कि सम्प्रदाय की स्थापना होने पर सुगत के शिष्यों ने भी उन्हे धीरे-धीरे सर्वज्ञ बना दिया २ और उनके विचार प्राचार मानो स्वत. पूर्ण हो ऐसी श्रद्धा परम्पराओ मे निर्मित की, तथापि स्वयं बुद्ध की वृत्ति तो सर्वदा ही सब प्रकार के पूर्वाग्रहो से विमुक्त होकर सोचने-समझने की रही है।
बुद्ध पूर्ण श्रद्धालु और फिर भी तर्कप्रधान थे; अत. जो जो वस्तु बुद्धि एव तर्क की कसौटी पर पूरी न उतरे उसे वे अलग हटा देते थे। उनकी इस वृत्ति का आज अनेक गुना विकास हुआ है । जब से विज्ञान ने अपनी कलाएं विकसित की और पंख पसारे तथा उसके साथ ही इतिहास एवं तुलना की दृष्टि खिली, तब से सशोधन के अनेक नये नये प्रकार और मार्ग अस्तित्व मे आये है । पुरातत्वीय अवशेष, मानववंश-विद्या, मानवजाति-शास्त्र, मानव-समाज एवं उसकी सस्कृति का शास्त्र तथा भाषाविज्ञान जैसे क्षेत्रो मे इतना अधिक कार्य हुआ है और अब भी हो रहा है कि उनके द्वारा उपलब्ध होनेवाली प्रत्यक्ष जानकारी पर से जो जो अनुमान किए गए हैं उनमे से अधिकाश अनुमान विद्वानो मे सर्वसम्मत से हो गये हैं । अत वैमे अनुमानो की अवगणना करके ऊपर कहे गये प्राचीन वादो की कल्पना-सृष्टि पर सर्वथा निर्भर रहना इस युग मे अब शक्य ही नही है । इस दृष्टि से जब हम वैज्ञानिक पद्धति का अनुसरण करनेवाले इतिहास का अवलम्बन लेकर विचार करते है, तब दर्शनो की तथा योग की परम्परा के सम्भवित उद्भवस्थानो के बारे मे कुछ अस्पष्ट और फिर भी सच्चा प्रकाश हमे प्राप्त होता है ।
यह भारतवर्ष लम्बे समय से आर्यदेश तथा हिन्द के नाम से विख्यात है, परन्तु 'आर्य' एवं 'हिन्द' का मानाई और व्यापक पद प्राप्त करने मे उसे अनेक सहस्र वर्षों की रासायनिक प्रक्रिया मे से गुजरना पडा है । आर्यवर्ग-जिसका वेद के साथ निकट का सम्बन्ध था वह वर्ग असल मे इस देश का ही था अथवा बाहर से इस देश मे आकर वसा था इसके विषय मे मतभेद है, परन्तु बहुमत एव बहुत से ठोस तथ्य बाहर से आकर उसके यहा बसने का समर्थन करते है , फिर भी इस जगह तो इस प्रश्न को एक ओर रखकर ही विचारना ठीक होगा। वैदिक आर्य असल यहा
२ तत्सम्भव्यपि सर्वज्ञ सामान्येन प्रसाधित । तल्लक्षणाविनाभावात् सुगतो व्यवतिष्ठते ।।
-तत्वसग्रह, श्लो ३३३६ तथा उसके आगे ३ देखो 'Vedic Age' Book III. Aryans in India, Ch x- The Aryan Problem
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२०]
समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र के ही हो अथवा बाहर से आये हो, चाहे जो माने, परन्तु एक बात सुनिश्चित है कि प्रारम्भ मे वह आर्यवर्ग बहुत छोटा था और पश्चिमोत्तर प्रदेश के अमुक भाग में ही वसा हुआ था । इस वर्ग के अतिरिक्त ऐसी दूसरी अनेक जातिया इस देश मे थी और बाहर से आकर यहा बस गई थी, जो इतिहासक्रम मे आर्यवर्ग से पहले की पूर्ववर्ती थी। ऐसी जातियो के भिन्न भिन्न नाम से उल्लेख वैदिक वाङ्मय मे मिलते है । वैदिक आर्य उन जातियो को आर्येतर ही मानते रहे है ५ । ऐसी प्राचीनतर और प्राचीनतम जातियो मे नेग्रोटो, ऑस्ट्रिक, द्राविड और मंगोल मुख्य है। इनमे से
ऑस्ट्रिक निपाद के नाम से, द्राविड दासदस्यु के नाम से और मगोल किरात के नाम से व्यवहृत हुए है ६ । आर्यवर्ग छोटा था, जबकि ये पूर्ववर्ती जातिया उसकी अपेक्षा अधिक बडी थी और विशाल प्रदेश पर फैली हुई थी। पूर्ववर्ती प्रजाओ का आपस
आपस मे रक्त-मिश्रण एवं सास्कृतिक आदान-प्रदान होता होगा इसमे शंका नही है, फिर भी वैदिक आर्यों के आगमन अथवा स्थिर निवास एवं प्रसरण के साथ वह मिश्रण और आदान-प्रदान और भी अधिक तीव्र हुअा " । इस मिश्रण के अनेक पहलू है। भाषा, रक्त-सम्बन्ध, सस्कृति और धर्म इन सभी क्षेत्रो मे मिश्रण के परिणामस्वरूप एक अद्भुत रसायन निर्मित हुआ है जो आज की भारतीय प्रजा मे दृष्टिगोचर होता है । वैदिक आर्यों की कवि-भाषा या शिष्ट-भाषा संस्कृत थी, इसका दूसरा रूप तत्कालीन प्राकृत था। परन्तु इस भापा ने पूर्ववर्ती जातियो की सभी भाषाओं का स्थान लिया । यह स्थान लेने मे उसने पूर्ववर्ती भिन्न-भिन्न भाषामो के अनेक तत्व अपना लिये और अपने कलेवर को इतना अधिक शक्तिशाली बनाया कि अन्त मे दूसरी भापाएं उस सस्कृत, तद्भव या तत्सम प्राकृत के प्रभाव मे और प्रवाह मे
४ 'Vedic Age' The Tribes in Rigveda, p 245 ५ दास, दस्यु, परिण आदिको आर्येतर माना जाता है। देखो वही, पृ २४८-५० ।
६ वही Race movements and Prehistoric Culture, p 142 ff, Dr Sunitikumar Chatterji Presidential Address, All-India Oriental Conference, 1953, p 11-17
७ डा सुनीतकुमार चटर्जी का उपर्युक्त व्याख्यान पृ. २०
"The racial fusion that started in India with great vigour some 3500 years ago, after the advent of the Aryans, was wider in scope than anywhere else in the world, with the white, brown, black and yellow peoples, Aryas, Dravidas, Nishadas and Kiratas, all being included in it This kind of miscegenation, together with the admission into India of various other types of culture and religious out-look, has perhaps made the average Indian more cosmopolitan in his physical and mental composition than a representative of any other nation"
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दर्शन एव योग के विकास मे हरिभद्र का स्थान
[२१ एकरस हो गईं या समा गईं। यह है आर्यवर्ग के द्वारा साधित भाषानो के संस्कृतीकरण की आद्य सिद्धि ।
परन्तु भाषाओ के परस्पर सक्रमण के साथ ही रक्त का सम्मिश्रण भी चलता था। इसके साथ ही सामाजिक एवं सास्कृतिक जीवन भी परस्पर के मिश्रण के आधार पर निर्मित होता गया और जो प्राचीन आर्येतर जातियाँ थी वे अपने अनेक सामाजिक रीति-रिवाजो और सास्कृतिक अंगो के साथ आर्य वर्ग के दायरे मे दाखिल होती गई । फलत. 'आर्य' शब्द, जो प्रारम्भ मे एक छोटे-से वर्ग तक मर्यादित था, अब एक विशाल समाज का निर्देशक बन गया और उसमे वर्ण अर्थात् रंग, जन्म, कर्म एवं गुण आदि के आधार पर चातुर्वर्ण्य की व्यवस्था की गई। इस चातुर्वर्ण्य का फैलावा देशव्यापी बन गया। यह हुई आर्गीकरण की प्रक्रिया । इसमे 'आर्य' पद वर्गवाची न रहकर उदात्त गुण-कर्म सूचक बन गया । १०
__ आर्वीकरण की प्रक्रिया के प्रारम्भ के साथ ही धर्म एव तत्त्वज्ञान की परस्पर संक्रान्ति भी शुरू हो ही गई थी। आर्येतर जातियो के धार्मिक और तात्त्विक संस्कार आर्यवर्ग के वैसे संस्कारों से बहुत भिन्न थे । आर्य मुख्यतया प्रकृति की विविध शक्ति की या उसके विविध पहलुओ की आकाशीय अथवा स्वर्गीय देव के रूप मे, अथवा तो एक गूढ शक्ति के विविध प्राकृतिक आविर्भावो के रूप मे स्तुति करते थे। उनका स्तवन जब यजन या यज्ञविधि मे परिणत हुआ, तब उस विधि मे अग्निकल्प मुख्य था। अग्नि में मंत्रपूर्वक आहुतियां देने का और अधिष्ठापक देवो को प्रसन्न करने के धर्म का मुख्य रूप से आर्यवर्ग ने विकास किया,११ जब कि आर्येतर जातियो मे से द्राविड जैसी जातियो की धार्मिक वृत्ति सर्वथा भिन्न प्रकार की थी। वे स्वर्गीय
८ उपयुक्त व्याख्यान पृष्ठ १७ : "The language they brought became an instrument of the greatest power in the setting up of Indian civilisation It was the Vedic language, the Old Indo-Aryan speech, which later on as Sanskrit was transformed into one of the greatest languages of civilisation in which the composite culture of ancient India found its most natural vehicle"
६ वही, पृ है।
१० वही, पृ ११ "The name of one dominant race, Arya, very soon lost its narrow ethnic significance or application and became rather a word to denote nobility and aristocracy of character and temperament With the general acceptance of the Aryan language in North India, and with the admission of its prestige in the South as well, the fact that this language was profoundly modiffied within
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२२]
समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र नही, किन्तु भूमिवासी प्राणी, पशु, मनुष्य एवं पशु-मनुष्य की मिश्र प्राकृतिवाले सत्त्वो की अवतार के रूप मे पूजा करते थे, और वह पूजा मिट्टी, पत्थर, लकडी, धातु आदि के प्रतीक तथा चित्र एव इतर प्रतिकृतियो के द्वारा की जाती थी। यह मूर्तिपूजा का ही एक खास स्वरूप था। १२ आर्यवर्ग मे ऐसी मूर्तिपूजा ज्ञात नही होती। यद्यपि उसमे यजन कार्य मे दम्पति सम्मिलित होते थे, परन्तु यजन की विधि विशिष्ट पुरुष अर्थात् पुरोहित के अतिरिक्त कोई नहीं करा सकता था। दान-दक्षिणा द्वारा यज्ञ करानेवाला दूसरा वर्ग भले ही हो, परन्तु मत्रोच्चार एवं इतर विधि-विधान तो विशिष्ट पुरुप - पुरोहित का ही अधिकार था, जब कि आर्येतर जातियो के धर्म मे प्रचलित पूजा-विधि मे स्त्री-पुरुष, छोटा-बडा या चाहे जैसा ऊचा-नीचा अधिकार रखनेवाला व्यक्ति समान भाव से भाग ले सकता था। आर्यों के यज्ञो मे इतर द्रव्यो के साथ मास की आहुति भी दी जाती थी, जब कि आर्येतर धर्मों की पूजा मे, आजकल जैसे मूर्ति के सामने नैवेद्य धरा जाता है वैसे, पत्र, पुष्प, फल, जल एव दीपक आदि का उपयोग होता था। आर्य यज्ञ विधि अत्यन्त जटिल, तो आर्येतर पूजा बिलकुल सरल और सादी । इस प्रकार आर्य एव आर्येतर जातियो के प्राचीन धर्मों में बहुत बडा अन्तर था ।१३
इसी प्रकार इनके तत्त्वज्ञान में भी खास अन्तर देखा जाता है। आर्यवर्ग मे तत्त्वज्ञान 'ब्रह्म' शब्द के विविध अर्थों के विकास के साथ सकलित है, जब कि आर्येतर जातियो का तत्त्वज्ञान 'सम' पद के विविध पहलुप्रो के साथ आयोजित देखा जाता है।४
India by taking shape in a non-Aryan environment reconciled the Dravidians and others to come under the tutelage of Sanskrit as the sacred language of Hinduism and as the general vehicle of Indian culture'
पाकिरण के विस्तृत वर्णन के लिए देखो Dr DR Bhandarkar “Some Aspects of Ancient Indian Culture" Arganisation, p 24
११ “Vedic Age" Ch XVIII. Religion and Philosophy, P 460, डॉ० सुनीतिकुमार चेटर्जी का उपर्युक्त व्याख्यान, पृ० ५२ ।।
१२ डॉ० सुनीतिकुमार चेटर्जी का उपयुक्त व्याख्यान, पृ० ५२, "विष्णुधर्मोत्तर" ४३, ३१-५।
१३ डॉ. सुनीतिकुमार चेटर्जी का उपर्युक्त व्याख्यान, पृ० ५३ ।
१४ देखो-गुजराती साहित्य परिपद् के २० वें अधिवेशन के तत्त्वज्ञान विभाग के अध्यक्षपद मे दिया गया मेरा व्याख्यान, "ब्रह्म अने सम।"
-बुद्धिप्रकाश, वर्ष १०६, अक ११, पृ० ३८६ ।
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दर्शन एव योग के विकास में हरिभद्र का स्थान
[२३ कवित्व की असाधारण प्रतिभा से सम्पन्न और नये नये आचार-विचारो को आत्मसात् करनेवाले ब्राह्मण पुरोहित वर्ग ने 'ब्रह्म' पद का अन्त में ऐसा अर्थ विकसित और फलित किया कि ब्रह्म अर्थात् विश्वगत विविध भेद-सृष्टियो का प्रभवस्यान ।१५ दूसरी ओर 'सम' के उपासक एवं असाधारण साधक व्यावहारिक जीवन के सभी अंगो मे समत्व या समभाव फैलाने की साधना कर रहे थे ।१६ इसके कारण सामाजिक एवं आध्यात्मिक जीवन मे समत्व का अर्थ अत्यन्त सूक्ष्म भूमिका तक विकसित हुआ। समत्व की साधना भी भेद-सृष्टि की भूमिका के ऊपर चलती थी। परन्तु वह अद्वीत मे परिणत न होकर आत्मौपम्य मे परिणत हुई। १७ यह साधना ही योग परम्परा की असली बुनियाद है ।
__ भारत भूमि मे दर्शन एवं योग इन दोनों का सर्वथा अलग-अलग विकास दृष्टिगोचर नहीं होता। दार्शनिक तत्त्वचिन्तन हो वहा योग के किसी न किसी अग
१५ "ब्रह्म वा इदमन आसीत्" इत्यादि "बृहदारण्यकोपनिपद्" १, ४, १०, "ब्रह्मसूत्र" १, १, १-४, शाकरभाष्यसहित, "भगवद्गीता" १३, १२ अादि, १४, ४ । १६ "भगवद्गीता" के अधोलिखित श्लोक देखो :
योगस्थ कुरु कर्माणि सग त्यक्त्वा धनजय । सिद्धयसिद्धयो समो भूत्वा समत्व योग उच्यते ॥ २ ४८ ।। यदृच्छालाभसतुष्टो द्वातीतो विमत्सर । सम सिद्धावसिद्धौ च कृत्वाऽपि न निवद्धयते ।। ४ २२ ।। विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता समदर्शिन || ५ १८ ॥ इहैव तैजितः सर्गो येषा साम्ये स्थित मन । निर्दोष हि सम ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मरिण ते स्थिता ॥ ५ १६ ॥ सर्वभूतस्थमात्मान सर्वभूतानि चात्मनि । ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन ॥ ६ २६ ।। आत्मौपम्येन सर्वत्र सम पश्यति योऽर्जुन । सुख वा यदि वा दु ख स योगी परमो मत ।। ६ ३२ ।। "उत्तराध्ययनसूत्र" की निम्नाकित गाथा देखो --- समयाए समणो होइ वभचेरेण वभयो ।
नाणेण उ मुणी होइ तवेण होइ तावसो ॥ २५ ३२॥ १७. देखो "अध्यात्म विचारणा" पृ० १२०-२१ । देखो "प्राचारागसूत्र" का नीचे का पाठ - सव्वे पाणा पियाऊया सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीविणो जीविउकामा सव्वेसि जीविय पिय । २, ३, ४ लोगसि जारण अहियाय दुक्ख समय लोगस्स जाणित्ता एत्थ सत्थोवरए । ३, १, १, से प्रावय नारणव वेयव धम्मव वभव पन्नाणेहिं परिजाइ लोग । ३, १, २, पावती केयावती लोगसि समणा य माहणा य पुढो विवाय वयति - “से दिट्ठ च
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२४]
समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र का न्यूनाधिक सम्बन्ध रहता ही था, और योग की साधना हो वहा किसी न किसी प्रकार के तत्त्वचिन्तन का भी प्राधार होता ही था । ब्रह्मतत्त्व का चिन्तन और समत्व की साधना इन दोनो के अति प्राचीन अल्पाधिक सम्बन्ध के परिणाम स्वरूप धीरे-धीरे ये दोनो ऐसे एकरस हो गये कि ब्रह्मवादी अपने को समवादी और समवादी अपने को ब्रह्मवादी कहने लगा;१८ ब्राह्मण समन के रूप मे और समन ब्राह्मण के रूप मे पहचाना जाने लगा ।१६ दर्शन एवं योग की इस सुदीर्घ विकास प्रक्रिया के परिणामस्वरूप जो मूलभूत सिद्धान्त स्थिर हुए और जो किसी भी भारतीय परम्परा मे एक अथवा दूसरे रूप में विद्यमान है और जिनके कारण भारत की संस्कृति इतर देशो की संस्कृति से कुछ अलग-सी पडती है, वे सिद्धान्त संक्षेप मे इस प्रकार है
१. स्वतन्त्र आत्मतत्त्व का अस्तित्व ।। २ पुनर्जन्म और उसके कारण के रूप मे कर्मवाद का सिद्धान्त ।
_णे सुय च रो मय च णे विनाय च रणे .. सन्वे पारणा सव्वे भूया सव्वे जीवा ... हतन्वा . __एत्थ पि जारणह नत्थेत्थ दोसो"- अरणारियवयरणमेय । तत्थ जे ते आरिया ते एव वयासी
"से दुद्दिट्ट च भे, दुस्युय च भे ..." अणारियवयणमेय ॥ वय पुरण एव आइक्खामो .. "सव्वे पारणा न हतन्वा ...." पारियवयणमेय | पुन्य निकाय समय पत्तेय पत्तेय पुच्छिस्सामो- "ह भो वावादुया। किं भे साय दुक्ख उयाहु असाय?" समियावडिवन्ने या वि एव बूया - "सव्वेसिं पाणाण ... असाय अपरिरिगव्वाण महन्भय दुक्ख ति"त्ति बेमि । ४, २, ३-४ देखो “सूत्रकृताग" की निम्न गाथाए -
उराल जगमो जोग विवज्जास पलेंति य ।। सव्वे अक्कतदुक्खा य अग्रो सव्वे अहिंतिया ॥ १, १, ४, ६ ॥ एय खु णारिणणो सार ज न हिंसइ किंचण। अहिंसा समय चेव एयावत वियारिणया ॥१, १, ४, १० ॥ विरए गामधम्मेहिं जे केई जगई जगा ।
तेसि अत्तुवमायाए थाम कुव्व परिव्वए ॥ १, ११, ३३ ॥ देखो "दशवकालिक" को नीचे की गाथा :
सब्वे जीवा वि इच्छति जीविउ न मरिज्जिउ ।
तम्हा पारिणवह घोर निग्गज्ञा वज्जयति ण ॥ ६, ११ ॥ १८ निर्दोप हि सम ब्रह्म । --- भगवद्गीता, ५, १६
देखो "स्वयम्भूस्तोत्र" मे आये हुए अधोलिखित पद :--- वभूव च ब्रह्मपदामृतेश्वर । १, ४ स ब्रह्मनिष्ठ सममित्रशत्रु । २, ५
अहिंसा भूताना जगति विदित ब्रह्म परमम् । २१ ४ १६ से आयव नारणव वेयव धम्मव बम्भव पन्नाणेहिं परिजात्तई लोग ।
-आचारागसूत्र ३, १, २
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दर्शन एव योग के विकास में हरिभद्र का स्थान
[२५ ३. कर्म की वजह से जीवन के एक नियत रूप से रचे जाने की और एक नियत मार्ग से प्रवाहित होने की मान्यता, और फिर भी पौरुष अथवा बुद्धिप्रयत्न के द्वारा स्वतन्त्र विकास की शक्यता।
ये सिद्धान्त तत्त्वज्ञानस्पर्शी है। योगस्पर्शी सिद्धान्तो मे प्रथम स्थान 'जीरो और जीने दो' की आत्मौपम्यमूलक अहिंसा का है । इस अहिंसा की दृष्टि और पुष्टि की वृत्ति में से संयम एवं तप का जो आत्मनिग्रही मार्ग विकसित हुआ वह इसके अनन्तर पाता है। अपनी दृष्टि और मान्यता के जितना ही दूसरे की दृष्टि और मान्यता का सम्मान करना-ऐसी समवृत्ति मे से उत्पन्न अनेकान्त अथवा सर्वसमन्वयवाद योगविकास का सर्वोपरि परिणाम है ।
उपर्युक्त दार्शनिक एवं योगपरम्परा के मूल सिद्धान्तो का विकास पूर्णतया भारत के अधिवासी अमुक वर्ग ने ही किया है अथवा बाहर से आकर भारत मे बसे हुए किसी वर्ग का भी उसमे कमोबेश हिस्सा है इत्यादि बाते निश्चित करना कभी शक्य ही नही है, फिर भी उपलब्ध सामग्री के आधार पर विद्वान् ऐसा तो मानने लगे हैं कि पार्यो के पहले जो ऑस्ट्रिक एवं द्राविड जातिया थी उनका इस विकास मे बहुत बडा हिस्सा है ।२० मोहन-जो-डेरो और हडप्पा आदि नगर नष्ट हुए, परन्तु इससे कुछ उनकी संस्कृति और वहा बसनेवाली जातिया नप्ट नही हुई है। लोथल आदि की अभी-अभी की खुदाई ने यह तो बता ही दिया है कि वह जाति और संस्कृति देश के अनेक भागो मे फैली हुई थी। मोहन-जो-डेरो आदि स्थानो से प्राप्त मुहर आदि के ऊपर जो प्राकृतिया अकित है उनमे से योग-मुद्रावाली नग्न आकृति तथा दूसरी नन्दी आदि की आकृतियों की ओर विद्वद्वर्ग का खास ध्यान जाता है और बहुत से विद्वान् ऐसा मानने के लिए प्रेरित होते है कि वे प्राकृतिया असल मे किसी रुद्र, महादेव अथवा वैसे किसी योगी की ही सूचक है ।२१ दूसरी ओर भारत के भिन्न-भिन्न भागो मे प्रवर्तमान अनेकविध धर्मभावनाओ के साथ उस महादेव या शिवकी उपासना प्राचीन काल से किसी-न-किसी रूप मे जुडी हुई अथवा रूपान्तरित देखी जाती है । द्रविडभाषी जो द्राविड है उनका मूल धर्म ऐसी किसी रुद्रपूजा के साथ ही संवन्धित होगा-ऐसा मानने के भी कई कारण है। २ भारत के पूर्व, उत्तर एवं पश्चिम भाग मे
२० डॉ० सुनीतिकुमार चेटर्जी का उपर्युक्त व्यास्यान पृ० ५५-६ । २१ वही।
२२ वही, 'गुजरातनो सास्कृतिक इतिहास' खण्ड १, भाग १-२ पृ० २२०, डॉ० डी० पार० भाण्डारकर कृत 'Some Aspects of Indian Culture' p 39 ff , Marshall Mohinyo-Daro and Indus Civilization, Vol I, p 53-4
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समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र श्रमण-मार्ग की जिन विविध गाखायो का फैलावा हुया उनके मूल में भी इस द्र की योग-साधना के किसी न किमी अंग का समावेश और विकास देखा जाता है यह सब देखने पर इस समय सामान्य रूप से इतना कहा जा सकता है कि योगपरम्परा के समत्वमूलक और समलपोपक अगो का उद्भवस्थान सिन्धु-संस्कृति के प्रदेशों मे कही न कही होना चाहिये, परन्तु उद्भवस्थान विपयक यह अस्फुट चर्चा हमे बहुत दूर नहीं ले जा सकती, फिर भी इसके प्रसार का प्रश्न उतना अटपटा और उलझन ने भरा हुआ नही है ।
२. प्रसार दर्शन और योग की परम्परा यो तो भारत के कोने-कोने में फैली हुई देखी जाती है, परन्तु इसके प्रसार के इतिहास युग के मुख्य केन्द्र दो या तीन है: (१) पूर्वभारत मे मगध, उत्तर विहार, और काशी-कोसल का केन्द्र, (२) पश्चिमोत्तर प्रदेश मे तक्षशिला, शलातुर और कुरु-पञ्चाल का मध्य प्रदेश । वैदिक वाडमय, महाभारत रामायण, दर्शन-सूत्र और उनके कतिपय भाप्य तथा कई प्राचीन पुराण इत्यादि ब्राह्मण-प्रधान संस्कृतमय साहित्य के उद्भवस्थान अधिकांशत पश्चिमोत्तर भारत, कुरु-पाञ्चाल, काशी-कोसल और बिहार मे आये हैं, तो प्राकृत भाषा मे निबद्ध श्रमणप्रधान आगम-पिटको के उद्भवस्यान भी उत्तर-विहार, मगध, काशी-कोसल और मथुरा आदि के आस पास ही देखे जाते हैं । सौराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान आदि पश्चिम के भाग तथा दक्षिण एवं दूर-दक्षिण के प्रदेश में ऐसा कोई स्थान दृष्टिगोचर नहीं होता, जहां कि इतिहास युगीन संस्कृतप्रधान या प्राकृत-प्रधान साहित्य के प्राचीन स्तर की निमिति का निर्देश मिलता हो। इस पर से इतना सार निकाला जा सकता है कि मूल उद्भवस्थान अविदित होने पर भी दर्गन एवं योगपरम्परा के उपलब्ध सस्कृत-प्राकृत साहित्य की रचना बहुत करके पश्चिमोत्तर, मध्य एवं पूर्व देश मे हुई है, और वहाँ से ही भारत के अन्य सब भागो मे अनुक्रम से उसका प्रसरण हुया है। झाना ही नहीं, भारत के वाहर भी उसका प्रभावशाली प्रसार प्राचीन समय मे ही होता रहा है । ३
३. गुजरात के साथ सम्बन्ध गुजरात का अर्थ यहाँ विस्तृत है। इसमे सौराष्ट्र, मानर्त तथा उत्तर एवं दक्षिण गुजरात का भी समावेश विवक्षित है । मौर्य युग से तो गुजरात के साथ दर्शन
२३. देवो-श्री राहल साकृत्यायनकृत 'वौद्ध सस्कृति ।'
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दर्शन एव योग के विकास मे हरिभद्र का स्थान एव योग-परम्परा के सम्बन्ध के सूचक प्रमाण अधिकाधिक मिलते ही है,२४ परन्तु यह सम्बन्ध एकदम अचानक मौर्य युग मे ही हुआ ऐसा नही माना जा सकता । बुद्धमहावीर के पहले की शताब्दियो मे, पौराणिक वर्णन के कथनानुसार, यादवो का प्राधान्य द्वारका और गिरिनगर मे था। सात्वत भागवत-परम्परा के साथ संकलित है । यादवपुगव कृष्ण तो भागवतपरम्परा के सर्वसम्मत वैष्णव अवतार माने गये है। यादवो के दूसरे एक तपस्वी नेमिनाथ जैन-परम्परा के तीर्थकर अथवा विशिष्ट अवतार माने जाते हैं। यादववंश के प्रभाव एवं विस्तार के साथ मुख्यत' वैष्णव धर्म का प्रसार पश्चिम से आगे बढकर दक्षिण आदि दूसरे देशो मे हुआ हो ऐसा लगता है । शैव-परम्परा का कोई-न-कोई प्राचीन स्वरूप गुजरात मे पहले ही से रहा है । वह सिन्धु-प्रदेश मे से गुजरात की अोर आया हो अथवा दूसरे चाहे जिस मार्ग से परन्तु इतना तो सुनिश्चित प्रतीत होता है कि गुजरात की भूमि मे शैवपरम्परा के मूल विशेष प्राचीन है । २५ प्रभास पाटन का ज्योतिर्धाम और वैसे दूसरे पौराणिक शवधाम यहां आये हैं तथा ग्राम, नगर एवं उच्च-नीच सभी जातियो मे शिव के सादे स्वरूप की पूजा परापूर्व से ही प्रचलित रही है । शैव परम्परा के मुख्य देव है रुद्र या महेश्वर । न्याय-वैशेपिक परम्परा मे ईश्वर को कर्ता का स्थान कब मिला यह तो अज्ञात है, परन्तु जब कर्ता के रूप मे ईश्वर ने उस परम्परा मे स्थान प्राप्त किया तब उस ईश्वर का वर्णन विष्णु या ब्रह्मा के रूप मे नही किन्तु महेश्वर या पशुपति के रूप मे मिलता है । २६ ।
वैष्णव परम्परा के उत्तरकालीन तत्त्वज्ञान-विपयक विकास को देखने पर ऐसा ज्ञात होता है कि उस परम्परा का तत्त्वज्ञान साख्य-विचारसरणी के ऊपर ही रचित है । २७ मध्व के अतिरिक्त अब तक की ऐसी कोई वैष्णव परम्परा नही दिखाई पडती, जिसके तत्वज्ञान के मूल सिद्धात साख्य-परम्परा को छोड दूसरी किसी परम्परा मे से लिए गए हो । शैव परम्परा की अधिकाश शाखाप्रो का सम्बन्ध न्यायवैशेषिक परम्परा के साथ रहा है। जैन-परम्परा का तत्त्वज्ञान यो तो साख्य और न्याय-वैशेषिक परम्परा से सर्वथा स्वतत्र है, फिर भी उसके अनेक अंश ऐसे है जिनमे
२४. देखो गिरनारके शिलाखण्ड पर उत्कीर्ण अशोकका शिलालेख ।
२५ देखो 'शवधर्मनो सक्षिप्त इतिहास' पृ० १२६, 'गुजरातनो सास्कृतिक इतिहास' खण्ड १, भाग १-२, पृ० २२१, २२६-३२ ।
२६ देखो 'प्रशस्तपादभाष्य' गत सृप्टिप्रक्रिया । २७ देखो 'भारतीय तत्त्वविद्या' पृ० ५७-८, १२३, १३४-५ ।
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२८]
समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र साख्य एव न्याय-वैशेषिक परम्परा की मान्यताप्रो का समन्वय भी है । २८ यह सब देखने पर ऐसा मालूम होता है कि बुद्ध-महावीर के पहले के समय मे वैष्णव, शैव एवं जैन परम्परा के जो स्वरूप होगे उनमे साख्य, न्याय-वैशेपिक पीर जैन तत्त्वज्ञान की कोई-न-कोई विचारणा संकलित होनी चाहिए । वैदिक परम्परा का प्रधान स्तम्भ तो है क्रियाकाण्ड-प्रधान पूर्व मीमासा । बुद्ध-महावीर के पहले के समय में इस मीमासा ने गुजरात मे स्थान पाया हो ऐसा नही दीखता । मुख्यतया उपनिपद् के ऊपर अधिष्ठित उत्तर मीमासा तो उत्तरकालीन है, अत उस पौराणिक युग में गुजरात के साथ उसके सम्बन्ध का खास प्रश्न उठता ही नहीं है। इस पर मे कहने का सार इतना ही है कि पुरातन युग मे गुजरात के प्रदेशो मे जो जो तत्वज्ञान की पद्धतियाँ प्रचलित थी वे प्राय सभी वैदिकेतर थी । २६
योगपरम्परा के साधना-अङ्ग अनेक है, परन्तु उनमे अहिंसा, तप एवं ध्यान जैसे अङ्ग प्रधान है। भक्ति-प्रधान वैष्णव-भागवत, तपः प्रधान शेव भागवत अथवा अहिंसा-सयम-प्रधान निर्गन्थ - ये सभी परम्पराएँ योग के भिन्न-भिन्न अंगो पर अल्पाधिक भार दे करके ही विकसित होती रही है। अतएव इन परम्पराओ के साथ ही योग-परम्परा सकलित थी, इसमे शका नही है। इस तरह बुद्ध-महावीर के पहले के युग के गुजरात का अस्फुट चित्र ऐसा अंकित होता है कि जिसमे तत्त्वज्ञान की दृष्टि से सभी प्रसिद्ध वैदिकेतर परम्पराएँ रही हो और योग तो उन सभी परम्परामो मे किसी-न-किसी रूपसे सकलित रहा हो।
परन्तु लगभग बुद्ध-महावीर के समय से अथवा तो उनके कुछ ही वर्ष पीछे से गुजरात का चित्र ही अधिक स्पष्ट व सुरेख दिखाई देता है । चन्द्रगुप्त मौर्य ने गिरिनगर मे सुदर्शन सरोवर बंधाया।' चन्द्रगुप्त की राजधानी तो पाटलीपुत्र और
२८, देखो 'दर्शन और चिन्तन' पृ० ३६०, 'प्रमारणमीमासा' प्रस्तावना (सिंघी जैन ग्रन्थमाला) पृ० १० ।
२६ 'पुराणोमा गुजरात' पृ० ३६ पर श्री ध्रुव का जो मत उद्धत है वह देखो। 'वोधायन' मे निषिद्ध देशो की तालिका मे पानर्त का भी समावेश किया गया है । इससे वहा आर्येतरोका प्राधान्य सूचित होता है। देखो 'गुजरातनी कीर्तिगाथा' पृ० ३५ तथा श्रीदुर्गाशकरकृत 'भारतीय सस्कारो अने तेनु गुजरातमा अवतरण' पृ० २०६ से।
___३० देखो-श्री विजयेन्द्रसूरि 'महाक्षत्रप राजा रुद्रदामा' मे रुद्रदामा का शिलालेख पृ० ८, तथा श्री रसिकलाल छो० परीख 'काव्यानुशासन' भा० २, प्रस्तावना पृ० २६ ।
अर्थशास्त्र मे भी सौराष्ट्रका उल्लेख है। देखो 'गुजरातनो सास्कृतिक इतिहास' खण्ड १, भाग १-२, पृ० २७ ।
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दर्शन एव योग के विकास मे हरिभद्र का स्थान [२६ इतनी दूर गिरिनगर के साथ उसका सम्बन्ध - यह तनिक अचरज-सा मालूम होता है । शायदं वह सम्बन्ध केवल राजकीय होगा, परन्तु पूर्ववर्ती नन्दों और उसके पौत्र अशोक आदि के जीवन का जब हम विचार करते हैं और राजकीय सम्बन्ध के साथ पहले ही से चले आनेवाले धार्मिकता के अनिवार्य संसर्ग के विषय मे जब हम सोचते हैं, तब कम से कम ऐसा मानने मे कोई अडचन नहीं है कि गुजरात के साथ चन्द्रगुप्त का जो सम्बन्ध था उसमे धर्म-परम्परा का भी कुछ-न-कुछ प्रभाव होना चाहिए । परन्तु वह चाहे सो हो, उसके पौत्र अशोक मौर्य के धर्मशासन यह स्पष्ट रूप से सूचित करते है कि अशोक की सत्ता गुजरात पर थी,१ परन्तु वह केवल राजकीय नही थी; उसमे धार्मिकता का भाग मुख्य था । अशोक तथागत बुद्ध का पक्का अनुयायी था, परन्तु वह कट्टर साम्प्रदायिक नही था उसकी उदारता विश्व इतिहास मे अद्वितीय थी, ऐसा उसके धर्मशासन कहते है।३२ अशोक के धर्मशासनो पर से इतना कहा जा सकता
३१ देखो-श्री रसिकलाल छो० परीख 'काव्यानुशासन' माग २, प्रस्तावना पृ० २५-६, मूल लेख के लिए देखो भरतराम भा० मेहता 'अशोकना शिलालेखो।'
३२ देवो का प्रिय प्रियदर्शी राजा सब पाखण्डो को (सम्प्रदाय के लोगो को) तथा प्रवजितो (साधुओ) को तथा गृहस्थो को दान से एव विविध पूजा से पूजता है । परन्तु सव पाखण्डो (सम्प्रदायो) के सार की वृद्धि (देवो के प्रिय प्रियदर्शी राजा को जैसी लगती है) वैसे दान और पूजन देवो के प्रिय (प्रियदर्शी राजा) को नही लगते । परन्तु (यह) सार की वृद्धि अनेक प्रकार की है; और उसका मूल वाचागुप्ति (बोलने मे सभालना) है। अपकारण से (तुच्छ कारण से) परपाखण्डगर्हणद्वारा (दूसरो के सम्प्रदायको निन्दा करके) आत्मपाखण्डपूजा (अपने सम्प्रदायकी पूजा) न हो (अच्छी नही)। प्रकारण से (योग्य कारण से) यह लघूकृत हो सकती है (उसकी निन्दा की जा सकती है। परन्तु तो भी उसे प्रकारण से (योग्य कारण से) परपाखण्ड की (दूसरे के सम्प्रदाय की) पूजा करनी चाहिए ।
ऐसा करने पर वह अपने सम्प्रदायको बढायगा, और दूसरे के सम्प्रदाय पर उपकार करेगा । इससे अन्यथा (उल्टा) करने पर वह अपने सम्प्रदायको क्षीण करेगा (नष्ट करेगा) और दूसरे के सम्प्रदाय पर भी अपकार करेगा। इसके अतिरिक्त 'मैं अपने सम्प्रदाय की शोभा बढाता हू, ऐसा समझकर जो कोई भी अपने सम्प्रदाय को पूजता है, और केवल अपने सम्प्रदायकी भक्ति से (भक्ति के कारण) दूसरे सम्प्रदाय की गर्हणा (निन्दा) करता है वह वैसा करने से अपने सम्प्रदाय की बहुत भारी हानि करता है ।
अन्यमनस् के (भिन्न धर्म के ऊपर मन लगाने वाले मनुष्य के) धर्म को सुनना तथा (उसकी) शुश्रूषा करना यही अच्छा (समवाय अथवा) सयम है। देवो के प्रिय (प्रियदर्शी राजा की यही इच्छा है कि सब पाखण्ड (सम्प्रदाय के लोग) बहुश्रुत (बहुज्ञानी) तथा कल्याणगम (कल्याण की ओर जाने वाले, कल्याणसाधक) बनें। जो वहा-वहा (अपनेअपने सम्प्रदाय मे) प्रसन्न हो उनसे कहना (कि) सव सम्प्रदायो के सार की महती वृद्धि (देवो के प्रिय प्रियदर्शी राजा को जैसी लगती है) वैसे दान और पूजन देवो के प्रिय (प्रियदर्शी राजा) को नही लगते ।
-अशोक के शिलालेख मे १२ वा शासन
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३०]
समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र है कि उस काल मे सौराष्ट्र मे अनेक धर्म-पंथ प्रवर्तमान थे । उनमे से जैन 3 और बौद्ध के अस्तित्व के बारे में तो प्रश्न ही नहीं है, परन्तु ऊपर जिनका उल्लेस किया है वे वैष्णव एवं शैव आदि इतर पौराणिक धर्म भी प्रवर्तमान होने चाहिएं। प्राकृत भाषा द्वारा उसने अपने राज्य के दूसरे अनेक भागो की प्रजा को जिस धर्म के अनुपालन का उद्बोधन किया है वह मुख्यतया मानव-धर्म है,३४ कोई विशिष्ट पाथिक धर्म नही, और मानव-धर्म की सच्ची नीव तो योग के अंगो पर अधिष्ठित है। बुद्ध ने
३३ जैन पागम 'उत्तराध्ययन' (अ० २२), 'अतगड' श्रादि मे उल्लिखित जैन परम्परा के अनुसार वाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ और उनके भाई रथनेमि आदि तपस्वियो का सम्वन्ध सौराष्ट्र के साथ है ('काव्यानुशासन भा० २, प्रस्तावना पृ० २१)। अशोक के पौत्र सम्प्रति ने उज्जयिनी मे रह कर जब मौर्यशासन चलाया तब उसने पितृपरम्परा के देशो मे जैन-धर्म का विशेष प्रचार एव प्रसार किया। उन देशो में आन्ध्र, द्रविड आदि नये प्रदेश भी आते है ('वृहत्कल्प' गाथा ३२७५-८६, 'निशीथ' गाथा २१५४, ४४६३-६५, ५७४४५८, 'निशीथ एक अध्ययन' पृ० ७३) मतलव कि उसे आधुनिक मालवा, गुजरात, सौराष्ट्र, राजस्थान जैसे प्रदेशो मे नया प्रचार करने की आवश्यकता नहीं थी। कालकाचार्य की शकशाहियो को बसाने की कथा प्रसिद्ध है ('निशीथ' गा० २८६०), प्राचार्य वरसेन के पास गिरनार पर दक्षिण देश के जैन साधु अध्ययन करने के लिए आये थे ऐसी बात दिगम्बरीय परम्परा मे सुविख्यात है ('धवला' प्रथम भाग, प्रस्तावना), नयचक्र के प्रसिद्ध प्रणेता मल्लवादी और उनके गुरु का वलभी के साथ का सम्बन्ध कथानो मे निर्दिष्ट है ('प्रभावकचरित्र' प्रवन्ध १०) और वलभी मे जैन आगमो की वाचना वहा जैन परम्परा के प्राचीन दृढमूल अस्तित्व को सूचक है, वलभी मे 'विगेपावश्यकभाष्य' के कर्ता जिनभद्र हुए थे ('भारतीय विद्या' ३-१, पृ० १६१)-इन सब बातो को ध्यान में लेने पर सौराष्ट्र मे जन धर्म का प्रचार प्रागैतिहासिक काल से किसी न किसी रूप मे चला आता था ऐसा कहा जा सकता है। यद्यपि प्राचीन शिलालेखीय अथवा ताम्रपत्रीय सामग्री उपलब्ध नहीं हुई है, तथापि साहित्यिक परम्परा के आधार पर यह बात सिद्ध हो सकती है। विशेप के लिए देखो 'मैत्रककालीन गुजरात' पृ०४१६-२७ ।
३४ " .. साधु मातरि च पितरि च सुलूसा मितामस्तुतज्ञातीन वाम्हणसमणान साधु दान प्राणान साधु अनारभो अपव्ययता अपभाडता साधु . .
-अशोक के शिलालेख मे तीसरा शासन " .. अनारभो प्राणान अविहीसा भूतान ज्ञातीन सपटिपती ब्रह्मरणसमरणान सपटिपती मातरि पितरि सुस्रुसा थैरसुस्रुसा .।"
-अशोक के शिलालेख मे चौथा शासन " . .तत इद भवति दासभतकम्हि सम्यप्रतिपती मातरि पितरि साधु सुनुसा मितसस्तुतजातिकान ब्राह्मणसमणान साधु दान प्राणान अनारभो साधु . ."
-अशोकके शिलालेखमे ग्यारहवां शासन इन मूल उद्धरणो के अतिरिक्त वत्तीसवी पादटीप मे दिये गये बारहवें शासन के अनुवाद पर से भी अशोक के धर्म-विषयक व्यापक दृष्टि-विन्दुका ख्याल आ सकता है।
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दर्शन एव योग के विकास मे हरिभद्र का स्थान
[ ३१
अपने उपदेशो में अधिक भार दिया है तो वह योग के अंगो पर ही । ३५ अत गुजरात मे योग-परम्परा का व्यावहारिक चित्र अशोक की धर्म-लिपियो मे दृष्टिगोचर होता है। इसके साथ ही जब हम जैन आदि इतर परम्पराओ का विचार करते है तब ऐसा प्रतीत होता है कि शोककालीन गुजरात मे इतर परम्पराएँ भी मानव-धर्म के ऊपर अधिक भार देती होगी । परन्तु अशोक के अनन्तर जब शकयुग आता है और उसमे रुद्रदामा का शासन शुरू होता है तब उस तत्त्वज्ञान और योग- परम्परा के चित्र मे अधिक उभार नजर आता है ।
ईसा की दूसरी शती का रुद्रदामा का वह सुश्लिष्ट संस्कृत भाषा मे निबद्ध लेख मानव धर्म के विशेष परिपालन की बात तो कहता ही है, ३६ साथ ही न्यायवैशेषिक एवं व्याकरण आदि शास्त्रो के ज्ञाता के रूप मे भी उसका निर्देश करता है । ३७ शक होने पर भी एक तो आर्यभाषा संस्कृतमय नाम और उसमे भी शिव का रुद्र के रूप मे निर्देश तथा लेखगत विशेषरणो मे से फलित होने वाला उसका दार्शनिक ज्ञान -- इन सबसे यही सूचित होता है कि अशोक ने बुद्ध भगवान् की सहज प्राकृत भाषा द्वारा जो घोषणा की थी उसे कार्यान्वित करने का प्रयत्न शक सेनापति और सम्भवत रुद्रभक्त रुद्रदामा ने किया और उसे संस्कृत भाषा द्वारा अचल पद भी दिया।
इसके अतिरिक्त अशोक के धर्म के विषय मे देखो डॉ. देवदत्त रामकृष्ण भाण्डारकर रचित और भरतराम भा मेहता द्वारा गुजराती मे अनूदित 'अशोक चरित' प्रकरण ४ । घृति क्षमा दमोsस्तेय शौचमिन्द्रियनिग्रह |
धीविद्या सत्यमक्रोधो दशक धर्मलक्षणम् ॥ ६२ ॥ मनुस्मृति श्रहिंसा सत्यमस्तेय शौचमिन्द्रियनिग्रह | एत सामासिक धर्म चातुर्वण्र्येऽब्रवीन्मनु || विशेष के लिये देखो 'मानवधर्मसार' पृ० ५६-७ ।
- मनुस्मृति
३५ इसी लेखक की पुस्तक 'अध्यात्मविचारणा' का अध्यात्मसाधना नामक प्रकरण, विशेषतया पृ १०२ से ।
३६. यथार्थहस्तो (१३) च्छ्रार्योजतोजितधर्मानुरागेण शब्दार्थगान्धर्वन्यायाद्याना विद्याना महतीना पारणवारणविज्ञानप्रयोगावाप्तविपुलकीर्तिना तुरगगजरथचर्यासिचर्म नियुद्धाद्या.. [ति] परवललाघवमौष्ठवक्रियेण ग्रहरहर्दानमानान (१४) वमानशीलेन स्थूललक्षेण यथावत्प्राप्तर्वलिशुल्कभागै कनकरजतवज्ज्रवैडूर्य रत्नोपचय निष्यन्दमानकोशेन स्फुटलघुमघुर चित्रकान्तशब्दसमयोदारालकृतगद्यपद्य...न प्रमाणमानोन्मानस्वरगतिवर्णासारसत्त्वादिभि (१५) परमलक्षरण - व्यंजनैरुपेतकान्तमूत्र्त्तिना स्वयमधिगतमहाक्षत्रपनाम्ना नरेन्द्रकन्न्यास्वयवरानेकमात्यप्राप्तदाम्न् [] महाक्षत्रपेन रुद्रदाम्ना ...
[१९] पह्लवेन फुलैपपुत्रेरणामात्येन सुविशाखेन यथावदर्थधर्मव्यवहारदर्शनैरनुरागमभिवर्षयता शयतेन दान्तेनाचपलेनाविस्मितेनार्य्यगाहार्येण (२०) स्वधितिष्ठता धर्मकीतियशासि भर्तुरभिवर्द्ध यतानुष्ठितमिति । - गिरनार का रुद्रदामा का शिलालेख
...
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__३२]
समदर्शी आचार्य हरिभद्र गिरिनगर के पश्चात् तुरन्त ही सौराष्ट्र मे वलभीपत्तन हमारा ध्यान आकर्पित करता है । वलभी का आर्थिक, राजकीय, सास्कृतिक एवं धार्मिक इस प्रकार चतुविध अभ्युदय, उत्तरोत्तर वर्धमान दशा मे, मैत्रक राजानो के राज्यकाल मे उनके ताम्रपत्र आदि के द्वारा हमे ज्ञात होता है । ८ मैत्रकों का राज्य ४७० ई० से शुरू होता है, परन्तु वलभी के उत्कर्ष की नीव तो बहुत पहले ही से पड़ चुकी थी। इसीसे एक अथवा दूसरे कारणवश गिरिनगर का वर्चस्व कम होने पर वलभीपत्तन उसका स्थान लेता है और इसीलिए हम देखते है कि जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परा के विद्वान् और भिक्षुक वलभी मे अनेकविध सास्कृतिक और धार्मिक प्रवृत्तियो के पोषण के लिए प्रश्रय पाते है । ६ वलभी मे वैदिक विद्वान् दान लेते दिखाई पड़ते हैं, जैन
और बौद्धो की विद्याशालाएँ तथा धर्मस्थान गौरव एव वैभव के समुन्नत शिखर पर प्रतिष्ठित होते है और राजा एव धनाड्य उनका बहुत ही सत्कार-पुरस्कार करते हैं । १ जहाँ ऐसा वातावरण न हो वहाँ स्वाभाविक रूप से ही बडी संख्या मे विविध परम्परागो के विद्वान् और सघ न तो पाने के लिए और न स्थिरवास करने के लिए लालायित हो सकते है। वैदिक, बौद्ध एव जैन परम्परा की विद्या-त्रिवेणी वलभी मे प्रवाहित हुई थी। इसके परिणाम स्वरूप इतर साहित्य के अतिरिक्त दर्शन एव योग परम्परा का साहित्य भी वलभी मे ठीक ठीक मात्रा मे रचा गया। वहाँ रचित, विवेचित और समीक्षित दार्शनिक एव योग-परम्परा के ग्रन्थो का सम्पूर्ण ख्याल आ सके ऐसे विश्वस्त उल्लेख यद्यपि इस समय उपलब्ध नहीं है, तथापि जो कोई विश्वसनीय उल्लेख मिलते हैं उन पर से इतना तो कहा जा सकता है कि वैदिक परम्परा के विद्वानो ने वलभी क्षेत्र मे दर्शन एव योग-परम्परा के बारे मे यदि कुछ लिखा होगा, तो भी वह इस समय तो अज्ञात है । बौद्ध-परम्परा के विशिष्ट भिक्षुप्रो ने वहाँ ठीक-ठीक रचनाएँ की होगी, क्योकि एनसाग के कथनानुसार वहाँ बौद्ध भिक्षुको का बहुत बडा समुदाय रहता था और वहाँ बडे-बडे विहार भी थे। आज तो उन बौद्ध विद्वानो मे से दो के नाम निर्विवाद रूप से ज्ञात है, जिन्होने वलभी क्षेत्र में रह कर दार्शनिक रचना की हो । वे दो हैं गुणपति और स्थिरमति । ह्य एनसाग ने
३७ देखो रुद्रदामा के उपर्युक्त शिलालेख की १३वी पक्ति मे आये हुए ये शब्द • 'शब्दार्थगान्धर्वन्यायाद्याना विद्याना महतीना' इत्यादि।
३८ देखो डॉ हरिप्रसाद शास्त्रीकृत 'मैत्रककालीन गुजरात' भाग २, तथा 'गुजरातनो सास्कृतिक इतिहास' पृ ४४ ।
३६ 'मैत्रककालीन गुजरात' मे चामिक परिस्थिति पृ ३३६ से। ४० वही, पृ० ३५५ और उसका परिशिष्ट न० ३, पृ० ६८६ । ४१ वही, वौद्धधर्म के लिए पृ० ३८५ से और जैन धर्म के लिए पृ० ४१६ से।
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दर्शन एव योग के विकास में हरिभद्र का स्थान
[३३ इन दोनो विद्वानो का निर्देश किया है ।४२ गुणमति और स्थिरमति ने जिन छोटे-बड़े ग्रन्थो की रचना की होगी वे दार्शनिक ग्रन्थ खास करके बौद्ध दर्शन के होगे । यदि सुप्रसिद्ध बहुश्रुत विद्वान् शान्तिदेव, जैसा समझा जाता है उस तरह, सौराष्ट्र के हों तो सम्भवत. उनकी प्रवृत्ति का केन्द्र, समय की दृष्टि से विचार करने पर, वलभी क्षेत्र होगा। वलभी हो या दूसरा कोई स्थान, परन्तु शान्तिदेव ने गुजरात मे अपनी कृतिया रची हो तो ऐसा कहा जा सकता है कि उनकी सुप्रसिद्ध तीनो कृतियाँ,४३ जो कि बौद्ध दर्शन-परम्परा की है, मैत्रककालीन विशिष्ट सम्पत्ति हैं ।
अशोक के शासनकाल से लेकर वलभी के भंग तक के लगभग एक हजार वर्षों मे रचित दर्शन एव योग-विषयक ज्ञात-अज्ञात कृतियो का जब हम विचार करते है तब हमारा ध्यान मुख्य रूप से जैन कृतियाँ ही आकर्षित करती है। मगध मे रचित
और सुरक्षित तथा मथुरा मे सुसंकलित हुए जैन आगम-साहित्य की दो वाचनाएँ वलभी क्षेत्र मे ही हुई है ।४४ जो जैन आगम-साहित्य आज उपलब्ध है वह समग्र साहित्य है तो प्राकृत मे, परन्तु उसमे मुख्य विषय तो दर्शन एवं योग अर्थात् चारित्र्य का ही है। ये ग्रन्थ वलभी क्षेत्र मे संशोधित एवं सुव्यस्थित होने से उनकी मौलिक रचना का श्रेय वलभी क्षेत्र अथवा गुजरात के हिस्से मे नही आता, फिर भी वलभी क्षेत्र मे विहार करने वाले और बसने वाले अनेक धुरन्धर जैन विद्वानो द्वारा रचित दार्शनिक और योगविषयक कृतियाँ प्राकृत एवं संस्कृत मे आज भी उपलब्ध है । श्री जिनभद्रगरणी क्षमाश्रमण का प्राकृत विशेपावश्यकभाष्य, उस पर की स्वोपज्ञ संस्कृतवृत्तिके साथ, एक ही ऐमा प्राकर-ग्रन्थ है कि जिसमें जैन दर्शन को केन्द्र मे रखकर भारतीय दर्शनो की स्पष्ट चर्चा की गई है और जिसमे ध्यान, योग या चारित्र्य के बारे मे भी विशद चर्चा है।४५ श्रीमल्लवादिकृत नयचक्र और उस पर की श्री सिंहगणी क्षमाश्रमण की ४६ विस्तृत व्याख्या भी वैसा ही एक दार्शनिक प्राकर-ग्रन्थ है । उस मे जैन दर्शन के मुख्य सिद्धान्त नय और अनेकान्तवाद के आसपास लगभग सभी भारतीय दर्शनो के मुख्य-मुख्य मन्तव्योका तार्किक दृष्टि से गुम्फन किया गया है । इन
४२ 'मैत्रककालीन गुजरात' पृ० ३८५। ४३ वोधिचर्यावतार, शिक्षासमुच्चय और सूत्रसमुच्चय । ४४. 'वीरनिर्वाण सवत् और जैनकालगणना' पृ० ११० । ४५. 'भारतीय विद्या' ३१, पृ० १६१, तथा उन्ही का 'ध्यानशतक'।
४६ देखो 'प्रात्मानन्द प्रकाश' मे प्रकाशित मुनि श्री जम्बूविजयजी का लेख, वर्ष ४५, अक ७।
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४]
समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र
दो ग्रन्थोका उल्लेख तो इसलिए यहाँ किया गया है कि उसमे सौराष्ट्रने दर्शन श्रीर योग- परम्परा मे जो सिद्धि पाई है उसका कुछ श्राभास मिल सके । ४७
वलभी क्षेत्र के पश्चात् वडनगर (ग्रानन्दपुर ) और भिन्नमाल ये दो गुजरात के नगर हमारा ध्यान ग्रापित करते हैं । इसमे कोई सन्देह नही है कि वडनगर ने आठवी शताब्दी के पूर्व भी किसी-न-किसी प्रकार की साहित्य सिद्धि प्राप्त की होगी, क्योकि वह भी गिरिनगर की भाँति विद्याव्यासंगी और बुद्धिगील नागर जाति का एक केन्द्र रहा है । “ जैन-परम्परा का भी इस नगर के साथ विशिष्ट सम्बन्ध पहले ही मे रहा है, फिर भी ग्राठवी शती तक इस नगर मे दर्शन और योग परम्पराविपयक छोटी-बडी जैन या जैनेतर कृति की रचना हुई हो तो वह ग्रज्ञात है । अत श्रव हम भिन्नमाल की ोर दृष्टिपात करें ।
भिन्नमाल तत्कालीन गुजरात की एक राजधानी थी। इस नगर का इतिहास तो विशेष प्राचीन है, ५० परन्तु इसका गौरव बढ़ते-बढ़ते इतना बढ गया कि ह्य् एनसाग वलभी की भाँति इसका भी विस्तार मे वर्णन करता है ।" यहाँ वैदिक, वौद्ध एवं जैन इन तीनो परम्पराग्रो की अनेकविध शाखाएं विद्यमान थी । प्रत्येक शाखा के विद्वान् यहाँ आकर बसे थे और विद्याप्रवृत्ति चलाते थे । भिन्नमाल क्षेत्र मे रचित ज्योतिप, काव्य, कथा आदि अनेक विपयक ग्रन्थ-रत्न श्राज भी उपलब्ध है । इस क्षेत्र मे जाबालिपुर का भी समावेश करना चाहिए । इस क्षेत्र मे संस्कृत और प्राकृत भाषा मे रचित अनेक कृतियाँ मिलती है | इनमे ऐसी भी कृतियां हैं जिनका सम्बन्ध
४७. देखो 'विद्याकेन्द्र वलभी के विषय मे 'काव्यानुशासन' भा० २, प्रस्तावना, पृ० ७५ । ४८ देखो 'नागर' के विषय मे 'गुजरातनो सास्कृतिक इतिहास' खण्ड १, भाग १ -२, पृ० १९६ ।
४६ 'निशीथचूरिण' (गा ३३४४ ) मे इस नगरी को ग्रानन्दपुर तथा प्रक्कत्थली कहा है । देखो 'निशीथ एक अध्ययन' पृ० ७४ ।
५०. देखो 'गुजरातनी राजधानीओ' पृ० ६२; 'गुजरातनो सास्कृतिक इतिहास' खण्ड १, भाग १-२ पृ० ४४ से ।
५१. देखो 'गुजरातनी राजधानीग्रो' पृ० १०२, 'गुजरातनो सास्कृतिक इतिहास' खण्ड १, भाग १ -२, पृ० ६० ।
५२ 'गुजरातनी राजवानीश्रो' पृ० १०३ । उसमे 'कुवलयमाला' की रचना भिन्नमाल मे हुई थी ऐसा लिखा है, परन्तु वह सुधारना चाहिए, क्योकि उसकी रचना जाबालिपुर मे हुई है। इसके अतिरिक्त जाबालिपुर मे जिनेश्वरसूरि ने 'ग्रप्टकप्रकरणवृत्ति' एव 'चैत्यवन्दनविवरण' की तथा बुद्धिमागराचार्य ने व्याकरण की भी रचना की है । 'कान्हडदेप्रवन्ध' श्रादि भी वहीं रचे गये है |
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दर्शन एवं योग के विकास मे हरिभद्र का स्थान
[ ३५ केवल दर्शन और योग की परम्परा के साथ ही है । ऐसी उपलब्ध कृतियाँ मुख्य रूप से प्राचार्य हरिभद्र की है । हरिभद्र के अतिरिक्त अन्य बौद्ध, जैन और वैदिक विद्वानो ने इन विषयों के ऊपर कुछ-न-कुछ रचना की होगी ऐसी धारणा रखना सर्वथा अनुपयुक्त नही है, परन्तु पाठवी शताब्दी तक इस क्षेत्र मे रचित और विद्वानो का ध्यान आकपित करे ऐसी दर्शन और योग-परम्परा-विषयक कृतियाँ तो प्राचार्य हरिभद्र की ही है। अतएव अब हम यह सोचे कि दर्शन एवं योग-परम्परा के विचार-विकास मे श्राचार्य हरिभद्र का स्थान क्या है और वह कैसा है ?
४. प्राचार्य हरिभद्र का स्थान प्राचार्य हरिभद्र के समय तक देश का ऐसा कोई भी भाग दृष्टिगोचर नही होता जहाँ कि दार्शनिक एवं योग के विचारो के छोटे-बडे अखाड़े न चलते हो। हरिभद्र के पूर्ववर्ती और समकालीन ऐसे अनेक जैन-जेनेतर विद्वान् हुए है, जिनकी विचारसूक्ष्मता, वक्तव्य की स्पष्टता और बहुश्रुत तार्किकता हरिभद्र से भी बढकर है। वैसे ही विशिष्ट विद्वानो की समर्थ कृतियो के अध्ययन और परिशीलन के आधार पर ही हरिभद्र के मानसिक-प्राध्यात्मिक व्यक्तित्वका निर्माण हुआ है । ऐसा होने पर भी जब दर्शन और योग-परम्परा के विकास मे हरिभद्र की क्या देन है अथवा उसमे दूसरे किसी ने न दिखाई हो वैसी कौनसी नवीनता का उन्होने समावेश किया है यह कहना हो तब तो हरिभद्र के पूर्वकालीन तथा उत्तरकालीन प्राचार्यों की दृष्टि के साथ उनकी दृष्टि की तुलना करने पर ही कुछ यथार्थ विधान किया जा सकता है । इस दृष्टि से जब मै वैसी तुलना करता हूँ, तब मुझे असन्दिग्ध रूप से प्रतीत होता है कि हरिभद्र ने जो उदात्त दृष्टि, असाम्प्रदायिक वृत्ति और निर्भय नम्रता अपनी कृतियो मे प्रदर्शित की है वैसी उनके पूर्ववर्ती अथवा उत्तरवर्ती किसी भी जैन-जेनेतर विद्वान् ने शायद ही प्रदर्शित की हो।
हरिभद्र ने दर्शन और योग-परम्परामे जो योग-दान किया है अथवा उसमे जो नव्यता लाने का प्रयत्न किया है उसकी भूमिका ऊपर सूचित उनकी दृष्टि और वृत्ति मे रही है। यह दृष्टि और यह वृत्ति सक्षेप में निम्नलिखित पाँच गुणो के द्वारा प्रकट होती है
१ समत्व - आध्यात्मिकता का परम लक्ष्य समभाव या निप्पक्षता है । हरिभद्र ने अपने दर्शन और योग के ग्रन्थो मे इसे किस हद तक साधा है यह हम आगे देखेगे ।
___ २ तुलना - हरिभद्र ने परापूर्व से प्रचलित खण्डन-मण्डन की परिपाटी मे तुलनादृष्टि को जो और जैसा स्थान दिया है वह और वैसा स्थान उनके पूर्ववर्ती, समवर्ती
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सुन्दाचार्य हरिन्द्र
अथवा उतरवर्ती किसी में मेरे देखने में चाया नहीं है । सत्य वा मनुश्य के अविवाधिक समीप पहुँचा जा सके इस हेतु से उन्होंने परवादी के मतव्यों के हृदय में अधिक से अधिक गहरा उतरते न प्रयत्न किया है और अपने नन्तव्य के साथ वह पवन मन्तव्य परिमाणमेव वा विवरणमेद होने पर भी, दिस तरह साम्य रखना है- यह उन्होंने स्वमरमतकी तुलना द्वारा अनेक स्थानों पर बनाया है। परसमालोचना करते समय काचिने अन्याय हो जाय ऐसी पामीर वृत्ति उन्होंने तुलना में जिस प्रकार दिखलाई है देन वृति माग्द ही मी अन्य विद्वान् ने दिखाई हो ।
३. बहुमान वृद्धि — नीन्द्रिय और शास्त्रीय परम्परागत तत्त्वोंकी समालोचना करते में अनेक नयस्यान रहे हुए हैं। वैसे स्वस्यानोंको पार करके कोई समालोचना करे. उस समय भी प्रत्येकान में के मतव्यों के साथ सर्वया सम्मत हो नेकन बहुत कठिन होता है। ऐसी स्थिति हो तब भी हरिभद्र, परदादीके ननव्यों के बहुव्रत पड़ने पर भी, उनके प्रति जो विरल बहुमान और आदर प्रदर्शित करते हे रत्न आध्यात्मिक क्षेत्र में विरल प्रदान वहा ना मुक्ता है । नृत्य के समर्थन का और आणनिता का दावा करनेवाले किसी भी जैन सुनेतर विद्वान् ने अपने विरोधी सन्प्रदाय के प्रवर्तक या विद्वान के प्रति हरिभद्रने दिखलाया है वैसा बहुमान यदि दिया हो तो वह मैं नहीं जानता ।
४. स्वपरम्परा को भी नई दृष्टि और नई नेट- सामान्यत. दार्शनिक विद्वान् अपनी समग्र विचारखति म पन्डित्ववल परम्यरम्परा की समालोचना में लगा देते हैं और अपनी परंपराको रहने जैसा मत्यस्फुरित होता हो, तब भी वे स्वपरम्परा के रोर का भारत बनने की चाहनवृत्ति नहीं दिखलाते और उस बारे में जैसा चलता चलते रहने देने की वृत्ति रखकर अपनी परम्पराको ऊपर उठाने का अथवा की कमी लाने का शायद ही प्रयत्न करते हैं । किन्तु हरिन इस बारे में भी मईया निराने हैं। उन्होंने परवादियों के प्रय्वा पर परम्पराओं के साथ के व्यवहार सतयवृत्ति और निर्भता दिलाई है वेनी ही तस्यवृत्ति और निर्भयता रूपरम्परा के प्रति कई मुद्दे क्ष्ति करने में भी दिलाई है। यह हन आगे देखेंगे।
अन्तर मिटाने का कौशल - सामान्यतः बड़े-बड़े और साधारण विहान हैं कुछ लिखते हैं उसमें विजिगीपा तथा त्वनरम्परा स्या करने की भावना मुख्य बने रहती है, जिसने सन्प्रदाय-सम्प्रदाय के
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दर्शन एव योग के विकास मे हरिभद्र का स्थान
[३७ बीच और एक ही सम्प्रदाय की विविध शाखाओ के बीच बहुत बडा मानसिक अन्तर पड जाता है। वैसे अन्तर के कारण विरोधी पक्ष में रही हुई ग्रहण करने जैसी उदात्त वस्तुओ को भी शायद ही कोई ग्रहण कर सकता है । इसके परिणाम-स्वरूप परिभाषाओं की शुष्क व्याख्या और शाब्दिक धोखाधडी एवं विकल्प-जाल के प्रावरण मे सत्य की सांस घुट जाती है। यह स्थिति हरिभद्र के सूक्ष्म अन्तश्चक्षुने देखी। फलत उन्होने विरल कहे जा सके ऐसे अपने दर्शन और योग-परम्परा के ग्रन्थो मे ऐसी शैली अपनाई है कि जैन-परम्परा के मौलिक सिद्धान्त जैनेतर परम्पराएँ उनकी अपनी परिभाषा मे सरलता से समझ सके और जैनेतर बौद्ध या वैदिक परम्परा के अनेक मन्तव्य अथवा सिद्धान्त जैन परम्परा भी समझ सके. विरोधी समझे जानेवाले
और विरोध को पोसनेवाले भिन्न-भिन्न सम्प्रदायो के बीच हो सके उतना अन्तर कम करने का योगिगम्य मार्ग हरिभद्र ने विकसित किया है, और सब-कोई एक-दूसरे मे से विचार एव आचार उन्मुक्त मन से ग्रहण कर सके ऐसा द्वार खोल दिया है, जो सचमुच ही विरल है।
इस प्रकार आचार्य हरिभद्र ने दार्शनिक और योग-परम्परा मे विचार एवं वर्तन की जो अभिनव दिशा उद्घाटित की है वह खास करके आज के युग के असाम्प्रदायिक एवं तुलनात्मक-ऐतिहासिक अध्ययन मे अत्यन्त उपकारक सिद्ध हो सकती हैं।
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व्याख्यान तीसरा दार्शनिक परम्परा में प्राचार्य हरिभद्रकी विशेषता
तीसरे व्याख्यान का विपय है . दार्शनिक परम्परा मे हरिभद्र द्वारा दाखिल की गई नवीन दृष्टि । दूसरे व्याख्यान के अन्त मे जिन पांच गुणो अथवा विशिष्टतात्री का सूचन किया है उनमे से प्रारम्भ के तीन गुण उनके दो दार्गनिक ग्रन्धो मे बहुत ही स्पष्ट रूप से व्यक्त हुए हैं। इन दो ग्रन्यो मे से पहला है पड्दर्शनसमुच्चय और दूसरा है गास्त्रवार्तासमुच्चय ।
दर्शन का सच्चा भाव तो है . वस्तुमात्र के यथार्थ स्वरूप का अवगाहन अयवा उसके लिए प्रयत्न करना । सत्य का स्वरूप नि सीम और अनन्तविध है । एक ही व्यक्ति को भी वह बहुत बार कालक्रम से विविध रूप मे भासित होता है,
और अनेक व्यक्तियो मे भी सत्य, देश और काल-भेद ने, भिन्न-भिन्न रूप मे आविर्भूत होता है। इससे किसी एक व्यक्ति का सत्य-दर्शन परिपूर्ण एव अन्तिम तथा अन्य व्यक्ति द्वारा देखे गये सत्याग मे सर्वथा निरपेक्ष नही हो सकता। अतएव सत्य की पूर्ण कला के समीप पहुँचने का राजमार्ग तो यह है कि प्रत्येक सत्य-जिज्ञासु इतर व्यक्ति के दर्शन को समादर एवं सहानुभूति से समझने का प्रयत्ल करे। वस्तुस्थिति ऐसी होनी चाहिए, परन्तु मानव-चित्त मे सत्य की जिज्ञासा के साथ ही कितने ही मल भी विद्यमान होते है । वसे मलो की तीव्रता अथवा मन्दता के कारण जिजासु अधिक मध्यस्थता वारण नही कर सकता और पर-मत अथवा पर-दर्शन के साथ संघर्ष मे पाता है । इस प्रकार एक ओर विशिष्ट व्यक्ति मत-विरोध या मत-विसवाद दूर करने का प्रयत्न करता है, तो दूसरी ओर अनेक साधारण व्यक्ति मतभेद को क्लंगभूमि में परिवर्तित कर देते है। ऐसा संवाद-विसंवाद का चक्र सभी धर्म-पंथो में किसी-न-किसी रूप मे पतित देखा जाता है।
इसीलिए प्रियदर्शी अशोक ने अपने धर्मशासनो मे ब्राह्मण एव श्रमण परम्परा में समाविष्ट होने वाले सभी छोटे-बड़े पंथो को उहिष्ट करके कहा है कि सभी धार्मिक अापस-आपस मे सवादपूर्वक बर्ताव करे। जो पर-पापण्ड या पर-धर्म या पर दर्शन की निन्दा करता है वह वस्तुत. स्व-पापण्ड अर्थात् स्वधर्म की ही निन्दा करता है।'
१ देखो दूसरे व्यात्यान की पादटीप न० ३२ मे उद्धृत अशोक का वारहवा गासन।
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दार्शनिक परम्परा मे प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता [३६ अशोक ने जैसे सभी ब्राह्मण-श्रमण वर्गों को उद्दिष्ट करके शिक्षा दी है, वैसे ही बौद्धनिकायो को उद्दिष्ट करके भी सलाह और बोध दिया है। अशोक जब बुद्ध-धर्म-सघ का त्रिशरण स्वीकार करके बौद्ध उपासक हुआ, तब उसने बौद्ध धर्म मे पैदा हुए पक्ष-पक्षान्तरो और भिन्न-भिन्न निकायो के बीच, सत्य के दावे के लिए ही, होने वाली गाली-गलौच को देखकर उसे दूर करने के लिए भदन्तो को भी नम्र सूचना की है।
अशोक के धर्मशासन सूचित करते है कि उसके समय मे ब्राह्मण और श्रमण __वर्ग के बीच दर्शन और धर्म के विषय मे कैसी अनिष्ट स्थिति प्रवर्तमान थी।
दर्शन या तत्त्वज्ञान धर्म-सम्प्रदाय के आधार पर ही टिकता और विकसित होता है, तो धर्म-सम्प्रदाय भी तत्त्वज्ञान की भूमिका के बिना कभी स्थिर नही हो सकता । दोनो का मिलन जैसे आवश्यक है वैसे ही हितावह भी है, परन्तु जव कोई एक दर्शन अमुक धर्म-सम्प्रदाय के साथ स कलित हो जाता है तब उसके साथ दूसरी अनेक वस्तुएँ भी अस्तित्व मे आती हैं। दर्शन और प्राचारविषयक ग्रन्थ, उनके प्रणेता और व्याख्याता, इन सबको पोसनेवाला और आदर देनेवाला अनुयायीवर्गइस तरह दर्शन और धर्म दोनो मिलकर एक विशिष्ट प्रकार का जीवित सम्प्रदाय बनता है । सम्प्रदाय के पुरस्कर्ता चाहे या न चाहे, परन्तु उसमे एक ऐसा वातावरण निर्मित होता है जिससे कि सम्प्रदायो मे मात्र श्रेष्ठता-कनिष्ठता की ही वृत्ति उदित नहीं होती, बल्कि वे धीरे-धीरे दूसरे को हेय और अस्पृश्य तक मानने लगते है, इतना ही नही, इतिहास में ऐसे अनेक प्रसग भी उल्लिखित है जिनमे सम्प्रदायभेद के कारण ही गाली-गलौच, मारपीट और लडाई तक की नौबत पैदा हुई थी।
सत्य-दर्शन और सत्यलक्षी प्राचार के नाम पर ही जव तुमुल युद्ध अथवा भीपण वादविवाद हो, तब अशोक जैसे का चित्त द्रवित हो और वह ध्रुव शिलापट्टो मे प्रकट हो, यह स्वाभाविक है। अशोक तथा उसके जैसे दूसरे कई लोगो की सावधानी के वावजूद भी उत्तर काल मे इस शुष्क वाद और विवाद का चक्र रुका नही है । इसके प्रमाण प्रत्येक परम्परा के दर्शन और धर्म-विपयक ग्रन्थो मे अल्पाधिक मिलते ही है।
२ देखो 'अशोकना शिलालेखो' (गुजराती) सारनाथ का शिलालेख ।
३ देखो इमी लेखक के 'दर्शन अने चिन्तन' (गुजराती) मे 'साम्प्रदायिकता अने तेना पुरावाोनु दिग्दर्शन' नामक लेख पृ ११०६ से ११६५, 'कथापद्धतिना स्वरूप अने तेना साहित्यनु दिग्दर्शन' पृ ११६६ से १२६३ । इसमे वाद एव तद्विपयक साहित्य के विकास का विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया है।
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___४०]
समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र अक्षपाद और बादरायण जैसो के सूत्र-ग्रन्थो मे पर-मत की समीक्षा तो है, पर उनमे कोई कटु शब्द नही आता; परन्तु इन्ही ग्रन्थो के व्याख्याता आगे जाकर खण्डन-मण्डन के रस मे इतने वह गये कि वे प्रतिवादी को 'पुरुपापसद', 'प्राकृत', 'म्लेच्छ' या 'बाह्य' जैसे विशेषणो से विभूपित करने मे गौरव मानने लगे। प्रतिवादियो का तिरस्कार करने वाली ऐसी वृत्ति के प्रभाव से बौद्ध और जैन भी अलिप्त नही रह सके हैं। ब्राह्मण-श्रमण परम्परा का ऐसा धार्मिक वातावरण चारो ओर फैला हुआ था। इसीमे हरिभद्र का जन्म और संवर्धन हुना। उन्होने जव श्रमणदीक्षा अगीकार की तब उस परम्परा में भी उन्हे वैसे ही वातावरण ने घेर लिया। इसीलिए उनके कई प्राकृत-सस्कृत ग्रन्थो मे हम उन्हे परवादी के ऊपर करारे शब्दप्रयोग करते हुए कभी-कभी देखते है ।
परन्तु हरिभद्र का मूलगत स्वभाव कुछ दूसरे ही प्रकार का था । मानो उनके मूलगत संस्कारो में समत्व एवं मध्यस्थता मुद्रालेख के रूप मे ही न हो इस तरह वह संस्कार परापूर्व से चले आनेवाले कदाग्रह और मिथ्याभिनिवेश के चक्र को भेद कर बाहर आया और वह उनकी, कदाचित् पीछे से लिखी गई, उपर्युक्त दो कृतियों मे साकार हुआ।
पड्दर्शनसमुच्चय सर्वप्रथम पड्दर्शनसमुच्चय को लेकर विचार करे। पहला प्रश्न यह होता है कि हरिभद्र के इस ग्रन्थ के जैसी कृतिया पहले किसी की थी ? जहा तक मैं जानता हूँ वहा तक हरिभद्र से पहले प्रसिद्ध भारतीय विविध दर्शनो का प्रतिपादनात्मक दृष्टि से निरूपण करने वाली किसी की कृति हो तो वह सिद्धसेन दिवाकर की है, ऐसा कहा जा सकता है। दिवाकर ने उनकी उपलब्ध कृतियो मे से कई कृतियां उसउस दर्शन का मात्र निरूपण करने के लिए रची है । यह सच है कि वे कृतियाँ पाठकी भ्रष्टता एवं व्याख्या के अभाव इत्यादि कारणो से इस समय बहुत स्पष्ट अर्थ प्रकट नहीं करती, फिर भी उन कृतियो के पीछे दिवाकर की दृष्टि तो मुख्य रूप से उस-उस दर्शन के स्वरूप का निरूपण करने की है, नही कि उनके मन्तव्यो का खण्डन करने की । अत अन्य कोई वैसी पूर्वकालीन कृति उपलब्ध न हो वहा तक ऐसा कहा जा सकता है कि भारतीय दर्शनो का प्रतिपादनात्मक दृष्टि से निरूपण करनेवाली सर्वप्रथम कृति सिद्धसेन दिवाकर की है । उसके बाद हरिभद्र का स्थान प्राता है ।
४ डॉ इन्दुकला ही झवेरी 'योगशतक' (हिन्दी) प्रस्तावना पृ १७-८ ।
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दार्शनिक परम्परा मे आचार्य हरिभद्र की विशेषता हरिभद्र ने अपनी इस कृति मे छः दर्शनो का निरूपण किया है। सिद्धसेन की दार्शनिक कृतिया पद्यबद्ध है, तो हरिभद्र की यह कृति भी पद्यबद्ध है। सिद्धसेन की कृतिया अशुद्धि एवं व्याख्या के अभाव के कारण बहुत अस्पष्ट और सन्दिग्ध है, तो हरिभद्र की कृति पाठ-शुद्धि और विशद व्याख्या के कारण एकदम स्पष्ट और निश्चितार्थक है। यद्यपि सिद्धसेन की कृतिया उस-उस दर्शन के कतिपय प्रमेयो की चर्चा करती है, परन्तु सिद्धसेन कभी-कभी वीरस्तुति आदि मे स्वमान्यता का स्थापन करते समय इतर मन्तव्यो की विनोदप्रधान समालोचना करते है, और विवादरत स्व-पर सभी दार्शनिको के ऊपर विनोदमूलक तार्किक कटाक्ष भी करते है, जबकि हरिभद्र तो बिलकुल सीधे-सादे ढंग से दर्शनो का निरूपण करते है। इन दोनो की कृतियो मे दूसरा भेद यह है कि सिद्धसेन ने तो उस-उस दर्शन के मात्र तत्त्वो का ही निरूपण किया है और उन दर्शनो के मान्य देवता आदि की खास बात नही कही, जबकि हरिभद्र प्रत्येक दर्शन के निरूपण के समय उस-उस दर्शन के मान्य देवता का भी सूचन करते है।
हरिभद्र के पश्चात् उनके षड्दर्शनसमुच्चय का स्मरण कराने वाली लगभग पाच कृतियो का यहा उल्लेख करना चाहिये । उनमे से एक अनातक क 'सर्वसिद्धान्त
वदन्ति यानेव गुणान्वचेतस. समेत्य दोपान् किल स्वविद्विप । त एव विज्ञानपथागता सता त्वदीयसूक्तप्रतिपत्तिहेतवः ॥ ६ ॥ कृपा वहन्त कृपणेपु जन्तुपु स्वमासदानेवपि मुक्तचेतस ।। त्वदीयमप्राप्य कृपार्थकौशल स्वत कृपा सजनयन्त्यमेधस ॥७॥ समृद्धपत्रा अपि सच्छिखडिनो यथा न गच्छन्ति गत गरुत्मत । सुनिश्चितज्ञेयविनिश्चयास्तथा न ते गत यातुमल प्रवादिन ॥१२॥
___-वीरस्तुतिद्वात्रिंशिका-१ ग्रामान्तरोपगतयोरेकामिषसगजातमत्सरयो । स्यात् सौख्यमपि शुनोत्रोरविवादिनोर्न स्यात् ॥१॥ तावद् वकमुग्धमुखस्तिष्ठति यावन्न रगमवतरति । रगावतारमत्त काकोद्धतनिष्ठुरो भवति ॥३॥ अन्यत एव श्रेयास्यन्यत एव विचरन्ति वादिवृषाः । वाक्सरम्भ क्वचिदपि न जगाद मुनि शिवोपायम् ॥ ७॥
__-वादद्वात्रिंशिका दैवखात च वदन आत्मायत्त च वाड्मयम् । श्रोतार सन्ति चोक्तस्य निर्लज्ज. को न पण्डित ।
-न्यायद्वानिगिका विशेष के लिए देखो 'दर्शन अने चिन्तन' पृ ११४४ से ।
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४२ ]
समय यात्रार्य हरिभव
प्रवेशक है; दूसरी 'सर्वसिद्धान्तसंग्रह' है, जिसके प्रणेता शंकराचार्य कहे जाते है, परन्तु वह श्राद्य शकराचार्य की कृति नहीं है ऐसा निम्ति मालूम होता है, तीमरी कृति 'सर्वदर्शनसंग्रह' है, जो माघवाचार्यकृत है और बहुत सुविदित है, त्रीची कृति जैनाचार्य राजशेखर की है और उसका नाम भी 'पड्दर्शनसमुच्चय' ( प्रकाशक : श्री यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, नं० १७, वनारस ) ही है और पाचवी कृति है माधवसरस्वतीकृन 'सर्वदर्शनकौमुदी' । इनमे से केवल सर्वदर्शनसंग्रह के ऊपर ही प्राधुनिक व्याख्या है और वह बहुत विगद भी है, दूसरे ग्रन्थों के ऊपर कोई टोका अथवा टीकाएँ हो तो वह ज्ञान नहीं ।
हरिभद्र के पहले भी समुच्चयान्त कृतियों की रचना शुरू हो गई थी और समुच्चय के अर्थवाला 'संग्रह' पर जिसके अन्त में हो ऐसी भी कृतियां रची जाती थीं । दिनाग का प्रमाणसमुच्चय, प्रसंग का मर्मसमुच्चय और शान्तिदेव के सूत्रममुच्चय तथा शिक्षासमुच्चय जैसे ग्रन्थ समुच्चयान्त कृतियों के उदाहरण हैं, तो प्रस्तावका पदार्थसंग्रह, नागार्जुन का धर्मसंग्रह इत्यादि ग्रन्य संग्रहान्त कृतियों के निदर्शन हैं ।
नर्वनिद्वान्तप्रवेशक के कर्ता का नाम यद्यपि श्रज्ञात है, फिर भी वह जैन कृति है इसमें तो सन्देह नहीं है, क्योकि उसके मंगलाचरण से ही 'सर्वभावप्रणेतारं प्रणिपत्य जिनेव्वरम्' ऐसा कहा है । विपय एवं प्रतिपादकली की दृष्टि ने यह कृति हरिभद्रसूरि के पड्दर्शनसमुच्चय का अनुसरण करती है, अन्तर केवल इतना ही है कि हरिभद्रसूरि का ग्रन्थ पद्य में और मंलिप्त है, जबकि यह कृति गद्य में और तनिक विस्तृत है ।
यद्यपि कालक्रम से विचार करने पर उपर्युक्त पात्रों कृतियों मे राजशेखर का 'पड्दर्शनसमुच्चय, बाढ का है, परन्तु उसकी रचना एक जैनाचार्य ने की है और वह भी हरिभद्र के पड्दर्शननमुच्चय के आधार पर, ऋत. सर्वप्रथम इन दो कृतियों की तुलना करके हम देखेंगे कि राजगेतर की पेला हरिभद्र का दृष्टिविन्दु कितना उदात्त है । हरिभद्र को कृति केवल 3 पचों में पूर्ण होती है, जबकि राजशेखर को रचनामे १८० प है । हरिभद्र ने जिन छ दर्शनो का निरूपण किया है, उन्ही का निरूपरण राजशेखर ने भी किया है । हरिभवने दर्शनी का निरूपण उस उस दर्शन को मान्य देव एवं प्रमाण प्रमेय रूप तत्त्वो को लेकर किया है, जबकि राजशेखर ने देव एवं तत्त्व के अतिरिक्त लिंग, वेप, त्राचार, गुरु, ग्रन्थ और मुक्ति को लेकर भी दर्शनी के भेद का वर्णन किया है । हरिभद्र के संक्षिप्त ग्रन्थ मे उस उस दर्शन का जानने
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दार्शनिक परम्परा मे प्राचार्य हरिभद्र की विशेपता [४३ योग्य व्योरा विशेप उपलब्ध नही होता, परन्तु राजशेखर ने कुछ तो अवलोकन से
और कुछ श्रवणपरम्परा से रसप्रद तथा संशोधक और ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी हो सके ऐसी खास-खास ज्ञातव्य बातों का भी सन्निवेश किया है । राजशेखर ने जिन वातो का उल्लेख किया है वे आज यद्यपि विशेप परीक्षण की अपेक्षा रखती हैं, फिर भी उनमे बहुत सत्याश भासित होता है। ये बाते जिज्ञासा-प्रेरक होने से गुणरत्न ने उनका उपयोग हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय की विशद व्याख्या मे किया है, गुणरत्न ने यत्र-तत्र उनमे कुछ सुधार और दूसरी बातो का भी समावेश किया है। जो जो बाते राजशेखर ने और अधिक जोडी है वे उस-उस दर्शन के लिंग, वेष, प्राचार, गुरु
और ग्रन्थ आदि के बारे मे है। इस दृष्टि से विचार करे तो ऐसा कहना चाहिए कि हरिभद्र के पड्दर्शनसमुच्चय की अपेक्षा राजशेखर का समुच्चय विशेष उपादेय है । हरिभद्र जैन है, तो राजशेखर भी जैन ही है । साधु पदधारी होते हुए भी दोनो साम्प्रदायिक खण्डन-मण्डन के सस्कार तो रखते ही है। फिर भी, दूसरी तरह से विचार करे तो, हरिभद्र का छोटा भी ग्रन्थ राजशेखर के विस्तृत ग्रन्थ की अपेक्षा विशेष अर्थपूर्ण लगता है । वह अर्थ यानी कर्ताकी उदात्त दृष्टि । भारतीय दार्शनिकोमे हरिभद्र ही एक ऐसे हैं, जिन्होने अपने ग्रन्थकी रचना केवल उन-उन दर्शनो के मान्य देव और तत्त्व को यथार्थ रूपमे निरूपित करने की प्रतिपादनात्मक दृष्टि से की है, नही कि किसी का खण्डन करने की दृष्टि से, जबकि उन्ही के अनुगामी राजशेखर वैसी उदात्तता नही दिखला सके है । चार्वाक कोई दर्शन नही है-ऐसा विधान तो राजशेखर करते ही हैं, परन्तु साथ ही अन्त मे चार्वाक दर्शन का पूर्वप्रचलित ढंग से खण्डन भी करते हैं । राजशेखर हरिभद्र के ग्रन्थ का अनुसरण करे और फिर भी हरिभद्र से अलग पडकर चर्वाक को दर्शन कोटि से बाहर रखे तथा दूसरे किसी दर्शन का नही और केवल चार्वाकका ही प्रतिवाद करे, तब वह प्रतिवाद, परम्परागत होने पर भी, लेखक की दृष्टि की तटस्थता मे कुछ कमी सूचित करता है।
हरिभद्र प्रारम्भ मे ही छ दर्शनो का निरूपण करने की प्रतिज्ञा करते है । प्रारम्भ के छ. दर्शनो के नामोल्लेख मे चार्वाकका निर्देश नहीं है, परन्तु इन छहो का निरूपण करने के उपरान्त वह कहते है कि न्याय एवं वैशेषिक ये दो दर्शन भिन्न नही है ऐसा मानने वाले की दृष्टि से तो आस्तिक-दर्शन पाँच ही हुए, अत की गई प्रतिज्ञा के अनुसार छठे दर्शन का निरूपण आवश्यक है, तो यह निरूपण चार्वाकको
६ 'नास्तिक तु न दर्शनम्' श्लोक ४। ७ देखो श्लोक ६५ से ७५ ।
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४४ ]
समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र
भी एक दर्शन के रूप में मान्य रखकर पूर्ण करना चाहिए। ऐसा कहकर वे चावकि के प्रति समभाव प्रदर्शित करते है । यहाँ यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि सर्वसिद्धान्तप्रवेशक के कर्ता ने दर्शनो को छ को सख्या की पूर्ति के प्रन्न की चर्चा किये बिना ही अन्त मे चार्वाक दर्शन का निरूपण किया है। इस प्रकार उनके मतानुसार सात दर्शन होते है ।
हरिभद्र के पहले ही शताब्दियो से चार्वाक मत के प्रति भारतीय श्रात्मवादी दर्शनों की श्रवज्ञापूर्ण दृष्टि रही है । ऐसा मालूम होता है कि हरिभद्र मे यह अवगणना न रही। उन्होने अपनी मूल प्रकृति के अनुसार सोचा होगा कि जीवन श्रीर जगत् को देखने और विचारने की विविध उच्चावच कक्षाएँ हैं । उनमें चार्वाक मत को भी स्थान है । जो मात्र वर्तमान जीवन को सम्मुख रखकर दृश्यमान लोक की ही मुख्यतया विचारणा करते है वे सिर्फ इसी कारण वगरणना के पात्र हैं ऐसा नही कहा जा सकता । इसीसे उन्होने वैमे मत को भी दर्शन-कोटि मे स्थान देकर अपनी दृष्टि की उदात्तता सूचित की है ।
सामान्यत प्रत्येक ग्रन्थकार करता है वैसे ही सर्वसिद्धान्तसंग्रह एवं सर्वदर्शनसंग्रह के रचयिता अपने अभिप्रेत इष्टदेव का ही स्तवन- मंगल आरम्भ मे करते हैं । इसी प्रणालिका के अनुसार हरिभद्र ने, सर्वसिद्धान्तप्रवेशक के कर्ता ने तथा राजशेखर ने भी अपने अभिप्रेत देव 'जिन' का प्रारम्भ मे वन्दन किया है । इसके पश्चात् प्रत्येक ने अनुक्रम से दर्शनो का निरूपण किया है, किन्तु इस निरूपण का क्रम पाँचो ग्रन्थो मे एक-सा नही है । सर्वसिद्धान्तस ग्रहकार सर्वप्रथम वैदिक विद्याओ और उनमे समाविष्ट होने वाले वैदिक दर्शनो का स्पष्ट वर्णन करते है, जो कि महिमन्- स्तोत्र के सातवे श्लोक की व्याख्या मे प्रस्थान -भेद के रूप मे मधुसूदन सरस्वतीकृत वर्णन की पद्यबद्ध छायामात्र है । उस वर्णन का मुख्य स्वर यह है कि वैदिक दर्शन ही प्रास्तिक है और उन्हे चाहे जिस तरह वेदबाह्य चार्वाक, जैन और बौद्ध मतो का निरास करना ही चाहिए । मधुसूदन सरस्वती ने भी प्रस्थान -भेद में यही बात शब्दान्तर से कही है । वह कहते हैं कि विश्वव्यापी परम तत्त्व का दर्शन अनेक तरह
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नँयायिकमतादन्ये भेद वैशेषिकै सह ।
न मन्यन्ते मते तेपा पचैवास्तिकवादिन ॥ ७८ ॥ पड्दर्शनसख्या तु पूर्यते तन्मते किल । लोकायतमतक्षेपे कथ्यते तेन तन्मतम् ॥ ७६ ॥ - हरिभद्रीय षड्दर्शनसमुच्चय
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दार्शनिक परम्परा मे प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता से होता है । इन अनेकविध दर्शनो मे से कोई परम पुरुषार्थ मे साक्षात् उपयोगी है, तो दूसरे परम्परा से । परन्तु अन्ततोगत्वा साक्षात् एव परम्परा से परम-पुरुषार्थ मे उपयोगी होने की शक्यता तो वैदिक दर्शनो मे ही है, और अवैदिक दर्शन तो म्लेच्छ या बाह्य-जैसे होने के कारण सर्वथा वर्जनीय और निराकरण-योग्य हैं। इसी प्रकार सर्वसिद्धान्तसंग्रह का भी प्रारम्भ अवैदिक दर्शनों के निरूपण और उनके खण्डन से होता है। आगे जाकर जब उसके कर्ता वैशेषिक, नैयायिक और भाट्ट दर्शन का निरूपण करते हैं, तब भी वह एक ही बात कहते है कि वैशेषिको ने, १० नैयायिको ने ११ तथा भाट्टो ने १२ वेद-प्रामाण्य का स्थापन किया है और वेदविरोधी दर्शनो का निराकरण किया है-मानो सर्वसिद्धान्तसंग्रहकार के मत से वैशेषिक, न्याय और कीमारिल दर्शन की यही खास विशेषता हो । इसके बाद सर्वसिद्धान्तसंग्रहकार इतर वैदिक दर्शनो का निरूपण करते है। इस ग्रन्थ मे दो विशेषताएं ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्त्व की लगती हैं . (१) ग्रन्थकार कहते है कि भारत मे (महाभारत मे) व्यासकथित जो वेद का सार है उसे वैदिक ब्राह्मणो को सर्वशास्त्राविरोधिरूप से साख्य-पक्ष मे से निकालना चाहिए । १३ इसके अतिरिक्त वह कहते है कि श्रुति, स्मृति, इतिहास और भारत आदि पुराणो मे तथा शैवागमो मे साख्यमत स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है।१४ सर्वसिद्धान्तसग्रहकार का यह वक्तव्य वास्तविक है ।
६ ". वेदबाह्यत्वात्तपा म्लेच्छादिप्रस्थानवत्परम्परयापि पुरुषार्थानुपयोगित्वादुपेक्षगीयत्वमेव । इह च साक्षाद्वा परम्परया वा पुमर्थोपयोगिना वेदोपकरणानामेव प्रस्थानाना भेदो दर्शित ।"
-प्रस्थानभेद १० नास्तिकान् वेदवाह्यास्तान् बौद्धलोकायतार्हतान् । निराकरोति वेदार्थवादी वैशेषिकोऽधुना ॥१॥
-सर्वसिद्धान्तसग्रह, वैशेषिक पक्ष ११ नैयायिकस्य पक्षोऽथ सक्षेपात्प्रतिपाद्यते । यत्तर्करक्षितो वेदो ग्रस्त पाषण्डदुर्जनै ॥१॥
-सर्वसिद्धान्तसग्रह, नैयायिक पक्ष १२ बौद्धादिनास्तिकध्वस्तवेदमार्ग पुरा किल । भट्टाचार्य कुमाराश स्थापयामास भूतले ॥१॥
___--सर्वसिद्धान्तसग्रह, भट्टाचार्य पक्ष १३ सर्वशास्त्राविरोधेन व्यासोक्तो भारते द्विजै । गृह्यते साख्यपक्षाद्धि वेदसारोऽथ वैदिक ॥१॥
-सर्वसिद्धान्तसग्रह, वेदव्यास पक्ष १४ श्रुतिस्मृतीतिहासेषु पुराणे भारतादिके । साख्योक्त दृश्यते स्पष्ट तथा शवागमादिपु ॥ ४ ॥
-सर्वसिद्धान्तसग्रह, साख्यपक्ष
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४]
समदर्गी प्राचार्य हरिभद्र किसी अन्य तत्वज्ञान की अपेक्षा माग्य तत्वज्ञान की कितनी अधिक व्यापकता है यह इमने सूचित होता है, परन्तु जब वह व्यामोक्त दर्शन का निरूपणा करते है, उस समय भी उनकी दृष्टि तो हरिकी और है। इनसे ऐसा प्रतीत होता है कि यह ग्रन्यकार वेदान्ती होने पर भी भारत के केन्द्र स्थान में रहे हा विप्रा या हरिका उपासक है। (२) इनकी दूसरी विशेषता यह है कि सर्वसिद्धान्तमनहकार सभी दर्जनो के अन्त में वेदान्त का निरूपण करते है और उसी को ननी दर्गनों में मूर्वन्य मानते हो ऐसा प्रतीत होता है, फिर भी वह महाभारत की भांति भागवत के भी परम भक्त मालूम होते है। इनीले अन्त मे वह कहते हैं कि इस अववनमार्ग का उपदेश कृष्ण ने उद्धव को भागवत में दिया है ।१५ सर्वसिद्धान्तसंग्रह की इस सामान्य समालोचना पर ने देखा जा सकता है कि इसके लेखक अवैटिक चार्वाक, जैन और बौद्ध दर्शनो को कैसी लाघव दृष्टि से देखते हैं। यदि एक ही विश्वव्यापी परम-तत्त्व को भिन्न-भिन्न भूमिका से देखने वाले न्याय आदि दर्शनो को वह प्राग्निक समझते हैं, तो उसी तत्त्व को अपनी भूमिका और संस्कार के अनुसार देखने वाले चार्वाक आदि दर्शनो को वह आस्तिक क्यों नहीं कहते ?-ऐसा प्रश्न किसी भी तत्स्य विचारक को हुए बिना नहीं रह सकता। इसका उत्तर सरल है। वह यह कि नर्वसिद्धान्तस ग्रहकार हों, या सर्वानसंग्रहकार हो, या फिर प्रत्यानभेदकार मधुसूदन सरस्वती हो, इन सबके मन में दार्गनिक चिन्तन मे वेदरक्षा का स्थान मुत्य है, इसीने वे सर्वप्रथम यह देखते हैं कि कोन वेद को प्रमाण मानता है और कौन नही मानता?
सर्वदर्जनसंग्रह की शैली सर्वसिद्धान्तसंग्रह की शैली से अवश्य अलग पड़ती है, परन्तु उसमे से एक ऐसी व्वनि तो निकलती ही है कि अवैदिक दर्जनो का सर्वया
१५ उक्तोञ्जबूतमार्गश्च कृपणेनवोद प्रति ॥ १८ ॥ श्रीभागवनसने तु पुराणे दृश्यते हि . ।
-सर्वसिद्धान्तसंग्रह, वेदान्तपक्ष 'भागवत' स्कन्ध ११, अध्याय ७, ग्लोक २४ से अवधूतमार्ग का वर्णन शुरू होता है। उसमे ने दो ग्लोक नीचे उद्वत किये जाते हैं -
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहार पुरातनम् । अवधूतस्य नवाद यदोरमिततेजस ॥ २४ ।। अवधूतं हिज कञ्चिच्चरन्तमकुतोभयम् ।
कवि निरीक्ष्य तरुण यदु पनन्छ धर्मवित् ॥ २५ ॥ इसके अतिरिक्त देखो 'भागवत' स्कन्ध ५, अध्याय १०, ग्लोक १६ । स्कन्ध ५, अध्याय ५, लोक २८ मे अवधूत पभ का वर्णन प्राता है।
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दार्शनिक परम्परा में प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता निराकरण करना। सर्वदर्शनस ग्रहकार चार्वाक मत का निरसन बौद्ध द्वारा और बौद्ध मत का निरसन जैन मत द्वारा कराते है और अन्त मे जैन मत का निरसन रामानुज द्वारा कराते है। इस प्रकार वह अपने प्रतिपादित सोलह दर्शनो मे मूर्धन्यस्थान पर अद्वैत वेदान्त दर्शन को रखते है। हम इस सक्षिप्त वर्णन से इतना तो देख सकते है कि जिस प्रकार सर्वसिद्धान्तसग्रहकार पूर्व-पूर्व के कई दर्शनो का निरास करके अन्त मे मात्र वेदान्त को प्रस्थापित करते है, १६ उसी प्रकार सर्वदर्शनसंग्रहकार भी करते है।
___ सर्वदर्शनकौमुदी के विपयक्रम और शैली उक्त ग्रन्थो की अपेक्षा भिन्न है। उसमे तीन अवैदिक और तीन वैदिक इस तरह छ दर्शन गिनाकर बाद मे तीन वैदिक दर्शनो की छ. संख्या सूचित की है और तीन अवैदिक दर्शनो मे बौद्ध, जैन
और चार्वाक इन तीन को गिनाया है। इन अवैदिक दर्शनो मे से बौद्ध के चार भेद गिनाये है। इन भेदो को ध्यान मे रखे तो ऐसा मालूम होता है कि अवैदिक दर्शनो की सख्या इसके रचयिता के मनमे छ. ही अभिप्रेत है । माधव-सरस्वती सायण-माधवाचार्य की भाँति शाकर अद्वत के कट्टर अनुयायी है। उन्होने अपने शाकर-विषयक मन्तव्य का तीनो प्रस्थानो के १७ सार के रूप मे वर्णन किया है और उसे एक स्वतंत्र प्रस्थान के रूप मे गिनाया है। यद्यपि वह सायण-माधवाचार्य की भाँति पूर्व-पूर्व के दर्शन का उत्तर-उत्तर के दर्शन द्वारा खण्डन करने की शैली नही अपनाते, फिर भी उनकी दृष्टि खण्डन की तो है ही।
इससे सर्वथा उल्टा दोनो षड्दर्शनसमुच्चय मे है । राजशेखर चार्वाक की परिगणना दर्शन के रूप मे नही करते, परन्तु दूसरे पाँच या छ दर्शनो को वह हरिभद्र की भाँति श्रास्तिक ही कहते है। हाँ, इतना फर्क अवश्य है कि दोनो जैन होने पर भी हरिभद्र अपने जैन दर्शन को प्रथम स्थान न देकर बौद्ध, न्याय और साख्य के पश्चात् चौथा स्थान देते है। सर्वसिद्धान्तप्रवेशक मे भी जैन दर्शन को तीसरा स्थान दिया गया है । उसमे दर्शनो का क्रम इस प्रकार है : नैयायिक, वैशेपिक, जैन, साख्य, बौद्ध, मीमासक और चार्वाक । परन्तु राजशेखर जैन दर्शन को प्रथम स्थान देते हैं । राजशेखर ने हरिभद्र के आधार पर ही अपने ग्रन्थ की रचना की है, फिर भी यह
१६ देवो 'सर्वसिद्धान्तसग्रह' मे वेदान्तपक्ष, श्लोक २६ से, ५६ से तथा ६६ से ।
१७ वार्तिक, विवरण एव वाचस्पति-ये तीन प्रस्थान माने जाते हैं। इसके विशेप परिचय के लिए देखो 'सर्वदर्शनकौमुदी' पृ ११३-१४ (त्रिवेन्द्रम् सस्कृत सिरीज़ क्रमाक १३५)।
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४८]
समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र क्रम-विपर्यास क्यो किया, ऐसा प्रश्न तो होता ही है। ऐसा मालूम पड़ता है कि राजशेखर अपने पूर्ववर्ती और समकालीन दार्शनिको की अभिनिवेशपूर्ण वृत्ति से पर नही हो सके थे, जब कि हरिभद्र वैसी वृत्ति से पर होकर अपने क्रम की संयोजना करते हैं । १८ इसीलिए दूसरे ग्रन्थो मे बौद्ध, नैयायिक आदि दर्शनो का सयुक्तिक और भारपूर्वक खण्डन करने पर भी जब षड्दर्शनसमुच्चय की रचना करने के लिए वह प्रेरित हुए तब उन्होने अपनी पूर्वकालीन अभिनिवेशवृत्ति का परित्याग करके क्रम का विचार किया होगा। इससे मानो वह ऐसा सूचित करना चाहते है कि जो परदर्शनी और परवादी है वह भी अपनी भूमिका और सस्कार के अनुसार वस्तुतत्त्व का प्रामाणिक निरूपण करता है, तो फिर उसमे पर और स्व-दर्शन के श्रेष्ठत्वकनिष्ठत्व का प्रश्न ही कहाँ रहता है ? हरिभद्र की इस दृष्टि मे ही समत्व और तटस्थता के बीज सन्निहित हैं, और उनकी प्रसिद्ध उक्ति
पक्षपातो न मे वीरे न हुष कपिलादिषु ।
युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्य. परिग्रह ।। की याद दिलाती है।
'आस्तिक' और 'नास्तिक' पद लोक एवं शास्त्र मे विख्यात हैं । अब हम इन्हे लेकर हरिभद्र की उदात्त दृष्टि का विचार करें । परलोक, आत्मा, पुनर्जन्म जैसे अदृष्ट तत्त्व न मानने वाले को, काशिका-व्याख्या के अनुसार, पाणिनि ने नास्तिक और माननेवाले को आस्तिक कहा है । १६ इस प्रकार आस्तिक एवं नास्तिक पदो का अर्थ केवल आध्यात्मिकवाद और बहिरर्थवाद में मर्यादित था, परन्तु कालक्रम से आस्तिकपरम्परा मे भी अनेक दर्शन एवं सम्प्रदाय पैदा हुए । एक वर्ग ऐसा था जो समग्र चिन्तन और समस्त व्यवहार को वेद के आसपास सयोजित करता था, तो दूसरा वर्ग इसका सर्वथा विरोधी था। वेद को माने उसे वैदिक यज्ञ आदि कर्मकाण्ड, उसके सूत्रधार पुरोहित ब्राह्मण और ब्राह्मणत्व जाति को भी अनिवार्यत
१८. अनेकान्तजयपताका, शास्त्रवार्तासमुच्चय और धर्मसग्रहणी मे इतर दर्शनो का खण्डन हरिभद्रसूरि ने किया है।
१६ 'अस्ति - नास्ति - दिप्ट मति'-पाणिनि ४ ४ ६०
न च मतिसत्तामात्र प्रत्यय इष्यते । कस्तहि ? परलोकोऽस्तीति यस्य मतिरस्ति स प्रास्तिक । तद्विपरीतो नास्तिक.| --काशिका
विप के लिए देखो 'अध्यात्म विचारणा' (हिन्दी) पृ १०-१। तथा 'दर्शन अने चिन्तन' पृ ७०१॥
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दार्गनिक परम्परा में प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता [४६ मानना पडता और इस मान्यताको स्थिर रखने के लिए उसे वेद की भाँति ब्राह्मण
और ब्राह्मणत्व जाति की सर्वोपरिताका स्वीकर करना ही पडता। दूसरा वर्ग इस मान्यता से सर्वथा उल्टा ही प्रतिपादन करता । उसके मन किसी भी सत्पुरुषका वचन और आचार वेद और वैदिक कर्म के समान ही प्रतिष्ठित है। उसके मन कोई एक जाति मात्र जन्म के कारण ही श्रेष्ठ और दूसरी कनिष्ठ, ऐसा नहीं है। यह मतभेद जैसे-जैसे उग्र होता गया वैसे-वैसे आस्तिक और नास्तिक की व्याख्या भी नये ढंग से होने लगी। वेदवादियों ने कहा कि जो वेदको न माने वह नास्तिक है, २० फिर भले ही वह आत्मा, पुनर्जन्म आदि क्यों न मानता हो। दूसरी ओरसे विरोधीवर्ग ने कहा कि जो हमारे शास्त्र न माने वह मिथ्यादृष्टि या तैर्थिक है। इस प्रकार आस्तिकनास्तिक पद का अर्थ तात्त्विक मान्यता से हटकर ग्रन्थ और उसके पुरस्कर्ताओं की मान्यता में रूपान्तरित हो गया।
हरिभद्र के समय तक यह अर्थगत रूपान्तर दृढमूल हो चुका था, फिर भी हरिभद्र इस साम्प्रदायिक वृत्ति के वशीभूत न हुए, और वेद माने या न माने, जैनशास्त्र माने या न माने, ब्राह्मणत्व की प्रतिष्ठा करे या मानव मात्र की, परन्तु यदि वह आत्मा, पुनर्जन्म आदि को माने तो उसे प्रास्तिक ही कहना चाहिए-हरिभद्र की यह दृष्टि पारिगनि जितनी प्राचीन तो है ही, परन्तु उत्तरकाल मे इस दृष्टि मे जो साम्प्रदायिक संकुचितता आई उसके वश हरिभद्र न हुए। उन्होंने कह दिया कि वैदिक या अवैदिक सभी आत्मवादी दर्शन आस्तिक है ।२१ इमे हरिभद्र की सम्प्रदायातीत समत्व दृष्टि न कहें तो और क्या कहें ?
शास्त्रवार्तासमुच्चय ' अव हम हरिभद्र के दूसरे दार्शनिक ग्रन्थ शास्त्रवार्तासमुच्चय को लेकर विचार करे कि उन्होने इस ग्रन्थ के द्वारा दार्शनिक परम्परा मे असाधारण कहा जा सके ऐसा कौनसा दृष्टिबिन्दु दाखिल किया है ? इसके लिए यदि हम शास्त्रवार्तासमुच्चय की इतर परम्परा के अनेक दार्शनिक ग्रन्थो के साथ तुलना करें तभी कुछ स्पष्ट विधान किया जा सकता है । हरिभद्र के पहले भी वैदिक, बौद्ध और जैन परम्पराओ मे अनेक
२०. योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विज । स साधुभिर्वहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दक ॥
-मनुस्मृति २ ११ २१ एवमास्तिकवादाना कृत सक्षेपकीर्तनम् ।
-पड्दर्शनसमुच्चय
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५०]
समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र धुरन्धर प्राचार्यों के विस्तीर्ण एव महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ मिलते हैं, जिनमें उस-उस परम्परा के प्राचार्यों ने इतर परम्पराग्रो के मन्तव्यो और आचारो की समालोचना गहराई और विस्तार से की है। उन मुख्य-मुख्य सभी ग्रन्थों के साथ तुलना करने का यहाँ अवकाश नहीं है, परन्तु वैसे पूर्ववर्ती ग्रन्थराशि मे मुकुट-स्थानीय एक मात्र तत्त्वसंग्रह के साथ शास्त्रवासिमुच्चय की तुलना करे तो वह यहाँ पर्याप्त समझा जायगा।
तत्त्वसंग्रह बौद्ध परम्परा का ग्रन्थ है । इसके प्रणेता है शान्तरक्षित । यह हरिभद्र के निकट-पूर्वकालीन और शायद वृद्ध-समकालीन हैं। इन्होने जीवन के अन्तिम तेरह वर्ष तिव्वत मे व्यतीत किये और वहाँ बौद्ध परम्पराकी मजबूत नीव डाली।२२ इसके पहले वह नेपाल में भी रहे थे, परन्तु मुख्य रूप से तो वह नालंदा बौद्ध विश्वविद्यालय के प्रधान प्राचार्य रहे । उस समय नालंदा जितना विशाल विश्वविद्यालय कही भी हो, ऐसा निश्चित प्रमाण ज्ञात नही । उसमे केवल वौद्ध परम्पराका ही अध्ययन-अध्यापन नहीं होता था, किन्तु उस समय विद्यमान सभी भारतीय परम्पराओं को विद्यानो का अध्ययन-अध्यापन होता था। हजारो विद्यार्थी, सैकडों अध्यापक और महत्तम पुस्तकालय तथा देश-विदेश के जिज्ञासु-ऐसे विद्यासमृद्ध वातावरण में विश्वविद्यालय के प्रधान प्राचार्यपद पर आसीन शान्तरक्षितका विद्यामय व्यक्तित्व कसा होगा इसकी कुछ झांकी उनके तत्त्वसंग्रह नामक ग्रन्थ मे से मिल सकती है।
यह ग्रन्थ भोट-भाषा में अनुवादित तो है ही, परन्तु मूल संस्कृत ग्रन्थ मात्र दो जैन भण्डारों में से २३ मिला है और यह गायकवाड़ ओरिएण्टल सिरीज़ मे प्रकाशित भी हुया है । यह विशाल मूल-ग्रन्य पद्यवद्ध है और इसके पद्यो की संख्या ३६४६ है । इसमे छन्वीस परीक्षाएं हैं। प्रत्येक परीक्षा में अपने मतमे सम्मत न हो अथवा विरुद्ध हो ऐसे मतान्तरों की समीक्षा की गई है। उनमे जैन और वैदिक जैसी बौद्धतर परम्परागो के मन्तव्य की समालोचना तो है ही, परन्तु बौद्ध परम्परा की जिन-जिन निकायो अथवा शाखाओ के साथ शान्तरक्षित सम्मत नहीं होते, प्राय. उन सभी शाखाप्रो की भी उन्होने तलस्पर्शी समालोचना की है । शान्तरक्षित वज्रयानी विज्ञानवादी थे। शून्यवाद के साथ उनका कोई खास विरोध नही था, परन्तु वैभापिक और सौत्रान्तिक जैसी शाखाओं के तो वे कट्टर विरोधी थे। दूसरे भी कई
२२. 'तत्त्वसंग्रह' की प्रस्तावना पृ १० से १४ ।
२३. पाटनके वाडी पार्श्वनाथ के भडार मे से तथा जमलमेर के भण्डार मे से इस अन्य को पापियां उपलब्ध हुई है।
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दार्शनिक परम्परा मे प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता [५१ छोटे-बड़े मतभेद रखनेवाले विद्वान् बौद्ध परम्परा मे हुए है और थे। उनका भी शान्तरक्षितने केवल निर्देश ही नहीं किया, बल्कि उनकी सूक्ष्म समालोचना भी की है ।२४
शान्तरक्षित की एक खास विशेषता उल्लेखनीय है । वह यह कि उन्हे बौद्ध परम्परा को उनके समय तक अस्तित्व मे आई हुई सभी छोटी-बडी शाखाप्रो के ग्रन्थ, ग्रन्थकार और उनकी जीवन-प्रणालिकामो का प्रत्यक्ष और सजीव तथा गहरा परिचय था। बौद्धेतर किसी भी परम्परा के विद्वान् से वैसे परिचय की अपेक्षा नही रखी जा सकती । इससे बौद्ध परम्परा के तत्त्वज्ञान विषयक विकास की प्रामाणिक
और सर्वाङ्गीण जानकारी प्रस्तुत करनेवाला कोई आकर-ग्रन्थ लभ्य हो तो वह तत्त्वसंग्रह है।
तत्त्वसंग्रह के ऊपर जो पंजिका' नाम की विस्तृत टीका है वह शान्तरक्षित के प्रधानतम शिष्य कमलशील की है । कमलशील भी एक बड़े बौद्ध विद्यापीठ के आचार्यपद पर रहे थे। वह प्रबल बहुश्रुत दार्शनिक होने के साथ ही तात्रिक भी थे ।२५ कमलशील ने अपने गुरु शान्तरक्षित के मूल ग्रन्थ का जैसा मर्मोद्घाटक विवेचन किया है वह विरल है । शान्तरक्षित ने सुश्लिष्ट एवं प्रसन्न पद्यो मे जो कुछ संक्षेप मे ग्रथित किया है उस सब का कमलशीलने विशद विवरण तो किया ही है, परन्तु उन्होने अपनी ओर से भी उस-उस विषय से सम्बद्ध कई बातें जोडी है, और उसमे ग्रन्थ एवं ग्रन्थकारो की इतनी सुन्दर पूर्ति की है कि उससे यह तत्त्वसंग्रह अनेक दृष्टि से विशेष अध्येतव्य ग्रन्थ बन गया है ।२६
हरिभद्र एक जैन आचार्य है। जैन परम्परा के अनुसार वह न किसी एक स्थान पर स्थिरवास ही कर सकते थे और न छोटे या बड़े किसी भी प्रकार के विद्यापीठ का प्राचार्यपद ही स्वीकार कर सकते थे। जैन परम्परा मे बौद्ध या ब्राह्मण परम्परा की भांति विद्यापीठ भी नही थे; अत हरिभद्र का जो अध्ययन-अध्यापन या शास्त्रीय परिशीलन था वह मुख्यतया उनके आसपास विचरण करनेवाले तथा साथ मे रहनेवाले एक बहुत ही छोटे मुनिमण्डल तक ही सीमित हो सकता था। ऐसा होने
२४. वसुमित्र, धर्मत्रात, घोषक, बुद्धदेव ('तत्त्वसग्रहपजिका' पृ ५०४), समन्तभद्र (सघभद्र- 'तत्त्वसग्रहपजिका' पृ ५०६, ५०८), शुभगुप्त ('तत्त्वसग्रहपजिका' पृ १५५ आदि), योगसेन ('तत्त्वसग्रहपजिका' पृ. १५३)।
२५. देखो 'तत्त्वसग्रह' की प्रस्तावना पृ १६ । २६ देखो 'तत्त्वसग्रह' भा २ के अन्त मे दिया गया परिशिष्ट पृ ७६-६७ ।
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५२]
मदर्शी भाषाएं हमन
प्रतीत
पर भी हरिभद्र की जिज्ञासा और विद्याव्यायोगवृत्ति उन अधिक होती है कि उन्होने अपनी उस स्थिति में भी उस काल में सभ्य मन दर्शनिक परम्प राम्रो का तलस्पर्थी अध्ययन किया। मान्तरक्षित सभी दर्शनों में विशारद होने पर भी जैसे बौद्ध शाखा के निकटतम अभ्यासी थे, वैसे ही हरिभद्र भी दर्शनों के सुविद्वान् होने पर भी जैन परम्परा यी तत्कालीन सभा के अभ्यासी थे । शान्तरक्षित की भांति हरिभद्र तिव्वत या नेपाल तक नहीं गये, परन्तु जिस प्रदेश में उन्होंने विहार किया उस प्रदेश में रहकर भी नानन्दा श्रादि बीट विश्वविद्यालयो के महान ग्रन्थकारी की कृतियों का गहरा पारायण उन्होंने किया था।
शान्तरक्षित के मूल ग्रन्थ तत्त्वसंग्रह यी अपेक्षा शान्त्रवानसमुचय का द बहुत छोटा है— एक पंचमाश से भी कुछ कम । हरिभद्र ने टस ग्रन्थ की व्याया स्वयं लिखी है, परन्तु वह भी बहुत हो संक्षिप्त है । तत्त्वसंग्रह के जैमी हो मतमतान्तरो को समीक्षा गास्यवार्तासमुचय मे है, परन्तु वह भी तत्त्वसंग्रह की अपेक्षा संक्षिप्त है । कमलशील ने तत्त्वसंग्रह पर जेनी विशद और विस्तृत व्याप्या लिखी है वैसी तो हरिभद्र की व्याख्या नही है, परन्तु हरिभद्र मे ना मो वर्ष पञ्चात् होनेवाले वाचक यशोविजयजी ने शास्त्रवार्तासमुच्चय का महत्त्व देखकर उस पर एक विस्तृत व्याख्या लिखी है । निस्सन्देह यह व्याख्या सत्रहवी शताब्दी तक के समय में हुए भारतीय दार्शनिक चिन्तनवारात्रो के विकास का निदर्शन है, फिर भी यह व्याख्या उस काल में प्रतिष्ठित नव्य न्याय की गंगेश-शैली मे लिखी गई है, ग्रत यह विशिष्ट जिज्ञासु के लिए भी सुगम नही है, जब कि कमलशील की व्याख्या बहुत सुगम है |
इस तरह देखने पर ऐसा कहा जा सकता है कि शास्त्रवार्तासमुच्चयको तत्त्वसंग्रह की समान कक्षा पर नहीं रखा जा सकता । स्वयं हरिभद्र हो शास्त्रवार्तानमुच्चय में तत्त्वसंग्रह के प्रणेता शान्तरक्षित को 'सूक्ष्मबुद्धि' १ २७ कहकर उनकी योग्यता का पूरा बहुमान करते हैं, परन्तु तुलना में एक दूसरी दृष्टि भी विचारणीय है और वही दृष्टि यहां प्रस्तुत है ।
सामान्य रूप से दार्शनिक परम्परा के सभी बड़े-बड़े विद्वान् ग्रपने ने भिन्न परम्परा के प्रति पहले से लाघवबुद्धि और कभी-कभी अवगरणनावृत्ति भी सेते श्राये हैं | अपने मे भिन्न धर्म या दर्शन परम्परा के प्रति अथवा उसके पुरस्कर्ता एव श्राचार्यो के प्रति गुरणग्राही दृष्टि ने ग्रादरसूचक वृत्ति दार्शनिक कुरुक्षेत्र मे दृष्टिगोचर नही होती,
शास्त्रवार्तासमुच्चय, श्लोक
२७ देखो 'एतेनैतत्प्रतिक्षिप्त यदुक्त सूक्ष्मबुद्धिना' २९६ तथा उस पर की स्वोपज्ञ वृत्ति ।
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दार्शनिक परम्परा मे आचार्य हरिभद्र की विशेषता
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इतना ही नही, प्रतिवादी के मन्तव्यों को किसी भी तरह से दूषित करने का एक ही ध्येय इस क्षेत्र मे अपनाया गया हो ऐसा लगता है । प्रतिपक्षी दार्शनिक की दृष्टि मे कुछ भी सत्य है या नही, यह खोजने की और ज्ञात हो तो उसे स्वीकारने की तटस्थ वृत्ति कोई दिखलाता हो, ऐसा प्रतीत नही होता । शान्तरक्षित जैसे बहुश्रुत आचार्य और भिक्षु पद पर प्रतिष्ठित एवं ग्राध्यात्मिक पथ के पथिक ने भी अपने ग्रन्थ मे जिन-जिन परपक्षो की सूक्ष्म और विस्तृत समालोचना की हैं उसमे कही भी उन्होने उन परपक्षो के खण्डन के सिवाय दूसरा दृष्टिबिन्दु उपस्थित किया ही नही है । वह चाहते तो परपक्ष का प्रतिवाद करने पर भी उसमे से कुछ सत्याश खोज सकते थे, परन्तु उनका उद्देश्य ही एक मात्र प्रतिपक्षी दर्शन के निराकरण का ज्ञात होता है । हरिभद्र, शान्तरक्षित की भांति, उन्हे सम्मत न हो वैसे मतो की अपने ढंग से समालोचना तो करते हैं, परन्तु उस समालोचना मे उस उस मत के मुख्य पुरस्कर्ताओं अथवा प्राचार्यो को वह तनिक भी लाघव अथवा अवगणना की दृष्टि से नही देखते, उल्टा, वह स्वदर्शन के पुरस्कर्ताग्रो अथवा श्राचार्यो को जिस बहुमान से देखते है उसी बहुमान से उन्हे भी देखते हैं । हरिभद्र ने प्रतिपक्षी के प्रति जैसी हार्दिक बहुमानवृत्ति प्रदर्शित की है वैसी दार्शनिक क्षेत्र मे दूसरे किसी विद्वान् ने, कम से कम उनके समय तक तो प्रदर्शित नही की है । इससे मेरी राय मे यह उनकी एक विरल सिद्धि कही जा सकती है ।
जब कोई विद्वान् स्वयं ही अपने खण्डनीय प्रतिपक्ष के पुरस्कर्ताका बहुमानपूर्वक उल्लेख करे, तब समझना चाहिए कि उसकी आन्तरिक भूमिका गुणग्राही और तटस्थतापूर्ण है । इसी भूमिका का नाम समत्व अथवा निप्पक्षता है । जब मानसिक भूमिका ऐसी हो, तब विद्वान् समालोचक प्रतिपक्ष का निराकरण करने पर भी उसके मत मे रहे हुए सत्याश की शोध करने का प्रयत्न किये बिना रह नही सकता, और वैसे प्रयत्न से कुछ ग्राह्य प्रतीत हो तो उसे वह अपने ढंग से उपस्थित किये बिना भी रह नही सकता । हरिभद्र के ग्रन्थो मे इसके उदाहरण उपलब्ध होते है । यहाँ वैसे कुछ उदाहरणो को उद्धृत करके हम देखेगे कि हरिभद्र ने प्रतिपक्ष के मन्तव्यकी समालोचना करते समय उसमे से उन्हें ग्राह्य प्रतीत हो वैसे कौन-कौन से मुद्दे लिये है और अपने मन्तव्य के साथ किस प्रकार उनकी तुलना की है—
१ हरिभद्र ने भूतवादी चार्वाक की समीक्षा करके उसके भूत-स्वभाववाद का निरसन किया है और परलोक एव सुख-दुख के वैपम्यका स्पष्टीकरण करने के लिए कर्मवाद की स्थापना की है । इसी प्रकार चित्तशक्ति या चित्त वासना को कर्म मानने वाले मीमासक और बौद्ध मत का निराकरण करके जैन दृष्टि से कर्म का स्वरूप क्या
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५४ ]
समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र
है, यह सूचित किया है । इस चर्चा मे उन्हें ऐसा लगा कि जैन परम्परा कर्म का उभयविध स्वरूप मानती है । चेतन पर पडनेवाले भौतिक परिस्थिति के प्रभाव को और भौतिक परिस्थिति पर पडनेवाले चेतन- संस्कार के प्रभाव को मानने के कारण वह सूक्ष्म भौतिक दल को द्रव्य कर्म और जीवगत संस्कार - विशेषको भाव कर्म कहती है । हरिभद्र ने देखा कि जैन परम्परा बाह्य भौतिक तत्त्व तथा प्रान्तरिक चेतन शक्ति इन दोनो के परस्पर प्रभाववाले संयोग को मानकर उसके आधार पर कर्मवाद और पुनर्जन्म का चक्र घटाती है, तो आखिरकार चार्वाक मत अपने ढंगसे भौतिक द्रव्य का स्वभाव मानता है और मीमांसक एवं बौद्ध भौतिक तत्त्व का वैसा स्वभाव स्वीकार करते है । अतएव हरिभद्र ने इन दोनो पक्षो मे रहे हुए एक-एक पहलू को परस्पर के पूरक के रूप मे सत्य मानकर कह दिया कि जैन कर्मवाद में चार्वाक २८ और मीमासक या बौद्ध मन्तव्यो का समन्वय हुआ है । इस प्रकार उन्होने कर्मवाद की चर्चा मे तुलना का दृष्टिबिन्दु उपस्थित किया है ।
२. न्याय-वैशेषिक आदि सम्मत जगत्कर्तृत्ववाद का प्रतिवाद शान्तरक्षित की भाँति हरिभद्र ने भी किया है, परन्तु शान्तरक्षित श्रौर हरिभद्र की दृष्टि में उल्लेखनीय अन्तर है । शान्तरक्षित केवल परवाद का खण्डन करके परितोष पाते है, जब कि हरिभद्र इस प्रसम्मतवाद की अपनी मान्यता के अनुसार समीक्षा करने पर भी सोचते है कि क्या इस ईश्वरकर्तृत्ववाद के पीछे कोई मनोवैज्ञानिक रहस्य तो छुपा हुआ नही है ? इस समभावमूलक विचाररणा मे से ही उन्हे जो रहस्य स्फुरित हुना उसे वे तुलनात्मक दृष्टि से उपस्थित करते हैं ।
उन्हे मानव स्वभाव के निरीक्षण पर से ऐसा ज्ञात हुआ होगा कि सामान्य कक्षा के मानवमात्र मे अपनी अपेक्षा शक्ति एवं सद्गुरण मे सविशेष समुन्नत किसी महामानव या महापुरुष के प्रति भक्तिप्ररणत होने का और उसकी शरण मे जाने का भाव स्वाभाविक रूप से होता है । इस भाव से प्रेरित होकर वह वैसे किसी समर्थ व्यक्ति की कल्पना करता है । वैसी कल्पना स्वभावत एक स्वतंत्र और जगत् के
२८ कर्मणो भौतिकत्वेन यद्वं तदपि साम्प्रतम् ।
श्रात्मनो व्यतिरिक्त तत् चित्रभाव यतो मतम् ॥ ६५ ॥
- शास्त्रवार्तासमुच्चय
२६ शक्तिस्प तदन्ये तु सूरय सम्प्रचक्षते । श्रन्ये तु वामनारूप विचित्रफलदं मतम् ॥ ६६॥
- शास्त्रवार्तासमुच्चय
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दार्शनिक परम्परा में प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता
[५५ कर्ता-धर्ता ईश्वर की मान्यता मे परिणत होती है और मनुष्य उसे आदर्श मानकर जीवन व्यतीत करता है । हरिभद्र ने सोचा कि मानव-मानस की यह भक्ति या शरणागति की तीव्र उत्कण्ठा असल मे तो कोई बुरी वस्तु नही है । अत. वैसी उत्कट उत्कण्ठाको कोई ठेस न लगे और उसका तर्क एवं बुद्धिवाद के साथ बराबर मेल जम जाय इस तरह ईश्वर-कर्तृत्ववाद का तात्पर्य उन्होने अपनी सूझसे बतलाया । उन्होने कहा कि जो पुरुष अपने जीवन को निर्दोष बनाने के प्रयत्नके परिणामस्वरूप उच्चतम भूमिका पर पहुँचा हो वही साधारण आत्माओ मे परम अर्थात् असाधारण
आत्मा है और वही सर्वगम्य एवं अनुभवसिद्ध ईश्वर है । जीवन जीनेमें आदर्शरूप होनेसे वही कर्ता के रूप मे भक्ति-पात्र एवं उपास्य हो सकता है ।
__ हरिभद्र, मानो मानव-मानस की गहनता नापते हों इस तरह, कहते है कि लोग जिन शास्त्री एवं विधि-निषेधोंके प्रति आदरभाव रखते हो वे शास्त्र और वे विधि-निषेध उनके मन यदि ईश्वरप्रणीत हो, तो वे सन्तुष्ट हो सकते हैं और वैसी वृत्ति मिथ्या भी नही है । अत इस वृत्ति का पोषण होता रहे तथा तर्क एवं बौद्धिक समीक्षाकी कसौटी पर सत्य साबित हो ऐसा सार निकालना चाहिये । यह सार, जैसा ऊपर सूचित किया है, स्वप्रयत्न से विशुद्धि के शिखर पर पहुँचे हुए व्यक्ति को आदर्श मानकर उसके उपदेशो मे कर्तृत्व की भावना रखना। हरिभद्र की कर्तृत्व-विषयक तुलना इससे भी आगे जाती है । वह कहते है कि जीवमात्र तात्त्विक दृष्टि से शुद्ध होने के कारण परमात्मा या परमात्मा का अंश है और वह अपने अच्छे-बुरे भावी का कर्ता भी है । इस दृष्टि से देखे तो जीव ईश्वर है और वही कर्ता है । इस तरह कर्तृत्ववाद की सर्वसाधारण उत्कण्ठा को उन्होंने तुलना द्वारा विधायक रूप दिया है ।३०
३०. ततश्चेश्वरकर्तृत्ववादोऽय युज्यते परम् ।
सम्यन्यायाविरोधेन यथाऽऽहु शुद्धबुद्धय ॥ २०३ ।। ईश्वर परमात्मैव तदुक्तव्रतसेवनात् । यतो मुक्तिस्ततस्तस्या कर्ता स्याद्गुणभावत ॥ २०४ ॥ तदनासेवनादेव यत्ससारोऽपि तत्त्वत । तेन तस्यापि कर्तृत्व कल्प्यमान न दुष्यति ॥ २०५ ।। कर्ताऽयमिति तद्वाक्ये यत केषाचिदादरः । अतस्तदानुगुण्येन तस्य कर्तृत्वदेशना ॥ २०६ ।। परमैश्वर्ययुक्तत्वान्मत आत्मैव चेश्वर । स च कर्तेति निर्दोप कर्तृवादो व्यवस्थित ॥ २०७॥
-शास्त्रवार्तासमुच्चय
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दार्शनिक परम्परा में प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता [५७ खण्डनपटु है, किन्तु हरिभद्र तो विरोधी मत की तक-पुरस्सर समीक्षा करने पर भी सम्भव हो वहां कुछ सार निकाल कर उस मत के पुरस्कर्ता के प्रति सम्मानवृत्ति भी प्रदर्शित करते है। क्षणिकवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद इन तीन बौद्ध वादों की समीक्षा करने पर भी हरिभद्र इन वादों के प्रेरक दृष्टिबिन्दुओ को अपेक्षा-विशेष से न्याय्य स्थान देते है और स्वसम्प्रदाय के पुरस्कर्ता ऋषभ, महावीर आदि का जिन विशेषणों से वे निर्देश करते है वैसे ही विशेषणो से उन्होने बुद्ध का भी निर्देश किया है और कहा है कि बुद्ध जैसे महामुनि एवं अर्हत् की देशना अर्थहीन नही हो सकती।३३ ऐसा कह कर उन्होने सूचित किया है कि क्षणिकत्व की एकांगी देशना आसक्ति की निवृत्ति के लिए ही हो सकती है, इसी भांति बाह्य पदार्थो मे आसक्त रहने वाले तथा आध्यात्मिक तत्त्व से नितान्त पराड्मुख अधिकारियो को उद्दिष्ट करके ही बुद्ध ने विज्ञानवाद का उपदेश दिया है३५ तथा शून्यवाद का उपदेश भी उन्होने जिज्ञासु अधिकारीविशेष को लक्ष्य में रख कर ही दिया है, ऐसा मानना चाहिए।३६ कई विज्ञानवादी और शून्यवादी बौद्ध आचार्यों के सामने इतर बौद्ध विद्वानो की ओर से प्रश्न उपस्थित किया गया कि तुम विज्ञान और शून्यवाद की ही बाते करते हो, परन्तु बौद्ध पिटको मे जिन स्कन्ध, धातु, आयतन आदि बाह्य पदार्थों का उपदेश है उनका क्या मतलब ? इसके उत्तर मे स्वयं विज्ञानवादियो और शून्यवादियो ने भी अपने सहबन्धु बौद्ध प्रतिपक्षियो से हरिभद्र के जैसे ही मतलब का कहा है कि बुद्ध की देशना अधिकारभेद से है। जो लौकिक स्थूल भूमिका मे होते थे उन्हे वैसे ही और उन्ही की भाषा मे बुद्ध उपदेश देते थे, फिर भले ही उनका अन्तिम तात्पर्य उससे
३३ न चैतदपि न न्याय्य यतो बुद्धो महामुनि । सुवैद्यवद्विना कार्य द्रव्यासत्यं न भापते ॥ ४६६ ।।
-शास्त्रवार्तासमुच्चय ३४ अन्ये त्वभिदधत्येवमेतदास्थानिवृत्तये । क्षणिक सर्वमेवेति बुद्ध नोक्त न तत्त्वत ॥ ४६४ ।।
-शास्त्रवार्तासमुच्चय ३५. विज्ञानमात्रमप्येवं वाह्यसगनिवृत्तये । विनेयान् काश्चिदाश्रित्य यद्वा तद्देशनाऽर्हत ॥ ४६५ ।।
--शास्त्रवार्तासमुच्चय ३६ एव च शून्यवादोऽपि तद्विनेयानुगुण्यत. । अभिप्रायत इत्युक्तो लक्ष्यते तत्त्ववेदिना ॥ ४७६ ॥
-शास्त्रवार्तासमुच्चय
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समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र भिन्न हो । प्रारम्भ मे ही बुद्धिभेद नही करना चाहिए और गर्न शने जिज्ञासुओं को गहराई मे ले जाना चाहिए-ऐसी बुद्ध की दृष्टि या नीति थी। जब बौद्ध परम्परा मे भी एक-दूसरे के साथ मेल बैठ न सके और कभी आपस मे एक न हो सके ऐसे विरोधी वाद खडे हुए, तब बौद्ध विद्वानो को भी वे वाद भूमिका-भेद से घटाने पडे । हरिभद्र तो बौद्ध नहीं है, और फिर भी उन बौद्ध वादो को अधिकार-भेद से योग्य स्थान देकर वे जब यहा तक कहते हैं कि बुद्ध कोई साधारण व्यक्ति नहीं है, वह तो एक महान् मुनि है, और ऐसा होने से बुद्ध जव असत्यका आभास कराने वाला वचन कहे, तब वे एक सुवैद्य की भाति खास प्रयोजन के विना तो वैसा कह ही नही
३७. प्रात्मेत्यपि प्रज्ञपितमनात्मेत्यपि देशितम् ।
बुद्धर्नामा न चानात्मा कश्चिदित्यपि देशितम् ॥ ६ ॥
" यतश्चैव हीनमध्योत्कृष्टविनेयजनाशयनानात्वेन - प्रात्मानात्मतदुभयप्रतिषेधेन बुद्धाना भगवता धर्मदेशना प्रवृत्ता, तस्मानास्त्यागमवाघो माध्यमिकानाम् । अत एवोक्तमार्यदेवपादै -
वारण प्रागपुण्यस्य मध्ये वारणमात्मन । सर्वस्य वारण पश्चाद् यो जानीते स बुद्धिमान् ॥ -नागार्जुनकृत मध्यमककारिका, प्रात्मपरीक्षा,
पृ ३५५ तथा ३५६ सर्व तथ्य न वा तथ्य तथ्य चातथ्यमेव च ।
नैवातथ्य नैव तथ्यमेतद्बुद्धानुशासनम् ॥ ८ ॥ " तथा च भगवतोक्त । लोको मया सार्च विवदति नाह लोकेन सार्ध विवदामि । यल्लोकेऽस्ति समत तन्ममाप्यस्ति समतम् । यल्लोके नास्ति समत ममापि तन्नास्ति समतमित्यागमाच्च ।
इत्यादित एव तावद् भगवता स्वप्रसिद्धपदार्थभेदस्वरूपविभागश्रवणसजाताभिलाषस्य विनेयजनस्य यदेतत्स्कन्धधात्वायतनादिकमविद्यातमिरिक सत्यत परिकल्पितमुपलब्ध तदेव तावत्तथ्यमित्युपरिणत भगवता तद्दर्शनापेक्षया प्रात्मनि लोकस्य गौरवोत्पादनार्थम् ।
-मध्यमकवृत्ति, आत्मपरीक्षा, पृ ३६९-७० देखो 'विग्रहव्यावर्तनी' के निम्नाकित दो श्लोक तथा उनकी व्याख्या -
कुशलाना धर्माणा धर्मावस्थाविदश्च मन्यन्ते । कुशल जनस्वभाव शेपेप्वप्येष विनियोगः ॥७॥ कुशलाना धर्माणा धर्मावस्थाविदो ववते यत् । कुशलस्वभाव एव प्रविभागेनाभिधेय स्यात् ॥५३॥
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दार्शनिक परम्परा में आचार्य हरिभद्र की विशेषता
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सकते । ३८ हरिभद्र की यह महानुभावता, मेरी दृष्टि से, दर्शन-परम्परा मे एक विरल प्रदान है ।
५. शान्तरक्षित ने औपनिषदिक श्रात्मा की परीक्षा मे ब्रह्माद्वतवाद का जैसा निरसन किया है, वैसा हरिभद्र ने भी किया है । यद्यपि उन्होने षड्दर्शनसमुच्चय मे मीमांसक दर्शन के प्रस्ताव मे ब्रह्मवादी दर्शन का निर्देश तक नही किया, फिर भी जब वे शास्त्रवार्तासमुच्चय में उस वाद का निरसन करते है, तब ऐसा तो नही कहा जा सकता कि वे उस दर्शन से परिचित नही थे । पड्दर्शनसमुच्चय की रचना उन्होने पहले की हो और उस समय वे ब्रह्मवादी दर्शन से परिचित न हो, ऐसा भी नही माना जा सकता । इसका कारण यह है कि हरिभद्र के समय तक प्रोपनिपद ब्रह्मवाद दूसरे किसी भी दर्शन की अपेक्षा कम प्रसिद्ध नही था । शंकराचार्य के पहले भी अनेक आचार्यों के द्वारा औपनिषद दर्शन ने ठीक-ठीक प्रसिद्धि पाई थी, और ऐसा भी नही लगता कि पड्दर्शनसमुच्चय की रचना हरिभद्र ने अपनी प्रौढ अवस्था मे की हो । इससे अधिक से अधिक इतना ही कहा जा सकता है कि हरिभद्र के मन प्रतिपाद्य आस्तिक दर्शनो मे जैमिनीय मीमांसाका स्थान प्रधान होगा, क्योकि उस समय कुमारिल आदि के द्वारा पूर्वमीमासा की विशेष प्रतिष्ठा जम चुकी थी । इसीलिए हरिभद्र ने मात्र उसी का वर्णन कर के सन्तोष माना हो । अस्तु, जो कुछ हो ।
परन्तु यहा पर भी हरिभद्र शान्तरक्षित से अलग पडते है । हरिभद्र ब्रह्मवाद का निरसन करने के पश्चात् भी उसका अपनी दृष्टि से तात्पर्य बतलाते है । हरिभद्र श्रमण-परम्परा के और समदृष्टि के पुरस्कर्ता है । उन्होने सोचा होगा कि भेद-प्रधान सृष्टि के मूल मे अधिष्ठान या कारण के रूप मे एकमात्र अखण्ड ब्रह्मतत्त्व है ऐसी
तवादियो की मान्यता विशेपनिरपेक्ष सामान्यदृष्टि से तो सच्ची है, परन्तु सृष्टि अनुभूयमान भेद और उसमे से निष्पन्न जीवनगत वैषम्य का स्पष्टीकरण क्या हो सकता है ? इस विचार मे से उन्हें ब्रह्माद ेत का समभाव के साथ मेल बिठाने की सूझ प्रकट हुई होगी। वे कहते है कि शास्त्रो मे जो श्रद्ध ेत देशना है, वह जीवन की साधना मे वैषम्य का निवारण कर के समभाव की स्थापना करती है । यदि
३८. देखो पादटिप्पणी ३३ मे उद्धृत श्लोक । ३६. अन्ये व्याख्यानयन्त्येव समभावप्रसिद्धये ।
अव तदेशना शास्त्रे निर्दिष्टा न तु तत्त्वत ॥५५०॥
- शास्त्रवार्ता समुच्चय
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समय प्राचार्य हरिभद्र जहाईती नावना बारा जीवन में समता सावने का उद्देश्य न हो तो वह ब्रह्मादेत नत्र वाद नक ही रह जाय और गेग द्वारा संक्लेश का निवारण कर के विशुद्धि द्धि करने की जो बात अव्यात्म्मास्त्रों में आती है वह तथा वन्व-मोन की व्यवस्था कनी सही नहीं सके । ऐले विचार से उन्होंने ब्रह्माहतवाद का निरसन करने पर नी उजना तात्पर्य समता की सिद्धि में सूचित करके ब्राह्मण और श्रमण परम्परा के चैत्र मुदीर्घ काल ने चले आने वाले ग्रन्तर को दूर करने का, दूसरे क्सिी की अपेक्षा विशेष वाराही, प्रगल किया है।
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व्याख्यान चौथा योगपरम्परामें प्राचार्य हरिभद्रकी विशेषता-१
आचार्य हरिभद्र योगसाहित्य और उसकी परम्परामे कौन-कौनसी और कितनी विशेषता लाये है इसका कुछ ख्याल आ सके इस दृष्टि से यह देखना आवश्यक है कि प्राचीन समय से यह परम्परा किस-किस तरह विकसित होती रही है और उसके साहित्य का किस रूप मे निर्माण हुआ है ।
ईसा के पूर्व लगभग आठवी शती से लेकर उत्तरवर्ती समय का ख्याल अधिक अच्छी तरह से दे सके ऐसा साहित्य तो उपलब्ध है ही। उसके पहले के समय को लेकर योगका विचार जानना हो तो कुछ अंश मे पुरातत्त्वीय अवशेष और कुछ अंश मे लोक-जीवन मे जिनकी गहरी जडे जमी है वैसी प्रथाओं तथा पौराणिक वर्णनो का आधार लेना अनिवार्य है। अतिप्राचीन काल मे 'योग' शब्द की अपेक्षा 'तप' शब्द बहुत ही प्रचलित था। ऐसा लगता है कि मानव-जीवन के साथ तप की महिमा किसी-न-किसी रूप मे संकलित रही है । इसीलिए हम देखते है कि कोई ऐसी प्राचीन, मध्ययुगीन अथवा अर्वाचीन धर्मसंस्था विश्व मे नही है कि जिसमे एक या दूसरे रूप मे तप का आदर न होता हो । सिन्धु-संस्कृति के अवशेषो मे जो नग्न प्राकृतिया मिलती हैं वे किसी-न-किसी तपस्वी की सूचक है, ऐसा सब स्वीकार करते हैं। नन्दी एवं दूसरे सहचर प्रतीको के सम्बन्ध को देखते हुए अनेक विचारक ऐसी कल्पना करते है कि वे नग्न आकृतियां महादेव की सूचक होनी चाहिये ।' इस देश मे महादेव एक योगी, तपस्वी या अवधूत के रूप में प्रसिद्ध है। पौराणिक वर्णनो मे तथा लोक-जिह्वा पर महादेव का जो स्वरूप सुरक्षित है वह इतना तो निस्सन्देह सूचित करता है कि लोक-मानस के ऊपर एक वैसे अद्भुत तपस्वी की अमिट एवं चिरकालीन छाप पड़ी हुई है। महादेव के इस लोकमानस-स्थित प्रतिबिम्ब की तुलना जब हम
१ 'इस्टर्न रिलीजन एण्ड वेस्टर्न थॉट' पृ १८ के आधार पर इस वस्तु का निर्देश श्री दुर्गाशकर शास्त्री ने किया है। देखो 'भारतीय सस्कारोनु गुजरातमा अवतरण' पृ १८; डॉ० हरिप्रसाद शास्त्री . 'हडप्पा अने मोहेजो दडो' पृ १७३; डॉ० यदुवशी · 'शवमत' पृ. ६-८; राधाकुमुद मुखर्जी • 'हिन्दू सभ्यता' पृ २३ । ।
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६२]
समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र ऐतिहासिक एव वर्तमान युग के अनेक साधको के जीवन के साथ करते है, तब इतना तो मालूम पडता है कि महादेव के पौराणिक जीवन के साथ संकलित योगचर्या भारतीय जीवन की प्राचीनतम आध्यात्मिक सम्पत्ति है। इस सम्पत्ति का विकास किस-किस तरह हुआ यह अब हम संक्षेप में देखे ।
जिन-जिन क्रियाओ, प्राचारो और अनुष्ठानो से असाधारण प्रोज, बल अथवा शक्ति के प्राकट्य का सम्भव माना जाता है वे सभी क्रियाएं, प्राचार और अनुष्ठान तप के नाम से व्यवहृत होते आये है । ऐसा ज्ञात होता है कि तप का स्वरूप स्थूल मे से सूक्ष्म की अोर क्रमश विकसित होता गया है और जब तप का सूक्ष्म-अतिसूक्ष्म अर्थ विकसित हुआ और विरल साधको के जीवन मे साकार हुआ, उस समय भी उसके स्थूल और बाह्य अनेक स्वरूप समाज एवं धर्म-सम्प्रदायो में प्रचलित रहे । तप के स्थूल और बाह्य स्वरूप मे कम से कम नीचे लिखी बातो का समावेश होता ही है - (१) गृहवास का परित्याग करके वन, गुफा, श्मशान अथवा सुनसान जैसे विविक्त स्थानो मे रहना, (२) सामाजिक वेशभूषा का त्यागे, जिसके कारण या तो नग्नत्व और यदि वस्त्र धारण किये जाय तो भी वे जीर्ण कन्याप्राय और अत्यल्प; (३) या तो जटाधारण या फिर सर्वथा मुण्डत्व, (४) अनशन व्रत का आग्रह और अशन करना हो तो उसकी भी मात्रा हो सके उतनी कम और वह भी नीरस, (५) नाना प्रकार के देहदमन। इन और इनके जैसी दूसरी अनेकविध चर्यानो का आचरण तत्कालीन तपस्वी करते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि उनका लक्ष्य मुख्यतया मन को
२ तपश्चर्याके ये मुद्दे जिसके आधार पर फलित होते है, उसके लिए अधोनिदिष्ट साहित्य उपयोगी होगा -
'औपपातिकसूत्र' गत तपवर्णन जिसमे उसके ३५४ भेद बतलाये है, तथा परिव्राजक एव तापसोका वर्णन, 'भगवतीसूत्र' गत 'शिवतापस' शतक ११, उद्देश ६ तथा 'तामली तापस' शतक ३, उद्देश्य १, भगवान महावीर की तपश्चर्याका 'आचाराग' गत वर्णन, अध्याय ६ उपधानश्रुत, बुद्ध की तपश्चर्याका वर्णन · 'मज्झिमनिकाय' अरियपरियेसनसुत्त, महासच्चकसुत्त ।
___ 'महाभारत' ( चित्रशाला सस्करण) अनुशासन पर्व १४१ ८६-६० में चार प्रकार के भिक्षुप्रोका वर्णन आता है, १४१. ६५-११५ मे वानप्रस्थोका वर्णन है। वैसा ही वर्णन १४२ ४-३३ मे है। पचाग्नितपका उल्लेख १४२-६ मे है, विविध मरणोका उल्लेख १४२ ४४-५६ मे तथा तापसो का वर्णन १४२ ३४ मे है। 'रामायण' मे शम्बूक तापनकी कथा काण्ड ७, अध्याय ६५-६ मे आती है।
'श्रीमद्भागवत' गत ऋपभचरित, स्कन्ध ५, अध्याय ५।
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योगपरम्परा मे प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता
[६३ जीतने का और उसके द्वारा कोई ऐहिक या पारलौकिक सिद्धि प्राप्त करने का था; फिर भी बहुत प्राचीनकाल मे तप के ये प्रकार देहदमन की स्थूल क्रियानो से बहुत
आगे विकसित नहीं हुए थे । परन्तु उनमे विचार का तत्त्व विशेष रूप से प्रविष्ट होने पर वे समझने लगे कि केवल कठोर से कठोर कायक्लेश भी उनका ध्येय सिद्ध नही कर सकता। इस विचार ने उन्हे वाक्-सयम की ओर तथा मन की एकाग्रता साधने के विविध उपायो की शोध करने की ओर भी प्रेरित किया । अनेक साधक स्थूल तप के आचरण मे ही इतिश्री मानते थे, फिर भी कई ऐसे विरल विवेकी तपस्वी भी हुए जो वैसे स्थूल तप को अन्तिम उपाय न मानकर एव उसे एक बाह्य साधन समझकर उसका उपयोग करते रहे तथा मुख्य रूप से मन की एकाग्रता साधने के उपायो मे और मनकी शुद्धि साधने के प्रयत्न मे ही अपनी समग्र शक्ति लगाते रहे। इस प्रकार तपोमार्ग का विकास होता गया और उसके स्थूल-सूक्ष्म अनेक प्रकार भी साधको ने अपनाये । जब तक यह साधना मुख्यतया तप के नाम से ही चालू रही तब तक इसकी तीन शाखाएं अस्तित्व मे आ चुकी थी। वे तीन शाखाएँ है : (१) अवधूत, (२) तापस, और (३) तपस्वी।
अवधूत लोकजीवन और लोकचर्या से सर्वथा विपरीत होता है । इसका वर्णन पौराणिक साहित्य मे बचा है। उसमे भी भागवतपुराण विशेष उल्लेखनीय है । उसके पांचवे स्कन्ध के पाँचवे और छठे अध्यायो मे एक अवधूत के रूप मे नाभिनन्दन ऋषभदेव की चर्या का वर्णन आता है, और ग्यारहवे स्कन्ध मे चौबीस
३ "..."भरत धरणिपालनायाभिषिच्य स्वय भवन एवोर्वरितशरीरमात्रपरिग्रह उन्मत्त इव गगनपरिधान प्रकीर्णकेश पात्मन्यारोपिताहवनीयो ब्रह्मावर्तात् प्रवव्राज ॥ २८ ॥
जडान्धमूकवधिरपिशाचोन्मादकवदवधूतवेपोऽभिभाष्यमाणोऽपि जनाना गृहीतमौनव्रतस्तूप्णीवभूव ॥ २६ ॥
तत्र तत्र पुरग्रामाकरखेटवाटखवटशिविरव्रजघोषसार्थगिरिवनाश्रमादिष्वनुपथमवनिचरापसदै परिभूयमानो मक्षिकाभिरिव वनगजस्तर्जनताडनावमेहनष्ठीवनग्रावशकृद्रज प्रक्षेपपूतिवातदुरुक्तस्तदविगणयनेवासत्सस्थान एतस्मिन् देहोपलक्षणे सदपदेश उभयानुभवस्वरूपेण स्वमहिमावस्थानेनासमारोपिताहममाभिमानत्वादविखण्डितमना पृथिवीमेकचर परिबभ्राम ॥ ३०॥
.." परागवलम्बमानकुटिलजटिलकपिशकेशभूरिभारोऽवधूतमलिननिजशरीरेण ग्रहगृहीत इवादृश्यत ।। ३१.।।
यहि वाव स भगवान् लोकमिम योगम्यादा प्रतीपमिवाचक्षाणस्तत्प्रतिक्रियाकर्म वीभत्सितमिति व्रतमाजगमास्थित शयान एवाश्नाति पिवति खादत्यवमेहति हदति स्म चेप्टमान उच्चरित मादिग्धोद्देश ॥ ३२ ॥
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सन्द आचार्य हरिमन पुर करने वाले वान दत को का उल्न जाता है। उक्त का संक्षेत्र में प्रथइनना ही है कि ननुष्य होने पर भी बुद्धिपूर्वक मानवसमाज की प्रचलित वर्ण का परित्यार करके पशु-पक्षी जैसा निरवच बीवन जीने वाला जायक । जैन पुराणों में ने अपनदेव का प्रथम तीबर के बने स्थान है ही। उनमें भागवत इंसा नगर, गाय मृग ऋयबा का देसी वर्ग का वर्णन तो नहीं जाता, परन्तु जो उत्क्ट तपका वर्णन साता है वह इतना तो चित करता ही है कि ऋपादेव ने सर्वच निन्म होकर जीवन जीने वाले क्लिी विशिष्ट ववत केल्य में लोकादर प्राप्त किया था।
....." एवं फोनमाया स्तिनासीत. मयानः मृगौरित. पिवति सास्यवहार न॥४॥
इति नानायोगारणो नाबान कंवल्यातिपनो विरतपरन्न्हानन्दानुन्द जालनि सयां तानानानने स्पति गनुदेव पालनोऽव्यवदानानन्तरोदरममावेन सिद्धसनद्धार्थपरिपूर्ण योगागि देहान्दोजगन्नान रखाप्रवेङ्करम्हलानि पृच्छयोपतानि नाजा नृप हृदग्नान्यदन्दम् ॥ ५॥
-श्रीनद् भागवत स्व . अध्याय ५ ध्या में लोद ६ १६ में भी यह वर्ग मानी है।
४. 'श्रीमावत' कब ११, व्याय, ग्लोष३:- २४ गुल्लोंके नान है । इसके पहाव उना वर्णन करने कोनमेन से गुरु नये वीडे का वर्णन है।
५. हे रन प्रज्ञा कोलिए पटनाया पहनविणे पनवेली पहननित्यरे पढनरन्तरकट्टी मुनिले ।
-उन्हीपनप्ति नीष पृ. १३५, नूत्र ३० इसके अनिन्ति देवो नुदेवहिन्दी' पृ. १५९-६८, तम'चटप्पन्न्हापुरिमचरित्व में ऋग्व रित पृ. ४०-१३
प्रजापतिः य दिनीविया का कृयादि नमुना.। प्रसन्न: पुनर तोक्यो नमलतो निविविद विदांवरः । बिहार चारस्वास्विर निवन्न वनुशायूं सनीन् । उरिगहनादिरास्नवत्प्रनुः प्रवद्रा हिप्पुरच्छुतः।। लढोग्नु स्वभाविवसान्निय यो निर्दय-ज्ञानियान् । बागद परटेन्निसा व ब्रह्मपदानृतेददरः । च दिवईपनेत्रित. तां जननियामवनिरंन्नः । पृतनुतोन्न नान्निन्दनो जिनो विन्मुन्वन्दादिनः ॥
यंदतोत्र, १.२-५ प्रादिनं पृथ्बिीनायनादिमं निप्परिन् । मादिनं तीर्थनार्य व ऋषन्वानिनं स्टुनः !
-म्पिटियलागापुस्मत्रस्त्रि, १. १.३
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योग- परम्परा मे श्राचार्य हरिभद्र की विशेषता
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प्राचीन समय की यह अवधूत - परम्परा महादेव, दत्त अथवा वैसे किसी पौराणिक योगी के नाम पर प्रचलित पथो मे किसी-न-किसी रूप मे आज भी बची हुई है । अवधूतगीता यद्यपि एक अर्वाचीन ग्रन्थ है, फिर भी उसमे अवधूत का थोडा परिचय प्राप्त हो सके ऐसी बाते भी उल्लिखित है । जैन और बौद्ध परम्परा मे भी इस अवधूत का स्वरूप सुरक्षित रहा है और उच्च प्रकार की प्राध्यात्मिक साधना के एक उपाय के रूप मे इस चर्या का आदर किया गया है । आचारांग, जो उपलब्ध जैन ग्रागमो मे सर्वाधिक प्राचीन समझा जाता है, उसमे एक अध्ययन ( प्रथम श्रुतस्कन्ध का छठा अध्ययन ) आता है जिसका नाम ही 'धूत' है । उसमे उत्कट त्यागी की जीवनचर्या के उद्गार आते हैं, जो कि जैन परम्परा मे अन्यत्र वरिणत ऋषभदेव अथवा महावीर के जीवन की झांकी कराते है । बौद्ध परम्परा मे यद्यपि जैन परम्परा की भाँति, तप अथवा देहदमन के ऊपर भार नहीं दिया गया, तथापि उसमे भी समाधि के अभिलाषी के लिए प्रथम कैसा जीवन आवश्यक है यह बतलाने वाले तेरह धूतांगो का विस्तार से वर्णन मिलता ही है ।" धूताध्ययन मे आने वाली जैन चर्या, धूतांगो के वर्णन मे आने वाली बौद्ध-चर्या तथा अवधृत - परम्परा के वर्णन मे आने वाली अवधूत योगी की चर्या इन तीनों का तुलनात्मक अध्ययन करने वाले को ऐसा ज्ञात हुए बिना नही रहेगा कि ये तीनों शाखाएँ मूल मे एक ही परम्परा के तीव्र मृदु प्राविर्भाव है, जैन और बौद्ध परम्परा मे श्रवघृत के स्थान मे 'घृत' इतना ही पद प्रयुक्त हुआ है । ऐसा होने पर भी प्राचीन 'ग्रवधूत' पद तपस्वी, योगी या उत्कट साधक के अर्थ मे इतना अधिक रूढ हो गया है कि कबीर और जैन साधक ग्रानन्दघन जैसे भी अपनी कृतियो मे 'अवधू' पद का बार-बार प्रयोग करते है | 5
६ शून्यागारे समरसपूतस्तिष्ठन्नेक सुखमवधूत ।
चरति हि नग्नस्त्यक्त्वा गवं विन्दति केवलमात्मनि सर्वम् ॥
७. विमुद्धिमग्ग धूतंगनिद्द स, पृ ४० ।
८. कवीर
- श्रवधूतगीता अ १, श्लोक ७३
अवधू कुदरत की गति न्यारी ।
रक निवाज करे वह राजा भूपति करें भिखारी ॥१२॥ अव छोडहू मन विस्तारा |
सो पद हो जाहि ते सद्गति पार ब्रह्म ते न्यारा ॥१३॥ अवधू अन्य कूप अंधियारा ।
या घट भीतर सात समुन्दर याहि मे नद्दी नारा ॥७७॥
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समदर्शी आचार्य हरिभद्र
जैन आगमो मे अनेक स्थानो पर तापसो का वर्णन श्राता है । महाभारत" एवं पुराणो मे भी तापसो के आश्रमो का वर्णन आता है । इन तापसों की चर्या विशेष देहदमनपरायण होने पर भी अवधूतो की अपेक्षा कुछ कम उग्र होती है। तापस भी नग्न अथवा नग्न जैसे रहते, मूल, कंद, फल ग्रादि के द्वारा निर्वाह करते और यदि अन्न लेते भी तो भिक्षा के द्वारा लेते । अवधूत कपाल - खोपडी रखते, तो तापस सिर्फ लकडी का अथवा वैसा कोई पात्र रखते और कई तो पाणिपात्र भी होते और भिक्षाटन करते । इनमे से अनेक तापस पचाग्नि तप करते १२ और किसीन-किसी प्रकार का सादा अथवा उग्र जीवन जीकर मन को वश मे लाने का प्रयत्न करते । अधिक जाडा और ग्रधिक गरमी सहन करना - यह उनकी खास तपोविधि थी । श्राज भी ऐसे तापस केले - दुकेले और कभी-कभी समूह मे मिलते ही हैं । परन्तु अवधूत और तापस वर्ग की तपश्चर्या मे भी सुधार होने लगा । पंचाग्नि तप के स्थान पर मात्र सूर्य का प्रातप लेना ही इष्ट माना गया । चारो दिशाओ मे लकडियाँ जलाकर तप करने मे हिंसा का तत्त्व मालूम पडने पर उस विधि का परित्याग किया गया । पत्र, फल, मूल, कन्द जैसी वनस्पति पर निर्वाह करना भी वानस्पतिक जीवहिंसा की दृष्टि से त्याज्य समझा गया । जटा धारण करने पर जूं या लीख का होना सम्भव है, इस विचार से सर्वथा मुण्डन इष्ट माना गया, और उस्तुरे से सर्वथा मुण्डन कराने के बजाय अपने हाथ से ही बालो को खीचकर लुचन करना निरवद्य समझा गया ।
६६
श्रवघू भूले को घर लावै सो जन हमको भावे ।
घरमे जोग भोग घर ही मे घर तजि वन नहि जावै ॥ १११ ॥
— कबीर वचनावली, द्वितीय खण्ड
श्रानन्दघन-
अवधू नट नागर की बाजी जाणें न वाभरण काजी ||५|| वधू क्या सोवे तन मठ मे जाग विलोकन घट मे ॥७॥ अवधू राम राम जग गावे, बिरला अलख लगावे ॥२७॥
- श्री मोतीचन्द गि कापडिया द्वारा संपादित "श्री श्रानन्दघनजीना पदो" ६ 'भगवती' गत अवतरणो के लिए देखो प्रस्तुत व्याख्यान की पादटीप २ | इसके श्रतिरिक्त देखो 'चउप्पन्नमहापुरिसचरिय' पृ० ४०, 'वसुदेवहिण्डी' पृ० १६३ |
१०. 'महाभारत' के लिए देखो प्रस्तुत व्याख्यान की पादटीप २ ।
११ पुष्कर तीर्थ की उत्पत्ति के प्रसग मे वन का वर्णन 'पद्मपुराण' मे आता है, जिसमे देवो द्वारा की गई तपश्चर्या का उल्लेख है । देखो 'पद्मपुराण' श्रध्याय १५, श्लोक २२ । पुष्कर तीर्थ मे रहनेवाले तपस्वियो के वर्णन के लिए देखो 'पद्मपुराण' श्रध्याय १८, श्लोक 8 से 1
१२ 'महाभारत' श्रनुशासनपर्व १४२ ६ ।
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योग-परम्परा मे आचार्य हरिभद्र की विशेपता
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इस प्रकार तापस प्रथा मे ग्रहिसा की दृष्टि से जो विशेष सुधार अथवा परिवर्तन हुए वे तपस्वी मार्ग के रूप मे प्रसिद्ध हुए । तपस्वी मार्ग ग्रहसा की दृष्टि से तापसमार्ग का ही एक संस्करण है । पार्श्वनाथ और खास कर के महावीर इस तपस्वी मार्ग के पुरस्कर्ता है । जैन आगमो मे जो प्राचीन वर्णन बच गये है उनमे तापस और तपस्वी के जीवन की भेदरेखा १४ स्पष्ट है । तपस्वी - जीवन मे उत्कट, उत्कटतर और उत्कटतम तप के लिए स्थान है, परन्तु उसमे मुख्य दृष्टि यह रही है कि वैसे तप का ग्राचरण करते समय सूक्ष्म जीव तक की विराधना न हो। इस तरह हमने संक्षेप मे देखा कि महादेव के पौराणिक जीवन से लेकर महावीर के ऐतिहासिक वर्णन तक तप की बाह्य चर्या मे उत्तरोत्तर कैसा सुधार अथवा परिवर्तन होता गया है । इस सुधार या विकास का समग्र चित्र भारतीय वाड्मय मे उपलब्ध होता है ।
तपोमार्ग का वर्णन पूरा करके श्रागे विचार करे उससे पहले तीन ऐतिहासिक तीर्थंकरो की जीवनचर्या की तुलना हम सक्षेप मे करे । बुद्ध, गोशालक और महावीर ये तीनों समकालीन थे । उस समय उत्तर एवं पूर्व भारत के विशाल प्रदेश पर श्रमणों एवं परिव्राजको के अनेक समूह विचरते थे । वे सब अपने-अपने ढंग से उत्कट या मध्यम प्रकार का तप करते थे । गृह का परित्याग किया तब से बुद्ध तप करने लगे । उन्होने स्वमुख से अपनी तपश्चर्या का जो वर्णन किया है, और जो ऐतिहासिक
ष्ट से बहुत महत्त्व का है, उसमे स्वयं उनके द्वारा श्राचरित नाना प्रकार के तपो का निर्देश है ।१५ उस निर्देश को देखते हुए ऐसा कहा जा सकता है कि अवधूतमार्ग मे जिस प्रकार के तपो का ग्राचरण किया जाता था, वैसे ही तप बुद्ध ने किये थे । श्रवघुतमार्ग मे पशु और पक्षी के जीवन का अनुकरण करने वाले तप विहित है । बुद्ध ने वैसे ही उग्र तप किये थे । गोशालक और महावीर दोनो तपस्वी तो थे ही, परन्तु उनकी तपश्चर्या मे न तो अवधूतो की और न तापसो की विशिष्ट तपश्चर्या का
१३. देखो 'चउप्पन्नमहापुरिसचरिय' के अंतर्गत पासनाहचरिय मे कमठप्रसंग, पृ० २६१-२, 'त्रिपष्टिशला कापुरुषचरित' पर्व ६, सर्ग ३, श्लोक २१४-३० ।
१४ तापसका एक अर्थ 'तापप्रधान तापस' ऐसा भी होता है, और तपस्वी शब्द के विविध अर्थो मे 'प्रशस्ततपोयुक्त' एव 'प्रशस्ततपोऽन्वित' ऐसे अर्थ भी दिये गये है, जिससे तापस की अपेक्षा तपस्वी भिन्न होता है ऐसा सूचन उपलब्ध होता है । देखो 'अभिधानराजेन्द्र' मे 'तवस्ति' और 'तावस' शब्द |
पचाग्नि तप के स्थान पर तपस्वियों ने जिस श्रातापना को स्वीकार किया वह यह थी 'आयावयन्ति गिम्हेसु' - दशवेकालिकसूत्र ३ १२ ।
१५ देखो प्रस्तुत व्याख्यान की पादटीप २ |
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नन्द प्राचार्य हरिन्द्र गया। दोनों तीर्थनायक देहदनन के अरभार ते ये, नन्न वितरण करते थे, नशान र मृन्य गृहों में एकाती रहते थे, मुष्क एवं नीरस याहार लेते थे और लवे लन्त्र उपवास भी करते थे; ६ फिर भी उन्होंने कभी बुद्ध के जैन तर एवं नों कामावरण नहीं किया । अन्त में कुछ इस तीमार्ग का परित्याग करके दूसरे नार्ग का अवलम्वन लेते हैं, किन्तु गोगानक और नहार नेनों तपश्चर्या का अन्त तक आश्च लेते हैं। इस बात का विलेपण करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ तप की उलट मोटि ना पहुंने थे रस्तु जब उसका परिणाम उनके लिए सन्तोषप्रद न बाग नत्र वह च्यानमार्ग की और अभिमुत्र हुए और नप को नित्यं मानने मनवाने लगे।'' भारद यह उनके मन्यन्त उलट देहनन की प्रतिक्रिया हो; परन्तु गोगालक और नहावीर के बारे में ऐसा नहीं है। उन्हेंने उन तप के सय पहले ही ने ब्यान में अन्ननर के ज्यर पूरा लल दिया था और उन्होंने ऐसा भी कहा कि वाह्य तप चाहे जितना बोर हो, परन्तु उनकी सार्थकता अन्तस्तर पर लम्वित हैं। इसीलिए उन्होंने अपने तपोमार्ग में बाह्य तप ने ग्रन्चना के एक सावन के रूप में ही स्थान दिया ! सम्भवतः इसी कारण उनमें प्रतिक्रिया न हुई। गोगालक का जो जीवनवृत्त मिलता है वह तो वौद्ध और जैन ग्रन्यों के द्वारा ही मिलता है। फिर भी उसमें से इतना सार तो निकलता ही है नि गोनालक स्वयं तथा उनका आजीवन श्रमणसंव नग्नत्व के १६ स्वर अधिक भार देता था।
१६. गोमालक ने निर देवो भगवनी' मृतक १५ क्या भगवतीतार पृ० २८०, २-४-५॥
१५. बुद्ध की तपस्या और उसकी निरक्सा जो उन्हें माई उनके बारे में देखो 'मन्निनिकाय के दुश्ववनुत्त, म्हाडीनान्नुत्त और अरिपरिएसनमुत्त तया ___ 'वरित' (वानन्द नेसन्दीत) में तद्विषयक करण पृ० १६४।
तुलना क्रो
उपनिबन्यो दिन योगी। -भगवद्गीता ६.४६ १८. उचो 'प्रावरांगन में अळ्यन र ऋोनिदिष्ट त्यान
अट्ठ पोरिनि विरियं निति क्युगसम अंतनो भाइ (४६); राई दिवं पि जयमाले अन्मने माहिर नइ {cs); अन्नाई गियाही र महत्वेनु अनुच्चिए
सिद्धान्त के मन में बाह्य तप की अपेक्षा प्रान्यन्तर नप का ही अधिक नहत्त्व नाना ग्ण है
वाहं तपः परमस्वरमावरदमाध्यात्मिकल्प तसः परिवणार्यन् ।
स्वपन्नूस्तोत्र १९.३ १६. देतो 'भगवतीमार' पृ० २१॥
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योग-परम्परा मे प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता बुद्ध, गोशालक और महावीर की भाति दूसरे भी अनेक श्रमण-धर्म के नायक उस समय थे । उनमे सांख्य परिव्राजको का विशिष्ट स्थान था। वे परिव्राजक भी तपत्याग के ऊपर भार तो देते ही थे, फिर भी उनमे कितने ही ऐसे साधक भी थे जो मुख्य रूप से ध्यानमार्गी थे और ध्यान एवं योग के विविध मार्गों का अनुसरण करते थे। स्वयं बुद्ध ने ही वैसे साख्य गुरुप्रो के पास ध्यान की शिक्षा ली थी ।२० उतने से जब उन्हे सन्तोष न हुआ तब ध्यान की दूसरी कई नई पद्धतियो का भी उन्होने प्रयोग किया। इस प्रकार बुद्ध से ही ध्यानलक्षी बौद्ध-परम्परा का प्रारम्भ हुआ। साख्य परिव्राजकों की ध्यान-प्रक्रिया योग के नाम से विशेष प्रसिद्ध हुई और बुद्ध की ध्यानप्रक्रिया समाधि के नाम से व्यवहृत हुई, तो आजीवक और निर्ग्रन्थ परम्परा की साधना तप के नाम से पहचानी जाती है। फिर भी निर्ग्रन्थ-परम्परा मे इसके लिए 'संवर' शब्द विशेष प्रचार मे आया है। इस तरह हम कह सकते है कि योग, समाधि, तप और संवर ये चार शब्द आध्यात्मिक साधना के समग्र अंग-उपागो के सूचक है और इसी रूप मे वे व्यवहार मे प्रतिष्ठित भी हुए हैं ।
प्रत्येक आध्यात्मिक साधक अपनी साधना किसी-न-किसी प्रकार के तत्त्वज्ञान का अवलम्बन लेकर ही करता था । तत्त्वज्ञान की मुख्य तीन शाखाएँ है-(१) प्रकृतिपुरुष द्वैतवादी, (२) परमाणु और जीव बहुत्ववादी, और (३) अद्वैत ब्रह्मवादी । जो साधना योग के नाम से प्रख्यात हुई है उसके साथ मुख्यतया प्रकृति-पुरुष द्वैतवाद का सम्बन्ध देखा जाता है; समाधि, तप और संवर के नाम से जो साधना प्रसिद्ध हुई उसके साथ परमाणु एवं जीवबहुत्ववाद का सम्बन्ध रहा है, और जो साधना वेदान्त के नाम से व्यवहृत हुई उसके साथ मुख्यत अद्वैत ब्रह्मवाद का सम्बन्ध दृष्टिगोचर होता है।
इस प्रकार तत्त्वज्ञान का भेद तो था ही और साधना के नामो मे भी भेद चलता था, फिर भी इन साधनायो के मार्गों एवं अंगो के ऊपर जब हम विचार करते हैं तब ऐसा ज्ञात होता है कि किसी ने अपनी साधना मे अमुक अंग अथवा पद्धति को प्राधान्य दिया है, तो दूसरे ने दूसरे अंग अथवा पद्धति पर भार दिया है । उनमे फर्क सिर्फ गौण-मुख्यभाव का ही है, परन्तु ऐसी कोई आध्यात्मिक साधना
२०. देखो 'मज्झिमनिकाय' मे महासच्चकसुत्त। अश्वघोपने 'बुद्धचरित' काव्य मे आलार कालाम और उद्दक रामपुत्र को, जिनके पास बुद्ध ने सर्वप्रथम योग सीखा था, साख्यमत के प्रवर्तक कहा है। विशेष चर्चा के लिए देखो श्री धर्मानन्द कोसम्वी का 'बुद्धचरित' पृ० १०।
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समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र नही दीख पडती जिसमे साधना के अंग के रूप में विकसित आचार एव विचार का, एक अथवा दूसरे रूप मे, समावेश न हुआ हो ।
तत्त्वज्ञान, सम्प्रदाय और साधको की भिन्नता होने पर भी आध्यात्मिक साधना एक ही है-ऐसा जव हम कहते हैं तव उसका भाव क्या है यह समझ लेना हमारे लिए आवश्यक है। जीवन के साथ अनिवार्य रूप से संलग्न एवं संकलित जो जो मांगलिक तत्त्व हैं उन्हे आवृत करने वाले मल या क्लेशो के निवारण का सतत प्रयत्न ही आध्यात्मिक साधना है । इस साधना मे मुख्यतः भक्ति, क्रिया-कर्मशक्ति, ध्यान और ज्ञान इन चार चित्तगत गुणो का विकास करने का होता है । ईश्वर, वीतराग अथवा अन्य किसी उदात्त आदर्श को सतत सम्मुख रखकर निष्ठापूर्वक जीवनव्यवहार चलाना भक्तियोग है । शारीरिक और मानसिक जीवन इस तरह जीना कि जिससे शरीर नीरोग और सबल रहे और साथ ही मन क्लेशो के आघात का अनुभव न करे, इसी भाति साधक जिस समाज या समष्टि मे रहता हो उस समाज या समष्टि को अपने आचार-विचार से त्रास या बाधा न पहुँचाना-ऐसी जीवन-कला क्रिया अथवा कर्मयोग हैं। बाह्य आकर्षक भोग्य विषयो मे सतत प्रवृत्तिशील मन को इन्द्रियो के अनुगमन अथवा परतन्त्रता से मुक्त करके इस तरह स्थिर करना जिससे कि इन्द्रियाँ स्वयं ही मन की अनुगामी या मन के अधीन बनेयह ध्यान-योग है। इन तीनो योगो के द्वारा मन की ज्ञान-कला यहाँ तक विकसित करनी कि उसके द्वारा मन अपना भीतरी स्वरूप बराबर समझ-बूझ सके और कौनकौन ने क्लेग किस-किस तरह काम करते हैं तथा वे अपने और दूसरे के जीवन में किस तरह वाधक होते है यह यथार्थ रूप मे समझ सके, तथा इन क्लेशों की जड क्या है और वह कैसी है उसे पकड सके-यह ज्ञानयोग है । पातंजल योगशास्त्र के प्रथम पाद में ईश्वरप्रणिधान,२१ वीतरागध्यान २२ और जप २३ जैसे विधानो से भक्तियोग सूचित किया गया है। दूसरे पाद मे तप, स्वाध्याय और यम-नियम के जिन स्वत्पो का वर्णन किया है तथा पहले पाद मे मैत्री, करुणा आदि जिन चार भावनायो का निर्देश है उनके द्वारा कर्मयोग सुचित होता है। प्रथम पाद मे एकतत्वाभ्यात ने प्रारम्भ करके स्यूल, सूक्ष्म, अणु अथवा महत् किसी भी विपय मे मन को रोकने का और अनुक्रम मे इस धारणा की स्थिति से समाधि तक की स्थिति
२१ 'योगसूत्र' १२३, २१, ४५ । २२. 'योगा ' १३७ । २३. 'योग' १.२८ ।
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योग-परम्परा मे प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता साधने की जिस विधि का निरूपण है वह ध्यानयोग है । अन्तनिरीक्षण के द्वारा अपने मे पडे हुए क्लेश और उनसे अभिभूत साहजिक शक्तियों का पृथक्करण कर सके ऐसे विवेकजन्य ज्ञान को सिद्ध करने वाले संयम का तीसरे पाद मे सूचन है; वह ज्ञानयोग है । इस प्रकार पातंजल योगशास्त्र इन चतुर्विध योग का निरूपण करनेवाला एक अविकल योगशास्त्र है।
पतंजलि ने अपने सुपठ और पारदर्शी सूत्रो मे उक्त चार योगो को केन्द्र मे रखकर समग्र चर्चा की है। उनकी यह चर्चा पूर्वकालीन अनेक योगशास्त्रो के दोहन का और स्वानुभव का परिणाम है । पतंजलि के पहले अनेक साख्य-योगी हो चुके है । उनमे से हिरण्यगर्भ का नाम प्रमुख है ।२४ उसका शास्त्र अथवा उपदेश हिरण्यगर्भ योग कहा जाता है। उसका समय निश्चित नहीं है, परन्तु वह बहुत ही प्राचीन है, यह तो निःशंक है । हिरण्यगर्भ के योगशास्त्र से चली आने वाली सांख्यावलम्बी योगप्रथा भगवद्गीता मे बहुत ही स्पष्ट और काव्यमय शैली मे वर्णित है। इस प्रकार भगवद्गीता और पातजल योगशास्त्र ये दो ग्रन्थ ऐसे है जो साख्यतत्त्वावलम्बी योगप्रक्रिया का पूर्ण प्रतिनिधित्व करते है ।
बुद्ध ने अपने ध्यानमार्ग का विकास साधा और उससे सम्बन्ध रखने वाली जिन जिन चर्यानो का सूचन किया है वे पालि पिटको मे इतस्ततः बिखरी हुई है, परन्तु इन सब छोटी-बड़ी, सूक्ष्म-स्थूल बातों का योग्य संग्रह बुद्धघोष ने अपने विशुद्धिमार्ग नामक ग्रन्थ मे किया है । उसमे शील एवं समाधि के जो प्रकरण हैं उनमे बौद्ध समाधिशास्त्र का पूर्ण हार्द आ जाता है। बुद्धघोष के इस स्थविरमार्गी ग्रन्थ के अतिरिक्त महायान परम्परा मे भी इस विषय के अनेक ग्रन्थ हैं जिनमे समाधिराज, दशभूमिशास्त्र और बोधिचर्यावतार विशेष उल्लेखनीय हैं। स्थविरवादी और महायानी परम्परा के ये ग्रन्थ बौद्ध तत्त्वावलम्बी समाधिमार्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
२४ 'महाभारत' मे कृष्ण अपने आपको हिरण्यगर्भ कहते है और 'योगो के द्वारा' वे पूजित है ऐसा सूचित करते है
हिरण्यगर्भो द्यु तिमान् य एषच्छन्दसि स्तुत । योग. सम्पूज्यते नित्य स एवाह भुवि स्मृतः ।।
-शान्तिपर्व २४२६६ 'सागयोगदर्शन-भास्वती' का प्रारम्भ इस प्रकार होता है"स्मर्यते च-हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्य पुरातन ।" पृ० १ 'योगकारिका' -"शिप्टा हिरण्यगर्भण चर्षिभि पारदर्शिमि ॥५॥"
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समदर्शी आचार्य हरिभद्र
पार्श्वनाथ ने प्रचलित और महावीर द्वारा पुष्ट तपोमार्ग की साधना 'संवर' के नाम से प्रसिद्ध है । इस संवर के भिन्न-भिन्न अंग आगम से उपलब्ध होते हैं, परन्तु इन सभी अंग-प्रत्यंगो का मुश्लिट संकलन वाचक उमास्वाति ने अपने तत्त्वार्थाविगमसूत्र मे किया है । यह एक ही ग्रन्थ जैनतत्त्वज्ञानावलम्बी साधनामार्ग का संपूर्ण प्रतिनिधित्व करता है । बौद्ध एव जैन परम्परा के जिन जिन ग्रन्थो का ऊपर निर्देश किया है उनमे वस्तुतः पातंजल योगशास्त्र मे निरूपित चतुविध योग की प्रक्रिया का ही गन्दान्तर से अथवा परिभाषा के भेद ने निरूपण है । अतएव ऐसा कहा जा सकता है कि सभी ग्राव्यात्मिक साधनाएं किसी एक ही मूलगत प्रेरणा के आविर्भाव हैं ।
૨
विक्रम की आठवी नवी गती मे होनेवाले हरिभद्र को उपर्युक्त तथा अन्य भी अध्यात्म-विषयक विशाल साहित्य का उत्तराधिकार प्राप्त हुआ था, जिसके प्रमाण उनके अपने हो योग-विपयक मूल ग्रन्थ तथा स्वोपज्ञ व्याख्याम्रो में से उपलब्ध होते हैं। हरिभद्र के पास केवल साहित्यिक उत्तराधिकार ही था ऐसा भी नही है । उनके योग-विषयक विविध विचार और प्रतिपादन के ऊपर से ऐसा निशंक प्रतीत होता है कि वे योगमार्ग के अनुभवी भी थे। इसीने उन्होंने स्वानुभव तथा साहित्यिक विरासत के बल पर योग विषय से सम्बद्ध ऐसी कृतियो की रचना की है, जो योग-परम्पराविषयक ग्रान तक के ज्ञात साहित्य में अनोखी विशेषता रखती है । तत्त्वज्ञान विषयक अपने ग्रन्थो में उन्होंने तुलना एवं बहुमानवृत्ति द्वारा जो समत्व दर्शाया है उस समत्व की पराकाष्टा तो उनके योग-विषयक ग्रन्थों मे प्रकट होती है । इसके अतिरिक्त उनके योग-ग्रन्थों में दो मुद्दे ऐसे बाते है जो उनको छोड़कर अन्य किसी की भी कृति में मैंने वैने स्पष्ट नही देखे । उनमे से पहला मुद्दा है : अपनी परम्परा को भी अभिनव दृष्टि का कदुआ घंटे पिला कर उसे सबल और सचेतन बनाना, और दूसरा मुद्दा है : भिन्न-भिन्न पंथी और सम्प्रदायों के बीच संकीर्ण दृष्टि के कारण, अपूर्ण अभ्यास के कारण तथा परिभाषाभेद को लेकर उत्पन्न होनेवाली गलतफहमी के कारण जो ग्रन्तर चला आता था और उनका संवर्धन एवं पोषण होता रहता था उसे दूर करने का यथागक्ति प्रयत्न । हरिभद्र की इस विशेषता का मूल्याकन करने के लिए उनके चार ग्रन्थों का विहंगावलोकन करना यहाँ उपयुक्त होगा । उनके इन चार ग्रन्थो मे से दो प्राकृत भाषा में है, तो दूसरे दो संस्कृत में हैं । प्राकृत भाषा में लिखित योगविगिका और योगशतक मुख्य ने जैन परम्परा की आचार-विचार प्रणालिका का अवलम्वन
लिखे गये हैं, परन्तु ऐसा लगता है कि उन कृतियों के द्वारा जेनपरम्परा के मानन को विशेष उदार बनाने का उनका श्रामय होगा । इसीने उन्होने योगविकासपरा में प्रचलित वन्दन जेमी दैनिक क्रिया का आश्रय लेकर
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योग-परम्परा में प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता उसमे ज्ञानयोग, कर्मयोग तथा प्रीति, भक्ति आदि तत्त्व, जो कि इतर योग-परम्परा मे बहुत प्रसिद्ध है, घटाये है। इतना ही नहीं, उन्होंने रूढिवादियो को यह भी सुना दिया है कि बहुजनसम्मति होना सच्चे धर्म अथवा तीर्थ का लक्षण नहीं है। सच्चा धर्म और सच्चा तीर्थ तो किसी एक मनुप्य को विवेकदृष्टि मे होता है। ऐसा कहकर उन्होंने लोकसंजा अथवा 'महाजनो येन गत स पन्था ' का प्रतिवाद किया है ।२५ यह एक प्राध्यात्मिक निर्भयता है।
योगशतक योगशतक मे जैनो के धार्मिक जीवन को लक्ष्य मे रखकर विचार किया गया है । जिस प्रकार वैदिक-परम्परा मे ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ एवं संन्यास ये चार श्राश्रम है, उसी प्रकार यथार्थ जैन-जीवन के चार क्रम-विकासी विभाग है। जैनत्व जाति से, अनुवंग से अथवा किसी प्रवृत्तिविशेष से नही माना गया है, परन्तु वह तो आध्यात्मिकता की भूमिका के अपर निर्भर है। जब किसी व्यक्ति की दृष्टि मोक्षाभिमुख होती है तब वह जैनत्व की प्रथम भूमिका है । इसका पारिभाषिक नाम अपुनर्वन्धक है। मोक्ष के प्रति सहज श्रद्धा-रुचि और उसकी यथाशक्ति समझ-यह सम्यग्दृष्टि नाम की दूसरी भूमिका है। जब वह श्रद्धा-रुचि एवं समझ
आंशिक रूप से जीवन मे उतरती है तब देशविरति नाम की तीसरी भूमिका होती है। इससे आगे जब सम्पूर्ण रूप से चारित्र अथवा त्याग की कला विकसित होने लगती है, तव सर्वविरति नाम की चौथी और अन्तिम भूमिका पाती है । इन चार भूमिकाग्रो मे साधक क्या करे, क्या सोचे और आगे प्रगति करने के लिए क्या प्रयत्न करे--यह योगशतक मे प्रतिपादित है। एक तरह से जैन परिभाषा मे जैन-परम्परा मे चला पानेवाला यह वर्णन है, जैसा कि इतर परम्पराओ के योग-ग्रन्थों मे उस-उस परम्परा की परिभाषा मे चला पाने वाला वर्णन मिलता है । अतः योगविंशिका एवं योगशतक इन दो ग्रन्थो के बारे मे इतना कहा जा सकता है कि इनकी रचना जैनपरम्परा के ढाचे पर हुई है, परन्तु हरिभद्र की जो असली सूझ है वह इन साम्प्रदायिक समझे जा सके ऐसे ग्रन्थो मे भी आये बिना नही रही। इनमे से दो-तीन बातो का निर्देश यहा पर्याप्त समझा जायगा।
हरिभद्र कहते है कि जिसने अभी धर्म की सच्ची भूमिका का स्पर्श नहीं किया और जो केवल उस ओर अभिमुख है, वैसे प्रथम अधिकारी को लोक और समाज के बीच रहकर प्राचरण करने योग्य धर्म का उपदेश देना चाहिए, जिससे वह लौकिक
२५ 'मूत्तूण लोगसन्न'-योगविंशिका, १६
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समदर्शी श्राचार्य हरिभद्र
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धर्म से वंचित न हो। ऐसा कहकर वह गुरु, देव, अतिथि श्रादि के पूजा-सत्कार का तया दीनजनो को दान देने का विधान करते हैं । निवृत्ति की दिना में विशेष रूप से उन्मुख समाज में बहुत बार ऐसे प्रावश्यक धर्म की उपेक्षा होने लगती है । हरिभद्र ने शायद यह वस्तु तत्कालीन जैन समाज मे देखो और उन्हें लगा कि श्राव्यात्मिक माने जानेवाले निवृत्तिपरायण लोकोत्तर धर्म के नाम पर लौकिक वर्मो का उच्छेद कभी वांछनीय नही है । इसीलिए उन्होने समाज के धारक एवं पोपक सभी धर्मो का श्राचरण आवश्यक माना । वे जब गुरु, देव और अतिथि के चादर-मत्कार की बात कहते हैं, तब केवल जैन गुरु, जैन देव या जैन अतिथि को बात नही कहते । वे तो गुरु की बात विद्या, कला आदि विषयों को सिखाने वाले सभी गुरुवर्ग और मातापिता तथा अन्य प्राप्तजनो को उद्दिष्ट करके कहते हैं । इसी प्रकार देव की बात समाज में भिन्न-भिन्न वर्गों द्वारा पूजित सभी देवो को लक्ष्य मे रखकर करते हैं, तथा प्रतिथिवर्ग में वे सभी अतिथियो का समावेश करते हैं । वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में लौकिक धर्म सद्गुणपोपक और सद्गुणसंवर्धक बनते हैं। धीरे धीरे इन सद्गुणो के विकास के द्वारा लोकोत्तर धर्म अर्थात् श्राध्यात्मिकता के सच्चे विकास मे प्रवेश हो सकता है—यह बात उन्होने एक सरल दृष्टान्त द्वारा समझाई है । वे कहते हैं कि अरण्य में भूला पड़ा हुआ यात्री पगडण्डी मिलने से धीरे धीरे जैसे मुख्य मार्ग पर त्रा पहुँचता है, वैसे योग का प्रथम अधिकारी भी लोकधर्म का यथावत् पालन करते करते सुसंस्कार और विवेक को अभिवृद्धि से योग के मुख्य मार्ग मे प्रवेश करता है । २७ हरिभद्र से पहले ऐसा स्पष्ट विधान किसी जैनाचार्य ने शायद ही किया होगा ।
जैन-परम्परा अहिंसाप्रधान होने से उसका धार्मिक याचार ग्रहिंसा की नीव पर रचा गया है, परन्तु हिंसाविरमरण आदि पद अविकांगत. निवृत्तिसूचक होने से उनका भावात्मक पहलू उपेक्षित रहा है । हरिभद्र ने देखा कि हिसानिवृत्ति, असत्य - निवृत्ति आदि अणुव्रत या महाव्रत केवल निवृत्ति में ही पूर्ण नही होते, परन्तु उनका एक प्रवर्तक पहलू भी है । इसने उन्होंने जैन-परम्परा में प्रचलित हिंसा, अपरिग्रह जैमे व्रतो की भावना को पूर्ण रूप से व्यक्त करने के लिए मैत्री, करुणा श्रादि चार
२६. पढमस्स लोगघम्मे परपीडावज्जरणाइ श्रोहेण । गुरुदेवातिहिपुयाइ दोरगदारणाइ अहिगिच्च ॥
योगशतक, २५
२७ एवं चिय श्रवयारो नायइ मग्गम्मि हंदि एयस्स । रो पपन्नट्टो वट्टाए वट्टमोयरइ ॥
न्योगगतक, २६
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योग-परम्परा मे प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता
७५ भावनाओं के ऊपर भी भार दिया। अलबत्ता, ये भावनाएं योगसूत्र२८ और तत्त्वार्थाधिगमसूत्र मे२६ तो है ही, परन्तु इन भावनाओं के विकास का मुख्य श्रेय महायानी परम्परा को है। जिस प्रकार हरिभद्र अपने दूसरे अनेक ग्रन्थों मे महायानी आदि इतर परम्पराअो के द्वारा पोषित धर्म के प्रवर्तक सदंशों को स्वीकार करते हैं और उनमे से एक उत्तम रसायन तैयार करते है, वैसे ही उन्होने योगशतक मे भी उक्त मैत्री
आदि चार भावनाओं को गूंथकर ° निवृत्ति एवं प्रवृत्ति धर्म का परस्पर उपकार करनेवाला आध्यात्मिक रसायन तैयार किया हो, ऐसा प्रतीत होता है ।
हरिभद्र की तुलना-दृष्टि योगशतक मे भी देखी जाती है। उन्होने योग का लक्षण या स्वरूप तीन दृष्टियो से उपस्थित करके तुलना का द्वार खोल दिया है। योग श्रेय की सिद्धि का दीर्घतम धर्मव्यापार है। इसमे दो अंश है : एक निषेधरूप और दूसरा विधिरूप । क्लेशो का निवारण करना यह निषेधाश, इससे प्रकट होनेवाली शुद्धि के कारण चित्त की कुशलमार्ग मे ही प्रवृत्ति यह विवि-अंश। इन दोनों पहलुओं को अपने मे समेटने वाला धर्मव्यापार ही वस्तुत' पूर्ण योग है । परन्तु इस योग का स्वरूप पतंजलि ने 'चित्तवृत्तिनिरोध'३१ शब्द से मुख्यतया अभावात्मक सूचित किया है, जबकि वौद्ध-परम्परा ने 'कुशलचित्त की एकाग्रता या उपसम्पदा'३२ जैसे शब्दों के द्वारा प्रधान रूप से भावात्मक सूचित किया है। ऊपर-ऊपर से देखनेवाले को ये लक्षण कुछ विरोधी से प्रतीत हो सकते है, परन्तु वस्तुतः इनमे कोई भी विरोध नही है । एक ही वस्तु के दो पहलुओं को गौरण-मुख्यभाव से बतलाने के ये दो प्रयत्न हैमानो यह भाव सूचित करने के लिए ही हरिभद्र ने पातंजल और बौद्ध-परम्परा द्वारा मान्य दोनो लक्षणो का तुलना की दृष्टि से निर्देश किया है और अन्त मे जैनसम्मत लक्षण मे उपर्युक्त दोनो लक्षणों का दृष्टिभेद से समावेश सूचित किया है। यह
२८. योगसूत्र १.३३ २६. तत्त्वार्थसूत्र ७.६ ३०. अहवा अोहेण चिय मणियविहाणाप्रो चेव भावेज्जा ।
सत्ताइएसु मित्ताइए गुणे परमसविग्गो।। सत्तेसु ताव मेत्ति तहा पमोय गुणाहिएसुति । करुणामज्झत्थत्त किलिस्समारणाविणीएसु ॥
-योगशतक, ७८-६ ३१ योगश्चित्तवृत्तिनिरोध । __ -योगसूत्र १२ ३२. सव्वपापस्स प्रकरण कुसलस्स उपसपदा। सचित्तपरियोदपन एत बुद्धान सासन ।
-धम्मपद, १४५
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समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र लक्षण उन्होंने अपने सभी ग्रन्थो मे दिया है। उनका अभिप्रेत लक्षण ऐसा है जो धर्मव्यापार मोक्षतत्त्व के साथ सम्बन्ध जोडे वह योग 133 उनका यह लक्षण सर्वग्राही होने से उसमे निषेधात्मक और विधेयात्मक दोनो स्वरूप समा जाते है।
योगविंशिका वसुबन्धु ने विज्ञानवाद का निरूपण करने के लिए विशिका और प्रिंशिका जैसे ग्रन्थ लिखे है। जिसका परिमाण बीस पद्यका हो वह विशिका । हरिभद्र ने ऐसी रचनाओ का अनुकरण करके विशिकाएँ लिखी है । उन्होने वैसी वीस विशिकाएँ रची है और वे सब प्राकृत मे है। इन विशिकायो का संस्कृत छाया तथा अग्रेजी सार के साथ सम्पादन प्रो० अभ्य कर ने किया है। ये विशिकाएं कॉलेज के पाठ्यक्रम मे भी थी। इन बीस विशिकागो मे से योगविंशिका सत्रहवी है। इन सब विशिकाओं के ऊपर किसी विद्वान् ने टीका लिखी थी या नहीं यह अज्ञात है, परन्तु मात्र योगविशिका के ऊपर संस्कृत टीका मिलती है, जिसके रचयिता उपाध्याय श्री यशोविजयजी है। उन्होने अपनी एक गुजराती कृति मे 'जोजो जोगनी वीशी रे'३ ४ कहकर उसका सादर उल्लेख किया है । उन्होने योगविशिका के ऊपर जो संस्कृत टीका लिखी है वह उसके मूल हार्द को अत्यन्त स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करती है और प्रासंगिक चर्चा मे
३३ मुक्खेरण जोयणामो, जोगो सन्वो वि धम्मवावारो । परिसुद्धो विनेनी, ठाणाइगो विसेसेण ॥
-योगविशिका, १ अतस्त्वयोगो योगानां योग. पर उदाहृत । मोक्षयोजनभावेन सर्वसन्यासलक्षरण ॥
-योगदृष्टिसमुच्चय, ११ निच्छयो इह जोगो सन्नाणाईण तिण्ह सबधो । मोक्खेण जोयणामो निद्दिट्ठो जोगिनाहेहिं ।। ववहारो य एसो विनेग्रो एयकारणाण पि । जो सम्बन्धो सो वि य कारणकज्जोवयाराग्रो ।।
-योगशतक २ और ४ अध्यात्म भावना ध्यान समता वृत्तिसक्षय । मोक्षेण योजनाद् योग एप श्रेष्ठो यथोत्तरम् ।।
-योगविन्दु, ३१ पाचरात्रो के 'परमसहिता'-नामक ग्रन्थ मे भी 'योग' का अर्थ 'जोडना' किया है। देखो दासगुप्ता हिस्ट्री ऑफ इण्डियन फिलोसॉफी, भाग ३, पृ० २२ ।
जैन प्रागम मे समाधि के अर्थ मे भी योग शब्द का प्रयोग हुआ है, जैसे कि- 'वसे गुरुकुले निच्च जोगव उवहाणव'-उत्तराध्ययनसूत्र ११ १४ ॥
३४ देखो 'साडा त्रण सो गाथानु श्री सीमन्धर जिन स्तवन' ढाल १, कही ५।
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قاقا
योग-परम्परा मे प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता उपाध्यायजी अपनी तर्कशैलीका भी योग्य उपयोग करते है । समग्रतया यह टीका उक्त विशिका के ३५ अनुशीलन के लिए बहुत उपयोगी है।
योगशतक जिनभद्र के ध्यानशतक तथा पूज्यपाद के समाधिशतक जैसी शतपद्यपरिमाण रचनाओ का अनुकरण है। इसमे आये हुए १०१ पद्य आर्या छन्द मे हैं । १९२२ ई० मे मैंने जब इसका उल्लेख किया था उस समय वह उपलब्ध नहीं था। कुछ वर्ष पूर्व उसकी एक ताड़पत्रीय प्रति संशोधक विद्वान् मुनि श्री पुण्यविजयजी को मिली । उसके आधार पर उस ग्रन्थ का सम्पादन डॉ. इन्दुकला झवेरी ने किया है और वह गुजरात विद्यासभा ने १९५६ ई० मे प्रकाशित किया है । ६ मूल का अर्थ, तुलनात्मक विवेचन, महत्त्व के मुद्दो पर अनेक परिशिष्ट तथा विस्तृत प्रस्तावना के कारण यह सस्करण ग्रन्थ के हार्द को समझाने के साथ योगतत्त्व और योगसाहित्य के विषय मे बहुत सी जानकारी प्रस्तुत करता है ।
जब गुजराती विवेचन किया गया और प्रस्तुत व्याख्यान लिखे गये तब योगशतक की टीका का कोई पता न था, पर अभी हाल ही मे उसकी संस्कृत टीका उपलब्ध हुई है, जो स्वोपज्ञ है। वह है तो संक्षिप्त, किन्तु स्वोपज्ञ होने से बहुत महत्त्व की है। इसकी एकमात्र ताडपत्रीय प्रति माडवी (कच्छ) के खरतरगच्छीय ज्ञानभण्डार से प्राप्त हुई है । उसका लेखन-समय वि. सं. ११६५ है । उसका पोथी न० ३८ और प्रति नं० १३४ है । अभी वह टीका अमुद्रित है, परन्तु उसकी फोटोस्टेट कॉपी श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद में है। इसकी प्राप्ति का श्रेय मुख्यतया मुनि श्री पुण्यविजयजी को है।
३५. सटीक 'योगविशिका' का हिन्दी सार मैने अनेक वर्ष पहले लिखा था। वह पातजल योगदर्शन तथा हारिभद्री योगविशिका' नामक पुस्तक मे ई स १९२२ मे प्रकाशित हुआ है। उसमे 'योगविशिका के अतिरिक्त पातजल योगसूत्रो की उपाध्याय यशोविजयजी को सस्कृत वृत्ति भी हिन्दी सार के साथ छपी है। इसके अतिरिक्त इसका गुजराती विवेचन आचार्य ऋद्धिसागरजी ने किया है और वह 'योगानुभव सुखसागर तथा श्री हरिभद्रकृत योगविशिका' नाम की पुस्तक मे छपा है। यह पुस्तक श्रीमद् बुद्धिसागरसूरि जैन ज्ञानमन्दिर, वीजापुर (उत्तर गुजरात) ने प्रकाशित की है।
३६ इसका हिन्दी अनुवाद भी गुजरात विद्यासभा ने प्रकाशित किया है ।
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व्याख्यान पाँचवाँ योग-परम्परा में प्रा. हरिभद्र की विशेषता-२
आचार्य हरिभद्र ने योग-परम्परा मे कौन-कौनसा और कैसा कैसा वैशिष्ट्य लाने का प्रयत्न किया है इसके बारे मे चौथे व्याख्यान में उनके दो प्राकृत ग्रन्थो को लेकर संक्षेप मे संकेत किया गया है, परन्तु योगपरम्परा मे उनका असाधारण वैशिष्ट्यपूर्ण अर्पण तो उनके उपलव्य दो संस्कृत ग्रन्यो के द्वारा ही जाना जा सकता है । वे दो ग्रन्थ हैं : योगविन्दु और योगदृष्टिसमुच्चय । इन दो ग्रन्थो मे उन्होने योगतत्त्व का ही सागोपांग निरूपण किया है । उन्होने इन संस्कृत ग्रन्थो के अतिरिक्त भी दूसरे 'पोडशक' आदि अनेक प्रकरण-ग्रन्थों मे योगतत्त्व को थोड़ी-बहुत चर्चा तो की ही है, परन्तु प्रस्तुत दो ग्रन्थ उनकी योगचर्चा-विषयक छोटी-बड़ी सभी कृतियो से सर्वथा अलग से पडते है। इतना ही नहीं, उनके समय तक भिन्न-भिन्न धर्मपरम्पराअो ने योग-विपयक जो साहित्य रचा है और जो उपलब्ध है तथा जो मेरे देखने मे आया है, उस समग्र साहित्य की दृष्टि से भी हरिभद्र को प्रस्तुत दो कृतियो का खास निराला स्थान है । जैन और जैनेतर सभी ज्ञात परम्परागो की योग-विषयक कृतियो मे हरिभद्र की प्रस्तुत कृतियो का स्थान कुछ अनोखा है-ऐसा जब कहना हो तव उसके समर्थक थोड़े भी सवल आधारो का निरूपण करना ही चाहिए। इस विचार से इस अन्तिम और पंचम व्याख्यान मे वैसे आधारो की चर्चा करने का सोचा है।
प्राचीन जैन आगमो मे प्रतिपादित योग एव ध्यान विषयक समग्र विचारसरणी से तो हरिभद्र सुपरिचित थे ही, साथ ही वे सांख्य-योग, शैव-पाशुपत और बौद्ध आदि परम्पराओ के योग-विषयक प्रस्थानो से भी विशेष परिचित और जानकार थे। इससे उनके समय तक मे शायद ही दूसरे किसी को सूझा हो वैसा एक विचार उन्हे आया हो ऐसा मालूम होता है । वह विचार है : भिन्न भिन्न परम्पराओं मे योगतत्त्व के विषय में मात्र मौलिक समानता ही नही, किन्तु एकता भी है, ऐसा होने पर भी उन परम्परामो में परस्पर जो अन्तर माना या समझा जाता है उसका निवारण करना। हरिभद्र ने देखा कि सच्चा साधक चाहे जिस परम्परा का हो, उसका आध्यात्मिक विकास तो एक ही क्रम से होता है, उसके तारतम्ययुक्त सोपान अनेक
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योग- परम्परा में हरिभद्र की विशेषता
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सम्भव है, परन्तु विकास की दिशा तो एक ही होती है । अतएव भले ही उसका निरूपण भिन्न-भिन्न परिभाषाओं में हो श्रौर उसकी शैली भी भले ही भिन्न हो, परन्तु उस निरूपण का ग्रात्मा तो एक ही होगा । उनकी यह दृष्टि अनेक योगपरम्परात्रों के प्रतिष्ठित ग्रन्थों के पूर्ण और यथार्थ अवगाहन के फलस्वरूप बनी मालूम होती है । इसीलिए उन्होने निश्चय किया कि में ऐसे ग्रन्थ लिखूं जो सुलभ सभी योगशास्त्रों के दोहनरूप हों और जिनमे किसी एक ही सम्प्रदाय मे रूढ़ परिभाषा या शैली का प्राश्रय न लेकर नयी परिभाषा और नयी शैली की इस प्रकार आयोजना की जाय जिससे कि अभ्यस्त सभी योग परम्पराओ के योग-विषयक मन्तव्य किस तरह एक है अथवा एक-दूसरे के प्रतिनिकट है यह बतलाया जा सके और विभिन्न सम्प्रदायो मे योगतत्त्व के बारे मे जो पारस्परिक ज्ञान प्रवर्तमान हो उसे यथासम्भव दूर किया जा सके । ऐसे उदात्त ध्येय से उन्होने प्रस्तुत दो ग्रन्थो की रचना की है ।
हम उन्ही के उद्वारों में उनके इस उदात्त ध्येय को सुने -
अनेकयोगशास्त्रेभ्यः संक्षेपेरण समुद्धृत ।
दृष्टिभेदेन योगोऽयमात्मानुस्मृतये पर ॥ २०५ ॥ - योगदृष्टिसमुच्चय
सर्वेषां योगशास्त्राणामविरोधेन तत्त्वतः ।
सन्नीत्या स्थापकं चैव मध्यस्थांस्तद्विद. प्रति ॥ २ ॥ - योगबिन्दु
इस दूसरे श्लोक मे मध्यस्थ योगज्ञ को उद्दिष्ट करके कहा है कि योगबिन्दु सभी योगशास्त्रों का अविरोधी अथवा विसंवादरहित स्थापन करनेवाला एक प्रकरण है । इस कथन मे तीन बाते मुख्य हैं : (१) मध्यस्थ और वह भी योग । (२) सभी योगशास्त्रो का तात्त्विक दृष्टि मे अविरोध । इस कथन मे सम्भावित सभी योगशास्त्रो के हरिभद्र द्वारा अवगाहन किये जाने की सूचना है । ऐसा प्रवगाहन दूसरे किसी ने किया हो तो उसका ऐसा स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नही होता । यद्यपि सभी अच्छे शास्त्रों में समान विपयवाले ग्रन्थों का अवगाहन होता ही है, तथापि पातजल अथवा बौद्ध यदि कोई ऐसा योगशास्त्र नही है जिसमे लभ्य सर्व योगशास्त्रों का दोहन करके उनमे तात्त्विक रूप से अविरोध बतलाया गया हो अर्थात् तुलना की गई हो । ( ३ ) 'तत्त्वत.' और 'अविरोध' ये दो पद अर्थवाही हैं । शाब्दिक अथवा स्थूल विरोध महत्त्व का नही है, जो विरोध मूलगामी हो वही विरोध कहा जा सकता है। हरिभद्र कहते हैं कि योगशास्त्रो मे जो मूलगामी अविरोधी वस्तु है उसका यहाँ स्थापन किया गया है और वह भी योगज्ञ मध्यस्थो को लक्ष्य मे रखकर; दूसरे के लिए ऐसा स्थापन कार्य
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समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र साधक नही होता। उनका 'पक्षपातो न मे वीरे'' यह उद्गार स्वाभाविक है, जो यहाँ भी 'मध्यस्थ' पद से सूचित होता है ।
योगदृष्टिसमुच्चय और योगबिन्दु योगदृष्टिसमुच्चय मे २२८ पद्य है, जबकि योगबिन्दु में ५२७ पद्य हैं। ये सभी पद्य अनुष्टुप् छन्द मे है। योगदृष्टिसमुच्चय की व्याख्या संक्षिप्त है, परन्तु वह स्वोपज्ञ है; जबकि योगबिन्दु की व्याख्या स्वोपज्ञ होगी तो भी वह ज्ञात नही है और जो व्याख्या उपलब्ध है वह अन्यकर्तृक है । यद्यपि उसके कर्ता का नाम अज्ञात है, लेकिन समुच्चय रूप से देखने पर वह व्याख्या बहुत स्पष्ट है । अलबत्ता, उसमे मूल ग्रन्थ का प्राशय समझाने का ठीक ठीक प्रयत्न देखा जाता है, फिर भी उसमे कही कही सम्प्रदाय की छाप दिखाई पड़ती है।
आत्मा, चेतन, जीव या चित्त तत्त्व का चेतना के रूप मे स्वतंत्र अस्तित्व, उसकी साहजिक शुद्धि और फिर भी क्लेश एवं अज्ञान की वृत्तियों से शुद्धि का प्रावरण, इस आवरण के क्रमिक ह्रास द्वारा अन्त मे पूर्ण क्षय की शक्यता तथा उसी ह्रासक्रम मे शुद्धि का विकासक्रम, आवरणो के निवर्तक एवं विकासक्रम के साधक अनेक उपायो का जीवन मे अनुभव तथा उसकी कार्यक्षमता-ये योगतत्त्व अथवा अध्यात्मसाधना के मूलभूत सिद्धान्त है । इन सिद्धान्तों के बारे मे किसी भी योग-परम्परा की विप्रतिपत्ति या मत-विरोध नही है, फिर भले ही उनके ब्योरे मे कही मतभेद देखा जाता हो । इसीलिए हरिभद्र ने इन मौलिक-तत्त्वो को केन्द्र मे रखकर उनकी अपनी कही जा सके ऐसी परिभापा की योजना की है और इसीके फलस्वरूप उनकी निरूपणशैली भी उन्ही की अपनी बन पडी है । विशेषता तो यह है कि दोनो ग्रन्थो मे भी उन्होने एक ही परिभापा नही अपनाई। ऐसा लगता है कि उनके मन मे योगतत्त्व का एक ऐसा अनुभव-रसायन तैयार हुआ था, जो भिन्न-भिन्न ग्रन्थो मे भिन्न-भिन्न प्रकार मे व्यक्त हुए विना रह ही नही सकता था।
१ पक्षपातो न वीरे न द्वैप कपिलादिषु ।
युक्तिमद्वचन यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ ३८ ॥ -लोकतत्त्वनिर्णय इसके साथ तुलना करोअपि पौरुषमादेय शास्त्र युक्तिवोधकम् । अन्यत्त्वार्पमपि त्याज्य भाव्यं न्याय्यकसेविना ॥२॥ युक्तियुक्तमुपादेय वचन बालकादपि । अन्यत्तगामिव त्याज्यमप्युक्त पधजन्मना ॥ ३ ॥
-योगवासिष्ठ, प्रकरण २, अध्याय १५
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योग-परम्परा मे हरिभद्र की विशेषता योगदृष्टिममुच्चय मे योग-विकास के क्रम से सम्बन्ध रखनेवाली पहली परिभाषा तीन विभागों मे दी गई है : (१) इच्छायोग (२) शास्त्रयोग और (३) सामर्थ्य - योग । इसके पश्चात् आगे जाकर इस योगतत्त्व का निरूपण पाठ दृष्टियों अथवा बोध के आठ प्रकार के तारतम्ययुक्त चढा-उतरी के क्रम मे किया गया है, जब कि योगविन्दु में योगतत्त्व को पांच भागो मे विभक्त करके उसका सम्पूर्ण चित्र उपस्थित किया गया है। दोनो ग्रन्थो की परिभाषा को समझाते समय उस-उस योग-भूमिका से सम्बद्ध आवश्यक सभी बातें उन्होंने दी है । इन बातों का निर्देश करते समय उन्होने खास ध्यान यह रखा है कि उस मुद्दे के विषय मे भिन्न-भिन्न योग-परम्परा के प्राचार्य किस तरह एकमत है और वे सब शब्दभेद से किस तरह एक ही वस्तु कहते है। सांख्य-योग, शैव-पाशुपत, बौद्ध और जैन- इतनी परम्परागों के योगाचार्य और उनके अनेक ग्रन्थ हरिभद्र की दृष्टि के समक्ष थे ही। हरिभद्र प्रसिद्ध योगसूत्रकार पतंजलि को भगवान् पतंजलि कहते हैं, जो कि एक साख्य योगाचार्य हैं । वे भास्करबन्धु का भदन्त के नाम से निर्देश करते है, जिससे ज्ञात होता है कि वे बौद्धाचार्य होगे। भगवइत्त के नाम से निर्दिष्ट आचार्य सम्भवतःशैव या पाशुपत होने चाहिए। वे गोपेन्द्र के वचन का बहुमानपूर्वक उल्लेख करते है और उस स्थान पर कहते है कि मै जो वस्तु
कर्तुमिच्छोः श्रुतार्थस्य ज्ञानिनोऽपि प्रमादतः। विकलो धर्मयोगो य. स इच्छायोग उच्यते ॥ शास्त्रयोगस्त्विह ज्ञेयो यथाशक्त्यप्रमादिन । श्राद्धस्य तीव्रवोधेन वचसाऽविकलस्तथा । शास्त्रसन्दर्शितोपायस्तदतिक्रान्तगोचरः शक्त्युद्रेकाद्विशेपेण सामर्थ्याख्योऽयमुत्तम ॥
-~योगदृष्टिसमुच्चय, ३-५ मित्रा तारा बला दीप्रा स्थिरा कान्ता प्रभा परा। नामानि योगदृष्टीना लक्षण च निबोधत ।।
योगदृष्टिसमुच्चय, १३ अध्यात्म भावना ध्यान समता वृत्तिसक्षय । मोक्षेण योजनाद् योग एप श्रेष्ठो यथोत्तरम् ।।
-योगविन्दु, ३१ ५. सता मुनीना भगवत्पतजलिभदन्तभास्क रवन्धुभगवद्दत्तादीना योगिनामित्यर्थ ।
-योगदृष्टिसमुच्चयटीका, १६
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समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र कहना चाहता हूँ वही वस्तु गोपेन्द्र भी कहते है । गोपेन्द्र के कथन के उद्धरण पर मे । यह तो निश्चित है कि वे एक माख्य-योगाचार्य है । हरिभद्र के ग्रन्थ के अतिरिक्त दूसरे किसी आवार ने इन साख्याचार्य का नाम अथवा अवतरण आज तक ज्ञात नहीं है । कालातीत' नामक एक अन्य योगाचार्य का भी उन्होने निर्देश किया है और उनका वचन उद्धृत करके अपने विचार के साथ उसकी तुलना भी की है। कालातीत किस परम्परा के होगे यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, परन्तु 'अतीत' शब्द का सम्बन्ध देखने से गायद वे शैव, पाशुपत अथवा अवधूत जैसी किसी परम्परा के होगे, ऐसी कल्पना होती है । उन्होने एक स्थान पर 'समाधिराज ८ पद का उल्लेख किया है । 'समाधि' के साथ 'राज' पद को देखकर उसके अज्ञात टीकाकार को ऐमा भासित हुया कि 'समाधिराज' अर्थात् सव समाधियो मे अन्तिम और मुकुट के जेसी प्रधान समाधि। परन्तु उपलब्ध योग-साहित्य के स्वल्प परिचय से मुझे ऐसा जात होता है कि हरिभद्र द्वारा प्रयुक्त 'समाधिराज' पद एक ग्रन्थविशेष का वोवक है । वह ग्रन्थ 'समाधिराज' के नाम से प्रसिद्ध है तथा अतिप्राचीन है। इस ग्रन्थ का तथा इसकी प्राप्ति का इतिहास अत्यन्त रोमाचक है । यह ग्रन्थ कनिष्क के समय जितना तो प्राचीन है ही। चीनी भाषा मे भिन्न-भिन्न समय मे इसके तीन अनुवाद हुए हैं और वे मिलते भी है। इसका चौथा अनुवाद भोट-भापा मे हुआ है । मूल ग्रन्थ परिमाण में छोटा था, परन्तु धीरे-धीरे वह बढ़ता गया है । भोट-भापा मे जो अनुवाद है वह तो मूल
तथा चान्यरपि ह्येतद्योगमार्गकृतश्रमं । मगीतमुक्तिभेदेन यद् गौपेन्द्रमिद वच ॥ अनिवृत्ताधिकाराया प्रकृतौ सर्वथैव हि । न पुमस्तत्त्वमार्गेऽम्मिजिज्ञासाऽपि प्रवर्तते ।।
-योगविन्दु, १००-१ माध्यस्थ्यमवलम्व्यवमंदम्पर्यव्यपेक्षया । तत्त्व निल्पणीय स्यात् कालातीतोऽप्यदोऽब्रवीत्।।
-योगविन्दु, ३०० समाधिराज इत्येतत् तदेतत्तत्त्वदर्शनम् ।
अाग्रहच्छेदकार्येतत् तदेतदमृतं परम् ।। योगविन्दु ४५६ है 'समाधिराज प्रधान समाधि.'-योगविन्दुटीका, ४५६
योगविन्दु ( श्लोक ४५८ ) मे नरात्म्यदर्शन मे मुक्ति माननेवाले किसी अन्य की चर्चा के प्रमग मे 'समाधिराज' (श्लोक ४५९) का उल्लेख आता है, अत वहाँ 'समाधिराज' अन्य ही हरिभद्र को विवक्षित है। 'समाधिराज' मे नैरात्म्यदर्शनकी चर्चा है। देखो 'समाविराज' परिवर्त ७, श्लोक २५-२६ ।
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योग - परम्परा में हरिभद्र की विशेषता
ग्रन्थ के अन्तिम परिवर्धित संस्करण का अनुवाद है । यह अन्तिम परिवर्धित 'समाधिराज' नेपाल मे मूल रूप मे ही मिलता है । इसकी भाषा संस्कृत है, परन्तु 'ललित - विस्तर' र 'महावस्तु' आदि ग्रन्थो मे प्रयुक्त भाषा की तरह संस्कृत - प्राकृत मिश्र है । यह ग्रन्थ भारत मे तो उपलब्ध नही था, परन्तु गिलगिट के प्रदेश मे से एक चरवाहे के लडके को भेड बकरी चराते समय वह, दूसरे कई ग्रन्थो के साथ, मिला था । इन ग्रन्थो का सम्पादन कलकत्ता विश्वविद्यालय के सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ. नलिनादत्त ने किया है और विस्तृत भूमिका भी अंग्रेजी मे दी है। चीन और तिब्बत मे इस ग्रन्थ का पहले ही से जाना, वहा उसकी प्रतिष्ठा जमना, काश्मीर के एक प्रदेश मे से उसकी प्राप्ति, कनिष्क के समय तक हुई तीन धर्म संगीतियो का उसमे निर्देश, उसमे प्रयुक्त प्राकृतमिश्रित संस्कृत भाषा तथा उसमे लिया गया शून्यवाद का आश्रय - यह सब देखने पर ऐसा अनुमान होता है कि यह 'समाधिराज' काश्मीर के किसी प्रदेश मे नही तो फिर पश्चिमोत्तर भारत के किसी भाग मे रचा गया होगा ।
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समाधिराज की प्रतिष्ठा और प्रचार ऐसा होगा कि हरिभद्र के जैसे जैनाचार्य का ध्यान भी उसकी ओर आकर्षित हुआ । हरिभद्र जब सब योगशास्त्रो के आकलन की बात कहते हैं, तब उपर्युक्त कई योगाचार्यों के नाम तथा कई अज्ञात ग्रन्थो के निर्देश उनके इस कथन की यथार्थता सिद्ध करते हैं । एक हरिभद्र ही ऐसे है जिनके योग-विषयक इन दो ग्रन्थो में, अन्य किसी के योग-ग्रन्थ मे उपलब्ध न हो वैसी, ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक सामग्री मिलती है ।
जीवन के दो प्रवाह : एक भोग और दूसरा योग । प्राणिमात्र मे जो बहिर्मुख इन्द्रियानुसरणवृत्ति है उसका अनुसरण करना अनुस्रोतोवृत्ति अथवा भोगप्रवाह है, जब कि वैसी वृत्ति से उल्टी दिशा मे अन्तर्मुख होकर प्रयत्न करना योग अथवा प्रतिस्रोतोवृत्ति है । इन दो प्रवाहो या वृत्तियो के बीच की सीमा ऐसी होती है जिसमें साधक क्षरण मे भोगाभिमुख और क्षरण मे योगाभिमुख भी बनता है । योगाभिमुखता सच्चे अर्थ मे सिद्ध करनी हो तो अनेक उपायो का अवलम्बन लेना पडता है । उनमे से एक उपाय है वैराग्य । सामान्यतः वैराग्य एक ग्रावश्यक उपाय माना गया है, फिर भी उसकी समझ के बारे मे तारतम्य रहा ही है और उसके कारण वैराग्य को प्राचरण मे उतारने के अनेक मार्ग भी खोजे गये हैं । आँख, कान श्रादि इन्द्रियों को चाकपित करने वाले स्त्री, पुत्र, धन आदि है, तो इन आकर्षक पदार्थो का परित्याग ही वैराग्य है- ऐसी समझ मे से घर-बार तथा धन-धान्य आदि के त्याग का मार्ग शुरू हुआ । ऐसे त्याग के लिए उन-उन आकर्षक पदार्थों मे अनेक दोपो की कल्पना की
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समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र गई और उस विषय का अकल्प्य और बहुत बार तो प्रतिक्रिया पैदा करे ऐसा विशाल साहित्य रचा गया। इस तरह का साहित्य सभी भारतीय त्याग-प्रधान परम्परागो मे है। इसके विरुद्ध वैराग्य के बारे मे एक दूसरा विचार ऐसा पैदा हुया कि तथाकथित आकर्षक पदार्थों का परित्याग किया जाय अथवा उनमे फंसने वाली नेत्र आदि इन्द्रियो को रोका जाय, तो भी मन मे उन पदार्थों की स्मृति होने पर राग उत्पन्न होगा ही, और यदि राग हो तो प्रतिकूल पदार्थों मे देष का आविर्भाव अनिवार्य है। अत. बाह्य पदार्थो के मात्र त्याग से वैराग्य सिद्ध नही हो सकता। इस विचार ने अनेक साधको को प्रेरित किया। उनमे से कतिपय साधको ने मनोजय करने के लिए मन को मारने का सावन ढूंढ निकाला। वह साधन यानी येन केन प्रकारेण मन को कुण्ठित अथवा निष्क्रिय बनाना। इसके लिए हठयोग मे कुछ प्रणालिकाएँ भी दाखिल हुईं तथा अबूझ साधको ने भावावेश मे आकर मादक पेय एवं खाद्याखाद्य के विवेकशून्य उपयोग का भी
आश्रय लिया । यह प्रथा भी चल पडी और इस समय भी सर्वथा बन्द हुई है ऐसा कह नहीं सकते, परन्तु विशेष विचारक साधको ने देखा और कहा कि मन को मारने का अर्थ उसे कुण्ठित या निष्क्रिय बनाना नहीं है, किन्तु उस मन को गतिशील रखकर उसमे राग, द्वेष एवं अज्ञान के जो मल और उनके जो स्तर जमे हो उन्हें दूर करना
और उन मलों से आवृत चित्त की अथवा जीवन की विशुद्ध शक्तियो को उद्बुद्ध करके उन्हें ऊर्ध्वगामी मार्ग की ओर प्रेरित करना- यही सच्चा अर्थात् परवैराग्य है । हरिभद्र ऐसे परवैराग्य के पूर्ण समर्थक हैं, इसलिए उनके प्रस्तुत दो ग्रन्थो मे न तो आकर्षक स्त्री, पुत्र आदि का दोप-दर्शन देखा जाता है और न मन को निष्क्रिय करने का एक भी सूचन है । उन्होने तो परवैराग्य को ध्यान मे रखकर इन दोनो ग्रन्थो मे योगतत्त्व की अपनी रूपरेखा उपस्थित की है।
__ योगदृष्टिसमुच्चय में उन्होने वैसी रूपरेखा का निर्देश दो तरह से किया है : पहली इच्छायोग, शास्त्रयोग एवं सामर्थ्य योग के रूप में तथा दूसरी मित्रा, तारा, बला, दीपा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा जैसी आठ दृष्टियो के रूप मे'१। पहली रूपरेखा संक्षिप्त है । उसके द्वारा हरिभद्र कहते है कि योगतत्त्व की ओर अभिमुख होना- यह प्रथम सोपान यानी इच्छायोग है । आध्यात्मिक वृत्ति को जीवन में उतारने के लिए अनुभवी योगियो के वचन का अथवा उनके साक्षात् उपदेश का सहारा लेना- यह द्वितीय सोपान यानी शास्त्रयोग है। अनुभवी के निर्देशन तथा अपने उत्साह
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१०. 'योगदृप्टिसमुच्चय' ३-५1 ११. वही, १३ ।
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योग-परम्परा में हरिभद्र की विशेषता
८५ एवं पुरुषार्थ के द्वारा स्वाधीन सामर्थ्य आत्मसात् करना- यह तृतीय सोपान अर्थात् सामर्थ्य योग है । इस तीसरे योग मे पहुँचनेवाला फिर शास्त्रयोग अथवा परावलम्बन की अपेक्षा नही रखता। इसका अर्थ यह नही है कि शास्त्रयोग उपयोगी नही है। इसका अर्थ इतना ही है कि वह सामर्थ्य योग की भाति अतीन्द्रिय आध्यात्मिक वस्तुओं की प्रतीति पूर्णतया और विशेष रूप से नहीं करा सकता, परन्तु वैसे सामर्थ्य योग मे प्रवेश पाने की प्रारम्भिक तैयारी के समय उसका भी उसकी निश्चित मर्यादा मे अधिकारीविशेष के लिए उपयोग है ही। श्री अरविन्द ने Synthesis of Yoga नामक अपनी पुस्तक के Four Aids नाम के प्रथम प्रकरण मे 'शब्दब्रह्माऽतिवर्तते' की जो बात कही है और जिसका महाभारत एवं उपनिषद् मे भी निर्देश है, वही बात हरिभद्र ने 'सामर्थ्य योग' शब्द से सूचित की है।
___ यह हुई संक्षिप्त रूपरेखा । परन्तु हरिभद्र ने इस रूपरेखा का विशेष विस्तार आठ दृष्टि के निरूपण के द्वारा किया है । दृष्टि अर्थात् तत्त्वलक्षी बोध । ऐसा बोध एकाएक पूर्ण रूप से शायद ही किसी व्यक्ति में प्रकट होता हो । पूर्ण कला पर पहुँचने से पूर्व उसे असंख्य भूमिकाओं मे से गुजरना पड़ता है। इनमे से अन्तिम भूमिका का परादृष्टि के नाम से निर्देश करके और इसके पहले की असंख्य भूमिकाओं को सात भागो मे विभक्त करके उन्होने उनका सात दृष्टि के रूप मे वर्णन किया है । इन आठ दृष्टियों में से भी पहली चार तो एक तरह से भोग और योग की सीमा जैसी हैं, जब कि अन्तिम चार योग की पक्की नीव जमने के बाद की हैं। पहली चार का निर्देश उन्होने 'अवेद्यसंवेद्य' पद से किया है, जब कि दूसरी चार का उल्लेख 'वेद्यसंवेद्य' पद से किया है ।'२ हरिभद्र कहते हैं कि योगतत्त्व के मूल सिद्धान्त रूप जो चेतन के स्वतंत्र अस्तित्व आदि तत्त्व हैं वे अतीन्द्रिय है। इनका अटल निश्चय मात्र शास्त्रश्रवण जैसे उपायो से भी सुसाध्य नहीं है। इसके लिए साधक को सत्समागम, शास्त्रश्रवण जैसे मार्गों के अतिरिक्त स्वयं ऊह या गहरा मनन करना आवश्यक है। जब तक उन अतीन्द्रिय तत्त्वो की पक्की प्रतीति न हो, तब तक साधक, योग की दिशा मे हो तो भी, वेद्यसंवेद्य पद को न जानने से अवेद्यसंवेद्य पद की भूमिका मे है, परन्तु जब उसे अपने स्वतंत्र चैतन्य आदि अतीन्द्रिय तत्त्वों की अक्षोभ्य प्रतीति होती है तब वह वेद्यसंवेद्य पद की भूमिका मे आता है। इस प्रकार उन्होने योग की पक्व भूमिका तथा उसके पहले की अपक्व अथवा अस्थिर भूमिका का निरूपण तो किया, परन्तु उनके समक्ष मूल प्रश्न तो यह है कि भोगाभिमुखता से पराड्मुख होने की प्रारम्भिक स्थिति से लेकर - १२. 'योगदृष्टिसमुच्चय' श्लोक ७० की टीका ।
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समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र उसके विकास की अगली सभी भूमिकामो के तारतम्य का मूल कारण क्या है ? इन कारणो का निरूपण ही योग-दृष्टियो के निरूपण का हार्द है ।
___शारीरिक एवं प्राणमय जीवन के अभ्यास के कारण चेतन अपने सहज समत्वकेन्द्र का परित्याग करता है और वह वैसे जीवनोपयोगी अन्य पदार्थों में अपने अस्तित्व का आरोपण करने लगता है । यह उसका स्वयं अपने बारे में गोह या अज्ञान है। यह अज्ञान ही उसे समत्व-केन्द्र मे से च्युत करके इतर परिमित वस्तुप्रो मे रस लेने वाला बना देता है । यह रस ही राग-द्वेप जैसे क्लेशो का प्रेरक तत्त्व है। इस तरह चेतन या चित्त का वृत्तिचक्र अज्ञान एवं क्लेशो के आवरण से इतना अधिक प्रावृत एवं अवरुद्ध हो जाता है कि उसके कारण जीवन प्रवाह-पतित ही बना रहता है । अनेक ज्ञात-अज्ञात वलो से जब इस अनुस्रोतोवृत्ति का भेदन होता है तब चेतन समत्वकेन्द्र की ओर अभिमुख होता है । जितने परिमाण मे वह समत्व-केन्द्र की ओर प्रगति करता है उतने परिमाण मे उसका क्लेशमल क्षीण होता जाता है, और जैसे-जैसे क्लेश-मल क्षीण होता जाता है वैसे-वैसे वह अज्ञान को भी दुर्बल बनाता जाता है। यह हुई प्रतिस्रोतोवृत्ति । अज्ञान, अविद्या अथवा मोह, जिसे ज्ञेयावरण भी कहते हैं, वस्तुत. चेतनगत समत्व-केन्द्र को ही आवृत करता है, जब कि उसमे से पैदा होनेवाला क्लेशचक्र बाह्य वस्तुप्रो मे ही प्रवृत्त रहता है । अज्ञान एवं उससे पोपित क्लेशचक्रका वढता जानेवाला ह्रास- यही ऊपर सूचित भूमिकाओ के तारतम्य का कारण है । हरिभद्र इसी को जैन परिभाषा में योग्यताभेद अथवा क्षयोपशमविशेप कहते हैं । ऐसे योग्यताभेदको समझाने के लिए उन्होने कई दृष्टान्त देकर यह बतलाया है कि एक ही दृश्यको एक ही द्रष्टा परिस्थितिवश, स्वातंत्र्य-पारतंत्र्यवश, उम्रकी भिन्नता के कारण अथवा इन्द्रियवैगुण्यकी वजह से किस प्रकार अनेकरूप देखता है । हरिभद्र की यह दृष्टान्त-योजना बाह्य इन्द्रिय के प्रदेश तक सीमित है, परन्तु उसके द्वारा उन्होने आध्यात्मिक ज्ञान एवं अज्ञान का तारतम्य कैसे होता है यह सूचित किया है।
हरिभद्रके ये दृष्टान्त सब समझ सके ऐसे और रोचक भी हैं । कोई द्रष्टा समीपस्थ दृश्य पदार्थ को मेघाच्छन्न अथवा मेघशून्य रात्रि मे देखे, बादल से घिरे हुए १३ 'योगदृष्टिसमुच्चय' मे
समेघामेघराश्यादौ सग्रहाद्यर्भकादिवत् ।
ओघदृष्टिरिह ज्ञेया मिथ्यादृष्टीतराश्रया ॥१४॥ इस प्रकार हरिभद्र ने दर्शनभेद समझाने के लिए आगम, भाष्य, चूणि आदि जैन“शास्त्रीय परम्परा मे प्रसिद्ध मेघावृत और मेघानावृत चन्द्र-सूर्य-के दृष्टान्तोका विस्तार करके मित्रा आदि आठ दृष्टियो का निरूपण किया है। बौद्ध परम्परामे इसी तरह मेघावृत और
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योग-परम्परा मे हरिभद्र की विशेषता अथवा बादलरहित दिन के समय, देखे, चित्तभ्रम की स्थिति मे अथवा उससे मुक्त दशा मे देखे, बाल्य अथवा वैसी अपक्व आयु मे या परिपक्वावस्था मे देखे, वही द्रष्टा पीलिया या वैसे किसी रोग से ग्रस्न नेत्रों से अथवा नीरोग नेत्रो से देखे, तो उस दृश्य के एवं द्रष्टा के एक होने पर भी उसके दर्शन मे अनेकविध तारतम्य होता है । इसी प्रकार जीव वही का वही होता है, और उसका जीवन या प्रवृत्तिक्षेत्र भी वही का वही होता है, फिर भी उस पर के ज्ञेयावरण एवं क्लेशावरण की तीव्रता-मन्दता के तारतम्य के कारण उसके आन्तरिक दर्शन मे तारतम्य आता है और वही तारतम्य, मतभेद अथवा विचारभेद का बीज होने से अन्त मे दर्शनभेद मे परिणत होता है। हरिभद्र कहते हैं कि ऐसा दर्शनभेद अनिवार्य है। इस अनिवार्यता के होते हुए भी उसमे चार भूमिकामो तक दृढ अभिनिवेश रहता है, जिसके फलस्वरूप विवाद एवं कुतर्क चला करते है; परन्तु पाँचवी भूमिका या स्थिरा दृष्टि से लेकर आगे की भूमिकाओं मे मेघानावृत चंद्र-सूर्य के दृष्टान्त द्वारा क्लिष्ट-अक्लिष्ट प्रज्ञारूप आठ दृष्टियो का निरूपण आता है, जो वसुबन्धुके सभाष्य 'अभिधर्मकोष' तथा अज्ञातकर्तृक 'अभिधर्मदीप' एवं उसकी विभापाप्रभा नाम की वृत्ति मे है । यह तुलना आध्यात्मिक चिन्तन के पुरातन स्तर की सूचक है । - जैन एव बौद्ध ग्रन्थो के सूचक उद्धरण नीचे दिये जाते है
अक्खरस्स प्रणतो भागो निच्चुग्धाडिलो, जइ- पुण सो वि आवरिज्जा तेण जीवो अजीवत्तण पाविज्जा । सुठु वि मेहसमुदए होइ पभा चदसूराण ।
-नन्दीसूत्र सू ४३ (मलयगिरि-टीका वाली प्रावृत्ति, पृ १६५)। सो पुण सव्वजहन्नो चेयण्ण नावरिज्जइ कयाइ । उक्कोसावरणम्मि वि जलयच्छन्नक्कभासो व्व ॥४६८।।
-विशेषावश्यकभाष्य । इनके अतिरिक्त देखो 'प्रावश्यकचूरिण' पत्र ३० व । 'अभिधर्मकोष' १ ४१ के भाष्य मे":"समेघामेघरात्रिंदिवरूपदर्शनवत् क्लिष्टाक्लिष्टलौकिकीशैक्ष्यशक्षीभिदृ ष्टिभिर्धर्मदर्शनम् । 'अभिधर्मदीप' १४३ एव उस की विभाषाप्रभा नामकी टीका मे
समेघामेघराश्यहोर्दश्य चक्षुर्यथेक्षते ।
क्लिष्टाविलष्टदृशौ तद्वच्छैक्षाशैक्षे च पश्यत ॥ यथा समेघाया तिमिरपटलावगुण्ठितचन्द्रनक्षत्रचक्रप्राया रजन्या रूपाणि दृश्यन्ते तथा क्लिष्टा पञ्चदण्टयो ज्ञेय पश्यन्ति । यथा तु विगतरजासि निशाकरकिरणाशुकावगुण्ठिताया त्रियामाया रूपाणि दृश्यन्ते, तथा लौकिकी सम्यग्दृष्टि पश्यति । यथा तु मेघपटलावगुण्ठिते दिवाकरकिरणानुद्भासिते दिवसे रूपाणि दृश्यन्ते, तद्वच्छैक्षी दृष्टि पश्यति । यथा तु द्रवकनकरमावसेकपिञ्जरदिनकरकिरणप्रोत्सारिततिमिरसचये दिवसे चक्षुप्मतो देवदत्तस्य रुप चक्षुरीक्षते, तथा बुद्धानामर्हता प्रज्ञाचक्षुरविद्याक्लेशोपक्लेशमलदूपिकातिमिरपटलवर्जित ज्ञेय पश्यतीति ।
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समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र अभिनिवेश नही रहता और दर्शनभेद के रहने पर भी भिन्न-भिन्न दर्शनो के विभिन्न आन्तरिक बाह्य कारणो की समझ प्रकट होती है, जिससे उन सभी दर्शनों के प्रति यथार्थ सहानुभूति और समभाव पैदा होता है । इस तत्त्वका विशद निरूपण करने के लिए हरिभद्र ने योगदृष्टिसमुच्चय मे शास्त्री एवं पंथों में प्रचलित मतभेदों और व्याख्याभेदों का भूमिका के भेद के अनुसार विस्तार से समन्वय किया है। हम यहाँ उनमे से कुछ दृष्टान्त उद्धृत करेगे
(१) हरिभद्र अपनी आठ दृष्टियों की पतंजलिवर्णित पाठ योगाग के साथ तुलना करते है ।१४ इस तुलना मे उन्होने यम आदि, अखेद आदि१५ और अद्वेष अादि १६ तीन अष्टको का वर्णन किया है । इसी के साथ, पूर्वनिर्दिष्ट पतंजलि, भास्करवन्धु एवं दत्त जैसे योगाचार्यों के नाम दिये हैं। इस पर से ऐसा प्रतीत होता है कि इन तीन अष्टको का उक्त तीन आचार्यों के साथ क्रमश संबंध हो और उसी को उन्होने अपनी आठ दृष्टियो के साथ जोडा भी हो । यह चाहे जो हो, परन्तु इतना तो स्पष्ट है कि हरिभद्र की तुलनादृष्टि विशेष विस्तृत होती जाती है ।
(२) गीता आदि अनेक ग्रन्थो मे 'संन्यास' पद बहुत प्रसिद्ध है । हरिभद्र के पहले किसी जैन आचार्य ने इसको स्वीकार किया हो ऐसा नहीं लगता। हरिभद्र इस 'संन्यास' शब्द को अपनाते हैं, इतना ही नही, धर्म-संन्यास, योग-संन्यास और सर्वसंन्यास के रूप मे त्रिविध संन्यास का निरूपण करके १८ वे ऐसा सूचित करते हैं कि जैन परम्परा मे गुणस्थान के नाम से जिस विकासक्रम का वर्णन आता है वह इस त्रिविध संन्यास मे आ जाता है। आगे जाकर हरिभद्र ने असंगानुष्ठान का निरूपण किया है और वे कहते हैं कि ऐसा अनुष्ठान अनेक परम्परानो मे भिन्न-भिन्न नाम
१४. 'योगदृप्टिसमुच्चय' श्लोक १६ से । १५ खेदो गक्षेपोत्यानभ्रान्त्यन्यमुद्र गासगे । युक्तानि हि चित्तानि प्रपचतो वर्जयेन्मतिमान् ।
-योगदृष्टिसमुच्चय श्लोक १६ की टीका मे उद्धृत श्लोक । अद्वेषो जिज्ञासा शुश्रूषा श्रवणवोधमीमासा । परिशुद्धा प्रतिपत्ति प्रवृत्तिरष्टात्मिका तत्त्वे ।।
___-योगदृष्टिसमुच्चय श्लोक १६ की टीका मे उद्धृत श्लोक । १७ देखो पादटीप ५। १८. 'योगदृष्टिसमुच्चय' ६-११ तथा 'योगवासिष्ठसार' ( गुजराती ) पृ०
३१७ एव ३२६ । १६ 'योगदृष्टिसमुच्चय' १७३ ।
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योग - परम्परा में हरिभद्र की विशेषता
से प्रसिद्ध है । वैसे नामो की गिनती करते हुए वे प्रशान्तवाहिता, विसभागपरिक्षय,
०
ये नाम अनुक्रम से पातंजल, बौद्ध,
शिववर्त्य र वाधवा जैसे नाम देते हैं । ध्रु शैव एवं पाशुपत अथवा तांत्रिक जैसे दर्शनों मे प्रसिद्ध है ।
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(३) महाभारत, गीता और मनुस्मृति जैसे अनेक ग्रन्थों का परिशीलन योगदृष्टिसमुच्चय में देखा जाता है। इनमे से गीता के परिशीलन की गहरी छाप हरिभद्र के मन पर अंकित देखी जाती है। गीता मे संन्यास और त्याग के प्रश्न की चर्चा विस्तार से आती है । गीताकार ने मात्र कर्म के संन्यास को संन्यास न कहकर काम्य कर्म के त्याग को संन्यास कहा है, " और नियत कर्म करने पर भी उसके फल के विषय मे अनासक्त रहने पर मुख्य भार देकर संन्यास का हार्द स्थापित किया है | २२ हरिभद्र जैन - परम्परा के वातावरण में ही पनपे हैं । यह परम्परा निवृत्तिप्रधान तो है ही, परन्तु सम्प्रदाय के रूप मे व्यवस्थित होने पर उसका बाहरी ढांचा पहले ही से ऐसा बनता रहा है कि जिसमे प्रवृत्तिमात्र के त्याग के संस्कार का पोषण अधिक मात्रा मे होता आ रहा था । हरिभद्र ने देखा कि वैयक्तिक अथवा सामाजिक जीवन को सुव्यवस्थित रखने के लिए अनेक प्रवृत्तियां अनिवार्य रूप से करनी पडती है । उनके सर्वथा त्याग पर अथवा उनकी उपेक्षा पर भार देने से सच्चा त्याग नहीं सघता, बल्कि कृत्रिमता आती है । योग ग्रथवा धार्मिक जीवन मे कृत्रिमता को स्थान नही हो सकता । इससे उन्होने गीता मे निरूपित संन्यास के दो तत्त्वों का निर्देश योगदृष्टिसमुच्चय में किया है । एक तो है काम्य तथा फलाभिसन्धि वाले कर्मो का ही त्याग और दूसरा है : नियत एवं अनिवार्य कर्मानुष्ठान मे भी प्रसंगता अथवा अनासक्ति । इन दो तत्त्वो को स्वीकार कर उन्होने इतर निवृत्तिप्रधान परम्परानों की भाति जैन - परम्परा को भी प्रवृत्ति के यथार्थ स्वरूप का बोध कराया है ।
(४) हरिभद्र स्वभाव से ही माध्यस्थ्यलक्षी है, इससे वे मिथ्याभिनिवेश या कुतर्कवाद का कभी पुरस्कार नही करते। उन्होंने योगदृष्टिसमुच्चय मे कुतर्क, विवाद र मिथ्याभिनिवेश के ऊपर जो मार्मिक चर्चा की है वह, मै जानता हूं वहां तक, किसी भी भारतीय योग-ग्रन्थ मे उस रूप मे उपलब्ध नही होती । भारतीय योग-परम्पराएँ किसी-न-किसी तत्त्वज्ञान की परम्परा के साथ जुड़ी हुई हैं | तत्त्वज्ञान
२०. 'योगदृष्टिसमुच्चय' १७४ |
२१ 'गीता' १८२ ।
२२ 'गीता' १८.६-६ ।
२३. 'योगदृष्टिसमुच्चय' १०२ - ५० ।
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समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र की परम्पराएं अपनी सर्वोपरिता सिद्ध करने के लिए एक या दूसरे मुद्दे पर बहुत वार शुष्क वाद मे उतर जाती हैं। ऐसा एक सर्वज्ञविपयक शुष्क वाद चिरकाल से चला आता है। प्रत्येक परम्परा अपने मूल प्रवर्तक को सर्वज्ञ मानकर इतर परम्परानो में कोई न-कोई क्षति बताती आई है। इसलिए प्रत्येक परम्परा के लिए सर्वज्ञत्व का प्रश्न मानो एक प्राण-प्रश्न बन गया है। सर्वज्ञ कौन, सर्वज्ञत्व का स्वरूप क्या इत्यादि मुद्दो के वारे मे चलनेवाली तत्त्वज्ञानीय चर्चा आध्यात्मिक साधना या योगमार्ग को भी कलुपित न करे अथवा वैसी चर्चा के कारण योग-साधक कुतर्क-जाल में फंस न जाय ऐसे उदात्त ध्येय से हरिभद्र ने इस सब से अधिक नाजुक मुद्दे को लेकर कुतर्क में न पडने की वात असाधारण प्रतिभा एवं निर्भयता से उपस्थित की है।
हरिभद्र कहते हैं कि सर्वज्ञत्व के विषय मे चर्चा करनेवाले हम तो हैं अग्दिर्शी या चर्मचक्षु, तो फिर अतीन्द्रिय सर्वज्ञत्व का विशेष स्वरूप हम कैसे जान सकते हैं ?२४ अत उसका सामान्य स्वरूप ही जानकर हम योग मार्ग मे आगे बढ़ सकते हैं । यह है सामान्य स्वल्प अर्थात् निरिण-तत्त्व को जानना और मानना ! ऐसे स्वरूप मे कोई नाम, व्यक्ति अथवा पंथ-भेद नही हो सकता। निर्वाण-तत्त्व का ज्ञान या पाकलन ही सभी सर्वज्ञवादियो का अभिप्रेत सामान्य तत्त्व है-इतना माना तो सर्वज्ञत्व का स्वीकार हो ही गया, और यह न माना तो सर्वज्ञ शब्द की और सर्वज्ञ-विगेप की बड़ाई हांकनेवाला कोई भी सर्वज्ञ को मानता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता । ऐसा कह कर हरिभद्र ने पंथ-पंथ और परम्परा-परम्परा के बीच होने वाले सर्वज्ञ-विषयक विवाद
२४ तदभिप्रायमज्ञात्वा न ततोऽग्दिशा सताम् ।
युज्यते तत्प्रतिक्षेपो महानर्थकर पर ।। निशानाधप्रतिक्षेपो यथाऽन्धानामसगत । तद्भदपरिकल्पश्च तथैवाग्दृिशामयम् ।।
-योगदृप्टिसमुच्चय, १३७-८. २५ ससारातीततत्त्व तु पर निर्वाणसज्ञितम् ।
तदधेकमेव नियमाच्छब्दभेदेऽपि तत्त्वत ॥ सदाशिव. परं ब्रह्म सिद्धात्मा तथतेति च । शब्देस्तदुच्यतेऽन्वर्थादेकमेवमादिभि ॥ तल्लक्षणाविसवादान्निरावाघमनामयम् । निष्क्रिय च पर तत्त्व यतो जन्माद्ययोगत ॥ ज्ञाते निर्वाणतत्त्वेऽस्मिन्नसमोहेन तत्त्वत । प्रेक्षावतां न तद्भक्तो विवाद उपपद्यते ।।
-योगदृष्टिसमुच्चय, १२७-३०.
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योग-परम्परा में हरिभद्र की विशेषता को दूर करने का सरल और बुद्धि-गम्य मार्ग बतलाया है । परन्तु ऐसा मार्ग सूचित करते समय उनके समक्ष कई प्रश्न तो उपस्थित होते ही है । यदि तुम कहते हो इस तरह सुगत, कपिल, अर्हन् आदि सभी निर्वाण तत्त्व के ज्ञाता होने से सर्वज्ञ हैं, तो उनमे पंथ एवं उपदेश भेद कैसे घट सकता है ? इसका उत्तर देने में हरिभद्र ने अपने तार्किक बल का पूर्ण रूप से प्रयोग किया है । इस प्रश्न का उत्तर हरिभद्र तीन प्रकार से देते हैं : (१) एक तो यह कि भिन्न-भिन्न सर्वज्ञ के रूप मे माने जाने वाले महापुरुषों का जो भिन्न-भिन्न उपदेश है वह विनेय अर्थात् शिष्य अथवा अधिकारी-भेद को लक्ष्य में रख कर दिया गया है ।२६ (२) दूसरा यह कि वैसे महापुरुषो के उपदेश का तात्त्विक दृष्टि से एक ही तात्पर्य होता है, परन्तु श्रोता-जन अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार उसे भिन्न-भिन्न रूप से ग्रहण करते हैं, फलत देशना एक होने पर भी नाना-जैसी दिखाई पडती है ।२७ (३) तीसरा यह कि देश, काल, अवस्था आदि परिस्थिति-भेद को लेकर महापुरुष भिन्न-भिन्न दृष्टि-बिन्दु से अथवा अपेक्षा-विशेष से भिन्न-भिन्न उपदेश देते है, परन्तु वह मूल मे तो है सर्वज्ञमूलक ही ।२८ .
हरिभद्र इतना कहकर ही विरत नहीं होते। वे कहते हैं कि शास्त्र के द्वारा प्राप्त होने वाला ज्ञान जैसे सामान्य-विषयक ही होता है, वैसे अनुमान के द्वारा प्राप्त होने वाला ज्ञान भी सामान्य-विषयक ही होता है, अत अनुमान-ज्ञान के ऊपर सम्पूर्ण आधार नही रखा जा सकता। प्रत्येक वादी अपने पक्ष को सिद्ध करने के लिए अनुमान का आश्रय लेता है और उसी को अन्तिम उपाय मानकर उस पर निर्भर रहता है । इससे हरिभद्र ने भर्तृहरि के वचन को उद्धत करके अपने वक्तव्य का समर्थन किया है कि एक अनुमान से सिद्ध वस्तुविशेष निपुण विद्वान् के द्वारा प्रयुक्त दूसरे अनुमान से ही
२६. इप्टापूर्तानि कर्माणि लोके चित्राभिसन्धित ।
नानाफलानि सर्वाणि द्रष्टव्यानि विचक्षणः ॥ चित्रा तु देशनैतेषा स्याद्विनेयाऽनुगुण्यत । यस्मादेते महात्मानो भवव्याधिभिषग्वरा.॥
-योगदृष्टिसमुच्चय, ११३ और १३२. २७. एकापि देशनैतेषा यद्वा श्रोतृविभेदतः । अचिन्त्यपुण्यसामर्थ्यात्तथा चित्राऽवभासते ।।
योगदृष्टिसमुच्चय, १३४ २८ यद्वा तत्तन्नयापेक्षा तत्तत्कालादियोगत । ऋषिभ्यो देशना चित्रा तन्मूलपापि तत्त्वत ॥
-योगदृष्टिसमुच्चय, १३६.
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समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र खण्डित हो जाती है, तो फिर उस पर पूरा भरोसा कैसे रखा जा सकता है ?२६ हरिभद्र ऐसी तर्क-सरणी द्वारा कुतर्कवाद और अभिनिवेश से मुक्त रहने का औचित्य बतलाते हैं और मानो अपनी सन्त-प्रकृति उपस्थित करते हो इस तरह भारपूर्वक कहते हैं कि सामान्य जन का भी प्रतिक्षेप अर्थात् तिरस्कार करना प्रार्यों के लिए शोभास्पद नही है तो फिर सर्वज्ञ-जैसे महापुरुष का प्रतिक्षेप कैसे योग्य कहा जा सकता है ? ऐसा प्रतिक्षेप, निन्दा या तिरस्कार तो जिह्वाच्छेद की अपेक्षा भी अधिक खराव है । अन्त मे हरिभद्र सदाशिव, परब्रह्म, सिद्धात्मा तथा तथता आदि सभी नामों को एक निर्वाण-तत्त्व के बोधक कहकर उस-उस नाम से निर्वाणतत्त्व का निरूपण एवं अनुभव करने वाले की भक्ति के बारे मे विवाद करने का निषेध करते है । हरिभद्र का यह प्रकरण मानो दार्शनिको के मिथ्या-अभिनिवेश के पाप का प्रक्षालन करता हो ऐसा प्रतीत होता है।
(५) गीता मे 'बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः३१ पद आता है । हरिभद्र इस पद को लेकर बुद्धि की अपेक्षा ज्ञान की कक्षा और ज्ञान की अपेक्षा असम्मोह की कक्षा कैसी ऊंची है यह रत्न की उपमा देकर समझाते हैं और अन्त मे कहते है कि सदनुष्ठान मे परिणत होने वाला प्रागमज्ञान ही असम्मोह है । ३२ ।
(६) न्याय और तर्कशास्त्र एक सूक्ष्म विद्या है। दार्शनिक-ज्ञान के लिए वह आवश्यक भी है, परन्तु बहुत बार समत्व न रहने से तर्क कुतर्क भी बन जाता है । वैसे कुतर्क का स्वरूप समझाने के लिए हरिभद्र ने एक बटुक विद्यार्थी के विकल्प का निर्देश किया है । किसी महावत ने सामने से चले आने वाले नौसिखिये तार्किक बटुक
२६ यत्नेनानुमितोऽप्यर्थ. कुशलरनुमातृभि । अभियुक्ततररन्यरन्यथवोपपाद्यते ॥
-योगदृष्टिसमुच्चय, १४३. ३० न युज्यते प्रतिक्षेप सामान्यस्यापि तत्सताम् । आर्यापवादस्तु पुनर्जिह्वाच्छेदाधिको मत ॥
-योगदृष्टिसमुच्चय १३६ ३१. अ १०, श्लो ४। ३२ इन्द्रियार्थाश्रया बुद्धिर्शान त्वागमपूर्वकम् ।
सदनुष्ठानवच्चतदसमोहोऽभिधीयते ॥ रत्नोपलम्भतज्ज्ञान-तत्प्राप्त्यादि यथाक्रमम् । इहोदाहरण साधु ज्ञेय बुद्धधादिसिद्धये ॥
-योगदृष्टिसमुच्चय ११६-२०
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योग-परम्परा में हरिभद्र की विशेषता को सम्बोधित करके कहा कि हाथी मार डालेगा, एक ओर हट जाओ ! वह बटुक विकल्प-पटु और तर्करसिक था। उसने महावत से कहा कि हाथी अपने साथ सम्पर्क मे आनेवाले को मारे या सम्पर्क में न आनेवाले को भी मारे ? पहले पक्ष मे तो उसे तुझे ही मार डालना चाहिए, क्योकि तू उसके साथ सम्पर्क मे आया हुआ है;
और दूसरे पक्ष मे मेरी तरह अनेक लोग ऐसे है जो उसके सम्पर्क में नही आये, तो फिर मुझे ही वह क्यों मारे ?33 हरिभद्र इस विनोदपूर्ण उदाहरण के द्वारा तत्वचर्चा में प्रयुक्त होने वाले कल्पना-जाल का निर्देश करके अध्यात्म के साधक को उससे बचने की चेतावनी देते है ।
कुतर्क एवं अभिनिवेश से निवृत्त हुए बिना योग की परिपक्व भूमिका रूप पांचवी दृष्टि मे प्रवेश शक्य ही नही है। इसके पश्चात् तो हरिभद्र ने अनुक्रम से एक से एक ऊंची दृष्टि का निरूपण किया है और उनमे योग के उपयुक्त आठ अंगों को घटाया है, परन्तु उनके अर्थ का विस्तार करके। इसके अतिरिक्त भी योगदृष्टिसमुच्चय मे हरिभद्र ने अनेक ज्ञातव्य एवं अन्यत्र दुर्लभ-ऐसी बातो का भी निर्देश किया है, परन्तु मेरा यह अवलोकन तो उस विषय के जिज्ञासुओ की दृष्टि का उन्मेष करने तक ही मर्यादित है, अतः उसकी विशेष चर्चा के लिए यहां स्थान नही है ।
योगबिन्दु का परिमाण जैसा बड़ा है, वैसे ही उसमे निरूपित विषय भी अनेक हैं और वे तत्त्वज्ञान एवं योगसाधना की दृष्टि से बहुत महत्त्व के भी है, फिर भी इस स्थान पर तो उनमे से खास खास विषयों को लेकर ऐसी चर्चा करने का विचार है जो विशेष जिज्ञासु को योगबिन्दु का आकलन करने के लिए प्रेरित करे
(१) दार्शनिक परम्पराओं मे विश्व के स्रष्टा-संहर्ता के रूप मे ईश्वर की चर्चा आती है। कोई वैसे ईश्वर को कर्म-निरपेक्ष कर्ता मानता है, तो कोई दूसरा कर्मसापेक्ष कर्ता मानता है ।३४ और तीसरा कोई ऐसा भी है जो स्वतंत्र व्यक्ति के रूप
३३. जातिप्रायश्च सर्वोऽय प्रतीतिफलबाधित । हस्ती व्यापादयत्युक्ती प्राप्ताप्राप्तविकल्पवत् ।।
योगदृष्टिसमुच्चय, ६१ ३४. ननु महदेतदिन्द्रजाल यन्निरपेक्ष कारणमिति तथात्वे कर्मवैफल्य सर्वकार्याणा समसमयसमुत्पादश्चेति दोषद्वयं प्रादु ग्यात् । मैवं मन्येथा ।।
-सर्वदर्शनसग्रहगत नकुलीशपाशुपतदर्शन, पृ० ६५ तमिम परमेश्वर कर्मादिनिरपेक्षः कारणमिति पक्ष वैषम्यनण्यदोषदूषितत्वात्प्रतिक्षिपन्त केचन माहेश्वरा शैवागमसिद्धान्ततत्त्व यथावदीक्षमाणा कर्मादिसापेक्ष परमेश्वर कारणमिति पक्षं कक्षीकुर्वाणा पक्षान्तरमुपक्षिपन्ति ।
-सर्वदर्शनसग्रहगत शैवदर्शन, पृ० ६६
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६४
समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र में ईश्वर को मानता ही नही है ।३५ इस प्रकार ईश्वर के विषय मे अनेक प्रवाद प्रचलित है, परन्तु वे सभी विश्वसर्जन को लक्ष्य मे रखकर प्रवृत्त हुए है। योगपरम्परा मे ईश्वर का विचार जव उपस्थित होता है, तब वह सृष्टि के कर्ता-धर्ता के रूप मे नही, किन्तु साधना मे अनुग्राहक के रूप मे। कई साधक ऐसी अनन्य भक्ति से साधना करने के लिए प्रेरित होते है कि स्वतंत्र ईश्वर सम्पूर्णत, अनुग्रहकर्ता है; उसका अनुग्रह न हो तो कुछ करने का मेरा सामर्थ्य है ही नही। इस बात को लेकर हरिभद्र ने अपना दृष्टि-विन्दु उपस्थित करते हुए कहा है कि महेश का अनुग्रह माने तो भी साधक-पात्र मे अनुग्रह प्राप्त करने की योग्यता माननी ही पडेगी। वैसी योग्यता के विना महेश का अनुग्रह भी फलप्रद नही बन सकता।३६ इससे ऐसा फलित होता है कि साधक की योग्यता मुख्य वस्तु है। उसके होने पर ही अनुग्रह के विषय मे विचार किया जा सकता है । जब साधक अपनी सहज योग्यता के विकासक्रम मे अमुक भूमिका तक पहुचता है, तभी वह ईश्वर के अनुग्रह का अधिकारी बन सकता है । इसके अतिरिक्त ईश्वर के अनुग्रह को मानने पर या तो सभी को अनुग्रह-पात्र मानना पडेगा, या फिर किसी को भी नही । इस प्रकार साधक की योग्यता का तत्व मानने के बाद यह प्रश्न होता है कि अनुग्रहकारी ईश्वर कोई अनादि-मुक्त स्वतंत्र व्यक्ति है अथवा तो स्वप्रयत्न के बल से परिपूर्ण शुद्ध हुआ कोई व्यक्ति है ? हरिभद्र कहते हैं कि अनादिमुक्त ऐसे कर्ता ईश्वर की सिद्धि तर्क से शक्य नही है;3७ फिर भी प्रयत्नसिद्ध शुद्ध आत्मा को परमात्मा मानने मे किसी आध्यात्मिक को आपत्ति नही है । अतएव वैसे प्रयत्नसिद्ध वीतराग की अनन्यभक्ति के द्वारा जो गुण-विकास होता है उसे ईश्वर का अनुग्रह मानने में कोई हर्ज भी नही है ।३८ इस तरह हरिभद्र ने अनुग्राहक के रूप मे स्वतंत्र ईश्वर को स्वीकार न करने पर भी साधक की योग्यता और वीतराग के आदर्श का अनुगमन इन दोनो के सवाद को साधना मे फलावह बतलाया है। ऐसी फलावहता बताते समय उन्होने कहा है कि वैसा वीतराग चाहे जो हो सकता है, अर्थात् उसका किसी देश, जाति, पंथ या नाम के साथ अनिवार्य सम्बन्ध नही है । इस चर्चा के द्वारा हरिभद्र ने साधना मे भक्तितत्व को उपयोगिता, साधक की
३५. देखो 'भारतीय तत्त्वविद्या', पृ १०६ और १११ ।। ३६. देखो 'योगविन्दु', श्लो २६५.से । ३७ वही, श्लो ३०३ और ३१० , 'शास्त्रवार्तासमुच्चय', १९४-२०७ । ३८. गुणप्रकर्षरूपो यत् सर्वेर्वन्धस्तथेष्यते । देवतातिशय कश्चित् स्तवादे फलदस्तथा ॥
--योगविन्दु, २६८
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योग-परम्परा में हरिभद्र की विशेषता अपनी पात्रता और आदर्श के अनुसरण की अनिवार्यता-इन सभी तत्त्वों का मध्यस्थ भाव से मेल बैठाया है।
(२) विश्वसर्जन के कारण के रूप मे क्या मानना-इस बारे मे अनेक प्रवाद पुरातन काल से प्रचलित हैं। काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत और पुरुष आदि तत्त्वो मे से कोई एक को, तो कोई दूसरे को कारण मानता है। ये प्रवाद श्वेताश्वतर उपनिषद् (१२) मे तो निर्दिष्ट है ही, परन्तु महाभारत: ६ आदि अनेक ग्रन्थो मे भी इनका निर्देश है। सिद्धसेन दिवाकर ने इन प्रवादों का समन्वय करके सबकी गणना सामग्री के रूप मे कारण कोटि मे की है। परन्तु ये सभी चर्चाएं सृष्टि के कार्य को लक्ष्य मे रख कर हुई है, किन्तु हरिभद्र ने योगबिन्दु मे इसकी जो चर्चा की है वह तो साधना की दृष्टि से है । उन्होने अन्त मे सामग्रीकारणवाद को स्वीकार करके कहा है कि ये सभी वाद ऐकान्तिक है, परन्तु साधना की फलसिद्धि मे काल, स्वभाव, नियति, दैव, पुरुषकार इत्यादि सभी तत्त्वो को, अपेक्षा-विशेष से, स्थान है ही ऐसा कहकर उन्होने इन सभी आपेक्षिक दृष्टियो का विस्तार से स्पष्टीकरण भी किया है।
(३) भवाभिनन्दिता या भोगरस का नशा जब उतरने लगता है, तभी योगाभिमुखता का बीजवपन होता है-यह बात उपस्थित करते हुए हरिभद्र ने अपने विचार के समर्थन मे साख्याचार्य गोपेन्द्र के मन्तव्य का निर्देश करके कहा है कि गोपेन्द्र जैसे साख्याचार्य भी शब्दान्तर से यही बात कहते हैं। यह शब्दान्तर यानी पुरुष पर के प्रकृति के अधिकार की निवृत्ति । पुरुष का दर्शन न होने तक ही प्रकृति का सर्जनबल रहता है, उसका दर्शन होते ही वह सर्जन-कार्य से निवृत्त होती है। यह निवृत्ति ही उसकी मोक्षाभिमुखता है ।४२ हरिभद्र साख्य एवं जैन परिभाषा की तुलना करते हुए
३६ कालवाद के लिए 'महाभारत' गत शान्तिपर्व के अध्याय २५,२८,३२,३३, आदि;
यदच्छावाद के लिए उसी में अध्याय ३२, ३३; स्वभाववाद के लिए भी उसीमे
अध्याय २५ । विशेष के लिए देखो 'गणधरवाद' प्रस्तावना पृ ११३-७। ४०. देखो 'सन्मतितर्क' काण्ड ३, गाथा ५३ और उसकी टीका के टिप्पण। ४१ देखो 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' श्लोक १६४-६२, 'योगबिन्दु' श्लोक १९७, २७५,
२६२, ३१३ । ४२ देखो इसी व्याख्यान की पादटीप ६, तथा
एव लक्षणयुक्तस्य प्रारम्भादेव चाप'. । योग उक्तोऽस्य विद्वद्भिर्गोपेन्द्रेण यथोदितम् ।। योजनाद् योग इत्युक्तो मोक्षेण मुनिसत्तम । स निवृत्ताधिकाराया प्रकृती लेशतो ध्रुव ॥
-योगविन्दु २००-१
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समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र कहते हैं कि साख्य जिसे प्रकृति के अधिकार की निवृत्ति कहते हैं उसीको जैन कर्मप्रकृति की तीव्रता का ह्रास कहते है।४३ हरिभद्र का यह तुलनात्मक दृष्टिविन्दु साख्य और जैन-परम्परा के बीच देखी जाने वाली अनेकविध समानता को विशेष अभ्यासी के लिए प्रेरणादायी बन सकता है ।
(४) वौद्ध परम्परा की - खास करके महायान की - एक परिभाषा के साथ जैन परिभाषा की तुलना करके हरिभद्र ने जो सार निकाला है वह उनकी गहरी सूझ बतलाता है । महायानी बौद्धो मे 'वोधिसत्त्व' पद प्रसिद्ध है। जो चित्त केवल अपनी मुक्ति मे ही कृतार्यता न मानकर सबकी मुक्ति का आदर्श रखता है और उसी आदर्श की सिद्धि का सकल्प करता है वह चित्त बोधिसत्व है। हरिभद्र कहते है कि यही वात जैन-परम्परा मे 'सम्यग्दृष्टि' पद से कही गई है। जब कोई जीव अपने ऊपर छाये हुए तीव्र क्लेशावरण के मन्द होने पर तथा मोहग्रन्थि का भेद होने पर योगाभिमुख होता है, तब वह अपने उद्धार के साथ विश्वोद्धार का भी महान् संकल्प करता है । जैनपरिभाषा के अनुसार ऐसा सकल्प करने वाला सम्यग्दृष्टि जीव ही बौद्ध-परिभाषा के अनुसार बोधिसत्त्व है ।४४ परन्तु साथ ही हरिभद्र ऐसा भी सूचित करते हैं कि सभी
देखो योगविन्दु४३ अत्राप्येतद्विचित्राया' प्रकृतेयुज्यते परम् ।
इत्यमावर्तभेदेन यदि सम्यग्निरुप्यते ॥१०॥ ....... एतन्निवृत्ताधिकारत्वम् । विचित्रायास्तत्सामग्रीवशेन नानारूपाया । प्रकृते कर्मरूपाया ।....... प्रकृतेर्भेदयोगेन नासमो नाम प्रात्मन । हेत्वभेदादिद चार न्यायमुद्रानुसारत ॥१६॥ प्रकृते परपरिकल्पिताया सत्त्वरजस्तमोरूपाया स्वप्रक्रियायाश्च ज्ञानावरणादिलक्षणाया |...... अविद्याक्लेशकर्मादि यतश्च भवकारणम् । तत. प्रधानमेवैतत् सज्ञाभेदमुपागतम् ॥३०॥ तथा देखो शास्त्रवार्तासमुच्चयमे - अत्रापि पुरुषस्यान्ये मुक्तिमिच्छन्ति वादिन । प्रकृति चापि सन्न्यायात् कर्मप्रकृतिमेव हि ॥२३२॥ अयमस्यामवस्थाया वोधिसत्त्वोऽभिधीयते । अन्यस्तल्लक्षण यस्मात् सर्वमस्योपपद्यते ॥ कायपातिन एवेह वोधिसत्त्वा. परोदितम् । न चित्तपातिनस्तावदेतदवापि युक्तिमत् ।। परार्थरमिको धीमान् मार्गगामी महाशय । गुणरागी तथेत्यादि सर्व तुल्य द्वयोरपि ॥
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योग-परम्परा में हरिभद्र की विशेषता जीव या सत्त्व ऐसे संकल्प के अधिकारी नही होते; कोई इससे मन्द अथवा कुछ निम्न कक्षा के संकल्प भी कर सकते है और उसके अनुसार सिद्धि भी प्राप्त कर सकते है।४५ हरिभद्र के कथन का मुख्य हार्द तो यह है कि संकल्प एक अक्षोभ्य प्रेरक बल है । वह जितना महान्, उतना ही मनुष्य महान् बन सकता है; परन्तु वे मानसिक विकास के तारतम्य को लक्ष्य में रखकर यह भी सूचित करते है कि भिन्न-भिन्न साधको का संकल्पबल अल्पाधिक भी होता है ।४६ ऐसा निरूपण करते समय उन्होने जैनपरम्परामे सुविदित तीर्थंकर, ४७ गणधर४८ और मुण्डकेवली ४६ आदि योगियों की उच्चावच्च अवस्था का स्पष्टीकरण भी किया है।
(५) हरिभद्र ने धर्म के बारे मे पारमार्थिकता और व्यावहारिकता का अन्तर समझने के लिये सवको सदा काम मे आ सके ऐसी एक कसौटी रखी है। वे कहते है कि जो धर्म लोकाराधन या लोकरंजन के लिए पाला जाता है उसे लोकपंक्ति या
यत्सम्यग्दर्शन बोधिस्तत्प्रधानो महोदय । सत्त्वोऽस्तु बोधिसत्त्वस्तद्धन्तषोऽन्वर्थतोऽपि हि ॥ वरवोधिसमेतो वा तीर्थकृद् यो भविष्यति । तथा भव्यत्वतोऽसौ वा बोधिसत्त्व सता मत ॥
योगविन्दु २७०-७४ ४५. सासिद्धिकमिद ज्ञेय सम्यचित्र च देहिनाम् । तथा कालादिभेदेन वीजसिद्धयादिभावत ॥
-योगबिन्दु २७५ ४६ अनेन भवनगण्य सम्यग्वीक्ष्य महाशय । तथाभव्यत्वयोगेन विचित्र चिन्तयत्यसौ ॥
-योगबिन्दु, २८४ ४७. मोहान्धकारगहने ससारे दु खिता वत ।
सत्त्वा परिभ्रमन्त्युच्च सत्यस्मिन्धर्मतेजसि ॥ अहमेतानत. कृच्छाद् यथायोग कथचन । अनेनोत्तारयामीति वरवोधिसमन्वित ॥ करुणादिगुणोपेत परार्थव्यसनी सदा । तथैव चेष्टते धीमान् वर्धमानमहोदय. ॥ तत्तत्कल्याणयोगेन कुर्वन्सत्त्वार्थमेव स । तीर्थकृत्त्वमवाप्नोति पर सर्वार्थसाधनम् ॥
-योगविन्दु, २८५-८ ४८. चिन्तयत्येवमेवैतत् स्वजनादिगत तु य. । तथानुष्ठानत. सोऽपि धीमान् गणधरो भवेत् ।।
योगविन्दु, २८६ ४६ सविग्नो भवनिर्वेदादात्मनि सरण तु य । आत्मार्थसम्प्रवृत्तोऽसौ सदा स्यान्मुण्डकेवली ॥
-योगविन्दु, २६०
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१८
समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र लोकसंज्ञा कहते हैं,५० जो सच्चा धर्म नहीं है, फिर भी एकमात्र धर्म की दृष्टि रख करके ही लोकानुसरण किया जाय तो वह धर्म की यथार्थता में हानिकारक नहीं होता।
(E) आत्मा आदि अतीन्द्रिय तत्त्व और उनके विविध स्वरूपो के बारे मे अनेक वादी तार्किक चर्चा-प्रतिचर्चा करते आये हैं और सत्य के नाम पर परस्पर क्लेश का पोपण करते रहे है। यह देखकर हरिभद्र ने निर्भय वाणी मे कहा है कि वंसे अतीन्द्रिय तत्त्व योगमार्ग के बिना गम्य नही हैं। वाद-ग्रन्थ उनमे सहायक नही बन सकते । अपने इस विचार का समर्थन उन्होने किसी अज्ञात योगी का वचन उद्धृत करके किया है । उस वचन का भाव यह है कि जिन्हे सही अर्थ मे निश्चय न हुआ हो और जो सिर्फ परम्परा की मान्यता के अपर स्थिर रहकर वाद-प्रतिवाद करनेवाले ग्रन्थमात्र-जीवी हैं वे कभी तात्त्विक स्वरूप जान नही सकते, और घानी के वल की तरह वे खण्डन-मण्डन के चक्र मे घूमते ही रहते है ।५२ हरिभद्र का यह कटाक्ष गुजराती जानी कवि 'अखा' की निम्न उक्ति का स्मरण कराता है
"खट दर्शनना जूजवा मता, माहोमाहे तेणे खाधी खता, एकनु चाप्यु बीजो हणे, अन्यथी आपने अधिको गणे। अखा ए अन्धारो कूवो, झगडो भागी को नव मूयो।"
-अखाना छप्पा, ३
५०. लोकाराधनहेतोर्या मलिनेनान्तरात्मना । क्रियते सक्रिया साऽत्र लोकपक्तिरुदाहृता ।।
योगविन्दु, ८८ ५१. धर्मार्थ लोकपक्ति स्यात्कल्याणाग महामते । तदर्थ तु पुनर्धर्म पापायाल्पधियामलम् ।।
योगविन्दु, ६० ५२ एव च तत्त्वससिद्धेर्योग एव निवन्धनम् ।
अतो यनिश्चितैवेय नान्यतस्त्वीदृशी क्वचित् ।। अतोऽत्रैव महान्यत्नस्तत्तत्तत्त्वप्रसिद्धये । प्रेक्षावता सदा कार्यो वादग्रन्थास्त्वकारणम् ।। उक्त च योगमार्गजैस्तपोनिर्वृतकल्मपै । भावियोगिहितायोचर्मोहदीपसम वच ॥ वादाश्च प्रतिवादाश्च वदन्तो निश्चितास्तथा। तत्त्वान्त नैव गच्छन्ति तिलपीलकवद्गतौ ॥
-योगविन्दु, ८४-७
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योग - परम्परा में हरिभद्र की विशेषता
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अर्थात् छो दर्शनों के भिन्न-भिन्न मत है, वे ग्रापस मे लडते-झगड़ते रहते है । एक के स्थापित किये हुए मत का दूसरा खण्डन करता है और अपने आपको बडा समझता है । विभिन्न मत-मतान्तर अन्धेरे कुएँ के सदृश हैं । उनके झगडे का कभी निबटारा होता हो नही है ।
(७) हरिभद्र ने धर्मबिन्दु यादि अपने दूसरे ग्रन्थों में सामाजिक धर्मो के आचरण पर जो भार दिया है वह योगबिन्दु मे भी है, परन्तु योगबिन्दु मे उसकी विशेष स्पष्टता है | इसे देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि हरिभद्र ने जैन और वैसी दूसरी निवृत्तिमार्गी परम्पराम्रो के वैयक्तिक हित साधन का दृष्टिबिन्दु देखकर सोचा होगा कि कोई भी व्यक्ति सामाजिक जीवन के सहकार के विना धर्म का पालन कर ही नही सकता । प्राध्यात्मिक मार्ग पर प्रगति करनी हो तो उसकी पहली शर्त यह है कि सामाजिक धर्म एवं मर्यादाओ का योग्य पालन करके मनुष्य को अपना मन विकसित करना चाहिए और ग्रनेक सद्गुरो को जीवन मे उतारना चाहिए। बहुत बार ऐसा होता है कि मनुष्य प्राध्यात्मिकता के नाम पर अवश्य श्राचरणीय सामाजिक कर्तव्यो को भी जानबूझ कर छोड़ देता है । ऐसे किसी उदात्त विचार से हरिभद्र ने प्राध्यात्मिक मार्ग की प्राथमिक तैयारी के रूप मे 'पूर्व सेवा' 3 के नाम से अनेक कर्तव्य सूचित किये हैं । उसमे 'गुरुदेवादिपूजन' (श्लोक १०९ ) शब्द से अनेक बातें सूचित की है । वे कहते हैं कि माता, पिता, कलाचार्य, उनके संबंधी, वृद्ध एवं धर्मोपदेशक – ये सब गुरुवर्ग मे श्राते है ।५४ इन सबकी योग्य प्रतिपत्ति अर्थात् सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिए । देवपूजा के विषय मे वे कहते हैं कि महानुभाव गृहस्थो के लिए सब देवो का समुचित प्रादर कर्तव्य है, इसी से अपने मान्य देव से भिन्न दूसरे देवो के प्रति
रुचि ग्रथवा हीन भाव की वृत्ति दूर हो सकती है | " ऐसी सर्वदेव - नमस्कार की उदात्त वृत्ति अन्त मे लाभदायी ही सिद्ध होती है - यह बतलाने के लिए उन्होने 'चारि
५३ योगबिन्दु, श्लोक, १०९ से ।
५४ योगबिन्दु, श्लोक, ११० ।
५५. श्रविशेपेण सर्वेपामधिमुक्तिवशेन वा । गृहिणा माननीया यत् सर्वे देवा महात्मनाम् ॥ सर्वान्देवान्नमस्यन्ति नैक देव समाश्रिता । जितेन्द्रिया जितक्रोधा दुर्गाण्यतितरन्ति ते ॥ योगविन्दु ११७-८
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समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र संजीवनीचार' का दृष्टान्त दिया है।५६ इस दृष्टान्त का भाव ऐसा है : कोई एक स्त्री अपने पति को बस मे रखने के लिए किसी के पास से जडी-बूटी लेकर और अपने पति को खिलाकर पशु के रूप मे उसे चराती थी और वह जब चाहे तब दूसरी जडी बूटी से अपने पति को पशु मे से पुरुष बना देती थी। एक बार वनस्पति के जंगल मे वह स्त्री वारक जडी-बूटी भूल गई और गहरे विषाद मे डूब गई । इस बीच उस जंगल मे से होकर जानेवाले किसी योग्य महानुभाव ने उस स्त्री का दुख जानकर उद्गार निकाला कि इसमे विषाद की क्या बात है ? वह वारक जडी-बूटी भी वही है । सभी वनस्पतियो को चराया जाय तो वह वारक औषधि भी बैल खा जायगा जिससे वह अपने असली रूप मे आ सकेगा। यह वाणी सुनकर उस स्त्री ने वैसा ही किया, जिससे वह पुरुष अपने मूल रूप मे आ गया। सम्भव है यह दृष्टान्त पुराना हो, परन्तु इसका विनियोग सर्वदेवो के प्रति समान-आदर रखने के भाव मे करके हरिभद्र ने भिन्न-भिन्न पंथो के बीच देवो के नाम पर होने वाले झगडो को मिटाने का सर्वधर्म समन्वय सूचक एक सामाजिक मार्ग दिखलाया है।
उन्होने गुरुओं एवं देवो के प्रति भक्ति-भावना के अतिरिक्त दूसरे एक महत्त्व के सामाजिक कर्तव्य का भी सूचन किया है। वह है रोगी, अनाथ, निर्धन आदि निस्सहाय वर्ग की सहायता करना, परन्तु वह सहायता ऐसी न होनी चाहिए कि जिससे अपने आश्रित जनो की उपेक्षा होने लगे५७ । आध्यात्मिक अथवा लोकोत्तर धर्म के साथ ऐसे अनेकविध लौकिक कर्तव्यो को संकलित करके हरिभद्र ने जैन परंपरा के प्रवर्तक धर्म का महत्त्व जिस विशदता से समझाया है वह निवृत्तिलक्षी जैन-परंपरा मे टूटती कडी का सन्धान करता है।
(८) जैन-परम्परा मे आध्यात्मिक विकासक्रम की सूचक चौदह भूमिकाएं 'गुणस्थान' के नाम से प्रसिद्ध हैं, परन्तु हरिभद्र ने उन भूमिकाओ को योगबिन्दु मे अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय इन पांच भागो मे विभक्त करके
५६ चारिसजीवनीचारन्याय एप सता मत । नान्यथाऽवेष्टसिद्धि स्याद्विशेषेणादिकर्मणाम् ।।
योगविन्दु, ११६ ५७. पात्रे दीनादिवर्गे च दानं विधिवदिष्यते । पौप्यवर्गाविरोधेन न विरुद्ध स्वतश्च यत् ॥
-योगविन्दु, १२१
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योग-परम्परा में हरिभद्र की विशेषता उनका निरूपण किया है ।५८ इसी के साथ उन्होने साख्य-योग परम्परा की सम्प्रज्ञात एवं असम्प्रज्ञात इन दो भूमिकाओ की उक्त पाँच भूमिकाप्रो के साथ तुलना भी की है। वे कहते हैं कि इन पांच में से प्रारम्भ की चार सम्प्रज्ञात है और अन्तिम असम्प्रज्ञात है । सम्प्रज्ञात भूमिका तक मनोव्यापार चलता है, परन्तु असम्प्रज्ञात अवस्था५६ प्राप्त होते ही सबीज, क्लेशवृत्ति का नाश होता है। इसी को निर्बीज समाधि कहते हैं । साख्यानुसारी योगशास्त्र की इस मान्यता के साथ हरिभद्र ने तुलना तो की है, परन्तु जैन और साख्य तत्त्वज्ञान का मूलगत जो भेद है तथा उसी को लेकर वृत्तिसंक्षय का जो अर्थ जैन-परम्परा के साथ संगत हो सकता है वह भी उन्होने बतलाया है।
पतंजलि चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहते है ।' चित्तवृत्ति क्लिष्ट भी होती है और अक्लिष्ट भी । अज्ञान एवं तृष्णा जैसे क्लेशो अयवा मलों के निवारण के बारे मे तो किसी का मतभेद है ही नही, परन्तु प्रश्न यह है कि क्लेश निर्मूल हो और चित्त मे ज्ञान, प्रेम आदि अक्लिष्ट वृत्तियों का चक्र चले, तो क्या उसका भी निरोध करना ? इसका उत्तर साख्य, न्याय, वैशेषिक, अद्वैत, वेदान्ती तथा कई बौद्धो ने प्राय. एकजैसा ही दिया है । वह उत्तर है । विदेह मुक्ति के समय शरीर की भांति चित्त या मन का भी सर्वथा विसर्जन । यदि चित्त अथवा मन का ही विलय हो, तो फिर अक्लिष्ट वृत्ति पैदा ही किसमे हो ? इससे मुक्त-दशा मे विशुद्ध ज्ञान या विशुद्ध आनन्द जैसी वृत्तियो के लिए भी अवकाश है ही नही । ६२ हरिभद्र इस मान्यता से अलग पडकर ऐसा स्थापित करते है कि मुक्त दशा मे अक्लिष्ट वृत्तियों का भी निरोध होता है, इसका अर्थ सिर्फ इतना ही हो सकता है कि मानसिक कल्पनाओं और व्यापारो का देह व्यापार की भांति विलय, नही कि चेतन की सहज एवं निरावरण ज्ञान, प्रेम, आनन्द प्रादि वृत्तियो का विलय । ३ हरिभद्र अपना मत स्थापित करते समय जैनपरम्परा-सम्मत आत्मा का परिणामिनित्यत्व युक्तिपूर्वक सिद्ध करते है तथा पुरुष अथवा आत्मा की कूटस्थ नित्यता का एवं बौद्ध-सम्मत क्षणिक चित्तसन्तति का प्रतिवाद करते हैं।
५८. देखो 'योगविन्दु' श्लोक ३१ । ५६ वही, श्लोक ४१६-२३, तथा योगदर्शनकी यशोविजयजीकी व्याख्या १.१७-८ । ६० देखो 'योगविन्दु' श्लोक ४०५-१५ । ६१ देखो 'योगसूत्र' १.२॥ ६२ देखो 'योगविन्दु' श्लोक ४२७ से। ६३. वही, श्लोक ४५६ ।
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समदर्शी आचार्य हरिभद्र (8) क्लेश-निवारण के ध्येय को दृष्टि-समक्ष रखकर ही योगमार्ग की विविव प्रणालिकाए अस्तित्व मे आई हैं, परन्तु उनमे एक ऐसी भ्रान्ति पैदा हो गई है कि मन स्वयं ही क्ले शो का धाम है । फलत. उसमे जो वृत्तिया या कल्पनाएं उदयमान होती है वे सभी बन्धनरूप हैं, अतएव मनोव्यापार के सर्वथा अवरोध का नाम ही निर्विकल्प समाधि है । इस तरह क्लेश का नाश करने के लिए प्रवृत्त होने पर क्लेशरहित वृत्तियो का भी उच्छेद एक योगकार्य माना गया। इसके अनेक अच्छे-बुरे उपाय खोजे गये । इनमे से एक ऐसे उपाय की स्थापना करनेवाला पक्ष अस्तित्व में आया कि ध्यान का मतलव ही यह है कि चित्त को प्रत्येक प्रकार के व्यापार से रोकना । इसी का नाम है विकल्पना-निवृत्ति । इस पक्ष से सम्बन्ध रखने वाली एक मनोरजक कहानी भोट भापा में लिखे गये कमलशील के जीवन मे से उपलब्ध होती है। होशंग नाम का एक चीनी भिक्षु तिब्बत के तत्कालीन राजा को अपनी योग-विषयक मान्यता इस तरह समझाता था कि ध्यान करने का अर्थ ही यह है कि मन को विचार करने से रोकना । एक बार उस राजा को इस प्रश्न के बारे मे सच्चा बौद्ध मन्तव्य क्या है यह जानने की इच्छा हुई। उसने नालन्दा विश्वविद्यालय के विद्वान् कमलशील को तिब्बत मे बुलाया। होशंग और कमलशील के बीच शास्त्रार्थ हुआ। मध्यस्थ के स्थान पर राजा था । जो हारे वह जीतने वाले को माला पहनाये और तिब्बत में से चला जाय, ऐसी शर्त थी। होशंग ने अपना पक्ष उपस्थित किया। उस समय कमलशील ने उसके उत्तर में जो कुछ कहा वह मनोविलयवादियो के लिए विचारने जैसा है। कमलशील ने कहा कि मन जिस विषय के विचारो को रोकने का प्रयत्न करेगा वह विषय उसकी स्मृति मे पायगा ही। इसके अलावा यदि कोई विचित्र उपायो से मन को सर्वथा कुण्ठित करने का या निष्क्रिय बनाने का प्रयत्न करेगा, तो भी वह थोडे समय के पश्चात् पुनः विचार करने लगेगा। वह निष्क्रियता ही मन मे विद्रोह करके विचार, चक्र चालू करेगी। मन का स्वभाव ही ऐसा है कि वह क्षणभर के लिए भी विचार किये विना नही रह सकता । ऐसा कहकर कमलशील ने बौद्ध-परिभाषा के अनुसार बतलाया कि जो योगी लोकोत्तर प्रज्ञा की भूमिका में जाना चाहता हो अथवा तो सम्बोवप्रज्ञा प्राप्त करने की अभिलाषा रखता हो, उसे तो सम्यक् प्रत्यवेक्षणा करनी ही चाहिए। अपने आपकी तथा जगत् की वस्तुओं एवं घटनामो की प्रत्यवेक्षणा करने का मतलव है उनमे क्षणिकता एवं अनात्मा की भावना करना । यह भावना ही विकल्पना का निरोध है, नही कि शून्यता के नाम पर मन को निष्क्रिय एवं कुण्ठिन बनाना । कमलशील की इन दलीलो से होशंग, जो प्रज्ञापारमिता का अर्थ
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योग-परम्परा में हरिभद्र की विशेषता
१०३ शून्यवाद की दृष्टि से स्वकल्पना के बल पर करता था वह निरुत्तर हो गया और कमलशील की जय हुई।६४
कमलशील बोधिसत्त्व के रूप मे प्रतिष्ठित शान्तरक्षित के शिष्य और विशिष्ट व्याख्याकार थे। योगाचार परम्परा मे विज्ञानवाद का विकास होने पर जो वज्रयान नाम की शाखा निकली थी उसके ये दोनों गुरु-शिप्य समर्थक थे। वे मानते थे कि मुक्ति दशा में विशुद्ध क्षणिक ज्ञान-सन्तति चालू रहती ही है; ज्ञान-सन्तति का लोप हो ही नही सकता। यह उनका महासुखवादी सिद्धान्त है। इस जगह कमलशील की यह कहानी कहने का उद्देश्य इतना ही है कि हरिभद्र और ये विज्ञानवादी इस बारे मे सर्वथा एकमत है कि मुक्ति अथवा महासुख अवस्था मे ज्ञानधारा चालू रहती ही है । हरिभद्र इस ज्ञानधारा को स्थिर आत्मद्रव्य मे घटाते है,६५ तो विज्ञानवादी वैसे स्थिर द्रव्य को माने विना घटाते हैं;६६ परन्तु ये दोनो विचार इतना तो स्थापित करते ही हैं कि पुरुप, चेतन, आत्मा या ब्रह्म यदि चैतन्यस्वरूप हो तो वह सर्वथा ज्ञानधारावर्जित हो ही नहीं सकता।
(१०) हरिभद्रने योगबिन्दुमें जैन दृष्टि से सर्वज्ञत्व का स्वरूप स्थापित किया है और कुमारिल, धर्मकीर्ति जैसो के साक्षात् सर्वज्ञत्व के विरोधी विचारो का प्रतिवाद भी किया है।६० यहा हरिभद्र के सामने ऐसा प्रश्न उठाया जा सकता है कि जब वे जैन सम्मत विशेप सर्वज्ञत्व की स्थापना करते है, तब वे एक मत-विशेप का पुरस्कार करते हैं, तो इसे एक अभिनिवेश क्यो नही कहा जा सकता ? स्वयं उन्होने ही योगदृष्टिसमुच्चयमे सर्वज्ञविशेष की मान्यता को अभिनिवेश मानकर छोड दिया है और सामान्य-सर्वज्ञत्व का ही पुरस्कार करके सभी आध्यात्मिक तत्त्वज्ञो को सर्वज्ञ माना है। तो फिर क्या यह विरोध नही है ? मुझे विचार करते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि इसमे विरोध जैसा कोई तत्व नही है । जिस प्रकार पतंजलि ने योगसूत्र के चौथे पाद मे अपनी तात्त्विक मान्यता से अलग पडनेवाली विज्ञानवादी की मान्यता की अलोचना की है, जिस प्रकार योगवाशिष्ठ आदि मे ब्रह्माद्वैतका स्थापन और दूसरी मान्यताप्रो का
६४. देखो 'तत्त्वसग्रह' की प्रस्तावना पृ १६८ । ६५ देखो योगविन्दु ४२७ से। ६६ प्रभास्वरमिद चित्त तत्त्वदर्शनसात्मकम् । प्रकृत्यैव स्थितं यस्मान्मलास्त्वागन्तवो मता.॥
-तत्त्वसग्रह, ३४३५ ६७. देखो योगविन्दु ४२७ से।
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समदर्शी श्राचार्यं हरिभद्र
निषेध है; उसी प्रकार हरिभद्र ने जैन संस्कार से पुष्ट और अपने श्रापको युक्तियुक्त जंचनेवाली अपनी तात्त्विक मान्यता को तत्त्वदृष्टि का विचार करते समय, तटस्थभाव से उपस्थित किया है । उन्होने उसमे अभिनिवेश न बतलाकर ग्रन्त मे कहा है कि मैंने जो कुछ कहा है वह मध्यस्थ दृष्टि से कहा है । यदि विद्वानो को वह युक्त प्रतीत हो तो उस पर वे विचार कर सकते है । विद्वत्ता का फल ही यह है कि उसकी दृष्टि मे यह सिद्धान्त मेरा और यह पराया, ऐसा पक्ष हो ही नही सकता । उसे जो युक्तियुक्त एवं बुद्धिगम्य लगे उसी को वह माने । ६८
योगदृष्टिसमुच्चय में उनका भार पथ-पंथ और दर्शन-दर्शन के बीच चलनेवाले शुष्क वाद का निवारण करने पर है । इसीलिए वे सर्वज्ञत्व जैसे नाजुक विषय को लेकर भी कुतर्क - निवृत्ति की बात कहते है । एक स्थान पर अर्थात् योगबिन्दु मे तटस्थतापूर्वक अपनी मान्यता का निरूपण है, तो दूसरे स्थान पर अर्थात् योगदृष्टिसमुच्चय में अपनी अपनी मान्यता को स्थापना के बहाने दार्शनिकों मे चले श्राने वाले विवादो का निराकरण अभिप्रेत है। वे स्वयं तो योग-विषयक अपने ग्रन्थो मे किसी भी जगह प्रवेश अथवा कदाग्रह दिखलाते ही नही है । इसे उनकी मध्यस्थता कहनी चाहिए ।
यहाँ पर समालोचित हरिभद्र के योग विषयक चारों ग्रन्थो का उत्तरकाल मे कैसा प्रभाव पडा है - यह प्रश्न स्वभावत उठ सकता है । श्री श्रानन्दघन ने उनके इन ग्रन्थो मे से किसी न किसी ग्रन्थ का पय पान किया हो ऐसा लगता है, परन्तु उपाध्याय यशोविजयजी ने तो उनकी योग-विषयक सभी कृतियो मे गहरी डुबकी लगाई है । उनकी 'आठ दृष्टिनी सज्झाय' नाम की गुजराती कृति योगदृष्टिसमुच्चय का सार है,
६८. एवमाद्यत्र शास्त्रज्ञैस्तत्त्वत स्वहितोद्यतं । माध्यस्थ्यमवलम्ब्योच्चैरालोच्य स्वयमेव तु || थात्मीय परकीयोवा क सिद्धान्तो विपश्चिताम् । दृष्टेष्टावाधितो यस्तु युक्तस्तस्य परिग्रह ॥
-- योगबिन्दु, ५२३-४
इसके साथ श्रा हेमचन्द्र द्वारा काव्यानुशासन की स्वोपज्ञ टीका 'विवेक' मे उद्धत
(पृ. ६ ) नीचे के श्लोक की तुलना करो - उपशमफलाद्विघावीजात्फलं धनमिच्छतो भवति विफलो यद्यायासस्तदत्र किमद्भुतम् । न नियतफला कतु भावा फलान्तरमीशते जनयति खलु व्रीहेर्वीज न जातु यवाङ्कुरम् ॥
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योग-परम्परा मे हरिभद्र की विशेषता
१०५ परन्तु वे तो जो गुजराती मे लिखते उसे संस्कृत मे भी लिखते ही थे। उन्होने बत्तीस बत्तीसियां लिखी हैं, और उन सब पर स्वोपज्ञ टीका भी । वे बत्तीसियाँ यानी प्राचार्य हरिभद्र के योग-विषयक ग्रन्थो का नवनीत । उन्होने इन बत्तीसियो का संकलन इस तरह किया है कि जिसमे हरिभद्र के द्वारा प्रतिपादित योग-विषयक समन वस्तु श्रा जाय और विशेप रूप से उन्हे जो कुछ कहना हो उसका भी निरूपण हो जाय । उपाध्यायजी ने अपनी स्वोपज्ञवृत्ति मे अनेक स्थानो पर ऐसे कई मुद्दो का विशेष स्पष्टीकरण किया है जिनका स्पष्टीकरण हरिभद्र की कृतियों की व्याख्या मे कम देखा जाता है। उपाध्यायजी की कृतियो का अवगाहन करनेवाले को दो लाभ है. एक तो यह कि वह उनके विचारो के सीधे परिचय मे आ सकता है, और दूसरा लाभ यह है कि वह उपाध्यायजी के ग्रन्थो के द्वारा ही हरिभद्र की विचारसरणी को पूरी तरह समझ सकता है।
उपसंहार भारतभूमि मे दर्शन एवं योगधर्म के बीज तो बहुत पहले ही से बोये गये हैं। उसकी उपज भी क्रमश. बहुत बढती गई है। अपने समय तक की इस उपज का प्राचीन गुजरात के एक समर्थ ब्राह्मण-श्रमरण आचार्य ने जिस तरह संग्रह किया है
और उसमे उन्होने अपने निराले ढंग से जो अभिवृद्धि की है, उसके प्रति विशिष्ट जिज्ञासुओ का ध्यान, इस अल्प प्रयास से भी, आकर्षित हुए बिना नही रहेगा ऐसी मेरी श्रद्धा है।
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परिशिष्ट-१ श्रा० हरिभद्र के जीवनवृत्त का आधारभूत साहित्य १. अनेकान्तजयपताका-प्रस्तावना (अग्रेजी): लेखक श्री हीरालाल रसिकलाल
कापड़िया, प्रकाशक गायकवाड़ ओरिएण्टल सिरीज़, बड़ौदा। २. आवश्यकसूत्र-शिप्यहिता टीका (सस्कृत) : कर्ता हरिभद्रसूरि प्रकाशक आगमोदय
समिति, गोपीपुरा, सूरत । ३. उपदेशपदटीका (संस्कृत) . कर्ता मुनिचन्द्रसूरि, प्रकाशक श्री मुक्तिकमल जैन
मोहनमाला, वडोदा। ४. उपमितिभवप्रपंचाकथा-प्रस्तावना (अंग्रेजी): लेखक डॉ० हर्मन जेकोबी, प्रकाशक
एशियाटिक सोसाइटी ऑफ वेंगाल, कलकत्ता। ५. कहावली (प्राकृत) कर्ता भद्रेश्वरसूरि । (अप्रकाशित) ६. कुवलयमाला (प्राकृत) : कर्ता उद्योतनसूरि अपर नाम दाक्षिण्यचिह्न, प्रकाशक
सिंघी जैन ग्रन्थमाला, भारतीय विद्याभवन, बम्बई-७ । ७. गणधरसार्धशतक (सस्कृत) कर्ता सुमतिगणी, प्रकाशक झवेरी चूनीलाल
पन्नालाल, बम्बई। ८. गुर्वावली (संस्कृत) • कर्ता मुनिचन्द्रसूरि; प्रकाशक श्री यशोविजय जैन ग्रन्थमाला,
बनारस । ६. चतुर्विशतिप्रवन्ध (संस्कृत) : कर्ता राजशेखरसूरि; प्रकाशक सिंघी जैन ग्रन्थमाला,
भारतीय विद्याभवन, बम्बई-७ । १०. जैनदर्शन-प्रस्तावना (गुजराती) • लेखक प० श्री वैचरदास जीवराज दोशी, १२ व
भारती निवास सोसाइटी, एलिस ब्रिज, अहमदावाद-६ । जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास (गुजराती) लेखक श्री मोहनलाल दलीचन्द
देसाई; प्रकाशक श्री जैन श्वेताम्बर कॉन्फ्रन्स, पायधूनी, वम्बई-२ । १२. तत्त्वार्थसत्र (हिन्दी विवेचन) प्रस्तावना : लेखक प० श्री सुखलालजी, प्रकाशक
जैन सस्कृति सशोधक मण्डल, वाराणसी-५। १३. धर्मसंग्रहणी-प्रस्तावना (सस्कृत) : लेखक मुनि श्री कल्याणविजयजी, प्रकाशक
श्री देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, मूरत । १४. पंचाशकटीका (संस्कृत). कर्ता अभयदेवसूरि, प्रकाशक श्री जैन धर्म प्रसारक
सभा, भावनगर । १५. प्रभावकचरित्र (संस्कृत) : कर्ता प्रभाचन्द्रसूरि, प्रकाशक सिंघी जैन ग्रन्थमाला,
भारतीय विद्याभवन, बम्बई-७ । १६. प्रभावकचरित्र (गुजराती अनुवाद) प्रस्तावना : लेखक मुनि श्री कल्याणविजयजी,
प्रकाशक आत्मानन्द जैन सभा, भावनगर । १७, हरिभद्रसूरिका समयनिर्णय (जैन साहित्य सशोधक भाग १, अक १ मे प्रकाशित
निवन्ध) : लेखक मुनि श्री जिनविजयजी, अनेकान्तविहार, अहमदावाद-६ । १८. हरिभद्रसूरिचरित्र- (संस्कृत) लेखक प० हरगोविन्ददास त्रिकमचन्द सेठ, प्रकाशक
श्री यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, भावनगर । १६ समराइच्चकहा- प्रस्तावना (अग्रेजी ): लेखक डॉ. हर्मन जेकोबी, प्रकाशक
एशियाटिक सोसाइटी ऑफ वगाल, कलकत्ता।
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परिशिष्ट-२
प्राचार्य हरिभद्र के ग्रन्थों की तालिका * १. जिन ग्रन्थो के आगे + ऐमा जमा का चिह्न प्राता है वे अनुपलब्ध हैं, परन्तु
उनके नाम दूसरे ग्रन्थों मे मिलते है । २. जिन ग्रन्थो के साथ "प्राकृत" लिखा है वे प्राकृत भाषा के है; अवशिष्ट संस्कृत भाषा के।
आगम की टीकाएँ १. अनुयोगद्वार विवृति
५. जीवाभिगमसूत्र लघुवृत्ति +२. अावश्यक बृहत् टीका । ६. दशवकालिकटीका ३. आवश्यकसूत्र विवृत्ति
७. नन्द्यध्ययनटीका ४ चैत्यवन्दनसूत्रवृत्ति अथवा ललित- +८. पिण्डनियुक्तिवृत्ति ।
६ प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्या
विस्तरा
आगमिक प्रकरण, प्राचार, उपदेश १. अप्टकप्रकरण
८. लघुक्षेत्रसमास या जम्बूद्वीप२. उपदेशपद (प्राकृत)
क्षेत्रसमासवृत्ति ३. धर्मबिन्दु
+६ वर्गकेवलिसूत्रवृत्ति ४. पंचवस्तु (प्राकृत) (स्वोपज्ञ संस्कृत १०. बीस विशिकाएं (प्राकृत) ____टीका युक्त)
११. श्रावकधर्मविधिप्रकरण (प्राकृत) ५. पंचसूत्र व्याख्या
१२. श्रावकप्राप्तिवृत्ति ६.पंचाशक (प्राकृत)
१३. सम्बोधप्रकरण (प्राकृत) +७. भावनासिद्धि
१४ हिंसाष्टक (स्वोपज्ञ अवचूरियुक्त) * योगशतक परिशिष्ट ६ के आधार पर, कतिपय परिवर्तनो के साथ ।
श्री वीराचार्य-रचित पिण्डनियुक्ति टीका की प्रारम्भ की उत्थानिका मे स्वय श्री वीराचार्य के द्वारा किये गये उल्लेख के अनुसार ऐसा ज्ञात होता है कि आ० हरिभद्र ने पिण्डनियुक्ति की स्थापनादोप' तक की वृत्ति लिखी थी, और अवशिष्ट ग्रन्थ की वृत्ति दूसरे किसी वीराचार्य ने पूर्ण की थी। वे मूल श्लोक इस प्रकार हैं:--
पचासकादिशास्त्रव्यूहप्रविधायिका विवृतिमस्या. । पारेभिरे विधातु पूर्व हरिभद्रसूरिवरा ॥७॥ ते स्थापनाख्यदोप यावद्विवृति विधाय दिवमगमन् । तदुपरितनी च कश्चिद्वीराचार्य. समाप्येपा ॥८॥
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[१०६ दर्शन १. अनेकान्तजयपताका
८. न्यायप्रवेशटीका (स्वोपज्ञ टीका युक्त)
+६. न्यायावतारवृत्ति २ अनेकान्तवादप्रवेश
१०. लोकतत्त्वनिर्णय +३. अनेकान्तसिद्धि
११. शास्त्रवार्तासमुच्चय +४. प्रात्मसिद्धि
(स्वोपज्ञ टीका युक्त) ५ तत्त्वार्थसूत्र लघुवृत्ति
१२. षड्दर्शनसमुच्चय ६. द्विजवदनचपेटा
१३. सर्वज्ञसिद्धि (स्वोपज्ञ टीका युक्त) ७. धर्मसंग्रहणी (प्राकृत) +१४. स्वाद्वादकुचोद्यपरिहार
योग १. योगदृष्टिसमुच्चय (स्वोपज्ञ टीका युक्त) २. योगविन्दु ३. योगविशिका (प्राकृत) (बीस विशिका के अन्तर्गत) ४. योगशतक (प्राकृत) ५. पोडशकप्रकरण
कथा १. धूर्ताख्यान (प्राकृत) २. समराइच्चकहा (प्राकृत)
ज्योतिष १. लग्नशुद्धि-लग्नकुंडलिया (प्राकृत)
स्तुति १. वीरस्तव २. संसारदावानल स्तुति (संस्कृत-प्राकृत भाषाद्वयात्मक)
आ. हरिभद्र के नाम पर चढ़े हुए ग्रन्थ इनके अतिरिक्त अधोलिखित ग्रन्थ प्राचार्य हरिभद्र के नाम चढे हुए है, परन्तु इसके निर्णय के लिए अधिक प्रमारणो की अपेक्षा रहती है :१ अनेकान्तप्रघट्ट १०. नारगायत्तक १६ यतिदिनकृत्य २. अर्हच्चूडामणि ११. नानाचित्तप्रकरण २०. यशोधरचरित्र ३. कथाकोष
१२. न्यायविनिश्चय २१. वीरागदकथा ४ कर्मस्तववृत्ति १३. परलोकसिद्धि २२. वेदवाह्यतानिराकरण ५ चैत्यवन्दनभाष्य १४ पंचनियंठी २३. संग्रहरिणवृत्ति ६. ज्ञानपंचकविवरण १५. पंचलिंगी
२४. संपंचासित्तरी ७. दर्शनसप्ततिका १६ प्रतिष्ठाकल्प २५. संस्कृत आत्मानुशासन ८. धर्मलाभसिद्धि १७. बृहन्मिथ्यात्वमथन २६. व्यवहारकल्प ६. धर्मसार
१८. बोटिकप्रतिषेध
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प्रगुत्तरनिकाय १८ पाटि
अतगड ३० पा. टि. अकाम धर्म १४
अक्कत्यली ३४ पा टि
प्रक्षपाद ४०
अखाना छप्पा ६८
अखेद ८८
शब्द सूची
अग्निकल्प २१
अग्रवाल वासुदेवशरण, डॉ. ६ पा. टि.
अजगरचर्या ६४
अज्ञान ८६, १०१ - की वृत्ति ८० अणुव्रत ७४
अतिथि ७४
अदृष्ट-तत्त्व ४८
अद्वैत २३,८८,१०१, - देशना ५६, वादी ६६, शाकर ४७
ब्रह्म
अध्यात्म १००, शास्त्र ६०; साधना ३१ पाटि, ८०
श्रध्यात्मविचारणा २३ पा. टि, ३१ पा. टि,
४८ पा. टि.
श्रनात्मवादी भावना १०२
अनासक्ति ५६
परिग्रह ७४
पुनर्वन्धक ७३ पोस्पेयत्ववाद १७
श्रनुमान ज्ञान ६१
श्रनुशासनपर्व ६२ पाटि, ६६ पा. टि
श्रनुष्ठान ८८
प्रनुस्रोतोवृत्ति ८३, ८६
श्रनेकान्तजयपताका १३ पा टि., ४८
पा. टि
श्रनेकान्तवाद ३३
अनेकान्तवादप्रवेश ३ पा टि
- अभिधर्मकोप ८७ पा. टि अभिधर्मदीप ८७ पा टि. अभिधर्मसमुच्चय ४२ पा. टि अभिधानराजेन्द्र ६७ पा. टि
अभ्यकर के. वी, प्रो. ६, ७६
अभिनिवेश २, ३
अरवल्ली २ पा टि.
अरविन्द ८५
रियपरियेसनसुत्त ६२पा. टि., ६८ पा. टि. अर्थशास्त्र २८ पा टि
अर्हन् ६१
अवधू ६५
अवधूत ६१, ६३, ६६, -परम्परा ६५, ८२, - मार्ग ४६, ६७ अवधूतगीता ६५ अविद्या ८६
प्रवेद्यसवेद्य ८५
प्रवैदिक दर्शन ४५-४७, ४६
अशोक २६-३१, ३३, ३८, ३६, का शिलालेख २७ पाटि, २६-३० पा. टि, की धर्मलिपि ३१ - के धर्मशासन ३६
प्रशोकना शिलालेखो २६ पा. टि, ३६ पा टि.
अशोकचरित ३१ पा. टि.
अश्वघोष ६६ पा. टि
अप्टक १३ पा टि.
भ्रष्टकप्रकरणवृत्ति ३४ पा टि
प्रसग ४२
असगानुष्ठान प
असत्यनिवृत्ति ७४ असम्प्रज्ञातभूमिका १०१ सम्मोह ६२
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________________
[१११
अहिंसा २५, २८, ६७, ७४
उज्जयिनी ३० पा. टि. आगम ७२,-ज्ञान ६२
उत्तराध्ययन (सूत्र) २३ पा. टि., ३० पा. टि. याचाराग (सूत्र) २३ पा टि , २४ पा.टि., ७६ पा. टि ६२ पा. टि., ६५, ६८ पा टि.
उदयपुर ८ आजीवक-परम्परा १७, ६६,-श्रमण सघ ६८ उद्दक रामपुत्त ६६ आठ दृष्टिनी सज्झाय १०४
उद्योतनसूरि ८, ६ पा टि प्राडावला २ पा. टि.
उद्धव ४६ आत्मतत्त्व २४
उपदेशपद ६ पा टि., १२ पा, टि, आत्मद्रव्य १०३
१३ पाटि आत्मपरीक्षा ५८ पा. टि.
उपधानश्रुत ६२ पा. टि. प्रात्मा ४८, ४६, ५६, ८०, १८, १०३ उपनिपद् २८, ८५ प्रात्मानन्दप्रकाश ३३ पा. टि.
उपसम्पदा ७५ आत्मौपम्य २३
उपासना-मार्ग २ प्राध्यात्मिकवाद ४८
उमास्वाति ७२ पानर्त २६
ऋषभ ५७, - अवधूत ४६ पा. टि. - देव आनन्दघन ६५, ६६ पा. टि, १०४ मानन्दघनजीना पदो ६६
ऋपभचरित ६२ पा टि मानन्दपुर ३४
ऋद्धिमागरजी ७७ पा टि आन्ध्र ३० पा. टि.
एकतत्त्वाभ्यास ७० आर्य २०, २१
ऑस्ट्रिक २०, २५ श्रालारकालाम ६६
प्रोधनियुक्ति १२ पा टि आवश्यक १२ पा. टि ,-चूणि ८७ पा. टि., औपपातिकसूत्र ६२ पा. टि. --टीका १२ पा. टि , - नियुक्ति ११ कच्छ-भुज २ पा. टि. पा. टि.
कथा ३४ पास्तिक ४८, ४६,-दर्शन ४३,-परम्परा कथापद्धतिना स्वरूप अने तेना साहित्यन
दिग्दर्शन ३६ पा. टि इच्छायोग ८१, ८४
कपिल ५६, ६१ इन्दुकला झवेरी, डॉ. ७७
कवीर ६५ इन्द्रीय ७०, ८३, ८४,-वैगुण्य ८६ कवीरवचनावली ६६ पा. टि. इस्टर्न रिलीजन एण्ड वेस्टर्न थॉट ६१ पा. टि. कमठप्रसग ६७ पा. टि ईश्वर २७, ५५, ७०, ६३, ६४, अनादि- कमलशील ५१, ५२, १०१, १०३
मुक्त ६४,-साधना मे अनुग्राहक ६४ करुणा ७० ईश्वरकर्तृत्ववाद ५४, ५५
कर्णाटक २ ईश्वरप्रणिधान ७०
कर्तृत्ववाद ५५ ईश्वरप्रणीत १८;-त्ववाद १७
कर्तव्य-सामाजिक १००
४८
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११२]
कर्म २५, ५३, ५४, ८६, - काम्य ८६, का सन्यास ८६, – का स्वरूप, जैन दृष्टिसे ५३,–तत्त्व ५६, -द्रव्य ५४, नियत ८६, - निरपेक्ष कर्ता - ईश्वर १३ - प्रकृति ५६; ६६, भाव ५४,
G
• वाद २४, ५३, ५४,
५६, - शक्ति ७०,
सापेक्ष कर्ता
ईश्वर ६३
कर्मकाण्ड ४८
कर्मयोग ७०, ७३ कर्मानुष्ठान, अनिवार्य ८ कलकत्ता विश्वविद्यालय ८३ कल्पसूत्रस्थविरावली ६ पाटि
कल्याणविजयजी १०, १३ पा. टि, १६ पाटि
कहावली ५, ७, १३ पा. टि., १४, १५, १६ पा टि.
काकचर्या ६४
Work
1
कान्हडदेप्रवन्ध ३४ पा टि
कापडिया, मोतीचन्द गि. ६६ पाटि
काम्य कर्म ८६
कायक्लेश ६३
काल ६५
कालकाचार्य ३० पा टि.
कालातीत ८२
काव्यानुशासन ४, १६ पा. टि, २८ पा. टि., २६ पाटि, ३० पा. टि, ३४ पा. टि., १०४ पा टि
काशिका व्याख्या ४८
काशी २, कोसल २६
काश्मीर ८३
किरात २०
किल्हॉर्न ३, १० पा. टि, ११ पा. टि. कुतर्क ८६, ६२, ६३, -वाद ८६, ६२ कुमारपाल १६ कुमारपालचरित्रसग्रह ७ पा टि. कुमारिल ५६, १०३
कुरु-पाचाल २६
कुवलयमाला ८६ पा. टि., ११ पा. टि.
३४ पा. टि
कुशल चित्त ७५
कुशल मार्ग ७५ कूटस्थनित्यता १०१
कृष्ण २७, ४६, ७१ पा. टि. केशो लक्ष्मण छत्रे ६ पा. टि. कौमारिलदर्शन ४५
क्रिया ७०
१०२ - की निवारण ७५,
क्लेश ७०, ७१, ८६, १०१, वृत्ति ८० - चक्र ८६ - १०२ - भूमि ३८, - मल ८६,- - वृत्ति सवीज १०१, आवरण ८७ पाटि, ६६ क्षणिक ज्ञानसन्तति १०३ क्षणिकता की भावना १०२ क्षणिकवाद ५७
क्षयोपशम ८६
कुण्ड
ख्यात ७ पा. टि
गंगा ७
गगेश-शैली ५२
गरणवर ६७
गरणधरवाद ६५ पा टि. गणधर सार्धशतक ६ पाटि, ७ गायकवाड ओरिएण्टल सिरीज़ ५० गायचर्या ६४
गिरिनगर २७ - २६, ३२, ३४ गिलगिट ८३
गीता ८,८६,६२
गुजरात १-४, २६-३१, ३३, ३४ गुजरातनी कीर्तिगाथा २८ पा. टि गुजरातनी राजधानी २ पाटि, ३४पा टि. गुजरातनु संस्कृत साहित्य - ए विषय थोडक रेखादर्शन ४
गुजरातनो सास्कृतिक इतिहास २५ पाटि, २७-२८ पाटी, ३२ पाटि, ३४ पा टि गुजरात विद्यासभा ७७
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________________
[११३
गुजराती साहित्य परिषद् ४, २२ पा. टि. जप ७० गुरण चित्तगत ७०
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति १२ पा. टि, ६४ पा. टि. गुणमति ३२, ३३
जम्बूविजयजी ३३ पा. टि. गुणरत्न ४३
जयपुर ८ गुणस्थान ८८, १००
जावालिपुर ३४ गुरु ७४,-वर्ग, माता, पिता आदि ६६ जिन ४४ गोशालक ६७-६६
जिनदत्तसूरि ११, १४ गोपेन्द्र ८१, ८२, ६५
जिनभद्र २, १४, ३० पा. टि., ३३ गौतम, दि बुद्ध १८ पा. टि
जिनविजयजी ८-१० घोषक ५१ पा. टि.
जिनेश्वरसूरि ३४ पा. टि. चउप्पन्नमहापुरिसचरिय ६४ पा. टि., जीव ८०, ६७, बहुत्ववाद ६६ ६६ पा. टि., ६७ पा. टि.
जीवाभिगम १२ पा. टि. चतुर्विशतिप्रबन्ध ६ पा. टि.
जेकोबी ३, ६ चन्द्रगुप्त २८, २६
जैन आगम ३० पा. टि., ६६, ६७, ७६, चर्मचक्षु १०
७८,-साहित्य चातुर्वर्ण्य २१
जैन दर्शन ३३, ४६, ४७ चारित्र ३३, ७३
जैनधर्म ३० पा. टि. ३२ पा. टि.-पथ ३० चारिसजीवनीचार दृष्टान्त' ६६, १०० जैन परम्परा २, ६, ११, १२, १६, १७, २७, चार्वाक ४३, ४४;-दर्शन ४६, ४७,- २८, ३० पा. टि., ३१, ३२, ३४, ३७,
भूतवादी ५३, -मत ४४, ४७, ५४ ४४,४७, ४६, ५१, ५४, ५६, ६३, ६५, चित्त ६६, १०१,- का विलय १०१,-का ७२, ७४, ८८, ८६, ६६, १००, १०१ विसर्जन १०१,-तत्त्व ८०,-वासना ५३;- जैन साहित्य सशोधक (पा टि. वृत्ति अक्लिष्ट १०१,-वृत्ति क्लिप्ट
जैमिनीयमीमासा ५६ १०१,-वृत्तिनिरोध ७५, १०१;-शक्ति
जैसलमेर ५० पा. टि. ५३;-सन्तति क्षणिक १०१
जोधपुर ८ चित्तौड ६, ७, ११, १४
ज्ञान ७०, ६२, -निरावरण १०१, - योग चित्रकूट ६, ७ पा. टि
७०, ७३, - विवेकजन्य ७१, - सन्तति
क्षणिक १०३ चित्रागद ७
ज्ञेयावरण ८७ चीन ८३
ज्योतिष ३४ चूलदुक्खखंधसुत्त ६८ पा. टि.
झवेरी इन्दुकला ही., डॉ०., ४० पा टि. चेटर्जी सुनीतिकुमार, डॉ० २० पा. टि,
ठक्कर वसनजी माधवजी व्याख्यानमाला १ २२ पा. टि. २५ पा. टि.
तक्षशिला २६ चेतन ८०, ८६, १०३
तत्त्व-प्रतीन्द्रिय ९८ चैत्यवन्दन १२ पा. टि., ७२;-विवरण तत्त्वज्ञान २१, २२, २७, २८, ३६, ६६, ३४ पा. टि.
७०, ७२, ६३ ;-की परम्परा ८६, ६०;जगत्कर्तृत्ववाद ५४
जैन १०१,-साख्य ४६
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________________
दिगम्बरीय परम्परा ३० पा टि. दिङ्नाग ४२ दुर्गाशकर (शास्त्री) १, ४, २८ पा. टि.,
६२ पा टि. दृष्टि-पाठ ८१, ८५, ८८,-पाठ क्लिष्ट
अक्लिष्ट प्रज्ञारूप ८७ पा टि,-पाठ मिया तारा आदि ८४,-अर्थात् तत्त्वलक्षी बोध
११४] तत्त्वसग्रह १६ पा. टि , ५०, ५१ ।। तत्त्वसग्रहपजिका ५१ पा टि., ५२ तत्त्वार्थाधिगमसूत्र ७२, ७५ तथता ६२ तप २८, ६१-६४, ६७, ६८, ७०,-अन्त
६८, बाह्य ६८,-स्थूल ६३ तपस्वी ३० पा टि., ६१, ६३, ६५,
जीवन ६७,-मार्ग ६७ तपोमार्ग ६७, ६८, ७२ तर्क ५५;-शास्त्र ६२ तांत्रिक ८६ तापस ६२ पा. टि., ६३, ६६, ६७,
जीवन ६७ तामली तापस ६२ पा. टि. तिव्वत ५०, ५२, ८३, १०२ तीर्थकर २७, ३० पा. टि ,६४, ६७, ७३, ६७ तृष्णा १०१ तैर्थिक ४६ त्याग ७३, ८६ त्रिशरण ३४ त्रिशिका ७६ त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरित्र ६४ पा. टि ,
६७ पा. टि. दत्त ६३, ६५,८८ दर्शन ३३, ३८, ३६, ४६, ८७, ८८,-प्रात्म- वादी ४४,-योग २४, ३३, - एवं योग परम्परा ४, ५, २६,३२, ३४, ३५, - एव योग के सम्भवित उद्भवस्थान १७, - एव योगधर्म १०५,-परम्परा ५२, ५६ दर्शन अने चिन्तन ३६ पा टि,,४१ पा. टि.,
४८ पा. टि दर्शन और चिन्तन २८ पा. टि. दाक्षिण्यचिह्न ८ दान ७४ दार्शनिक और योग परम्परा ३७ दास-दस्यु २० दाहोद २ पा टि.
देव ७४,-पूजा ६६ देशविरति ७४ देहदमन ६२, ६३, ६८ देहव्यापार १०१ देव ६५ द्रविड ३० पा. टि. द्रव्य कर्म ५४ द्राविड २०, २१, २५ द्वारका २७ दशभूमिशास्त्र ७१ दशवकालिक (सूत्र) १२ पा टि ,२४ पा टि.,
६७ पा टि, धम्मपद ७५ पा. टि धर्म २१, ३६, ७३,-अकाम १०४,-के वारे मे पारमाथिकता-व्यावहारिकता ९७,निवृत्ति-प्रवृत्ति ७५,-परम्परा १७, १८, २६, ५२,-भावना २५,-लोकोत्तर ७४,लौकिक ७३, ७४, - सगीति ८३;-सन्यास ८८,-सकाम १४,-सामाजिक ६६ धर्मकीति १०३ धर्मत्रात ५१ पा टि धर्मविन्दु १३ पा टि., ६६ धर्मशासन २६, ३८ धर्मसग्रह ४२ धर्मसग्रहणी २,७ पा टि., १२-१३ पा.टि ,
१६ पा. टि., ४८ पा. टि. धर्मानन्द कोसम्वी ६६ पा. टि. धवला ३० पा टि धूत अध्ययन ६५
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________________
धूतग ६५, - निद्दस ६५ पा. टि.
ध्यान २८, ३३, ६८, ७०, १००, १०२;मार्ग ६८, ६६, ७१, -योग ७०
ध्यानशतक ३३ पा., टि., ७७
ध्रुव आनन्दशकर बी. ४ ध्रुवात्मा ८६
नकुलीश पाशुपत दर्शन ९३
नगरी ६
नन्द २६
नन्दी ( सूत्र ) १२ पा. टि., ८७ पा. टि.
नय ३३
नयचक्र ३० पा टि., ३३
नलिनाक्ष दत्त, डॉ० ८३
नव्य-न्याय ५२
नागर जाति ३४
नागरी प्रचारिणी पत्रिका ६ पा टि.
नागार्जुन ४२, ५८ पा. टि नाभिनन्दन ऋषभदेव ६३
नालन्दा ५०; - विश्वविद्यालय १०२
नास्तिक ४८, ४६
निकाय ३६
नियति ६५
·
निरावरण ज्ञान १०१ निर्ग्रन्थ २८, - परम्परा ६६
निर्वारणतत्त्व ६०, ६२ निर्विकल्प समाधि १०२ निवृत्तिधर्म ७५ निवृत्तिमार्गी परम्परा
निशीथ ३० पा. टि.
निशीथ एक अध्ययन ३० पाटि, ३४ पा. टि निशीथचूरि ३४ पा. टि.
निपाद २०
नेनीटो २०
नेपाल ५०, ५२, ८३
नेमिनाथ २७
नैयायिक दर्शन ४५, ४७, ४८ नैरात्म्यदर्शन ८२ पा टि.
न्याय ६२, १०१
न्याय एव वैशेषिक दर्शन ४३ न्यायदर्शन ४६
न्याय - द्वात्रिंशिका ४१ पा. टि.
न्याय-वैशेषिक १७, ३१, ५४, - परम्परा
२७, २८
पचवस्तुटीका १३ पा. टि.
पंचाग्नि तप ६२ पा टि., ६६, ६७ पा. टि.
पचाशक १३ पा. टि.
पजिका टीका ५१
पतजलि ६, ७१, ७५, ८१, ८८, १०१, १०३ परिण २० पा टि.
पदार्थसंग्रह ४२
पद्मपुराण ६६पा टि.
पनवरणा १२ पा. टि
परदर्शन ३८
परधर्म ३८
परब्रह्म ९२
परपाषण्ड ३५
परमपुरुषार्थ ४५
परमसहिता ७६ पा टि
परमाणु और जीवबहुत्ववादी ६६
परमात्मा ६४
परलोक ४८
[ ११५
परवैराग्य ८४
परा दृष्टि ८५
परिणामिनित्यत्व १०१ परिव्राजक ६२ पा. टि., ६७
परीख रसिकलाल छो. २ पा. टि, ४, २८
२६ पा. टि.
पशुपति २७
पाचरात्र ७६ पा. टि.
पाटन ६ पा. टि, ५० पा टि
पाटलीपुत्र २५
पाणिनि ४८, ४६
पातजलदर्शन ८६
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________________
११६]
पातजल योगदर्शन और हारिभद्री योग
विंशिका ७७ पा. टि.
पातजल योगशास्त्र ७२
पार्श्वनाथ ६७, ७२
पाशुपत - आचार्य ८१ - दर्शन ५६; - परम्परा
८२
पासनाहचरिय ६७ पा. टि. पिटक १८,२६,७१
पिटर्सन ३
पिण्डनिर्युक्ति १२ पा. टि. पिलं पा टि.
पिवगुई वभपुरणी ६ पुण्यविजयजी ७७
पुनर्जन्म २४, ४८, ४६ पुराण २६, ६६, जैन ६३ पुराणोमां गुजरात २८ पा. टि. पुष्कर तीर्थ ६६ पा. टि
पुरुष ६५, १०३, -कार ६५ पुरोहित ७ - ब्राह्मण ४८
पूज्यपाद ७७
पूर्वमीमांसा २८,५६
पूर्वसेवा ६६
पोरवाल जाति १६
प्रभासपाटन २७
प्रमाणमीमांसा २८ पा. टि
प्रशस्तपाद ४२
प्रशस्तपादभाष्य २७ पा. टि.
प्रशान्तवाहिता ८६
प्रस्थान - वार्तिक, विवरण एव वाचस्पति ४७
पा. टि.
प्रस्थानभेद ४४-४६
वुद्ध १५, १६, २७-३१, ५७, ५८, ६७-६६, ७२, की तपश्चर्या ६२ पर टि
बुद्धघोष ७१
वुद्धचरित ६६ पा टि.
वुद्धचरित ( धर्मानन्द कोसम्बीकृत ) ६८
पा. टि.
बुद्धदेव ५१ पा. टि.
बुद्धि ६२, वाद ५५ वुद्धिप्रकाश २२ पा. टि.
प्रकाशानन्द २
बुद्धिसागरसूरि जैन ज्ञानमन्दिर ७७ पा.टि. वुद्धिसागराचार्य ३४ पा. टि.
प्रकृति ६६, - कारणवाद ५६, -वाद ५६
प्रकृति - पुरुषद्वैतवाद ६६
वृहत्कल्प ३० पा टि. वृहदारण्यकोपनिषद् २३ पाटि
प्रज्ञा १०२
बोध ८५
प्रज्ञापारमिता १०२ प्रतिस्रोतोवृत्ति ८३, ८६
वोधायन २८ पा. टि.
प्रवन्धकोष ६ पा टि.
वोधिचर्यावतार ३३ पा. टि., ७१ वोविसत्त्व ६, १०३
प्रभाचन्दसूरि ६ पा. टि.
प्रभावकचरित्र ६ पाटि, ७, १४ पा टि, बौद्ध १०१; - दर्शन ३३, ४६-४८, ८६,
१६ पा. टि, ३० पा. टि
धर्म ३०, ३२ पाटि, ३६, - निकाय ३६, - परम्परा १४, ३२, ३४, ३७, ४६-५१, ५८, ६५, ६६, ७२, ८१, ६६ - मत ४४, ४७, ५३; सस्कृति २६ पा टि बौद्धाचार्य ८१
प्रभारणसमुच्चय ४२ प्रवृत्तिधमं ७५
प्रीति ७३
वभपुरणी ६
बत्तीसी १०५
बम्बई विश्वविद्यालय १
बहिरर्थवाद ४८
वापूदेव शास्त्री १० पा. टि.
वादरायण ४०
विहार २६
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________________
[११७ ब्रह्म २२, २३, १०३, तत्त्व २४, ५६;-वाद भारतीय तत्त्वविद्या २७ पा. टि., ६४ पा.टि.
(औपनिषद) ५६;-वादी २४ । भारतीय दर्शन ३०, ४० ब्रह्म अने सम २२ पा. टि.
भारतीय परम्परा २४ ब्रह्मगुप्त ४
भारतीय प्राच्यविद्या परिषद् ८ पा. टि. ब्रह्मपुरी ६, ७
भारतीय विद्या ३० पा टि , ३३ पा. टि. ब्रह्मसिद्धान्त १० पा. टि.
भारतीय सस्कारोनु गुजरातमा अवतरण १, ब्रह्मसूत्र २३ पा. टि.
४, २८ पा. टि, ६१ पा. टि. । ब्रह्मा २७
भावकर्म ५४ ब्रह्माद्वैत ५६, ६०, १०३
भावना १००; - मैत्री आदि ७०,७४, ७५ ब्राह्मण ग्राम ८
भास्करबन्धु ८१, ८८ ब्राह्मणत्वजाति ४८,४६
भास्करराय २ ब्राह्मण परम्परा १०,३८, ५१, ६०
भिक्षु ६२ पा टि. ब्राह्मण-श्रमण १०५,-परम्परा ४० भिन्नमाल २ पा टि, ४, ३४ व्हय लर ३
भूत ६५,-स्वभाववाद ५३ भक्ति ५५, ७०, ७३,-तत्त्व ६४;-भावना भोग ८३, ८५,-प्रवाह ८३ १००,-योग ७०
भोगाभिमुख ८३ भगवती (सूत्र) ६२ पा. टि., ६६ पा. टि., मगोल २० ६८ पा. टि
मगध २६, ३३ भगवतीसार ६८ पा. टि.
मण्डन सूत्रधार ८पा टि. भगवद्गीता २३ - २४ पा. टि., ६८ मणिलाल नभूभाई ३; - साहित्यसाधना पा, टि., ७१
३ पा. टि. भगवद्दत्त ८१
मज्झिमनिकाय ६२ पा टि , ६८-६९ पा. टि. भट्टि २,४
मज्झिमिया ६ पा. टि. भदन्त ८१
मथुरा २६, ३३ भद्रेश्वर ५, १३ पा. टि.
मधुसूदन सरस्वती ४४, ४६ भर्तृहरि ६१
मध्यमककारिका ५८ पा. टि. भवविरह १३-१५
मध्यमिका ६, ७ भवविरहसूरि १३ पा. टि , १५
मन ७०,-क्लेशो का धाम १०२ भवाभिनन्दिता ६५
मनुस्मृति ३१, ४६ पा टि., ८६ भागवत ४६,६४ पा. टि,-परम्परा ६, २७,
मनोनिलयवादी १०२ -पुराण ६३
मल ३८,७०, १०१, राग, द्वेष, प्रज्ञान ८४ भाट्टदर्शन ४५
मल्लवादी ३० पा टि., ३३ भाण्डारकर डी आर, डॉ २२ पा. टि, २५ महाक्षत्रप राजा रुद्रदामा २८ पा टि. पा टि., ३१ पा. टि.
महादेव २५, ६१, ६२, ६५, ६७ भारत २५, २६, ६७, ८३,-भूमि २३,१०५; महाभारत २६, ४६, ६२ पा. टि, -वर्ष १६
६६, ७१ पा टि , ८५, ८६, ६५ भारत (महाभारत) ४५, ४६
महायान ६६,- परम्परा ७१, ७५
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________________
११८ ]
महावस्तु ८३
महावीर २७, २८, ५७, ६२ पा. टि, ६५,
६७-६६, ७२ महाव्रत ७४
महासच्चकसुत्त ६२ पाटि, ६६ पा. टि. महासीहनादसुत्त ६८ पा. टि.
महासुखवादी १०३
महिमनस्तोत्र ४४
महेता भरतराम भा, २६ पाटि, ३१ पा टि. महेश ६४
महेश्वर २७
माडवी (कच्छ) ७७
माघ ४
माधव सरस्वती ४२, ४७
माधवाचार्य ४२
मानवधर्मसार ३१ पा. टि
मागंल २५ पा. टि मालवा ३० पा टि.
माहरणकुण्ड
मिथ्यादृष्टि ४६
मिथ्याभिनिवेश ८६, ६२
मीमांसक १७, ५३, ५४ - दर्शन ४७
मुखर्जी, राधाकुमुद ६१ पा टि.
मुण्डकेवली ६७
मुनिचन्द्रसूरि ६ पाटि
मूर्तिपूजा २२
मृगचर्या ६४
मैत्रककालीन गुजरात ३० पा टि., ३२-३३ पाटि
मैत्री ७०
मोक्ष १४, ७३; - धर्म १५
मोक्षाभिमुखता ६५
मोह ८६ - ग्रन्थि ९६
मोहन-जो-डेरो २५ मौर्यशासन ३० पा. टि यदुवशी, डॉ ६१ पा टि.
- नियम ७०
यम ८८
यगोविजयजी, उपाध्याय २, ५२, ७६, ७७
पाटि १०४, १०५. याकिनी १३,
साध्वी ११
यज्ञ ४५
यदृच्छा ६५
यादववश २७
योग २४, ३१, ३३, ६०, ६१,६६, ७१, ७२, ७५, ७६, ८३, ८५, ८६, १०१, - अर्थात् चारित्र्य ३३, - का लक्षण चितवृत्तिनिरोध ७५, का लक्षण जैन परम्परा मे ७५, - का लक्षण वौद्ध परम्परामे ७५;चतुर्विध ७२, -चर्या ६२, न ७६, - तत्त्व ७८-८१, ८४, ८५ - परम्परा ११, १७, २३, २५-२८, ३१, ३५, ७२, ७३, ७८८१, ८६, पूर्ण ७५, - मार्ग ६६, ७२,
साधना
महत्तरा १२, १४, -
-
६०, ६८, १०२, -सन्यास ८८, २६, ६३, - साहित्य ६१ योगकारिका ७१ पा टि. योगदर्शन १०१ पा टि
योगदृष्टि ८६
योगदृष्टिममुच्चय ३ पा. टि, १३ पाटि ७६ पाटि, ७८-८६, ८८- ६३, १०३, १०४
योगविन्दु ३ पाटि, १३ पाटि, ७६ पाटि,
योगाचार्य ८
-
७८-८२, ६३-१०१, १०२, १०४ योगवासिष्ठ ८० पा. टि, १०३ योगवासिष्ठसार ८ पाटि
योगविशिका ७२, ७३, ७६, ७७ पा टि. योगशतक ४० पाटि, ७२-७७
योगशास्त्र ७१, ७८, ८३ - पातजल ७०, ७१, -साख्यानुसारी १०१
योगसूत्र ७० पाटि, ७५, १०३
गसेन ५१ पा टि. योयोगाग ८८
योगाचार परम्परा १०३
८१-८३, ८५
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________________
[११६
योगानुभवसुखसागर तथा श्री हरिभद्रकृत वाणिजगाम ८ योगविशिका ७७ पा टि
वादग्रन्थ १८ योगाभिमुख ८३,- ता ६५, ६६ वादद्वात्रिंशिका ४१ पा. टि , योगी ६१, ६५, ६७, १०२
वानप्रस्थ ६२ पा. टि. योग्यताभेद ८६
वास्तुराजवल्लभ ८ पा. टि. रतलाम २ पा. टि.
वास्तुविद्या ८ पाटि रथनेमि ३० पा टि.
विंशतिविशिका रागद्वेष ८६
विशिका ७६ राजशेखर ४२-४४, ४७, ४८
विग्रहव्यावर्तनी ५८ पा. टि राजशेखरसूरि ६ पा. टि
विजयेन्द्रसूरि २८ पा. टि. राजस्थान २६, ३० पा टि.
विज्ञानवाद ५७, ७६, १०३ राधाकृष्णन्, डॉ. १८ पा. टि.
विज्ञानवादी ५० रामानुज ४७
विदेहमुक्ति १०१ रामायण २६, ६२ पा. टि.
विन्तनित्स३ राहुल साकृत्यायन २६ पा टि.
विध्याद्रि २ पा. टि. रुचि ७३
विभाषाप्रभा ८७ पा टि रुद्र २५, २६,३१;-पूजा २५ '
विवाद ८६ रुद्रदामा ३१,- का शिलालेख ३१ पा 'टि. विवेकदष्टि ७३ ललितविस्तर १३ पा. टि.
___ . विशुद्धिमार्ग ७१ ललितासहस्रनाम २
विशेषावश्यकभाष्य ३० पा टि, ३३, ८७ लल्लिग १५, १६
पा.टि. लालभाई दलपतभाई भारतीय सस्कृति विद्या- विश्वसर्जन ६४, ६५ मन्दिर ७७
विष्णु २७, ४६ लोकतत्त्वनिर्णय ३ पा. टि, ८० पा. टि विष्णुधर्मोत्तर २२ पा. टि. लोकपक्ति ६७
विसभागपरिक्षय ८९ लोकसज्ञा ७३, ६८
विसुद्धिमग्ग ६५ पा टि. लोकाराधन धर्म ९७
वीतराग ७०, ६४;-ध्यान ७० लोथल २५
वीरनिर्वाणसवत और जैन कालगणना ३३ लॉयमान ३
पा टि. वज्रयान शाखा १०३
वीरभद्र १४ वडनगर ३४
वीरस्तुति ४१,-द्वात्रिंशिका ४१ पा टि. वलभी ४, ३० पा. टि., ३२-३४ वृत्तिसक्षय १००, १०१ वसुदेवहिण्डी ६४ पा टि., ६६ पा, टि, वेद ४५, ४८, ४६,-प्रामाण्य ४५; वादी ४६ वसुवन्वु ७६, ८७ पा. टि.
वेदान्त ४६, ४७, ६६, दर्शन ४७ वसुमित्र ५१ पा. टि वस्तुपाल २ पाटि.
वेदिक एज १९-२० पा. टि, २२ पा. टि. वाडीपार्श्वनाथ का भण्डार ५० पा. टि. वेधसवेद्य ५५
वेदान्ती १०१
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१२०] वैदिक - आर्य २०,-कर्म ४६; - दर्गन ४४, ४५, ४७, ४६,- परम्परा ६, २८, ३२, ३४, ३७, ४६, ५०,-परम्परा मे, ब्रह्मचर्य आदि चार आश्रम ७३,- वाड्मय २६,विद्या ४४ वैभाषिक ५० वैराग्य ८३, ८४ वैशाली ८ वैशेषिक १०१,-दर्शन ४५, ४७ वैष्णव-धर्म २७, ३०, - परम्परा २७,
२८,-भागवत २८ व्रत ६८ व्याकरणशास्त्र ३१ व्यास ४५, ४६ शकर भट्ट ७ शकराचार्य ४२ शम्बूक तापस ६२ पा टि. शरणागति ५५ शलातुर २६ गाकर अद्वैत ४७ शाकरभाष्य २३ पा टि. शान्तरक्षित ५०-५४, ५६, ५६, १०३ शान्तिदेव २, ३३, ४२ शान्तिपर्व ७१ पा. टि , ६५ पा. टि. शालिवाहन शक १०-११ पा टि. शास्त्र ७६, ८८,६१,-योग ८१, ८४,८५,
-श्रवण ८५ शास्त्रवार्तासमुच्चय १३ पा टि., ३८, ४८ पा टि ४६, ५२, ५४-५७ पा. टि., ५६,
११० ११ १ २ ६४ पा टि , ६५ शास्त्री हरिप्रसाद, डॉ. ३२ पा. टि., ६१
पा. टि. शास्त्री हीरानन्द ७ पा टि. शिक्षासमुच्चय ३३ पा टि , ४२ प टि., शिव २५, ३१ शिव तापस ६२ पा टि. शिववर्त्म ८६
शील ७१ शुबिग ३ शुभगुप्त ५१ पा. टि. शून्यवाद ५०, ५७, १०३ शंव-प्राचार्य ८१,-प्रागम ४५,-दर्शन ८६, ६३;-धर्म ३०,-परम्परा २७, २८, ८२, -पाशुपत परम्परा ७८, ८१-भागवत २८,- मत ६१ पा टि. शवधर्मनो सक्षिप्त इतिहास २७ पा. टि. श्रद्धा ७३ श्रमण ६७, -धर्म ६६,-परम्परा ३८, ५६,
६०-मार्ग २६ श्रीमद्भागवत ६२ पा. टि श्रीमाल २ पा टि. श्रुति ४५ श्रेय ७५ श्वेताम्बर २ श्वेताश्वतर उपनिषद् ६५ षड्दर्शनसमुच्चय ३ पा. टि ; ३८, ४०-४४,
४७-४६,५६ षोडशक १३ पा. टि., ७८ सक्लेश ६० सघभद्र ५१ पा. टि सन्यास ८८, ८६;-कर्मका ८६ सवर ६६, ७२ ससारदावानलस्तुति १३ पा टि सकाम धर्म १४ सतपुडा २ पा टि. सत्त्व ६७ सत्य ३८,६८ सत्समागम ८५ सदनुष्ठान ६२ सदाशिव ६२ सन्मतितर्क ९५ पा टि सम २२, २३ पा टि.;-वादी २५;-वृत्ति २५ सम प्रास्पेक्ट्स ऑफ इण्डियन कल्चर २२
पा टि, २३ पा टि समन २४ समन्तभद्र ५१ पा.टि.
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________________
[१२१
सुवाली ३
समराइच्चकहा ३ पा टि., ६ पा. टि. सिंहगणी (क्षमाश्रमण) २,३३ समाधि ६५, ६६, ७१, ७६ पा. टि., ८२ सुगत १६, ६१ . समाधिराज ७१, ८२,८३
सुदर्शन सरोवर २८ समाधिशतक ७७
सुमतिगणी ६ पा. टि. समाधिशास्त्र ७१ सम्प्रज्ञात भूमिका १०१
सूत्रकृताग २४ पा टि. सम्बोधप्रकरण १३ पा. टि,
सूत्रसमुच्चय ३३ पा. टि, ४२ सम्बोधप्रज्ञा १०२
सूरत शहर २ सम्यग्दृष्टि ७३, ६६
सृष्टि ६५,-भेदप्रधान ५६,-प्रक्रिया २७ सर्वज्ञ १६, ६०, ६२, १०३,-प्राध्यात्मिक
पा. टि. तत्त्वज्ञ १०३;-प्रणीत १८
सोपारा २ पा टि. सर्वज्ञप्रणीतत्ववाद १७
सौत्रान्तिक ५० सर्वदर्शनकौमुदी ४२, ४७
सौभाग्यभास्कर २ सर्वदर्शनसग्रह ४२, ४४, ४६, ४७, ६३ ।।
सौराष्ट्र २ पा टि., २६, २८ पा. टि., ३०, सर्वविरति ७३
३२-३४ सर्वसन्यास ८८
स्थविरमार्गी ७१ सर्वसिद्धांतप्रवेशक ४१, ४२, ४४ ।
स्थिरमति ३२, ३३ सर्वसिद्धान्तसग्रह ४२, ४४,४५-४७ साख्य ६५, ६६, १०१-तत्त्वज्ञान ४६,
स्मृति ४५ १०१-दर्शन ४७; पक्ष ४५-परम्परा
स्वपाषण्ड ३८ २७, २८;-परिव्राजक ६६,- मत ५६,
स्वभाव ९५ योग परम्परा ८,८१, १०१, - योगाचार्य
स्वयम्भूस्तोत्र २४ पा, टि., ६४ पा. टि., ६८ ५२,-विचारसरणी २७
पा. टि. सागयोगदर्शन ७२
स्वाध्याय ७० साडा त्रण सो गाथानु श्री सीमन्धर जिन
हठयोग ८४ स्तवन ७६ पा. टि
हडप्पा २५ साधक ६५
हडप्पा अने मोहें जो दडो ६१ पा. टि. साधना ६०
हरि ४६ सामग्रीकारणवाद ६५
हरिभद्र २-१६, ३५, ३७, ३८, ४०, ४४, सामर्थ्य योग ८१, ८४, ८५
४७-४६, ५१-५५, ५७-५६, ६१, ७२साम्प्रदायिकताअने तेना पुरावाप्रोनु दिग्दर्शन ७६, ७८-१०५ ३६ पा टि
हरिभद्राज एज, लाइफ एण्ड वर्क्स : पा टि. सायरग-माधवाचार्य ४७
हरिहर भट्ट ६, १० सारनाथ का शिलालेख ३६ पा टि हिंसाविरमण ७४ सिद्धराज १६
हिन्दू सभ्यता ६१ पा टि. सिद्धसेन ४०, ४१, ६५
हिरण्यगर्भ७१ सिद्धात्मा ६२
हिस्ट्री ऑफ इण्डियन फिलोसॉफी ७६ पा. टि. सिन्थेसिस ऑफ योग ८५
हेमचन्द्र (सूरि) २, १६, १०४ पा. टि. सिन्धुप्रदेश २७
होशग १०२ सिन्धुसस्कृति २६, ६१
ह्य एनसांग ३२, ३४
-
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________________
शुद्धिपत्रक
पृष्ठ पक्ति २ १६
C
0
१२ १२
२४ ३१ २३
शुद्ध हरिभद्र के (ईसा-पूर्व दूसरी शती) ने मज्झिमिया उपदेशपद की प्रशस्ति परिशिष्ट १ रममारण मानाह सस्कृत या तद्भव सुनीतिकुमार चटर्जी विविध शक्तियो की अधिष्ठायक
२०
२६
प्रशुद्ध हरिभद्र ने (ईसा-पूर्व दूसरी शतीने) मज्ज्ञिमिया उपदेश की प्रशस्ति परिशिष्ट २ रमाण मानाई संस्कृत, तद्भव सुनीतकुमार चटर्जी विविध शक्ति की अधिष्ठापक p. 24 से दुट्टिच मे दुस्युय अहितिया निग्गज्ञा परिजात्तई धैरसुमुसा " च्छार्योजतो धनाड्य तक-पुरस्सर शिववर्त्य
१५
___ २५
p. 26
१४ २४ २१ __२८
३४
से दुद्दिट्ट च भे दुस्सुय अहिंसिया निग्गथा परिजाणइ थेरसुनुसा • च्छायार्जित धनाढच तर्कपुरस्सर शिववर्म
३१ २५ ३२ ११
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राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला प्रधान सम्पादक - पद्मश्री मुनि जिनविजय, पुरातत्त्वाचार्य
प्रकाशित ग्रन्थ
१. संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश १. प्रमाणमजरी, तार्किकचूडामणि सर्वदेवाचार्यकृत, सम्पादक - मीमासान्यायकेसरी __प० पट्टाभिरामशास्त्री, विद्यासागर ।
मूल्य-६.०० २. यन्त्र राजरचना, महाराजा-सवाईजयसिंह-कारित । सम्पादक-स्व० प० केदारनाथ ज्योतिर्विद, जयपुर ।
मूल्य-१७५ ३ महर्षिकुलवैभवम्, स्व० प० मधुसूदनोझा-प्रणीत, भाग १, सम्पादक-म० म० ___ प० गिरिधरशर्मा चतुर्वेदी।
मूल्य-१०.७५ ४. महर्षिकुलवैभवम्, स्व० प० मधुसूदनोझा प्रणीत, भाग २, मूलमात्रम् सम्पादक - १० श्रीप्रद्युम्न प्रोझा।
मूल्य -४०० ५ तर्कसंग्रह, अन्नंभट्टकृत, सम्पादक - डॉ जितेन्द्र जेटली, एम.ए, पी-एच. डी ,मूल्य-३.०० ६ कारकसंवघोद्योत, प० रभसनन्दीकृत, सम्पादक - डॉ० हरिप्रसाद शास्त्री, एम. ए, पी-एच डी।
मूल्य - १७५ ७. वृत्तिदीपिका, मोनिकृष्णभट्टकृत, सम्पादक-स्व प. पुरुषोत्तमशर्मा चतुर्वेदी, साहित्याचार्य ।
मूल्य - २.०० ८. शब्दरत्नप्रदीप, अज्ञातकर्तृक, सम्पादक - डॉ. हरिप्रसाद शास्त्री, एम. ए, पी-एच डी. ।
मूल्य -२०० ६. कृष्णगीति, कवि सोमनाथकविरचित, सम्पादिका - डॉ. प्रियवाला शाह, एम. ए., पी-एच.डी., डी लिट् ।।
मूल्य-१.७५ १०. नत्तसंग्रह अज्ञातकर्तृक, सम्पादिका - डॉ प्रियवाला शाह, एम. ए, पी-एच डी, डी लिद
मूल्य-१७५ ११ शृङ्गारहारावली, श्रीहर्षकवि-रचित, सम्पादिका-डॉ, प्रियवाला शाह, एम. ए, पी-एच.डी., डी लिट् ।
मूल्य-२ ७५ १२. रानविनोदमहाकाव्यम्, महाकवि उदयराजप्रणीत, सम्पादक-पं० श्रीगोपालनारायण ।
बहुरा, एम. ए. उपसञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर । मूल्य-२२५ १३ चक्रपाणिविजय महाकाव्य, भट्टलक्ष्मीधरविरचित, सम्पादक-प० श्रीकेशवराम काशीराम शास्त्री।
मूल्य - ३.५० १४. नत्यरत्नकोश(प्रथम भाग), महाराणा कुम्भकर्णकृत, सम्पादक-प्रो. रसिकलाल छोटा
लाल पारीख तथा डॉ० प्रियवाला शाह, एम. ए , पी-एच डी , डी. लिट् । मूल्य-३ ७५ १५ उक्तिरत्नाकर, साघसुन्दरगरिणविरचित, सम्पादक - पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजयजी, पुरा
तत्त्वाचार्य, सम्मान्य सचालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर । मूल्य - ४.७५ १६. दुर्गापुष्पाञ्जलि, म०म० पं० दुर्गाप्रसादद्विवेदिकृत सम्पादक -१० श्रीगङ्गाधर द्विवेदी, साहित्याचार्य।
मूल्य-४२५ १७. कर्णकुतूहल, महाकवि भोलानाथविरचित, इन्ही कविवर की अपर सस्कृतकृति श्रीकृष्ण
लीलामृतसहित, सम्पादक-प० श्रीगोपालनारायण बहुरा, एम ए., मूल्य-१५० १८ ईश्वरविलासमहाकाव्यम्, कविकलानिधि श्रीकृष्णभट्टविरचित, सम्पादक-भट्ट श्रीमथुरानाथशास्त्री, साहित्याचार्य, जयपुर । स्व पी. के गोडे द्वारा अग्रेजी मे प्रस्तावना सहित ।
मूल्य-११५० १६. रसदीपिका, कविविद्यारामप्रणीत, सम्पादक - ५० श्रीगोपालनारायण बहुरा, एम.ए.
मूल्य-२.०० २०. पद्यमुक्तावली, कविकलानिधि श्रीकृष्णभट्टविरचित, सम्पादक - भट्ट श्रीमघुरानाथ शास्त्री, साहित्याचार्य।
मूल्य -४०० २१. काव्यप्रकाशसङ्केत, भाग १ भट्टसोमेश्वरकृत, सम्पा०-श्रीरसिकलाल छो० पारीख, अग्रेजी मे प्रस्तावना एव परिशिष्ट सहित
मूल्य - १२०० २२ काव्यप्रकाशसङ्केत, भाग २ भट्टसोमेश्वरकृत, सम्पा०-श्रीरसिकलाल छो० पारीख,
मूल्य-८२५
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[ २ ]
मूल्य
४-००
४००
भाष्य
२३ वस्तुरत्नकोष, अज्ञातकर्ता क, सम्पा० - डॉ० प्रियवाला शाह । २४ दशकण्ठवघम्, प० दुर्गाप्रसाद द्विवेदिकृत, सम्पा० पं० श्रीगङ्गाधर द्विवेदी । मूल्य २५. श्री भुवनेश्वरीमहास्तोत्र, सभाष्य, पृथ्वीधराचार्यविरचित कवि पद्मनाभकृत, सहित पूजापञ्चाङ्गादिसवलित | सम्पा०प. श्रीगोपालनारायण वहुरा । मूल्य - ३.७५ २६. रत्नपरीक्षादि-सप्त ग्रन्थ- सग्रह, ठक्कुर फेरू विरचित, सशोधक - पद्मश्री मुनि जिनविजय, पुरातत्त्वाचार्य । मूल्य - ६.२५ विस्तृत भूमिका मूल्य - ७.७५ मूल्य - ५.२५
२७. स्वयंभू छन्द, महाकवि स्वयंभूकृत, सम्पा० प्रो० एच. डी वेलणकर । (ग्रेजी मे) एव परिशिष्टादि सहित २८. वृत्तजातिसमुच्चय, कवि विरहाङ्करचित, २६. कविदर्पण, श्रज्ञातकर्ता क,
मूल्य - ६.००
99
""
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21
३०. कर्णामृतप्रपा, भट्ट सोमेश्वरकृत सम्पा०- पद्मश्री मुनि जिनविजय । ३१. त्रिपुराभारती लघुस्तव, लघुपण्डितविरचित, सम्पा० ३२ पदार्थरत्नमञ्जूषा, प० कृष्ण मिश्रविरचिता, सम्पा० ३३ वृत्तमुक्तावली, कविकलानिधि श्रीकृष्णभट्ट कृत, स० पं० भट्टश्रीमथुरानाथ शास्त्री ।
मूल्य - २.२५ मूल्य - ३.२५ मूल्य - ३.७५
मूल्य - ३.७५ मूल्य - २.२५
साहित्यरत्न |
४१ कवीन्द्र कल्पलता, कवीन्द्राचार्य सरस्वतीविरचित,
चूडावत ।
४२ जुगलविलास, महाराजा पृथ्वीसिंहकृत सम्पा०
+3
39
३४. इन्द्रप्रस्थप्रवन्ध, सम्पा० डॉ० दशरथ शर्मा,
२. राजस्थानी और हिन्दी ३५. कान्हडदेप्रबन्ध, महाकवि पद्मनाभविरचित, सम्पा० प्रो० के वी. व्यास, एम. ए. 1 मूल्य - १२.२५ ३६. क्यामखां रासा, कविवर जान- रचित, सम्पा०-डॉ. दशरथ शर्मा और श्रीअगरचन्द मूल्य - ४.७५ ० - श्रीमहतावचन्द खारंड | मूल्य ३.७५ ३८. वांकीदासरी ख्यात, कविराजा वाकीदासरचित, सम्पा०० - श्रीनरोत्तमदास स्वामी, एम ए, विद्यामहोदधि ।
नाहटा
३७. लावा - रासा, चारण कविया गोपालदानविरचित, सम्पा०
मूल्य - ५.५०
३६ राजस्थानी साहित्यसंग्रह, भाग १, सम्पा० - श्रीनरोत्तमदास स्वामी, एम. ए. । मूल्य - २.२५ ४०. राजस्थानी साहित्यसंग्रह, भाग २, सम्पा० - श्रीपुरुषोत्तमलाल मेनारिया, एम. ए.,
-
33
"
-
मूल्य - २७५ सम्पा० श्रीमती रानी लक्ष्मीकुमारी
-
मूल्य - २.०० श्रीमती रानी लक्ष्मीकुमारी चूडावत ।
मूल्य - १.७५
४३ भगतमाल, ब्रह्मदासजी चारण कृत, सम्पा० - श्री उदैराजजी उज्ज्वल । मूल्य - १७५ ४४. राजस्थान पुरातत्त्व मन्दिरके हस्तलिखित ग्रंथोकी सूची, भाग १ | ४५. राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठानके हस्तलिखित ग्रथोकी सूची, भाग २ । ४६ मुहता नरगसीरी ख्यात, भाग १, मुहता नरणसीकृत, सम्पा० - श्री बद्रीप्रसाद साकरिया ।
मूल्य - ७५० मूल्य - १२.००
मूल्य - ८.५०
४७. "
"
२,
39
19
मूल्य - ६५० मूल्य - ८२५
४८. रघुवरजसप्रकास, किसनाजी आढाकृत, सम्पा० - श्री सीताराम लालस । ४६ राजस्थानी हस्तलिखित ग्रन्थ-सूची, भाग १, सं. पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय । मूल्य- ४५० ५०. राजस्थानी हस्तलिखित ग्रन्थ-सूची, भाग २ - सम्पा० - श्री पुरुषोत्तमलाल मेनारिया
-
एम ए, साहित्यरत्न । ५१ वीरवारण, ढाढी बादरकृत सम्पा० - श्रीमती रानी लक्ष्मीकुमारी चूडावत । मूल्य - ४५० मूल्य - २७५ ५२ स्व० पुरोहित हरिनारायणजी विद्याभूषण-ग्रन्थ-संग्रह-सूची, सम्पा० - श्रीगोपालनारायण बहुरा, एम. ए और श्रीलक्ष्मीनारायण गोस्वामी, दीक्षित ।
मूल्य - ६.२५
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________________
"
[ ३ ] ५३ सूरज प्रकाश, भाग १-कविया करणीदानजी कृत, सम्पा०-श्री सीताराम लालस ।
मूल्य-८.००
मूल्य - ६.५०
" मूल्य-६७५ ५६. नेहतरग, रावराजा वुर्षासह कृत - सम्पा-श्री रामप्रसाद दाधीच एम.ए. मूल्य - ४०० ५७ मत्स्यप्रदेश की हिन्दी-साहित्य को देन, प्रो मोतीलालगुप्ता एम ए.,पी-एच डी मूल्य-७०० ५८ वसन्तविलास फागु, अज्ञातकर्तृक, सम्पा०-श्री एम. सी मोदी। मूल्य -५५० ५६ राजस्थान में संस्कृत साहित्य को खोज - एस आर. भाण्डारकर, हिन्दी अनुवादक-श्री ब्रह्मदत्त त्रिवेदी, एम ए., साहित्याचार्य, काव्यतीर्थ
मूल्य-३.०० ६० समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र - श्रीसुखलालजी सिंघवी,
मूल्य-३०० प्रेसों में छप रहे ग्रंथ
सस्कृत १. शकुनप्रदीप, लावण्यशर्मारचित, सम्पा०-पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय । २. बालशिक्षाव्याकरण, ठक्कुर सग्रामसिंहरचित, सम्पा०-पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय । ३. नन्दोपाख्यान, अज्ञातकर्तक, सम्पा०-श्री वी जे. साडेसरा।। ४. चान्द्रव्याकरण, प्राचार्य चन्द्रगोमिविरचित, सम्पा०-श्री वी डी दोशी। ५ प्राकृतानन्द, रघुनाथकविरचित, सम्पा०-पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय । ६. कविकौस्तुभ, प० रघुनाथरचित, सम्पा०-श्री एम एन गोरे । ७ एकाक्षर नाममाला- सम्पा०-मुनि श्री रमणिकविजय। ८. नृत्यरत्नकोश, भाग २, महाराणा कुभकर्णप्रणीत, सम्पा०-श्री आर. सी. पारीख और
डॉ प्रियवाला शाह । ६. हमीरमहाकाव्यम्, नयचन्द्रसूरिकृत, सम्पा०-पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय । १० स्यूलिभद्रकाकादि, सम्पा०-डॉ० आत्माराम जाजोदिया। ११ वासवदत्ता, सुवन्धुकृत, सम्पा०-डॉ० जयदेव मोहनलाल शुक्ल । १२ पागमरहस्य, स्व०प० सरयूप्रसादजी द्विवेदी कृत, सम्पा०-प्रो० गङ्गाधर द्विवेदी।
राजस्थानी और हिन्दी १३. मुंहता नैणसीरी ख्यात, भाग ३, मुहता नरगसीकृत, सम्पा०-श्रीवद्रीप्रसाद साकरिया । १४. गोरा बादल पदमिणी चऊपई कवि हेमरतनकृत सम्पा०-श्रीउदयसिंह भटनागर, एम.ए.। १५. राठौडारी वंशावली, सम्पा०-पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय।। १६. सचित्र राजस्थानी भाषासाहित्यग्रन्यसूची, सम्पा०-पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय । १७ मीरां-बहत-पदावली, स्व० पुरोहित हरिनारायणजी विद्याभूषण द्वारा सकलित,
सम्पा०-पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय । १८ राजस्थानी साहित्यसग्रह, भाग ३, सपादक-श्रीलक्ष्मीनारायण गोस्वामी। १६. रुक्मिरणी-हरण, सायाजी झूला कृत, सम्पा०-श्री पुरुषोत्तमलाल मेनारिया, एम.ए.,सा रत्न। २० सन्त कवि रज्जव सम्प्रदाय और साहित्य, डॉ० व्रजलाल वर्मा। २१ पश्चिमी भारत की यात्रा, कर्नल जेम्स टॉड, अनु० श्रीगोपालनारायण बहुरा, एम ए २२. बुद्धिविलास, बखतराम शाहकृत, सम्पा०-श्रीपद्मधर पाठक, एम ए २३. प्रतापरासो, जाचीक जीवणकृत, सम्पा० प्रो० मोतीलाल गुप्त, एम ए, पी-एच डी
अंग्रेजी 24. Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts Part I, R.O.R.1.
(Jodhpur Collection), ed, by Padmashree Jin vijaya Muni,
Puratattvacharya 25. A List of Rare and Reference Books in the R.O.R.I., Jodhpur,
compiled by PD Pathak, MA विशेष - पुस्तक-विक्रेतायो को २५% कमीशन दिया जाता है।
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